शनिवार, 30 जनवरी 2021

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग १०५)

ध्यान का अगला चरण है—समर्पण
    
इन सभी सबीज समाधियों में क्रमिक रूप से मानसिक विकास भी होता है और परिष्कार भी, परन्तु मन तो रहता है। चित्त में निर्मलता आती है, परिशोधन भी होता है, परन्तु चित्त का विलय बाकी बचा रहता है। जीव और शिव में भेद करने वाली अहं की अन्तिम गाँठ अभी भी नहीं खुल पाती। यौगिक शक्तियाँ एवं सिद्धियाँ तो इन सभी समाधियों में क्रमिक रूप से प्रस्फुरित होती हैं, परन्तु इन सिद्धियों एवं शक्तियों का प्रकृति लय अभी भी बचा रहता है। इन समाधियों में आत्मतत्त्व की झलकियाँ  तो मिलती हैं, पर आध्यात्मिक साम्राज्य की प्रतिष्ठा होनी अभी भी बाकी रहती है।
    
इस गूढ़ रहस्य को अपनी सहज अनुभूति के स्वरों में ढालते हुए युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव कहा करते थे कि ध्यान कितना भी और कैसा भी क्यों न हो पर वह मानसिक क्रिया के अलावा और क्या है? इस ध्यान की परिणति जिस समाधि में होती है, उससे चित्त का परिष्कार होता है, चक्रों को पार करते हुए आज्ञाचक्र में अवस्थित हो गयी।
    
उनके ध्यान में महिमामयी माँ काली की दिव्य लीलाएँ विहरने लगी। भाव विह्वल श्रीरामकृष्ण देव की समाधि प्रगाढ़ हो गयी। परन्तु साकार से निराकार, सबीज से निर्बीज तक पहुँचना अभी भी बाकी था। तोतापुरी ने निर्देश दिया- आगे बढ़ो। श्रीरामकृष्णदेव ने कहा- माँ को छोड़कर? तोतापुरी ने कहा- हाँ, ज्ञान की तलवार लेकर काली के शतखण्ड करो और अखण्ड निराकार के धाम में प्रवेश करो। अनेकों प्रयास के बावजूद श्रीरामकृष्ण यह न कर सके। उनका निर्मल चित्त भी ध्यान की उच्चस्तरीय सूक्ष्मता से मुक्ति न पा सका। मनोलय न सध सका। मन के आँगन में, चित्त के अन्तःप्रकोष्ठ में चित्शक्ति की लीलाएँ चलती रहीं।
    
और तोतापुरी ने अपने हाथों में एक नुकीले पत्थर का टुकड़ा लिया और उससे भ्रूमध्य में आज्ञाचक्र को तीव्रतापूर्वक दबाया- और साथ ही उन्हें निर्देश दिया- पार करो अन्तिम बाधा, उठाओ ज्ञान की तलवार और भेदन करो चित्शक्ति, खोलो ब्रह्म की अनन्तता के द्वार। इस बार का निर्देश श्रीरामकृष्ण के अस्तित्व में व्याप गया। और फिर पल भर में सब कुछ घटित हो गया, वे परमहंस हो गए। शुद्ध, बुद्ध, नित्य-निरंजन, महामाया ने अपनी माया समेट कर उन्हें निर्बीजता में प्रवेश दे दिया।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १७९
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 Gita Sutra No 1 गीता सूत्र नं० 1

👉 गीता के ये नौ सूत्र याद रखें, जीवन में कभी असफलता नहीं मिलेगी 

🔶  सूत्र नं० 1

श्लोक-
योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय।
सिद्धय-सिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।


अर्थ-
हे धनंजय (अर्जुन)। कर्म न करने का आग्रह त्यागकर, यश-अपयश के विषय में समबुद्धि होकर योगयुक्त होकर, कर्म कर, (क्योंकि) समत्व को ही योग कहते हैं।

सूत्र –
धर्म का अर्थ होता है कर्तव्य। धर्म के नाम पर हम अक्सर सिर्फ कर्मकांड, पूजा-पाठ, तीर्थ-मंदिरों तक सीमित रह जाते हैं। हमारे ग्रंथों ने कर्तव्य को ही धर्म कहा है। भगवान कहते हैं कि अपने कर्तव्य को पूरा करने में कभी यश-अपयश और हानि-लाभ का विचार नहीं करना चाहिए। बुद्धि को सिर्फ अपने कर्तव्य यानी धर्म पर टिकाकर काम करना चाहिए। इससे परिणाम बेहतर मिलेंगे और मन में शांति का वास होगा। मन में शांति होगी तो परमात्मा से आपका योग आसानी से होगा। आज का युवा अपने कर्तव्यों में फायदे और नुकसान का नापतौल पहले करता है, फिर उस कर्तव्य को पूरा करने के बारे में सोचता है। उस काम से तात्कालिक नुकसान देखने पर कई बार उसे टाल देते हैं और बाद में उससे ज्यादा हानि उठाते हैं।

शुक्रवार, 29 जनवरी 2021

👉 पराये धन की तृष्णा सब स्वाहा कर जाती है

एक नाई जंगल में होकर जा रहा था अचानक उसे आवाज सुनाई दी “सात घड़ा धन लोगे?” उसने चारों तरफ देखा किन्तु कुछ भी दिखाई नहीं दिया। उसे लालच हो गया और कहा “लूँगा”। तुरन्त आवाज आई “सातों घड़ा धन तुम्हारे घर पहुँच जायेगा जाकर सम्हाल लो”। नाई ने घर आकर देखा तो सात घड़े धन रखा था। उनमें 6 घड़े तो भरे थे किन्तु सातवाँ थोड़ा खाली था। लोभ, लालच बढ़ा। नाई ने सोचा सातवाँ घड़ा भरने पर मैं सात घड़ा धन का मालिक बन जाऊँगा। यह सोचकर उसने घर का सारा धन जेवर उसमें डाल दिया किन्तु वह भरा नहीं। वह दिन रात मेहनत मजदूरी करने लगा, घर का खर्चा कम करके धन बचाता और उसमें भरता किन्तु घड़ा नहीं भरा। वह राजा की नौकरी करता था तो राजा से कहा “महाराज मेरी तनख्वाह बढ़ाओ खर्च नहीं चलता।” तनख्वाह दूनी कर दी गई फिर भी नाई कंगाल की तरह रहता। भीख माँगकर घर का काम चलाने लगा और धन कमाकर उस घड़े में भरने लगा। एक दिन राजा ने उसे देखकर पूछा “क्यों भाई तू जब कम तनख्वाह पाता था तो मजे में रहता था अब तो तेरी तनख्वाह भी दूनी हो गई, और भी आमदनी होती है फिर भी इस तरह दरिद्री क्यों? क्या तुझे सात घड़ा धन तो नहीं मिला।” नाई ने आश्चर्य से राजा की बात सुनकर उनको सारा हाल कहा। तब राजा ने कहा “वह यक्ष का धन है। उसने एक रात मुझसे भी कहा था किन्तु मैंने इन्कार कर दिया। अब तू उसे लौटा दे।” नाई उसी स्थान पर गया और कहा “अपना सात घड़ा धन ले जाओ।” तो घर से सातों घड़ा धन गायब। नाई का जो कुछ कमाया हुआ था वह भी चला गया।

पराये धन के प्रति लोभ तृष्णा पैदा करना अपनी हानि करना है। पराया धन मिल तो जाता है किन्तु उसके साथ जो लोभ, तृष्णा रूपी सातवाँ घड़ा और आ जाता है तो वह जीवन के लक्ष्य, जीवन के आनन्द शान्ति प्रसन्नता सब को काफूर कर देता है। मनुष्य दरिद्री की तरह जीवन बिताने लगता है और अन्त में वह मुफ्त में आया धन घर के कमाये कजाये धन के साथ यक्ष के सातों घड़ों की तरह कुछ ही दिनों में नष्ट हो जाता है चला जाता है। भूलकर भी पराये धन में तृष्णा, लोभ, पैदा नहीं करना चाहिए। अपने श्रम से जो रूखा−सूखा मिले उसे खाकर प्रसन्न रहते हुए भगवान का स्मरण करते रहना चाहिए।

📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1962

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग १०४)


ध्यान का अगला चरण है—समर्पण

जीवन को असल अर्थ देने वाली अन्तर्यात्रा विज्ञान के प्रयोग सूक्ष्म हैं। इनकी विधि, क्रिया एवं परिणाम योग साधक की अन्तर्चेतना में घटित होते हैं। इस सम्पूर्ण उपक्रम में स्थूल क्रियाओं की उपयोगिता होती भी है, तो केवल इसलिए ताकि साधक की भाव चेतना इन सूक्ष्म प्रयोगों के लिए तैयार हो सके। एक विशेष तरह की आंतरिक संरचना में ही अन्तर्यात्रा के प्रयोग सम्भव बन पड़ते हैं। बौद्धिक योग्यता, व्यवहार कुशलता अथवा सांसारिक सफलताएँ इसका मानदण्ड नहीं हैं। इन मानकों के आधार पर किसी को साधक अथवा योगी नहीं बनाया जा सकता। इसके लिए महत्त्वपूर्ण है—चित्त की अवस्था विशेष, जो अब निरुद्ध होने के लिए उन्मुख है। चित्त में साधना के सुसंस्कारों की सम्पदा से मनुष्य में न केवल मनुष्यत्व जन्म लेता है, बल्कि उसमें मुमुक्षा भी जगती है।
    
पवित्रता के प्रति उत्कट लगन ही व्यक्ति को अन्तर्यात्रा के लिए प्रेरित करती है। और इस अन्तर्यात्रा के लिए गतिशील व्यक्ति धीरे-धीरे स्वयं ही पात्रता के उच्चस्तरीय सोपानों पर चढ़ता जाता है। उसे अपने प्रयोगों में सफलता मिलती है। अन्तस् में निर्मलता, पवित्रता का एक विशेष स्तर हो, तभी प्रत्याहार की भावदशा पनपती है। इसके प्रगाढ़ होने पर ही धारणा परिपक्व होती है। और तब प्रारम्भ होता है ध्यान का प्रयोगात्मक सिलसिला। मानसिक एकाग्रता, चित्त के संस्कारों का परिष्कार, अन्तस् की ग्रन्थियों से मुक्ति के एक के बाद एक स्तरों को भेदते हुए अन्तिम ग्रन्थि भेदन की प्रक्रिया पूरी होती है। इसी बीच योग साधक की अन्तर्चेतना में ध्यान के कई चरणों व स्तरों का विकास होता है। सबीज समाधि की कई अवस्थाएँ फलित होती हैं। महर्षि पतंजलि के पिछले सूत्र में भी इसी की एक अवस्था का चिन्तन किया गया था। इस सूत्र में कहा गया था कि सवितर्क और निर्वितर्क समाधि का जो स्पष्टीकरण है, उसी से समाधि की उच्चतर स्थितियाँ भी स्पष्ट होती हैं। लेकिन सविचार एवं निर्विचार समाधि की इन उच्चतर अवस्थाओं में ध्यान के विषय अधिक सूक्ष्म होते जाते हैं। ध्यान की इस सूक्ष्मता के अनुसार ही ध्यान की प्रभा और प्रभाव दोनों ही बढ़ते जाते हैं। इसी के अनुसार साधक की मानसिक एवं परामानसिक शक्तियों का विकास भी होता है। परन्तु आध्यात्मिक प्रसाद अभी भी योग साधक से दूर रहता है। इसके लिए अभी भी अन्तर्चेतना की अन्तिम निर्मलता अनिवार्य बनी रहती है।
    
