शनिवार, 4 मार्च 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 05 March 2017


👉 आज का सद्चिंतन 05 March 2017


👉 जागृत हुई गाँव की सामूहिक शक्ति

🔴 यद्यपि मैंने कभी गुरुदेव के साक्षात् दर्शन नहीं किए और न ही दीक्षा ली। पर उनके साहित्य को पढ़कर क्रमशः उनके करीब आता चला गया। इन पुस्तकों के सहारे ही मैं वैज्ञानिक अध्यात्मवाद की गहराई में उतर सका और इस आध्यात्मिक यात्रा के क्रम में मैंने आचार्यश्री का वरण गुरु के रूप में कर लिया। उन्हें गुरु मान लेने के बाद से मुझे सूक्ष्म जगत से कई तरह के संकेत मिलने लगे। इन्हीं संकेतों के आधार पर आचार्यश्री की पुस्तकों को लेकर मैंने एक पुस्तकालय की स्थापना की, जिसमें आज अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व की पुस्तकें भी उपलब्ध हैं। पूज्य गुरुदेव ने स्वप्न में आकर मुझे लेखन कार्य के लिए प्रेरित किया। यह गुरुसत्ता की असीम अनुकम्पा का ही परिणाम है कि आज भी कृषि विज्ञान पर लिखी गयी मेरी पुस्तकों पर कृषि वैज्ञानिकों द्वारा शोध- कार्य किए जा रहे हैं। मेरे जीवन में पूज्य गुरुदेव के अनुदान की वर्षा इस प्रकार होती रही कि गाँव का एक साधारण- सा युवक होकर भी मैंने कई देशों की यात्रा सरकारी आमंत्रण पर की।

🔵 जीवन की छोटी- बड़ी अनेक विपत्तियों में मुझे पूज्य गुरुदेव का सहारा मिलता रहा। इन विपत्तियों के दौर में समाधान की ओर ले जाने वाले घटनाक्रम को देखकर यह बात साफ तौर से समझ में आ जाती थी कि यह समाधान किसी मानवीय प्रयासों से नहीं, अपितु सूक्ष्म चेतना के संरक्षण से मिला है।

🔴 इस तथ्य को मैंने पहली बार तब समझा, जब मेरे यहाँ डाका पड़ा। छोटी- मोटी चोरियाँ तो हमारे गाँव में हो जाया करती थीं लेकिन डकैती जैसे बड़ी वारदात से गाँव वाले उस वक्त तक परिचित नहीं हुए थे। जमींदार का परिवार होने के कारण डकैतों ने सबसे पहले मेरे ही घर पर हमला बोला। हट्टे- कट्टे शरीर वाले लगभग ४० डकैत, वह भी हथियारों से लैस। उन्हें देखते ही सभी के प्राण सूख गए। शिकार आदि के लिए शौकिया तौर पर पिताजी के पास एक बन्दूक थी, मगर अचानक हुए इस हमले के कारण पिताजी को बन्दूक तक पहुँचने का अवसर ही नहीं मिला। आते ही डकैतों ने उन्हें अपनी गिरफ्त में ले लिया। घर के सभी लोग बुरी तरह घबरा गए।

🔵 डकैतों ने हम सभी को पूरी तरह से आतंकित करने के लिए घर के लोगों को बेरहमी से पीटना शुरू कर दिया। मेरे अन्दर बार- बार इनका विरोध करने की प्रेरणा जाग रही थी, लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा था कि मुझे क्या करना चाहिए। उन्हें छुड़ाने के लिए आगे बढ़ने का तो प्रश्र ही नहीं था। उनकी बन्दूक कभी भी आग उगल सकती थी। डकैतों के इतने बड़े गिरोह से अकेला मैं मुकाबला करूँ तो कैसे करूँ। मैंने गुरुदेव का स्मरण किया और उनसे प्रार्थना की- हे प्रभु बताएँ, इस विपत्ति में मैं अपने परिवार की रक्षा कैसे करूँ।

