रविवार, 12 फ़रवरी 2023

👉 जो औरों के काम आयें

समय की माँग के अनुरूप दो दबाव इन दिनों निरंतर बढ़ते जा रहे हैं। एक व्यापक अवांछनीयताओं से जूझना और उन्हें परास्त करना, और दूसरा है- नवयुग की सृजन व्यवस्था को कार्यान्वित करने की समर्थता। निजी और छोटे क्षेत्र में भी यह दोनों कार्य अति कठिन पड़ते हैं। फिर जहाँ देश, समाज या विश्व का प्रश्र है, वहाँ तो कठिनाई का अनुपात असाधारण होगा ही।

प्रगति पथ पर अग्रसर होने के लिए तदनुरूप योग्यता एवं कर्मनिष्ठ उत्पन्न करनी पड़ती हे। इनके बिना सामान्य स्थिति में रहते हुए किसी प्रकार दिन काटते ही बन पड़ता है। अनेकों समस्याएँ और कठिनाइयों, आए दिन त्रास और संकट भरी परिस्थितियों बनी रही रहती हैं। जो कठिनाइयों से जूझ सकता हैं और प्रगति की दिशा में बढ़ चलने के साधन जुटा सकता है, उसी को प्रतिभावानन्ï कहते हैं।
  
औचित्य कहाँ है, इसकी विवेचना बुद्धि इनमें नहीं के बराबर होती है। वे साधनों के लिए, मार्गदर्शन के लिए दूसरों पर निर्भर रहते हैं, यहाँ तक कि जीवनोपयोगी साधन तक अपनी स्वतंत्र चेतना के बलबूते जुटा नहीं पाते। उनके उत्थान पतन का निमित्त कारण दूसरे ही बने रहते हैं।
  
दूसरा वर्ग वह है जो समझदार होते हुए भी संकीर्ण स्वार्थपरता से घिरा रहता है। योग्यता और तत्परता जैसी विशेषताएँ होते हुए भी वे उन्हें मात्र लोभ, मोह, अहंकार की पूर्ति के लिए ही नियोजित किए रहते हैं।
  
तीसरा वर्ग प्रतिभाशालियों का है। वे भौतिक क्षेत्र में कार्यरत रहते हैं, तो अनेक व्यवस्थाएँ बनाते हैं। अनुशासन में रहते और अनुबंधों से बँधे  रहते हैं। बड़ी योजनाएँ बनाते और चलाते हैं। जिन्होंने महत्त्वपूर्ण सफलताएँ पाईं, प्रतिस्पर्धाएँ  जीतीं, उनमें ऐसी ही मौलिक सूझ-बूझ होती है।
  
सबसे ऊँची श्रेणी देवमानवों की है, जिन्हें महापुरुष भी कहते हैं। वे प्रतिभाशाली होते हैं, पर उसका उपयोग आत्म परिष्कार से लेकर लोकमंगल तक के उच्च स्तरीय प्रयोजनों में ही किया करते हैं। समाज के उत्थान और सामयिक समस्याओं के समाधान का श्रेय उन्हें ही जाता है। किसी देश की सच्ची संपदा वे ही समझ पाते हैं, जो अपने कार्यक्षेत्र को नंदनवन जैसा सुवासित करते हैं।
  
बड़े कामों को बड़े शक्ति केन्द्र ही सम्पन्न कर सकते हैं। दलदल में फँसे हाथी को बलवान्ï हाथी ही खींचकर पार करते हैं। पटरी से उतरे इंजन को समर्थ क्रेन ही उठाकर यथा स्थान रखती है। समाज और संसार की बड़ी समस्याओं को हल करने के लिए ऐसे ही वरिष्ठï प्रतिभावानों की आवश्यकता पड़ती है। प्रतिभाएँ वस्तुत: ऐसी सम्पदाएँ है, जिनसे न केवल प्रतिभाशाली स्वयं भरपूर श्रेय अर्जित करते हैं, वरन्ï अपने क्षेत्र, समुदाय और देश की अति विकट दीखने वाली उलझनों को भी सुलझाने में सफल होते हैं। इसी कारण भावनावश ऐसे लोगों को देवदूत तक कहते हैं।
  
आड़े समय में इन उच्च स्तरीय प्रतिभाओं की ही आवश्यकता होती है। उन्हीं को खोज और उभारा जाता है। मनस्वी, तेजस्वी और ओजस्वी ऐसे कर्मयोग की साधना में ही निरत रहते हैं, जो उनके व्यक्तित्व को प्रामाणिक और कर्तृत्व को ऊर्जा का उद्ïगम स्रोत सिद्ध कर सकें।
  
वर्तमान समय विश्व इतिहास में अद्ïभुत एवं अभूतपूर्व स्तर का है। इसमें एक ओर महाविनाश का प्रलयंकर तूफान अपनी प्रचंडता का परिचय दे रहा है, तो दूसरी ओर सतयुगी नवनिर्माण की उमंगें भी उछल रही हैं। विनाश और विकास एक दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी हैं, तो भी उनके एक ही समय में अपनी-अपनी दिशा में चल सकना संभव है। इन दिनों आकाश में सघन तमिस्त्रा का साम्राज्य है, तो दूसरी ओर ब्रह्मïमुहूर्त का आभास भी प्राची में उदीयमान होता दीख पड़ता है। इन दोनों के समन्वय को देखते हुए ही अपना समय युगसंधि का समय माना गया है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 आत्म बल और परमात्मा की प्राप्ति