महर्षि पतंजलि ने अपने इस नए सूत्र में इन्हीं पूर्ववर्ती अवस्थाओं का समावेश करते हुए कहा है-
ता एव सबीजः समाधिः ॥ १/४६॥
शब्दार्थ- ता एव = वे सब की सब ही; सबीजः= सबीज; समाधिः = समाधि हैं।
भावार्थ- ये समाधियाँ जो फलित होती हैं, किसी विषय पर ध्यान करने से वे सबीज समाधियाँ होती हैं।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १७८
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

बुधवार, 27 जनवरी 2021

👉 सुनिये ही नहीं समझिये भी

एक पण्डित किसी को भागवत की कथा सुनाने जाया करते थे। वे बड़े प्रकाण्ड विद्वान थे। शास्त्रज्ञ थे। राजा भी बड़ा भक्त और निष्ठावान था। पण्डित कथा सुनाते हुए बीच−बीच में राजा से पूछ लिया करते, यह जानने के लिए कि राजा का ध्यान कथा में है या नहीं “राजा कुछ समझ रहे हो?” तब राजा ने कहा “महाराज! पहले आप समझिये।” पण्डित जी राजा का यह उत्तर सुनकर आश्चर्यचकित हो गये। वे राजा के मन की बात नहीं जान पाये।

एक दिन फिर पण्डित जी ने राजा से पूछा “राजा कुछ समझ रहे हो?” “महाराज पहले आप समझें” राजा ने उतर दिया। पण्डित जी असमंजस में थे कि आखिर इस भागवत में क्या है जो मेरी समझ से बाहर है। जब−जब पण्डित जी पूछते राजा उसी प्रकार कहता।

एक दिन पण्डित जी घर पर भागवत की पुस्तक लेकर एकाग्र चित्त हो पढ़ने लगे। आज पंडित जी को बड़ा आनन्द आ रहा था कथा में। पंडित जी ने समझा कि राजा ठीक कहता है। वे मनोयोगपूर्वक कथा पढ़ने लगे। खाना पीना सोना नहाना सब भूल गये। कथा में ही मस्त हो गये। पंडित जी की आँखों से अश्रु बहने लगे। कई दिन बीत गये, पंडित जी राजा को कथा सुनाने नहीं पहुँचे। वे वहीं पर कथा पढ़ते रहते। बहुत दिन हुए। राजा ने सोचा पंडित जी नहीं आ रहे। उसे सन्देह हुआ। वेश बदलकर राजा पंडित जी के घर पहुँचे और जहाँ कथा पढ़ रहे थे वहाँ बैठकर कथा सुनने लगे। राजा के मन में पंडित जी का भाव देखकर भक्ति भावना प्रबल हो गई। पंडित जी पाठ पूरा करके उठे तो राजा को पहचान लिया। राजा ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। पंडित ने कहा “राजन्! आपने तो मुझे मार्गदर्शन देकर कृतार्थ किया।”

ईश्वर विषयक चर्चा कथायें केवल तोतारटन्त की तरह पढ़ लेने या सुन लेने से कुछ नहीं होता। समझने, मनन करने और जीवन में उतारने से ही कोई ज्ञान अथवा सत्परिणाम उत्पन्न कर सकता है।

📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1962

सोमवार, 25 जनवरी 2021

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग १०३)

ध्यान की अनुभूतियों द्वारा ऊर्जा स्नान

अंतर्यात्रा के पथ पर चलने वाले योग साधक में सतत सूक्ष्म परिवर्तन घटित होते हैं। उसका अस्तित्व सूक्ष्म ऊर्जाओं के आरोह-अवरोह एवं अंतर-प्रत्यन्तर की प्रयोगशाला बन जाता है। योग साधक के लिए यह बड़ी विरल एवं रहस्यमय स्थिति है। ध्यान की प्रगाढ़ता में होने वाले इन सूक्ष्म ऊर्जाओं के परिवर्तन से जीवन की आंतरिक एवं बाह्य स्थिति परिवर्तित होती है। इन ऊर्जाओं में परिवर्तन साधक के अंदर एवं बाहर भारी उलट-पुलट करते हैं। साकार सहज ही निराकार की ओर बढ़ चलता है।
    
इस तत्त्व का प्रबोध करते हुए महर्षि कहते हैं-
सूक्ष्मविषयत्वं चालिंगपर्यवसानम्॥ १/४५॥
शब्दार्थ-च = तथा; सूक्ष्मविषयत्वम् = सूक्ष्म विषयता; अलिंगपर्यवसानम् = प्रकृति पर्यन्त है।
भावार्थ- इन सूक्ष्म विषयों से सम्बन्धित समाधि का प्रान्त सूक्ष्म ऊर्जाओं की निराकार अवस्था तक फैलता है।
    
महर्षि के इस सूत्र में ध्यान की प्रक्रिया की गहनता का संकेत है। कर्मकाण्ड की पूजा-प्रक्रिया में पदार्थ का ऊर्जा में परिवर्तन होता है। पदार्थों का इस विधि से समायोजन, संकलन एवं विघटन किया कि उनसे आध्यात्मिक ऊर्जा की प्राप्ति हो सके। इस पूजा-प्रक्रिया से पाठ एवं मंत्र के प्रयोग कहीं अधिक सूक्ष्म है। इनमें शब्दशक्ति का अनन्त आकाश में स्फोट होता है। इससे भी कहीं सूक्ष्म है ध्यान। इसमें विचार एवं भाव ऊर्जाओं में सघन परिवर्तन घटित होते हैं। ये परिवर्तन आत्यन्तिक आश्चर्य में होते हैं। इस सम्बन्ध में आध्यात्मिक तथ्य यह है कि साधक की एकाग्रता, आंतरिक दृढ़ता जितनी सघन है, उसमें आध्यात्मिक ऊर्जा का घनत्व जितना अधिक है, उसी के अनुपात में वह इन परिवर्तनों को सहन कर सकता है।
    
योग की इस साधनाभूमि में साधक को बहुत ही सक्रिय, सजग एवं समर्थ होना पड़ता है, क्योंकि ध्यान योग के प्रयोग में सूक्ष्म ऊर्जाएँ कुछ इस ढंग से परिवर्तित-प्रत्यावर्तित होती हैं कि इनसे साधक की समूची प्रकृति प्रभावित हुए बिना नहीं रहती। इन ऊर्जाओं से संस्कार बीज भी प्रेरित-प्रभावित होते हैं। ऐसे में योग साधक के पास इसके परिणामों को सम्हालने के लिए बड़े प्रभावकारी आध्यात्मिक बल की आवश्यकता है। इसके बिना कहीं भी-कुछ भी अघटित घट सकता है।
    
ये सूक्ष्म ऊर्जाएँ जब साधक के अस्तित्व को प्रभावित करती हैं, तो बड़ी जबरदस्त उथल-पुथल होती है। संस्कार बीजों के असमय कुरेदे जाने से जीवन में कई ऐसी घटनाएँ घटने लगती हैं, जो सहज क्रम में अभी असामयिक है। ये घटनाएँ शुभ भी हो सकती हैं और अशुभ भी। कई तरह की दुर्घटनाएँ व जीवन में विचित्र एवं संताप देने वाले अवसर आ सकते हैं। यह योग अवस्था भू-गर्भ में किये जाने वाले पारमाणविक बिस्फोट के समान हैं, जिसके सारे प्रभाव भू-गर्भ तक ही सीमित रखे जाने चाहिए। इसके थोड़े से भी अंश का बाहर आना साधक के अस्तित्व के लिए, उसके शरीर के लिए खतरा हो सकता है। इसके लिए साधक के पास उस बल का होना आवश्यक है, जो इसके प्रभावों का नियमन कर सके। हालाँकि ये घटनाएँ, ये परिवर्तन जिस अवस्था तक होती है, वह समाधि की सबीज अवस्था ही है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १७६
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

शनिवार, 23 जनवरी 2021

👉 अपनी स्थिति पर विचार करें?

एक सेठ बड़ा धनवान था। उसे अपने ऐश्वर्य धन सम्पत्ति का बड़ा अभिमान था। अपने को बड़ा दानी धर्मात्मा सिद्ध करने के लिए घर पर नित्य एक साधु को भोजन कराता था। एक दिन एक ज्ञानी महात्मा आये उसके यहाँ भोजन करने को। सेठजी ने उनकी सेवा पूजा करने का तो ध्यान नहीं रखा और उनसे अपने अभिमान की बातें करने लगा “देखो महाराज वहाँ से लेकर इधर तक यह अपनी बड़ी कोठी है, पीछे भी इतना ही बड़ा बगीचा है। पास ही दो बड़ी मीलें हैं। अमुक−अमुक शहर में भी मीलें हैं। इतनी धर्मशालायें, कुँए बनाये हुए हैं। दो लड़के विलायत पढ़ने जा रहे हैं आप जैसे साधु संन्यासियों के पेट पालन के लिए यह रोजाना का सदावर्त लगा रखा है।” सेठ अपनी बातें कहता ही जा रहा था। महात्मा जी ने सोचा इसको अभिमान हो गया है इसलिए इसका अभिमान दूर करना चाहिए। बीच में रोककर सेठ जी से कहा आपके यहाँ दुनियाँ का नक्शा है। सेठ ने कहा “महाराज बहुत बड़ा नक्शा है।” महात्मा जी ने नक्शा मंगाया। उसमें सेठ से पूछा “इस दुनियाँ के नक्शे में भारत कहाँ है।” सेठ ने बताया। “अच्छा इसमें बम्बई कहाँ है” सेठ ने हाथ रखकर बताया। महात्मा जी ने फिर पूछा “अच्छा इसमें तुम्हारी काठी, बगीचे, मीलें बताओ कहाँ हैं।” सेठ बोला महाराज दुनियाँ के नक्शे में इतनी छोटी चीजें कहाँ से आई। महात्मा ने कहा “सेठजी अब इस दुनियाँ के नक्शे में तुम्हारी कोठी बगीचे महल का कोई पता नहीं तो विश्व ब्रह्माण्ड जो भगवान के लीला ऐश्वर्य का एक खेल मात्र है उनके यहाँ तुम्हारे ऐश्वर्य का क्या स्थान होगा?” सेठ समझ गया और उसका अभिमान नष्ट हुआ। वह साधु के चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगा।