🔴 मुझे लगा कि पूज्य गुरुदेव एक ही वाक्य बार- बार दुहरा रहे हैं- छत पर जा, छत पर जा....। पहले तो तनी हुई बन्दूक के सामने से भागने की हिम्मत नहीं पड़ी, पर तीसरी बार यह निर्देश मिलने के बाद मैं दौड़कर छत पर पहुँच गया। मन ही मन गुरु- गुरु, गायत्री- गायत्री जपता जा रहा था। एक छत से दूसरी छत पर कूदता हुआ मैं कई मकान आगे तक जा पहुँचा और जोर- जोर से शोर मचाने लगा। एक- एक कर लोग इकट्ठे होने लगे। सबके हाथों में लाठी- भाले आदि विभिन्न प्रकार के हथियार थे। सभी शोर मचाते हुए मेरे घर की ओर दौड़ पड़े। गाँव वालों की भारी भीड़ को पास आता देखकर डकैतों के हौसले पस्त हो गए। उस समय तक वे जो धन- संपत्ति समेट सके थे, उसे लेकर भाग खड़े हुए। गाँव वालों की सामूहिक शक्ति को मिली इस भारी जीत से सभी खुश थे। धन सम्पत्ति की तो काफी क्षति हुई थी, कई लोग घायल भी हो गए थे, लेकिन जान किसी की नहीं गई। खतरों से खेलकर मैंने जिस प्रकार पूरे गाँव को इकट्ठा किया, सभी बड़े- बूढ़े लोग उसकी सराहना कर रहे थे, मेरी उपस्थित बुद्धि को सराह रहे थे। एक ने पूछा- तुम्हें डर नहीं लगा? मैंने सच- सच बता दिया कि पहले तो डर रहा था, मगर गुरु- गुरु जपते ही सारा डर गायब हो गया।

🔵 पिताजी ने कहा- तुमने तो अभी तक दीक्षा भी नहीं ली है, फिर गुरु- गुरु क्यों कर रहे थे? मैंने उन्हें बताया कि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य की किताबों से मुझे वैज्ञानिक अध्यात्मवाद का जो गहरा ज्ञान मिला है उसी के कारण मैंने मानसिक रूप से गुरु के रूप में आचार्यश्री का वरण कर लिया है।

🔴 इस घटना के दौरान मुझे जिस प्रकार की आन्तरिक अनुभूति हुई थी उसे देखते हुए मेरे मन में यह विश्वास पूरी तरह से जम चुका था कि उन्होंने भी मुझे अपना शिष्य स्वीकार कर लिया है। इसके बाद भी कई बार अलग- अलग रूपों में उनके दर्शन होते रहे- कभी स्वप्न में, कभी प्रत्यक्ष।

🌹 कृष्णमुरारी किसान शेखपुरा (बिहार)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Wonderful/huai

👉 महाकाल का प्रतिभाओं को आमंत्रण (भाग 12)

🌹 प्रतिभा से बढ़कर और कोई समर्थता है नहीं  

🔴 उन्नति के अनेक क्षेत्र हैं, पर उनमें से अधिकांश में उठना प्रतिभा के सहारे ही होता है। धनाध्यक्षों में हेनरी फोर्ड, रॉक फेलर, अल्फ्रेड नोबुल, टाटा, बिड़ला आदि के नाम प्रख्यात हैं। इनमें से अधिकांश आरम्भिक दिनों में साधनरहित स्थिति में ही रहे हैं। पीछे उनके उठने में सूझ-बूझ ही प्रधान रूप से सहायक रही है। कठोर श्रमशीलता, एकाग्रता एवं लक्ष्य के प्रति सघन तत्परता ही सच्चे अर्थों में सहायक सिद्ध हुई है, अन्यथा किसी को यदि अनायास ही भाग्यवश या पैतृक सम्पत्ति के रूप में कुछ मिल जाए, तो यह विश्वास नहीं किया जा सकता कि उसे सुरक्षित रखा जा सकेगा या बढ़ने की दिशा में अग्रसर होने का अवसर मिल ही जाएगा।             

🔵 व्यक्ति की अपनी निजी विशिष्टताएँ हैं जो कठिनाइयों से उबरने, साधनों को जुटाने, मैत्री स्तर का सहयोगी बनाने में सहायता करती हैं। इन्हीं सब सद्गुणों का समुच्चय मिलकर ऐसा प्रभावशाली व्यक्तित्व विनिर्मित करता है, जिसे प्रतिभा कहा जा सके, जिसे जहाँ भी प्रयुक्त किया जाए, वहाँ अभ्युदय का-श्रेय-सुयोग का अवसर मिल सके।    

🔴 प्रतिभा के सम्पादन में, अभिवर्धन में जिसकी भी अभिरुचि बढ़ती रही है, जिसने अपने गुण, कर्म, स्वभाव को सुविकसित बनाने के लिए प्रयत्नरत रहने में अपनी विशिष्टता की सार्थकता समझा है, समझना चाहिए उसी को अपना भविष्य उज्ज्वल बनाने का अवसर मिला है। उसी को जन साधारण का स्नेह-सहयोग मिला है। संसार भर में जहाँ भी खरे स्तर की प्रगति दृष्टिगोचर हो, समझना चाहिए कि उसमें समुचित प्रतिभा का ही प्रमुख योगदान रहा है।     