थोड़ी−सी समृद्धि ऐश्वर्य पाकर मनुष्य इतना अभिमानी और अहंकारी बन जाता है। यदि वह अपनी स्थिति की तुलना अन्य लोगों से, फिर भगवान के अनन्त ऐश्वर्य से करे तो उसे अपनी स्थिति का पता चले। धन सम्पत्ति ऐश्वर्य का अभिमान वृथा है। मूर्खता ही है। प्रथम तो यहाँ की सम्पदा पर मनुष्य का अपना अधिकार जताना अज्ञान है क्योंकि यह सदा यहीं की धरोहर है और यहीं रहती है। यह भगवान की सम्पदायें हैं, कोई भी व्यक्ति इन्हें नहीं ले जा सकता। तिस पर भी अपनापन मानकर थोड़े से धन ऐश्वर्य पर बौरा जाना पागलपन, अज्ञान ही है।

📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1961

शुक्रवार, 22 जनवरी 2021

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग १०२)

ध्यान की अनुभूतियों द्वारा ऊर्जा स्नान

ध्यान साधना के इस क्रम में अगला क्रम भी है, जो अपेक्षाकृत अधिक सूक्ष्म है। सविता देव के भर्ग का ध्यान। ध्यान का यह विशिष्ट एवं अपेक्षाकृत सूक्ष्म अभ्यास है। सविता का यह भर्ग, प्रकाश पुञ्ज के रूप में सविता की महाशक्ति है। इसे धारण करना विशिष्ट साधकों के ही बस की बात है। माँ गायत्री यहाँ सृष्टि की आदि ऊर्जा के रूप में अनुभव होती है। जो इसे जानता है-वही जानता है। ध्यान के इस रूप में साधक की मनोवृत्तियों का लय एक विशिष्ट उपलब्धि है। इस अवस्था में होने वाली समाधि साधक को अलौकिक शक्तियों का अनुदान देती है।
    
इसके बाद ध्यान का एक नया रूप-नया भाव प्रकट होता है। यह ध्यान विधि अपेक्षाकृत अधिक सूक्ष्म है। यहाँ सविता देव के साकार रूप को प्रकट करने वाली महाशक्ति आदि ऊर्जा का साक्षात् होता है। यह अवस्था साधकों की न होकर सिद्धों की है। माँ गायत्री की सृष्टि की आदि ऊर्जा के रूप में ध्यानानुभूति। इसे वही कर सकते हैं, जिनके स्नायु वज्र में ढले हैं। जो अपने तन-मन एवं जीवन को रूपान्तरित कर चुके हैं। परम पूज्य गुरुदेव अपनी भाव चेतना में ध्यान एवं समाधि की इसी विशिष्ट अवस्था में जीते थे। इस ध्यान से उन्हें जो मिला था, उसे बताते हुए वह कहते थे कि मेरे रोम-रोम में शक्ति के महासागर लहराते हैं।
    
ध्यान एवं समाधि का यह स्तर पाना सहज नहीं है। यहाँ जो समाधि लगाते हैं, वे न केवल सृष्टि की महाऊर्जाओं में स्नान करते हैं, बल्कि स्वयं भी ऊर्जा रूप हो जाते हैं। उनकी देह भी रूपान्तरित हो जाती है। यहाँ विचार नहीं बचते, सभी तर्कों का यहाँ लोप होता है। यहाँ न तो रूप है, न आधार, न तर्क है, न विचार। बस  शेष रहता है, तो केवल अनुभव। इसे जो जीते हैं, वही जानते हैं। जो जानते हैं, वे भी पूरा का पूरा नहीं बता पाते। समझने वालों को संकेतों में ही समझना पड़ता है। देखने वालों को केवल इशारे दिखाये जा सकते हैं। और जो इन्हें देखकर सुन्दर इस डगर पर आगे बढ़ते हैं-वे न केवल उपलब्धियाँ पाते हैं, बल्कि उनका स्वयं का जीवन भी एक महाउपलब्धि बन जाता है, जिसमें जिंदगी का असल अर्थ छिपा है।
    
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १७५
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 श्रद्धा द्वारा पोषित मिट्टी का गुरु

गुरु द्रोणाचार्य से पाण्डव धनुर्विद्या सीखने बन में गये हुए थे। उनका कुत्ता लौटा तो देखा कि किसी ने उसके होठों को बाणों से सी दिया है। इस आश्चर्यजनक कला को देखकर पाण्डव दंग रह गये कि सामने से इस प्रकार तीर चलाये गये कि वह कहीं अन्यत्र न लग कर केवल होठों में ही लगे जिससे कुत्ता मरे तो नहीं पर उसका भौंकना बंद हो जाए। कुत्ते को लेकर पाण्डव द्रोणाचार्य के पास पहुँचे कि यह कला हमें सिखाइये। गुरु ने कहा-यह तो हमें भी नहीं आती। तब यही उचित समझा गया कि जिसने यह तीर चलाये हैं उसी की तलाश की जाय। कुत्ते के मुँह से टपकते हुए खून के चिह्नों पर गुरु को साथ लेकर पाण्डव उस व्यक्ति की तलाश में चले। अन्त में वहाँ जा पहुँचे जहाँ कि भील बालक अकेला ही बाण चलाने का अभ्यास कर रहा था। पूछने पर मालूम हुआ कि कुत्ते को तीर उसी ने मारे थे। अब अधिक पूछताछ शुरू हुई। यह विद्या किससे सीखी ? कौन तुम्हारा गुरु है? उसने कहा-द्रोणाचार्य मेरे गुरु हैं उन्हीं से यह विद्या मैंने सीखी है। द्रोणाचार्य आश्चर्य में पड़ गये। उनने कहा मैं तो तुम्हें जानता तक नहीं फिर बाण विद्या मैंने कैसे सिखाई?

द्रोणाचार्य को साक्षात सामने खड़ा देखकर बालक ने उनके चरणों पर मस्तक रखा और कहा मैंने मन ही मन आपको गुरु माना और आपकी मिट्टी की मूर्ति बनाकर उसी के सामने अपने आप अभ्यास आरंभ कर दिया।

गुरु भाव सच्चा और दृढ़ होने पर गुरु की मिट्टी की मूर्ति भी इतनी शिक्षा दे सकती है जितनी कि वह गुरु शरीर भी नहीं दे सकता। श्रद्धा का महत्व अत्यधिक है।

📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1961

बुधवार, 20 जनवरी 2021

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग १०१)

ध्यान की अनुभूतियों द्वारा ऊर्जा स्नान

महर्षि के इस सूत्र में ध्यान के सूक्ष्म एवं गहन प्रयोगों का संकेत है। यह सच है कि ध्यान की प्रगाढ़ता, निरन्तरता एवं ध्येय में लय का नाम ही समाधि है। परन्तु ध्येय क्या एवं लय किस प्रकार? इसी सवाल के सार्थक उत्तर के रूप में समाधि की उच्चस्तरीय स्थितियाँ प्रकट होती हैं। इस सत्य को व्यावहारिक रूप में परम पूज्य गुरुदेव के अनुभवों के प्रकाश में अपेक्षाकृत साफ-साफ देखा जा सकता है। युगऋषि गुरुदेव ने नये एवं परिपक्व साधकों के लिए इसी क्रम में ध्यान के कई रूप एवं उनके स्तर निर्धारित किये थे।
ध्यान के साधकों के लिए उन्होंने पहली सीढ़ी के रूप में वेदमाता गायत्री के साकार रूप का ध्यान बतलाया था। सुन्दर, षोडशी युवती के रूप में हंसारूढ़ माता। गुरुदेव कहते थे कि जो सर्वांग सुन्दर नवयुवती में जगन्माता के दर्शन कर सकता है, वही साधक होने के योग्य है। छोटी बालिका में अथवा फिर वृद्धा में माँ की कल्पना कर लेना सहज है, क्योंकि ये छवियाँ सामान्यतया साधक के चित्त में वासनाओं को नहीं कुरेदती। परन्तु युवती स्त्री को जगदम्बा के रूप में अनुभव कर लेना सच्चे एवं परिपक्व साधकों का ही काम है। जो ऐसा कर पाते हैं, वही ध्यान साधना में प्रवेश के अधिकारी हैं। हालाँकि यह ध्यान का स्थूल रूप है, परन्तु इसमें प्रवेश करने पर ही क्रमशः सूक्ष्म परतें खुलती हैं।
इस ध्यान को सूक्ष्म बनाने के लिए ध्यान की दूसरी सीढ़ी है कि उन्हें उदय कालीन सूर्यमण्डल के मध्य में आसीन देखा जाय। और सविता की महाशक्ति के रूप में स्वयं के ध्यान अनुभव को प्रगाढ़ किया जाय। ऐसे ध्यान में मूर्ति अथवा चित्र की आवश्यकता नहीं रहती। बस विचारों एवं भावों की तद्विषयक  प्रगाढ़ता ही सविता मण्डल में मूर्ति बनकर झलकती है। जो इसे अपने ध्यान की प्रक्रिया में ढालते हैं, उन्हें अनुभव होता है कि सविता देव एवं माँ गायत्री एकाकार हो गये हैं। यहाँ ध्यान की सूक्ष्मता तो है, परन्तु स्थूल आधारों से प्रकट हुई सूक्ष्मता है। फिर भी इस सूक्ष्म स्थिति को पाने के बाद साधक की चेतना में विशिष्ट परिवर्तन अनुभव होने लगते हैं।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १७४
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

सोमवार, 18 जनवरी 2021

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग १००)