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 सबका आदर सच्ची सभ्यता

🔴 राष्ट्रपति का घोड़ा शान के साथ आगे-आगे चल रहा था। पीछे कुछ साथी थे और बाद में अंगरक्षक घुडसवार। यह कोई राजकीय यात्रा न थी। मन बहलाव के लिये निकले थे सब लोग।

🔵 सडक पर बढ़ते हुए राष्ट्रपति को एक हबशी मिला हबशी ने राष्टाध्यक्ष को पहचाना उसने अपनी टोपी उतारी और झुककर प्रणाम किया फिर राष्ट्रपति ने भी अपनी टोपी उतारी और सिर झुकाकर अभिवादन का उत्तर अभिवादन से दिया। हबशी का मुख प्रसन्नता से खिल उठा, खुशी-खुशी एक ओर निकलकर अपने घर चला गया।

🔴 कुछ नजदीकी मित्र और संबंधी थे, राष्ट्रपति का प्रत्युत्तर में झुककर प्रणाम करना उन्हें अच्छा न लगा। इतने बडे राष्ट्र का स्वामी एक मामूली हबशी को विनम्र अभिवादन करे, इसमे कुछ शान का घटियापन लगा बेचारे बोल कुछ न सकते थे। सबके सब पीछे-पीछे चलते और मनोविनोद करते गये।

🔵 शाम को घर लौटे अतिथियों सहित सब लोग भोजन पर बैठे तो एक मित्र ने दिन वाला प्रसंग छेड दिया और कहा कहाँ उनकी यह संभ्रात स्थिति कहाँ वह गुलाम हबशी-आपको उसे मस्तक झुकाकर अभिवादन नहीं करना चाहिए था। वह एक साधारण व्यक्ति था। इसलिये उसे विनम्र होना अनिवार्य था आपके लिये नहीं राष्ट्रपति हँसे और बोले-ठीक कहते हो भाई राष्ट्रपति तो बहुत बडा़ आदमी होता है लेकिन क्या उसे बेअदब भी होना चाहिए 'राष्ट्रपति तो मैं इसलिये हूँ कि मुझमें शासन सत्ता संभालने की योग्यता अनुभव की गई है, पर यदि अपना राष्ट्रपति पद और उस व्यक्ति का हबशी कहा जाना दोनों निकाल दें तो फिर हम दोनों एक ही सामान्य श्रेणी के मनुष्य रह जाते है प्रत्येक मनुष्य रह जाते हैं। प्रत्येक मनुष्य दूसरे मनुष्य का आदर करे। भाइयो यही तो सच्ची सभ्यता है। पद-प्रतिष्ठा और उच्च सम्मान पाने का यह तो अर्थ नहीं है कि लोग मानवीय कर्तव्यों की अवहेलना करने लगें। उसने जिस आत्मीयता और सम्मान के साथ प्रणाम किया था, वैसे मैं न करता तो यह मानवता का अपमान न होता ?

🔴 मित्रों को उनकी बात के आगे कोई दलील सूझ न पडी़ तो भी अपने पक्ष की पुष्टि ले लिए उन्होनें इस बार राष्ट्रपति के परिवार वालों का समर्थन पाने की कोशिश की। उन्होंने कहा कुछ हो आप जैसे विद्वान और प्रतिष्ठित व्यक्ति को वैसा नहीं करना चाहिए।

🔵 राष्ट्रपति की धर्मपत्नी भी वहीं उपस्थित थी। उन्होंने कहा जॉर्ज साहब ने जो कुछ भी किया। वह आदर्श ही नहीं, अनुकरणीय भी है मनुष्य-मत्रुष्य में परस्पर भेद-भाव न रहे इसके लिये यह आवश्यक है कि ऊँची या नीची परिस्थितियों में रहते हुए भी आत्म-समानता का ध्यान रखा जाए। एक दिन था जब हम लोग निर्धन थे, सामान्य श्रेणी में गिने जाते थे। आज इस स्थिति में हैं, इसका यह तो अर्थ नहीं कि हम मनुष्य नहीं रह गये। मनुष्य के नाते इन्होंने जो कुछ किया, वही सही था। एक अनपढ व्यक्ति ने झुककर प्रणाम किया यह उसकी सभ्यता थी और यदि पढ़े-लिखे होकर भी ये वैसा प्रत्युत्तर न देते तो इससे बडी असभ्यता प्रकट होती।'' यह सुनकर सब उनसे सहमत हो गये।

🔴 यह राष्ट्रपति अमेरिका के निर्माता जार्ज वाशिंगटन थे।

🔵 प्रत्येक मनुष्य अपनी अच्छी-बुरी स्थिति का अच्छा-बुरा परिणाम पाता है, इसको मापदंड मानकर सभ्यता नही छोडी जा सकती है। ऊँच-नीच का भेदभाव न रखकर हर मनुष्य को सम्मान देना ही सच्ची सभ्यता है।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 63, 64

👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 28)

🌹 विचारशील लोग दीर्घायु होते हैं

🔴 विचार का चरित्र से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। जिसके विचार जिस स्तर के होंगे, उसका चरित्र भी उसी कोटि का होगा। जिसके विचार क्रोध प्रधान होंगे वह चरित्र से भी लड़ाकू और झगड़ालू होगा, जिसके विचार कामुक और स्त्रैण होंगे, उसका चरित्र वासनाओं और विषय-भोग की जीती जागती तस्वीर ही मिलेगी। विचारों के अनुरूप ही चरित्र का निर्माण होता है। यह प्रकृति का अटल नियम है। चरित्र मनुष्य की सबसे मूल्यवान् सम्पत्ति है। उससे ही सम्मान, प्रतिष्ठा, विश्वास और श्रद्धा की प्राप्ति होती है। वही मानसिक और शारीरिक शक्ति का मूल आधार है। चरित्र की उच्चता ही उच्च जीवन का मार्ग निर्धारित करती हैं और उस पर चल सकने की क्षमता दिया करती है।

🔵 निम्नाचरण के व्यक्ति समाज में नीची दृष्टि से ही देखे जाते हैं। उनकी गतिविधि अधिकतर समाज विरोधी ही रहती है। अनुशासन और मर्यादा जोकि वैयक्तिक से लेकर राष्ट्रीय जीवन की दृढ़ता की आधार-शिला है, निम्नाचरण व्यक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं रखती है। आचरणहीन व्यक्ति और एक साधारण पशु के जीवन में कोई विशेष अन्तर नहीं होता। जिसने अपनी यह बहुमूल्य सम्पत्ति खो दी उसने मानो सब कुछ खो दिया। सब कुछ पा लेने पर भी चरित्र का अभाव मनुष्य को आजीवन दरिद्री ही बनाये रखता है।

🔴 मनुष्यों से भरी इस दुनियां में अधिकांश संख्या ऐसों की ही है, जिन्हें एक तरह से अर्ध मनुष्य ही कहा जा सकता है। वे कुछ ही प्रवृत्तियों और कार्यों में पशुओं से भिन्न होते हैं, अन्यथा ये एक प्रकार से मानव-पशु ही होते हैं। इसके विपरीत कुछ मनुष्य बड़े ही सभ्य, शिष्ट और शालीन होते हैं। उनकी दुनियां सुन्दर और कलाप्रिय होती है। इसके आगे भी एक श्रेणी चली गई है, जिनको महापुरुष, ऋषि-मुनि और देवता कह सकते हैं।

🔵 समान हाथ-पैर और मुंह, नाक, कान के होते हुए भी और एक ही वातावरण में रहते मनुष्यों में यह अन्तर क्यों दिखलाई देता है? इसका आधारभूत कारण विचार ही माने गये हैं। जिस मनुष्य के विचार जिस अनुपात में जितना अधिक विकसित होने लग जाते हैं उसका स्तर पशुता से श्रेष्ठता की ओर उठता चला जाता है। असुरत्व, पशुत्व, ऋषित्व अथवा देवत्व और कुछ नहीं, विचारों के ही स्तरों के नाम हैं। यह विचार-शक्ति ही है, जो मनुष्य को देवता अथवा राक्षस बना सकती है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा (भाग 6)

🌹 अनास्था की जननी-दुर्बुद्धि

🔵 इस भ्रांत धारणा की एक हानि यह है कि मनुष्य स्वेच्छाचारी व अनाचारी बनता है और अपनी राह पर तीर की नोंक वाले काँटे बोने में लगा रहता है। न चाहते हुए भी अंधकारमय परिस्थितियों को अपने समीप बुलाने के लिये निमंत्रण देने में बाध्य रहा है। अभावग्रस्तता, विषमता और विपन्नताएँ प्राय: इसीलिए दीख पड़ती हैं। यदि सोच ठीक रही होती और उसके प्रकाश में सीधे मार्ग पर चल सकना संभव हुआ होता तो यहाँ सब लोग मिल-जुलकर रहते, हँसती-हँसाती जिंदगी जीते, एक-दूसरे को ऊँचा उठाने और आगे बढ़ाने में सहयोग करते।