ध्यान की अनुभूतियों द्वारा ऊर्जा स्नान

अन्तर्यात्रा के मार्ग पर चलने वाले सौभाग्यशाली होते हैं। यह मार्ग अपने प्रयोगों में निरन्तर सूक्ष्म होता जाता है। व्यवहार के प्रयोग विचारों की ओर और विचारों के प्रयोग संस्कारों की ओर सरकने लगते हैं। व्यवहार को रूपान्तरित, परिवर्तित करने वाले यम-नियम के अनुशासन, शरीर व प्राण को स्थिर करने वाली आसन एवं प्राणायाम की क्रियाओं की ओर गतिशील होते हैं। यह गतिशीलता प्रत्याहार व धारणा की आंतरिक गतियों की ओर बढ़ती हुई ध्यान की सूक्ष्मताओं में समाती है। इसके बाद शुरू होता है-ध्यान की सूक्ष्मताओं के विविध प्रयोगों का आयोजन। कहने को तो ध्यान की विधा एक ही है, परन्तु इसके सूक्ष्म अन्तर-प्रत्यन्तर अनेकों हैं। जो इन्हें जितना अधिक अनुभव करते हैं, उनकी योग साधना उतनी ही प्रगाढ़ परिपक्व एवं प्रखर मानी जाती है।

इस प्रगाढ़ता, परिपक्वता एवं प्रखरता के अनुरूप ही साधक को समाधि के समाधान मिलते हैं। ध्यान की सूक्ष्मता जितनी अधिक होती है, समाधि उतनी ही उच्चस्तरीय होती है। सवितर्क-निर्वितर्क, इसके बाद सविचार एवं निर्विचार। महर्षि पतंजलि के अनुसार समाधि के ये अलग-अलग स्तर साधक की साधना की अलग एवं विशिष्ट स्थितियों की व्याख्या करते हैं।

महर्षि अब सूक्ष्म ध्येय में होने वाली सम्प्रज्ञात समाधि के भेद बतलाते हैं-
एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता॥ १/४४॥
शब्दार्थ- एतया एव = इसी से (पूर्वोक्त सवितर्क और निर्वितर्क के वर्णन से ही); सूक्ष्म विषया = सूक्ष्म पदार्थों में की जाने वाली; सविचारा =सविचार (और); निर्विचारा = निर्विचार समाधि का; च = भी; व्याख्याता = वर्णन किया गया।
भावार्थ - सवितर्क और निर्वितर्क समाधि का जो स्पष्टीकरण है, उसी से समाधि की उच्चतर स्थितियाँ भी स्पष्ट होती हैं। लेकिन सविचार और निर्विचार समाधि की इन उच्चतर अवस्थाओं में ध्यान के विषय अधिक सूक्ष्म होते हैं।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १७३
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

शनिवार, 16 जनवरी 2021

👉 स्वभाव और संस्कार

जैसा मनुष्य का स्वभाव होता है उसी के अनुरूप उसकी मनोदशा बनती रहती है और जब वही आदत अपने जीवन का अंग बन जाती है तो उसे संस्कार मान लेते हैं। शराब पीना प्रारम्भ में एक छोटी सी आदत दीखती है किन्तु जब वही आदत गहराई तक जक जाती है, तो शराब के सम्बन्ध में अनेकों प्रकार की विचार रेखायें मस्तिष्क में बनती चली जाती हैं जो एक स्थिति समाप्त हो जाने पर भी प्रेरणा के रूप में मस्तिष्क में उठा करती हैं। जैसे कोई कामुक प्रवृत्ति का मनुष्य स्वास्थ्य सुधार या किसी अन्य कारण से प्रभावित होकर ब्रह्मचर्य रहना चाहता है। इसके लिये वह तरह-तरह की योजनायें और कार्यक्रम भी बनाता है तो भी उसके पूर्व जीवन के कामुक विचार उठने से रुकते नहीं और वह न चाहते हुये भी उस प्रकार के विचारों और प्रभाव से टकराता रहता है।

यह संस्कार जैसे भी बन जाते है वैसा ही मनुष्य का व्यवहार होगा। यहाँ यह न समझना चाहिये कि यदि पुराने संस्कार बुरे पड़ गये हैं, विचारों में केवल हीनता भरी है, तो मनुष्य सद्व्यवहार नहीं कर सकता। यदि पूर्व जीवन के कुसंस्कार जीवन सुधार में किसी प्रकार का रोड़ा अटकाते है तो भी हार नहीं माननी है। चूँकि अब तक अच्छे कर्म नहीं किये थे इसलिये यह पुराने कुविचार परेशान करते हैं किन्तु यदि अब विचार और व्यवहार में अच्छाइयों का समावेश करते हैं तो यही एक दिन हमारे लिए शुभ संस्कार बन जायगा। तब यदि कुकर्मों की ओर बढ़ना चाहेंगे तो एक जबर्दस्त प्रेरणा अन्तःकरण में उठेगी और हमें बुरे रास्ते में भटकने से बचा लेगी।

महर्षि वाल्मीकि, सन्त तुलसीदास, भिक्षु अंगुलिमाल, गणिका, अजामिल आदि अनेकों कुसंस्कारों में ग्रसित व्यक्ति भी जब सन्मार्ग पर चलने लगे तो उनका जीवन पुण्यमय, प्रकाशमय बन गया। मनुष्य संस्कारों का गुलाम हो जाय, अपने स्वभाव में परिवर्तन न कर सके, यह असम्भव नहीं है। मनुष्य के विचार गीली मिट्टी और संस्कार उस मिट्टी से बने बर्तन के समान होते है। पिछले कुसंस्कारों का बड़ा तोड़कर नये विचारों की मिट्टी से नव-जीवन घट का निर्माण कर सकते हैं। इसमें राई-रत्ती भर भी सन्देह न करना चाहिये।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1965 पृष्ठ 12

👉 वे जिन्होंने मोह को जीता

गुरु गोविंद सिंह उन दिनों चमकौर के किले में रहकर, मुगलों से युद्ध कर रहे थे। मुखवाल से जाते समय उनकी माता और दो नन्हें बच्चे फतहसिंह और जोरावरसिंह बिछुड गये थे। लेकिन गुरु गोविंदसिह को काम में व्यस्त होने के कारण उनको खोजने का समय न मिल पाया था। वे अपने बड़े लडकों अजीतसिंह और जुझारसिंह के साथ चमकौर के किले में रहकर आगे की योजनाएं बनाने और कार्यान्वित करने में व्यस्त थे। तभी एक दिन कुछ दूत उनके पास संदेश लेकर आए। वे मुखवाल और आनंदगढ़ की तरफ से ही आए थे।

गुरु गोविंदसिंह ने दूतों का स्वागत किया और हँसकर पूछा-बताओ भाई हमें छोड़कर गए हुए सिक्खों और बिछुडी़ हुई माता एवं दोनों कुमारों का कोई समाचर है और अगर शत्रुओं का कोई समाचार हो तो बतलाऔ। दूतों ने कहा गुरुजी! जो सिक्ख मुखवाल से आपका साथ छोड़कर चले गए उनके गाँव पहुँचने पर उनके परिवार वालों तक ने उन्हें धिक्कार कर विश्वासघाती कहा। उनको अपनी गलती अनुभव हुई, और अब वे सब आपसे क्षमा माँगने के लिये इधर चल पडे है।" गुरु गोविंदसिंह ने हर्षपूर्वव कहा-यह तो बडा शुभ समाचार है, उनको अब भूला नही कहा जा सकता और आगे के समाचार बतलाओ।"

दूतों ने आगे कहा- "यह जानकर कि आप चमकौर में विराजमान हैं मुगलों की एक बडी़ भारी सेना चमकौर पर आक्रमण करने आ रही है।" गुरु गोविंद सिंह ने कहा- यह तो और भी अच्छा समाचार है। धर्म युद्ध तो तब तक चलता ही रहना चाहिए, जब तक अधर्म का नाश न हो जाए।'' आगे बतलाओ माता और कुमारों का क्या समाचार है क्या कुमारों या माता ने शत्रुओं की शरण ले ली अथवा प्राणो के मोह में धर्म मार्ग से विचलित हो गए,  दूत तत्काल बोल उठ महाराज ऐसा न कहे। कुमारों ने धर्म के नाम पर बलिदान दे दिया है। यह कहकर दूत रोने लगे, गुरु गोविंद सिंह ने उत्सुकतापूर्वक कहा- ''अरे भाई तुम ऐसा शुम समाचार सुनाते वक्त इस प्रकार रो रहे हो। यह तो ठीक नहीं। शुभ समाचार तो हँसते हुए उत्साहपूर्वक सुनाना चाहिए। जल्दी बताओ उन सिंह संतानों ने कहाँ और क्स प्रकार धर्म पर अपना बलिदान दे दिया ?  

दूतों ने बतलाया-गुरुजी मुखवाल से बिछुडकर माता और कुमार गंगू रसोइये के साथ उसके घर चले गए, कितु गंगू ने माता जी के साथ विश्वासघात करके कुमारों को गिरफ्तार कराकर सरहिंद के नवाब के हवाले कर दिया। सरहिंद के नवाब ने उनसे कहा-बालकों अगर तुम मुसलमान हो जाओ तो तुम्हारी जान बख्स दी जायेगी, शाहजादियों से तुम्हारी शादी करा दी जायेगी, और एक बहुत बडी़ जागीर इनाम में दे दी जायेगी, किन्तु वे दोनों कुमार न तो मौत से डरे और न लालच में आये। 

उन्होंने नबाव से साफ-साफ कह दिया कि धर्म की महत्ता एक प्राण क्या करोडो़ं प्राणों से भी अधिक है और न धर्म बिकने वाली चीज है, जो आप लोभ देकर खरीदना चाहते हैं। आप बेशक हमारे प्राण ले लीजिए। लेकिन हम अपना धर्म नही छोड़ सकते। इस पर नबाव ने सरदारों को बच्चों के मार डालने का हुक्म दिया, लेकिन वे तैयार न हुए। तब नबाव ने उन बच्चों को किले की दीवार में जिन्दा चुनवा दिया लेकिन वे दोनों कुमार अंत तक हँसते और धर्म की जय बोलते रहे। माता ने यह समाचार सुना तो छत से कूदकर प्राण दे दिए। गुरु गोविंदसिंह खुशी से उछल पड़े, फतह सिंह और जोरावर सिंह सच्चे धर्म वीर थे। हम सबको उनसे शिक्षा लेनी चाहिए, इसी प्रकार निर्भय बलिदान देकर ही धर्म की रक्षा की जाती है। वीरों तुमने धर्म की साख बढाई।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 97, 98

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ९९)