🔴 तब सीमित साधनों में भी लोग संतुष्ट रहते और अभीष्ट वातावरण बना हुआ होता-हर किसी को अदृश्य मार्ग का दृश्यमान अरुणोदय अनुभव करने का अवसर मिल रहा होता पर उस दुर्बुद्धि को क्या कहा जाए जिसने मनुष्य को मर्यादाओं, प्रतिबंधों और वर्जनाओं को तोड़ने के लिये उद्धृत स्वभाव वाला वनमानुष बनाकर रख दिया है।         

🔵 आश्चर्य इस बात का है कि मनुष्य को बंदर बनाने वाली दो भूलें एक साथ जन्मी हैं और उसने एक ही चक्कर में पूरी तरह चोट करने के बाद आगे बढ़ने का सिलसिला बनाया है। दूसरी भूल है अपने स्वरूप, कर्तव्य और उद्देश्य को भूलने की तथा अपने अति निकट रहने वाले उदार स्वभाव वाले परम सज्जन भगवान् से परिचय बनाने तक की इच्छा न करने की अन्यमनस्कता-अवमानना अपने से बड़ी शक्ति के साथ संबंध जोड़ने की महत्ता को छोटे बच्चे तक समझते हैं।

🔴 वे उसी की ओर खिसकते हैं, जिसके पास खिलौने, चाकलेट और अच्छे उपहारों का सामान होता है; जो प्यार से बुलाते और दुलारपूर्वक गोदी में चढ़ाते हैं। जब इतनी समझ छोटे बालकों तक में पाई जाती है तो आश्चर्य होता है कि मनुष्य भगवान् का घनिष्ठ बनने या उसे अपना घनिष्ठ बनाने में इतनी अधिक उपेक्षा क्यों बरतता है। 

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 दीक्षा और उसका स्वरूप (भाग 10)

🌹 निर्मल-उदात्त जीवन की ओर
🔴   निर्मल जीवन जीने का अर्थ अपने शारीरिक क्रियाकलापों को अच्छा बनाना और अपनी मनोभूमि को परिष्कृत करना है।  मन में विचारणाएँ ऊँचे किस्म की हों और शरीर हमारा काम करें, सिर्फ ऊँचे किस्म के काम करे। इन दो गतिविधियों को आप योगाभ्यास कहिये, साधना कहिये, आध्यात्मिक प्रयोजन कहिये। जो आदमी इस काम को कर लेता है, वह स्वयं सब प्रकार से शक्तिशाली हो जाता है और जो शक्तिशाली हो गया है, उस शक्तिशाली मनुष्य के लिए सम्भव है कि अपनी जो क्षमताएँ हैं, उन्हें केवल अपनी उन्नति के लिए सीमाबद्ध न रखें मनुष्यके अन्तरंग की उदारता जब तक विकसित न हुई, दया जब तक विकसित न हुई, करुणा जब तक विकसित न हुई, आत्मीयता विकसित न हुई, और अपने आप को विशाल भगवान् के रूप में परिणत कर देने की इच्छा उत्पन्न न हुई, तब तक आदमी केवल अपने आपको निर्मल बना करके भी अपूर्ण ही बना रहेगा।

🔴 मनुष्य को अपने आप को निर्मल और उदात्त बनाना चाहिए। यही तो आध्यात्मिकता की राह पर चलने वाले दो कदम हैं। कोई भी आदमी आध्यात्मिकता की राह पर चलना चाहता है, तो उसको दोनों ही कदम आगे बढ़ाना है। कोई मंजिल आपको पूरी करनी है, तो लेफ्ट- राइट, लेफ्ट- राइट चलते हुए ही तो मंजिल पार करेंगे और कोई तरीका दुनिया में नहीं है।   

🔵 अब मैं चाहता हूँ कि लोगों के दिमाग में से वहम निकाल दिये जाने चाहिए। लोगों के दिमाग पर न जाने किन लोगों ने वहम पैदा कर दिया है कि भगवान् का नाम लेने से और उसकी माला जपने से और बार- बार पुकारने से और मंदिर के दर्शन करने से, कथा सुनने से और पंचामृत, पंजीरी खा जाने से, स्तोत्र पाठ करने से मनुष्य की आत्मा को शान्ति मिल सकती है और वह अपनी आत्मिक प्रगति कर सकता है।    

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Diksha/b

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...