सत्य का साक्षात्कार है—निर्वितर्क समाधि
कैसे करें स्मृति परिशोधन अथवा चित्तशुद्धि? क्या विधान है इसका? यह प्रश्न सभी साधकों का है। युगऋषि गुरुदेव के शब्दों में इसका उत्तर है-अपार धैर्य के साथ निष्काम कर्म। इसी के साथ अनवरत निष्काम एवं सतत तप। यही मार्ग है। एक सम्ूपर्ण जीवन को लगाये-खपाये बगैर किसी के द्वारा यह साधना सम्भव नहीं। जो इसके विपरीत किसी अन्य विधि से निर्वितर्क की यात्रा करना चाहते हैं, वे केवल दिवास्वप्न देखते हैं। विश्व ब्रह्माण्ड में ऐसी कोई भी शक्ति नहीं, जो निष्काम कर्म एवं तप के बिना इस मंजिल तक पहुँचा दे।
यहाँ तक कि समर्थ गुरु एवं इष्ट-आराध्य भी अपने शिष्य-सेवक को इसी मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित-प्रवर्तित करते हैं। थकने पर उसे हिम्मत देते हैं, गिरने पर उसे उठाते हैं, हताश होने पर साहस देते हैं। इस सबके बावजूद चध्यान की अनुभूतियों द्वारा ऊर्जा स्नानलना तो स्वयं को ही पड़ता है। अपने सिवा और कोई नहीं चलता। यह ऐसी सच्चाई है, जिसे वही जानते हैं, जो जीते हैं। चित्त का एक-एक संस्कार, एक-एक कर्मबीज अपने भोग पूरे करवाने में कभी-कभी तो वर्षों ले लेता है। कई बार तो इस पथ पर बड़ी नारकीय यातनाएँ एवं दारुण परिस्थितियाँ सहन करनी पड़ती है। पर करें भी तो क्या? अन्य कोई चारा भी तो नहीं।
इस पूरी प्रक्रिया में जन्म-जन्मान्तर के कुसंस्कारों की कालिख रह-रह कर बाहर फूटती है। कठिन-कठोर तप से उसका प्रशमन होता है। गुरुकृपा के झूठे मद में फूले हुए लोग जो इस दौरान् तप से मुँह मोड़ते हैं, वे कुसंस्कारों की देन को सम्भालने में नाकाम रहते हैं। दूषित चरित्र ही ऐसों की नियति होती है। ये हतभागी जन अपने जन्मों से कमायी गयी प्राण ऊर्जा को वासनाओं के खेल में खर्च करते हैं। इसलिए निष्काम कर्म एवं तप ही सत्य की ओर बढ़ने का राजमार्ग है। जो इस सत्य को जीते हैं, वे अपने गुरु की कृपा एवं आराध्य के अनुदानों का सच्चा लाभ उठाते हैं। उन्हीं को समाधि की उच्चतर अवस्थाओं को पाने का सौभाग्य मिलता है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १७२
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

शुक्रवार, 15 जनवरी 2021

👉 बुरी स्मृतियाँ भुला ही दी जाएँ

दो भाई थे। परस्पर बडे़ ही स्नेह तथा सद्भावपूर्वक रहते थे। बड़े भाई कोई वस्तु लाते तो भाई तथा उसके परिवार के लिए भी अवश्य ही लाते, छोटा भाई भी सदा उनको आदर तथा सम्मान की दृष्टि से देखता।

पर एक दिन किसी बात पर दोनों में कहा सुनी हो गई। बात बढ़ गई और छोटे भाई ने बडे़ भाई के प्रति अपशब्द कह दिए। बस फिर क्या था ? दोनों के बीच दरार पड़ ही तो गई। उस दिन से ही दोनों अलग-अलग रहने लगे और कोई किसी से नहीं बोला। कई वर्ष बीत गये। मार्ग में आमने सामने भी पड़ जाते तो कतराकर दृष्टि बचा जाते, छोटे भाई की कन्या का विवाह आया। उसने सोचा बडे़ अंत में बडे़ ही हैं, जाकर मना लाना चाहिए।

वह बडे़ भाई के पास गया और पैरों में पड़कर पिछली बातों के लिए क्षमा माँगने लगा। बोला अब चलिए और विवाह कार्य संभालिए।

पर बड़ा भाई न पसीजा, चलने से साफ मना कर दिया। छोटे भाई को दुःख हुआ। अब वह इसी चिंता में रहने लगा कि कैसे भाई को मनाकर लगा जाए इधर विवाह के भी बहित ही थोडे दिन रह गये थे। संबंधी आने लगे थे।

किसी ने कहा-उसका बडा भाई एक संत के पास नित्य जाता है और उनका कहना भी मानता है। छोटा भाई उन संत के पास पहुँचा और पिछली सारी बात बताते हुए अपनी त्रुटि के लिए क्षमा याचना की तथा गहरा पश्चात्ताप व्यक्त किया और प्रार्थना की कि ''आप किसी भी प्रकार मेरे भाई को मेरे यही आने के लिए तैयार कर दे।''

दूसरे दिन जब बडा़ भाई सत्संग में गया तो संत ने पूछा क्यों तुम्हारे छोटे भाई के यहाँ कन्या का विवाह है ? तुम क्या-क्या काम संभाल रहे हो ?

बड़ा भाई बोला- "मैं विवाह में सम्मिलित नही हो रहा। कुछ वर्ष पूर्व मेरे छोटे भाई ने मुझे ऐसे कड़वे वचन कहे थे, जो आज भी मेरे हृदय में काँटे की तरह खटक रहे हैं।'' संत जी ने कहा जब सत्संग समाप्त हो जाए तो जरा मुझसे मिलते जाना।'' सत्संग समाप्त होने पर वह संत के पास पहुँचा, उन्होंने पूछा- मैंने गत रविवार को जो प्रवचन दिया था उसमें क्या बतलाया था ?

बडा भाई मौन ? कहा कुछ याद नहीं पडता़ कौन सा विषय था ?

संत ने कहा- अच्छी तरह याद करके बताओ।
पर प्रयत्न करने पर उसे वह विषय याद न आया।

संत बोले 'देखो! मेरी बताई हुई अच्छी बात तो तुम्हें आठ दिन भी याद न रहीं और छोटे भाई के कडवे बोल जो एक वर्ष पहले कहे गये थे, वे तुम्हें अभी तक हृदय में चुभ रहे है। जब तुम अच्छी बातों को याद ही नहीं रख सकते, तब उन्हें जीवन में कैसे उतारोगे और जब जीवन नहीं सुधारा तब सत्सग में आने का लाभ ही क्या रहा? अतः कल से यहाँ मत आया करो।''

अब बडे़ भाई की आँखें खुली। अब उसने आत्म-चिंतन किया और देखा कि मैं वास्तव में ही गलत मार्ग पर हूँ। छोटों की बुराई भूल ही जाना चाहिए। इसी में बडप्पन है।

उसने संत के चरणों में सिर नवाते हुए कहा मैं समझ गया गुरुदेव! अभी छोटे भाई के पास जाता हूँ, आज मैंने अपना गंतव्य पा लिया।''

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 91, 92

👉 अपने और पराये

ईसा ने कहा, दुश्मन को प्यार करो। एक भाई ने विनोद में कहा था कि ये गाँधी के चेले दुश्मन को ही प्यार करते हैं, लेकिन मित्र को प्यार नहीं करते! बिल्कुल ठीक है। अगर प्यार करने में पक्षपात करना हो, तो दुश्मन पर ही पक्षपात करूँगा, क्योंकि मित्र पर सहज प्यार है ही। मित्र के लिये खास ध्यान न रहा और परवाह न रही, तो भी उनके लिये तो सहज प्यार होता ही है। इसीलिये दुश्मन पर सविशेष प्यार करूँगा। यह हमारी प्रतिज्ञा है कि जो हमको सकारण दूर मानते हैं, उन पर प्यार करना हमारा फर्ज हैं। निष्पक्ष प्यार के लिये यह आवश्यक शर्त है कि शत्रु के लिये पक्षपात हो।

मित्रों पर प्यार करो, यह फिजूल आज्ञा है। जैसे पानी को कहा जाय कि नीचे की तरफ बहे, तो यह व्यर्थ आज्ञा होगी। नीचे की तरफ बहना उसका सहल धर्मं हैं, वैसे ही मित्र का प्यार तो सहज प्राप्त है, दुश्मन पर प्यार सहज प्राप्त नहीं होता है, बल्कि दुःख की बात हे कि दुश्मन के लिये सहज प्राप्त द्वेष ही है। इस हालत में उनके बारे में प्रेम का प्रकाश ज्यादा ही होना चाहिये, यह अहिंसा का एक विशेष दर्शन है। इसलिये जो निष्पक्ष अहिंसक हैं, वह दूसरों पर ज्यादा अनुराग रखेगा।

मेरी माँ का एक किस्सा याद आता है। मेरे पिताजी हमारे घर में हमेशा बाहर के कोई-न-कोई एक लड़के को रख लेते थे और उस लड़के को ठीक घर के जैसे ही रखा जाता था, उसी प्रकार खाना-पीना अध्ययन आदि उसका चलता था। पिताजी को तो उसमें पुण्य-प्राप्ति होती थी, लेकिन सारी सेवा माँ को करनी पड़ती थी। घर में कभी-कभी रोटी बच जाती थी, पहले तो माँ ही दोपहर की उस ठंडी रोटी को खा लेती थी, लेकिन उसके खाने के बाद भी बची, तो वह मुझको देती थी। उस लड़के को तो ताजी रोटी ही मिलती थी। उसको कभी ठंडी रोटी नहीं दी जाती थी। तो मैं कभी-कभी माँ के साथ विनोद कर लेता था, क्योंकि वही एक मेरे विनोद का म्यान थी। मैं उसको विनोद में कहता था कि अभी तेरा भेदभाव मिटा नहीं, मुझको दोपहर की रोटी देती है और उस लड़के को ताजी रोटी खिलाती हो। तिस पर उसने जवाब दिया था, क्या जवाब दिया था? वाह रे वाह! डसने कहा कि “वह मुझे भगवत् स्वरूप दीखता है और तू मुझे पुत्र-स्वरूप दीखता है। तुझमें मेरी आसक्ति पड़ी है तेरे लिये मेरे दिल में पक्षपात है ही, तू भी मुझे जब भगवत् स्वरूप दिखेगा, तब यह भेदभाव नहीं करूँगी।

रामदास ने भगवान के बारे लिखते हुये कहा है कि वह दयादक्ष, दया करने में प्रवीण है। वह सब के लिये समान हैं, फिर भी वह दुखियों का पक्षपात करता है। वह साक्षी होते हुये भी पक्षपात करता है। यह पक्षपात जो भगवान में रहता हे, वह समत्व होते हुये भी रहता है। हम उसका अनुकरण करना चाहेंगे, तो यही होगा कि जो लोग हमसे भिन्न हैं, उसके लिये ज्यादा अनुराग हमारे दिल में रहेगा।

संत तुकाराम जबरदस्त प्रतिभावान कवि थे। उनके वाक्य चुभ जाते है। उनके वाक्य दिल को नहीं, लेकिन दिमाग को चुभ जाते है। उसने लिखा है कि अपनी देह और अपनी देह से संबंधियों की निन्दा करनी चाहिये और दूसरे जो हैं, उनकी वन्दना करनी चाहिये। श्वान-शूकर की भी वंदना करनी चाहिये।

✍🏻 सन्त विनोबा
📖 अखण्ड ज्योति जुलाई 1961 पृष्ठ 21

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ९८)

सत्य का साक्षात्कार है—निर्वितर्क समाधि

युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव कहते थे कि स्मृति के दोहरे अर्थ हैं। एक अर्थ-सामान्य, साधारण है और एक है— विशिष्ट, आध्यात्मिक। सामान्य साधारण अर्थ में स्मृति हमारा पिछला कल है, आज का वर्तमान है। लेकिन इसका दायरा हमारे वर्तमान जीवन तक सीमित है। आज के रिश्ते-नाते, इनकी खटास-मिठास, बीता हुआ बचपन, कहीं खो चुकी या खो रही किशोरवय, स्मृतियों के पिटारे में ही तो कैद है। अगर किसी तरह इसका लोप हो जाय, तो प्रकारान्तर से हम ही लुप्त हो जायेंगे।
स्मृति के इस सिलसिले से परे इनका एक आध्यात्मिक पहलू है। जिसमें हमारा सम्पूर्ण अतीत बँधा है। इसमें पिरोये हैं—हमारे अनगिनत जन्म, हमारे सभी कर्मबीज। हमारे आग्रह, हमारी मान्यताएँ, हमारी सोच, हमारा दृष्टिकोण। योग साधना में इसी का शोधन करना है। इस तथ्य को पतंजलि स्मृति शुद्धि कहते हैं। इसे ही आचार्य शंकर ने चित्तशुद्धि कहा है। स्मृति का यह जमावड़ा-जखीरा वस्तुतः हम पर बोझ है। इसे हल्का करने की जरूरत है। स्मृति की यह अशुद्धि ही प्रकारान्तर से हमारे जीवन की विकृति है। इसे धोये बिना, इसे जलाये-गलाये बिना आध्यात्मिक पथ प्रशस्त नहीं होता।
स्मृति परिशुद्धि या चित्तशुद्धि की यह यात्रा बड़ी दुःखदायी है। यह धधकती आग का वह दरिया है, जिसे प्रत्येक साधक को पार करना पड़ता है। यही यथार्थ साधना है, सच यह भी है कि इसी में सभी साधनाओं की सार्थकता है। इसके अभाव में सभी साधनाएँ निरर्थक हैं। इसे किये बिना जप, मंत्र, योग, तप किसी का कोई मूल्य नहीं है। योग और तंत्र में कई बार कई चमत्कारी संतों की कथाएँ कहीं सुनी जाती हैं। परन्तु इनमें से किसी भी चमत्कार से चित्तशुद्ध नहीं होता। यह ऐसा चमत्कार है, जिसे योग साधक को स्वयं करना पड़ता है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १७१
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

गुरुवार, 14 जनवरी 2021

👉 Teen Ganth तीन गांठें Bhagwan Buddha

भगवान बुद्ध अक्सर अपने शिष्यों को शिक्षा प्रदान किया करते थे। एक दिन प्रातः काल बहुत से भिक्षुक उनका प्रवचन सुनने के लिए बैठे थे। बुद्ध समय पर सभा में पहुंचे, पर आज शिष्य उन्हें देखकर चकित थे क्योंकि आज पहली बार वे अपने हाथ में कुछ लेकर आए थे। करीब आने पर शिष्यों ने देखा कि उनके हाथ में एक रस्सी थी। बुद्ध ने आसन ग्रहण किया और बिना किसी से कुछ कहे वे रस्सी में गांठें लगाने लगे।

वहाँ उपस्थित सभी लोग यह देख सोच रहे थे कि अब बुद्ध आगे क्या करेंगे; तभी बुद्ध ने सभी से एक प्रश्न किया, मैंने इस रस्सी में तीन गांठें लगा दी हैं, अब मैं आपसे ये जानना चाहता हूँ कि क्या यह वही रस्सी है, जो गाँठें लगाने से पूर्व थी?

एक शिष्य ने उत्तर में कहा, गुरूजी इसका उत्तर देना थोड़ा कठिन है, ये वास्तव में हमारे देखने के तरीके पर निर्भर है। एक दृष्टिकोण से देखें तो रस्सी वही है, इसमें कोई बदलाव नहीं आया है। दूसरी तरह से देखें तो अब इसमें तीन गांठें लगी हुई हैं जो पहले नहीं थीं; अतः इसे बदला हुआ कह सकते हैं। पर ये बात भी ध्यान देने वाली है कि बाहर से देखने में भले ही ये बदली हुई प्रतीत हो पर अंदर से तो ये वही है जो पहले थी; इसका बुनियादी स्वरुप अपरिवर्तित है।

सत्य है !, बुद्ध ने कहा, अब मैं इन गांठों को खोल देता हूँ। यह कहकर बुद्ध रस्सी के दोनों सिरों को एक दुसरे से दूर खींचने लगे। उन्होंने पुछा, तुम्हें क्या लगता है, इस प्रकार इन्हें खींचने से क्या मैं इन गांठों को खोल सकता हूँ?

नहीं-नहीं, ऐसा करने से तो या गांठें तो और भी कस जाएंगी और इन्हे खोलना और मुश्किल हो जाएगा। एक शिष्य ने शीघ्रता से उत्तर दिया।

बुद्ध ने कहा, ठीक है, अब एक आखिरी प्रश्न, बताओ इन गांठों को खोलने के लिए हमें क्या करना होगा?

शिष्य बोला, इसके लिए हमें इन गांठों को गौर से देखना होगा, ताकि हम जान सकें कि इन्हे कैसे लगाया गया था, और फिर हम इन्हे खोलने का प्रयास कर सकते हैं।

मैं यही तो सुनना चाहता था। मूल प्रश्न यही है कि जिस समस्या में तुम फंसे हो, वास्तव में उसका कारण क्या है, बिना कारण जाने निवारण असम्भव है। मैं देखता हूँ कि अधिकतर लोग बिना कारण जाने ही निवारण करना चाहते हैं , कोई मुझसे ये नहीं पूछता कि मुझे क्रोध क्यों आता है, लोग पूछते हैं कि मैं अपने क्रोध का अंत कैसे करूँ? कोई यह प्रश्न नहीं करता कि मेरे अंदर अंहकार का बीज कहाँ से आया, लोग पूछते हैं कि मैं अपना अहंकार कैसे ख़त्म करूँ?

प्रिय शिष्यों, जिस प्रकार रस्सी में में गांठें लग जाने पर भी उसका बुनियादी स्वरुप नहीं बदलता उसी प्रकार मनुष्य में भी कुछ विकार आ जाने से उसके अंदर से अच्छाई के बीज ख़त्म नहीं होते। जैसे हम रस्सी की गांठें खोल सकते हैं वैसे ही हम मनुष्य की समस्याएं भी हल कर सकते हैं।

इस बात को समझो कि जीवन है तो समस्याएं भी होंगी ही, और समस्याएं हैं तो समाधान भी अवश्य होगा, आवश्यकता है कि हम किसी भी समस्या के कारण को अच्छी तरह से जानें, निवारण स्वतः ही प्राप्त हो जाएगा। महात्मा बुद्ध ने अपनी बात पूरी की।

👉 प्रतिभा Pratibha Talent

मित्रो ! भीष्म ने मृत्यु को धमकाया था कि जब तक सूर्य उत्तरायण न आए, तब तक इस ओर पैर न धरना। सावित्री ने यमराज के भैंसे की पूँछ पकड़कर उसे रोक लिया था और सत्यवान के प्राण वापस करने के लिए बाध्य किया था। अर्जुन ने पैना तीर चलाकर पाताल-गंगा की धार ऊपर निकाली थी और भीष्म की इच्छानुसार उनकी प्यास बुझाई थी। राणा सांगा के शरीर में अस्सी घाव लगे थे, फिर भी वे पीड़ा की परवाह न करते हुए अंतिम साँस रहने तक युद्ध में जूझते ही रहे थे। बड़े काम बड़े व्यक्तित्वों से ही बन पड़ते हैं। भारी वजन उठाने में हाथी जैसे सशक्त ही काम आते हैं, बकरों और गधों से उतना बन नहीं पड़ता; भले ही वे कल्पना करते, मन ललचाते या डींगे हाँकते रहें।  

प्रतिभा जिधर भी मुड़ती है, उधर ही बुलडोजरों की तरह मैदान सफा करती चलती है। सर्वविदित है कि यूरोप के विश्वविजयी पहलवान सैंडो किशोर अवस्था तक अनेक बीमारियों से घिरे, दुर्बल काया लिए फिरते थे, पर जब उन्होंने समर्थ तत्वावधान में स्वास्थ्य का नए सिरे से संचालन और बढ़ाना शुरु किया तो कुछ समय में विश्वविजयी स्तर के पहलवान बन गए। भारत के चंदगीराम पहलवान के बारे में अनेकों ने सुना है कि वह हिन्दकेसरी के नाम से प्रसिद्ध हुए थे। पहले वह अन्यमनस्क स्थिति में अध्यापकी से रोटी कमाने वाले क्षीणकाय व्यक्ति थे। उन्होंने अपने मनोबल से ही नई रीति-नीति अपनाई और खोई हुई सेहत नए सिरे से न केवल पाई वरन् इतनी बढ़ाई कि हिन्दकेसरी उपाधि से विभूषित हुए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ९७)

सत्य का साक्षात्कार है—निर्वितर्क समाधि

अंतर्यात्रा के विज्ञान का सार-परिष्कार है। परिष्कार की साधना के सघन एवं गहन होने से अंतर्यात्रा का पथ प्रशस्त होता है। इसके वैज्ञानिक प्रयोगों में सुगमता आती है। साधकों एवं सामान्य जनों में योग साधना के जटिल एवं दुरूह होने की बात कही-सुनी जाती है। यह सच तो है किन्तु आधा-पूरा सच यह है कि योग साधना में विघ्न एवं अवरोध वहाँ आते हैं, जहाँ परिष्कार-परिशोधन की उपेक्षा-अवहेलना की जाती है। जो अपनी अंतरसत्ता के परिष्कार में तत्पर हैं, उनके लिए अंतर्यात्रा का यह पथ सुगम-सरल एवं आनन्ददायक है। उनकी साधना के अनुरूप यह आनन्द तीव्र होता जाता है, प्रवृत्तियाँ प्रकाशित होती जाती है और बोध के स्वर फूटने लगते हैं। क्रमिक रूप से विकल्पों एवं वितर्कों में क्षीणता आने लगती है।

सवितर्क से ही निर्वितर्क समाधि की राह खुलती है। इस परिशुद्ध स्थिति के बारे में महर्षि कहते हैं-
स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का॥१/४३॥
शब्दार्थ-स्मृतिपरिशुद्धौ = (शब्द एवं प्रतीति की) स्मृति के भलीभाँति लुप्त हो जाने पर; स्वरूपशून्या = अपने स्वरूप से शून्य रुई के; इव = सदृश; अर्थमात्र निर्भासा = केवल ध्येय मात्र के स्वरूप को प्रत्यक्ष करने वाली (चित्त की स्थिति ही), निर्वितर्का = निर्वितर्क समाधि है।

भावार्थ- जब स्मृति परिशुद्ध होती है और मन किसी अवरोध के बिना वस्तुओं की यथार्थता देख सकता है, तब निर्वितर्क समाधि फलित होती है।

महर्षि पतंजलि ने अपने इस सूत्र में निर्वितर्क समाधि के लिए बड़ा सहज राजमार्ग सुझाया है। यह राजमार्ग है-स्मृति के परिशोधन का। इसे प्रकारान्तर से स्मृतिलय या मनोलय भी कह सकते हैं। अभी हम जो कुछ भी हैं, हमारा व्यक्तित्व, हमारी स्थिति स्मृति के कारण है। सार रूप में यह यादों से बने और यादों से घिरे हैं। हमारे कल के अनुभवों ने हमें कुछ यादें दी हैं, कल होने वाले अनुभव भी हमें कुछ यादें देंगे। इन यादों के कई रंग एवं कई रूप हैं। इन्हीं सबसे हमारे व्यक्तित्व की परतें सजी हैं। हमारे व्यक्तित्व का बहुआयामी रूप इन्हीं के कारण हैं।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १७०
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

मंगलवार, 12 जनवरी 2021

👉 चिंतन के क्षण Chintan Ke Kshan 12 Jan 2021

🔸 जिन्दगी को ठीक तरह से जीने के लिए एक ऐसे साथी की आवश्यकता रहती है जो पूरे रास्ते हमारे साथ रहे, प्यार करे, सलाह दे और सहायता की शक्ति तथा भावना दोनो से ही सम्पन्न हो। ऐसा साथी मिल जाने पर जिन्दगी की लम्बी मन्जिल बड़ी हंसी-खुशी और सुविधा के साथ पूरी हो जाती है ।अकेले चलने में यह रास्ता भारी हॊ जाता है और कठिन प्रतीत होता है। ऐसा सबसे उपयुक्त साथी जो निरन्तर, मित्र, सखा, सेवक, गुरू, सहायक की तरह हर घड़ी प्रस्तुत रहे और बदले में कुछ भी प्रत्युपकार न मांगे, केवल एक ईश्वर को जीवन का सहचर बना लेने से मंजिल इतनी मंगलमय हो जाती है कि धरती ही ईश्वर के स्वर्गलोक जैसी आनन्दलोक प्रतीत होने लगती है। यों  ईश्वर सबके साथ है और वह सबकी सहायता भी करता है पर जॊ उसे समझते और देखते हैं, वास्तविक लाभ उन्हें ही मिल पाता है।
                
🔹 डरता वह है जिसे  ईश्वर का डर नहीं होता। जो  ईश्वर से डरता है , उसके आदेशों का उल्लंघन नहीं करता, उसे संसार  में किसी से  भी डरना नहीं पड़ता। संसार  की हर वस्तु से डरने और सशंकित रहने का एक ही कारण है, ईश्वर से न डरना, उसकी अवज्ञा करना, जो ऐसा नहीं करते, उसे अपना मित्र, सहायक  और मार्गदर्शक मानते हैं उन्हें  सबसे पहला उपहार निर्भयता का प्राप्त हॊता है, उन्हें फ़िर किसी से भी डरना नहीं पड़ता, आपत्तियाँ उसे खिलवाड़ दीखती हैं।  
    
🔸 विपन्नता की स्थिति में धैर्य न छोड़ना, मानसिक संतुलन नष्ट न होने देना, आशा ,पुरुषार्थ को न छोड़ना आस्तिकता का प्रथम चिन्ह है। जिसे परमात्मा जैसी अनन्त सत्ता के साथ बैठने का सौभाग्य प्राप्त है वह किसी भी व्यक्ति या परिस्थिति से क्यों डरेगा? क्यों अधीर होगा? क्यों निराशा और कातरता प्रकट करेगा? धैर्य और साहस की अजस्र धारा उसके मन: क्षेत्र में उठती ही रहनी ही चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

सोमवार, 11 जनवरी 2021

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ९६)

मंजिल नहीं, पड़ाव है—सवितर्क समाधि
    
योग साधक के लिए यह अवस्था बड़ी खतरनाक होती है। इतने सारे चित्र-विचित्र रंगों का गर्दो-गुबार उसे पागल कर सकता है। यहाँ चाहिए उसे सद्गुरु की मदद। जो उसे सभी भ्रमों से उबार के बचा लें। अराजकता का जो तूफान यहाँ उठ रहा है, उससे उसे निकाल लें। सद्गुरु ही सहारा और आसरा होते हैं यहाँ पर साधक के लिए। क्योंकि यह अवस्था कोई एक दिन की नहीं है। कभी-कभी तो यहाँ कई साल और दशक भी लग जाते हैं और गुरु का सहारा न मिले तो कौन जाने साधक को पूरा जीवन ही यहाँ गुजारना पड़े। पशु, मनुष्य और देवता सभी तो मिल जाते हैं यहाँ। अज्ञानी-ज्ञानी एवं महाज्ञानी सभी का जमघट लगता है यहाँ पर।
    
अनुभवी इस सच को जानते हैं कि अपने अस्तित्व में परिधि से केन्द्र तक बहुत अवस्थाएँ हैं। जो एक के बाद एक नये-नये रूपों में प्रकट होती है। यह अंतर्यात्रा योग साधक के जीवन में सम्पूर्ण रहस्यमय विद्यालय बनकर आती है। एक कक्षा के बाद दूसरी कक्षा। बोध के बदलते स्तर एवं बनती-मिटती सीमाएँ। बाल विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय  तक सारे स्तर यहाँ अपने अस्तित्व में खुलते बन्द होते हैं। इन सभी स्तरों को एक के बाद उत्तीर्ण करना बड़ा कठिन है। अनुभव तो यही कहता है कि सद्गुरु के बिना इस भँवर से शायद ही कोई विरला निकल पाये।
    
सद्गुरु कृपा हि केवलम्। सवितर्क से निवितर्क तक मार्ग है। सवितर्क समाधि तक तो अनेकों आ पहुँचते हैं। पर निवितर्क तक कोई विरला ही पहुँच पाता है। इन्द्रिय अनुभूति से सवितर्क की अवस्था कठिन तो है, पर सम्भव है। पर सवितर्क से निर्वितर्क की अवस्था अति जटिल है। योग सूत्रों के बौद्धिक व्याख्याकार भले ही कुछ कहते रहें, भले ही वे इन दोनों अवस्थाओं में मात्र एक अक्षर का अंतर माने, पर यहाँ की सच्चाई कुछ और ही है। यहाँ तक कि यहाँ होने वाली एक हल्की सी भूल भी साधक की सम्पूर्ण साधना का समूचा सत्यानाश कर सकती है। ज्यादातर साधक इसी बिन्दु पर आकर या तो उन्मादी हो जाते हैं या पतित।
    
यहाँ उपजने वाले भ्रम साधकों को उन्मादी बनाते हैं और किसी पूर्व समय के दुष्कृत कर्मबीज साधकों को पतन के अँधेरों में ढँक देता है। बड़ी पीड़ादायक अवस्था है यह। संयम के साथ जितनी सावधानी यहाँ अपेक्षित है, उतनी शायद कहीं भी और कभी भी नहीं होती।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १६८
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

शनिवार, 9 जनवरी 2021

👉 चिंतन के क्षण Chintan Ke Kshan

🔸 वातावरण परिवर्तन का स्थूल स्वरूप आंदोलनपरक होता है। सूक्ष्म वातावरण विचार संघात एवं सद्भावनात्मक प्रयोगों से प्रवावित होता है। विशिष्ट आध्यात्मिक उपचारों की प्रचंड उर्जा उत्पन्न करके भी वातावरण बदला जा सकता है। प्रखर प्रतिभाएं अपनी प्राण शक्ति से युग को बदल सकती हैं। अवतारी महामानव समय के प्रवाह को पलटते हैं। ठीक इसी प्रकार तप साधना की चेतनात्मक  प्रचंड उर्जा सूक्ष्म जगत को परिष्कृत करके उसे इस योग्य बना सकती है कि उज्जवल भविष्य की संभावनाएं दैवी अनुग्रह की तरह उभरती, उमड़ती चली आएँ। व्यक्ति विशेष की तपश्चर्या और सामूहिक अध्यात्म साधना के यदि प्रबल प्रयास हो सकें तो वातावरण बदलने चमत्कार उत्पन्न हो सकते हैं।                     

🔹 मनुष्य समाज में वांछित परिस्थितिओं का निर्माण दो आधारों पर ही संभव है- एक है, मानवीय अंत:करण तथा दूसरा है, सूक्ष्म वातावरण। स्थूल साधन ,सुविधाएं एवं परिस्थितिओं में भी परिवर्तन लाना तो होगा, किन्तु वह वस्तुत: उपर्युक्त दोनों तथ्यों पर आधारित है। मूल आधारों में परिवर्तन या तो संभव ही नहीं, यदि हो भी जाए तो टिकाऊ नहीं रह सकता। मनुष्य के अन्त:करण के अनुसार ही उसकी गतिविधियां बनती हैं तथा उसी के अनुसार परिणाम उत्पन्न होने लगते  हैं।
    
🔸 युग परिवर्तन के लिए व्यक्ति और समाज में उत्कृष्टता के तत्वों का अधिकाधिक समावेश करने के लिए प्रबल प्रयत्नों का किया जाना आवश्यक है। व्यक्ति को चरित्रनिष्ठ ही नहीं, समाजनिष्ठ भी हॊना चाहिए। मात्र अपने आप को अच्छा रखना ही पर्याप्त नहीं। अपनापन विस्तृत होना चाहिए और अपने शरीर अवयवों, परिवार सदस्यों की तरह ही समूचे समाज की श्रेष्ठता को सुरक्षित रखने और बढ़ाने के लिए भी प्रयत्न चलाने चाहिए। 

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

मंगलवार, 5 जनवरी 2021

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ९५)

मंजिल नहीं, पड़ाव है—सवितर्क समाधि
    
महर्षि पतंजलि के इस सूत्र में योग साधकों के लिए महत्त्वपूर्ण सूचना है, गहरा संदेश है इसमें। और वह संदेश यह है कि ज्ञान का अधिष्ठान तो अपनी आत्मा है। अपने अस्तित्व के केन्द्र में पहुँचे बगैर सही ज्ञान, सही बोध सम्भव नहीं है। जब तक साधक की केन्द्र तक पहुँच नहीं, तब तक उसे ज्ञान के अनुमान मिलते हैं या फिर ज्ञान का आभास। और बहुत हुआ तो ज्ञान की झलकियों की स्थिति बनती है। इन्द्रियाँ जो देखती-सुनती हैं, उससे सच की सही समझ नहीं बन पड़ती। बुद्धि ठहरी अंधे की लाठी। जिस प्रकार अंधा लाठी के सहारे टटोलता है, अनुमान लगाता है, कुछ उसी तरह का। अंधे की समझ हमेशा शंकाओं से भरी होती है। बार-बार वह सच्चे-झूठे तर्कों व शब्दों के सहारे अपनी शंकाओं को दूर करने के लिए कोशिश करता है। परन्तु देखे बिना, सम्यक् साक्षात्कार के बिना भला सच कैसे जाना जा सकता है।
    
इसके बाद की अवस्था है-बुद्धि के पार की, अंतर्प्रज्ञा के जागरण की। यहाँ मिलती है झलकियाँ, यहाँ खुलता है दिव्य अनुभूतियों का द्वार। यहाँ झलक दिखाता है सच। कुछ यूँ जैसे कि घिरी बदलियों के बीच सूरज अपनी झलक दिखाये और फिर छुप जाये। एक पल का पुण्य आलोक और फिर बदलियों का छत्र अँधेरा। जिसे सवितर्क समाधि कहते हैं, वहाँ ऐसी झलकियों की लुका-छिपी चलती है। बड़ी अद्भुत भावदशा है यह। अंतश्चेतना की विचित्र भावभूमि है यहाँ।
    
यहाँ ज्ञान की कई धाराओं का संगम है। इन्द्रियों का सच, बुद्धि के  सच, अंतर्प्रज्ञा का सच, लोकान्तरों के सच और आत्मा का सच। सभी यहाँ घुलते-मिलते हैं। सवितर्क समाधि में कई रंग उभरते और विलीन होते हैं। समझ में ही नहीं आता कि असली रंग कौन सा है? किसे कहें और किससे कहें कि वास्तविक यही है। जो इससे गुजरे हैं अथवा जो इसमें जी रहे हैं, उन्हीं को इस अवस्था का दर्द मालूम है। क्योंकि बड़े भारी भ्रमों का जाल यहाँ साधक को घेरता है। और अंतस् में होती है गहरी छटपटाहट। समझ में ही नहीं आता कि सच यह है कि वह। यहाँ तक कि स्वयं अपने जीवन, चरित्र एवं चेतना के बारे कई तरह की शंकाएँ घर करने लगती है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १६७
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 चिंतन के क्षण Chintan Ke Kshan

🔸 हमारे चिन्तन में गहराई हो, साथ ही श्रद्धायुक्त नम्रता भी। अंतरात्मा में दिव्य-प्रकाश की ज्योति जलती रहे। उसमें प्रखरता और पवित्रता बनी रहे तो पर्याप्त है। पूजा के दीपक इसी प्रकार टिमटिमाते हैं। आवश्यक नहीं उनका प्रकाश बहुत दूर तक फैले। छोटे-से क्षेत्र में पुनीत आलोक जीवित रखा जा सके तो वह पर्याप्त है। परमात्मा के प्रति अत्यन्त उदारतापूर्वक आत्मभावना पैदा होती है वही श्रद्धा है। सात्विक श्रद्धा की पूर्णता में अंत:करण स्वत: पवित्र हो उठता है। श्रद्धायुक्त जीवन की विशेषता से ही मनुष्य स्वभाव में ऐसी सुंदरता बढ़ती जाती है, जिसे देखकर श्रद्धावान स्वयं संतुष्ट बना रहता है। श्रद्धा सरल हृदय की ऐसी प्रीतियुक्त भावना है, जो श्रेष्ठ पथ की सिद्धि कराती है।                       

🔹 जीवन का सम्मान ही आचार शास्त्र है। अनीति ही जीवन को नष्ट करती है। मूर्खता और लापरवाही से तो उसका अपव्यय भर होता है। बुरी तो बर्बादी भी है पर विनाश तो पूरी विपत्ति है। बर्बादी के बाद तो सुधरने के लिए कुछ बच भी जाता है पर विनाश के साथ तो आशा भी समाप्त हो जाती है। अनीति अपनाने से बढ़कर जीवन का तिरस्कार और कुछ हो नहीं सकता। पाप अनेकों हैं उनमें प्राय: आर्थिक अनाचार और शरीरों को क्षति पहुँचाने जैसी घटनाएं ही प्रधान होती हैं। इनमें सबसे बड़ा पातक जीवन का तिरस्कार है। अनीति अपनाकर हम उसे क्षतिग्रस्त, कुंठित, हेय और अप्रमाणिक बनाते हैं। दूसरों को हानि पहुँचाना जितनी बुरी बात है – दूसरों के ऊपर पतन और पराभव थोपना जितना निंदनीय है, उससे कम पातक यह भी नहीं है कि हम जीवन का गला अपने हाथों घोटें और उसे कुत्सित, कुंठित, बाधित, अपंगों एवं तिरस्कृत स्तर का ऐसा बना दें जो मरण से भी अधिक कष्टदायक हो। 
    
🔸 श्रद्धा तप है। वह ईश्वरीय आदेशों पर निरन्तर चलते रहने की प्रेरणा देती है। आलस से बचाती है। कर्तव्यपालन में प्रमाद से बचाती है। सेवा धर्म सिखाती है। अंतरात्मा को प्रफुल्ल, प्रसन्न रखती है। इस प्रकार के तप और त्याग से श्रद्धावान व्यक्ति के हृदय मॆं पवित्रता एवं शक्ति का भंडार अपने आप भरता चला जाता है। गुरु कुछ भी न दे  तो भी श्रद्धा में वह शक्ति है, जो अनन्त आकाश से अपनी सफलता में तत्व और साधन को आश्चर्यजनक रूप से खींच लेती है। ध्रुव, एकलव्य, अज, दिलीप की साधनाओं में सफलता का रहस्य उनके अंत:करण की श्रद्धा ही रही है। उनके गुरुओं ने तो केवल उसकी परख की थी। यदि इस तरह की श्रद्धा आज भी लोगों में आ जाए, लोग पूर्ण रूप से परमात्मा की इच्छाओं पर चलने को कटिबद्ध हो जाएं तो विश्वशांति, चिर-संतोष और अनन्त समृद्धि की परिस्थितियाँ बनते देर न लगे। उसके द्वारा सत्य का उदय, प्राकट्य और प्राप्ति तो अवश्यंभावी हो जाता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

रविवार, 3 जनवरी 2021

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ९४)

मंजिल नहीं, पड़ाव है—सवितर्क समाधि

सीमाओं से मुक्त गगन में श्वेत हंस की भाँति साधक उड़ना चाहता है। इसी लिए तो वह अंतर्यात्रा के लिए संकल्पित हुआ था, जिसके प्रयोगों में रहस्यमयता है, किन्तु इनकी परिणति बड़ी स्पष्ट है। जो इन प्रयोगों में संलग्न हैं, वे अपनी अनुभूति में इस सच का साक्षात्कार करते हैं। अन्तर्यात्रा विज्ञान के प्रयोगों में लवलीन साधक अपनी प्रयोग यात्रा में ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता है, त्यों-त्यों उसके सामने मानव चेतना के नये-नये पहलू उजागर होते हैं। शक्ति एवं ज्ञान के नव स्रोत खुलते हैं। ध्यान की प्रगाढ़ता होते ही योग साधक की अंतःऊर्जा भी प्रगाढ़ होने लगती है। साथ ही प्रखर होने लगती है उसके ज्ञान की रश्मियाँ। चेतना के उच्चस्तरीय आयाम उसमें झिलमिलाते हैं, झलकते हैं। सवितर्क समाधि में यह झलक और भी तीव्र होती है। परन्तु यह सब कुछ नहीं है। यहाँ से मंजिल का अहसास, आभास तो होता है, पर मंजिल अभी दूर ही रहती है।
    
हालाँकि यह स्थिति भी योग साधक की पवित्रता की गवाही देती है। वस्तुतः स्फटिक के समान शुद्घ मन में अंतर्प्रज्ञा जाग्रत तो होती है, परन्तु अभी आत्मा का सम्पूर्ण प्रकाश अस्तित्व में नहीं फैल पाता। यहाँ इस अवस्था में ज्ञान का अरुणोदय तो होता है, परन्तु ज्ञान सूर्य की प्रखरता का चरम बिन्दु अभी भी बाकी रहता है। यह स्थिति अँधेरे की समाप्ति की तो है, परन्तु पूरी तरह उजाला होने में अभी भी कसर बाकी रहती है। यह बीच की भावदशा है और कई बार यहाँ बड़े विभ्रम खड़े हो जाते हैं। क्या सच है और क्या नहीं है? यह प्रश्न सदा मन को मथते रहते हैं।
    
इस भावदशा को बताते हुए महर्षि का सूत्र है-
तत्र शब्दार्थ ज्ञान विकल्पैः सकीर्णा सवितर्का समापत्तिः॥ १/४२॥
शब्दार्थ— तत्र = उनमें; शब्दार्थज्ञानविकल्पैः = शब्द, अर्थ, ज्ञान इन तीनों के विकल्पों से; संकीर्णा = संकीर्ण-मिली हुई; समापत्तिः = समाधि; सवितर्का = सवितर्क है।

अर्थात् सवितर्क समाधि वह समाधि है-जहाँ योगी अभी भी वह भेद करने के योग्य नहीं रहता है, जो सच्चे ज्ञान के तथा शब्दों पर आधारित ज्ञान और तर्क या इन्द्रिय बोध पर आधारित ज्ञान के बीच होता है, क्योंकि यह सब मिली-जुली अवस्था में मन में बना रहता है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १६६
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...