जिस विचारधारा में मनुष्य परिभ्रमण करता है, वैसा ही स्वयं बनने लगता है, जो आदर्श, सिद्धांत, लक्ष्य, श्रद्धापूर्वक अंत:भूमि में धारण किये जाते हैं, उनका एक साँचा तैयार हो जाता है। इस साँचे में गीली मिट्टी की तरह मनुष्य ढलने लगता है और यदि कुछ समय लगातार, दृढ़ता एवं श्रद्धापूर्वक यह प्रयत्न जारी रहे, तो जीवन पकी हुई प्रतिमूर्ति की तरह ठीक उसी प्रकार का बन जाता है।

चोरी, डकैती, ठगी, व्यभिचार, बेईमानी आदि दुष्कर्म कोई व्यक्ति यकायक नहीं कर बैठता। विचार बहुत पूर्व से उसके मन में चक्कर लगाते हैं, इससे धीरे-धीरे उसकी प्रवृत्ति इस ओर ढलती जाती है और एक दिन सफल बदमाश बन जाता है। यही बात भलाई के मार्ग में होती है। बहुत समय तक स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन, मनन करने के उपरान्त उत्तम विचारों के संस्कार दृढ़ होते हैं, तब कहीं प्रत्यक्ष जीवन में वे लक्षण प्रगट होते हैं और वह वैसा बन जाता है।
  
पदार्थ विज्ञान के ज्ञाताओं को विदित है कि समान श्रेणी के पदार्थों की सहायता से सूक्ष्म तत्त्वों का आकर्षण और प्रगटीकरण हो सकता है। गन्धक, फास्फोरस, पुटाश, सरीखे अगिनतत्त्व प्रधान पदार्थों का अमुक प्रक्रिया के साथ संघर्ष करने से विश्वव्यापी सूक्ष्म अगिनतत्त्व चिनगारी के रूप में प्रगट हो जाता है। इसी प्रकार शब्द और विचारों की सहायता से चैतन्य तत्त्वों का आकर्षण और प्रगटीकरण हो सकता है।

एक लेखक या वक्ता एक विशेष अनुभूति के साथ लोगों के सामने अपने विचार इस प्रकार रखता है कि वे विविध भाववेशों में डूबने, उतराने लगते हैं। हँसते को रुला देनाा और रोते को हँसा देना कुशल वक्ता के बायें हाथ का खेल है। इसी प्रकार क्रोध, घृणा, प्रतिहिंसा या दया, क्षमा, उपकार आदि के भावावेश शब्द और विचारों की सहायता से किसी व्यक्ति में पैदा किये जा सकते हैं।
  
भावनाओं का आवागमन, शब्द और विचारों की सहायता से होता है, संगीत, नृत्य, गान, रोदन, हुंकार, गर्जना, गाली, ललकार, विनय, मुस्कराहट, अट्टïहास, तिरस्कार, अहंकार से सने हुए शब्द सुनने वालों के मन में विविध प्रकार के भाव उत्पन्न करते हैं और उन भावों से उत्तेजित होकर मनुष्य बड़े-बड़े दुस्साहसपूर्ण कार्य कर डालते हैं। शब्द और विचार मिलकर एक ऐसा शक्तिशाली माध्यम बन जाते हैं जो सूक्ष्म चैतन्य जगत में से उसी प्रकार के तत्त्वों को खींच लाते हैं और जिस स्थान पर उन्हें पटका गया था वहाँ प्रगट हो जाते हैं। दूसरों के ऊपर ही नहीं-अपने ऊपर भी अमुक प्रकार के चैतन्य तत्त्वों को इसी माध्यम द्वारा भराा जा सकता है। इससे प्रगट है कि परमाणुमय भौतिक जगत की भाँति, संकल्पमय चैतन्य जगत में भी वैसे माध्यम मौजूद हैं जो अदृश्य तत्त्वों और शक्तियों को खींच लाते हैं और उनका प्रत्यक्षीकरण कर देते हैं।
  
गायत्री की शब्दावली एक ऐसा ही माध्यम है। इसकी शब्द शृंखला का गुंथन इस प्रकार हुआ है कि भावना ग्रंथियाँ उत्तेजित होती हैं और यह मंत्रोच्चारण एक ऐसा शक्तिशाली माध्यम सूत्र बन जाता है जिसके द्वारा गायत्री की ब्राह्मी शक्ति सूक्ष्म लोक से खींच-खींच कर मनुष्य के अन्त:करण में जमा होने लगती है और वह दिव्य तत्त्वों से ओत-प्रोत होने लगता है। गायत्री की साधना से सतोगुण की ब्राह्मी भावनाएँ अन्त: प्रदेश में अपना केन्द्र स्थापित करती हैं। उन भावनाओं के अनुरूप आन्तरिक जीवन बन जाता है उसी प्रकार की प्रवृत्तियाँ बाह्यï जीवन में भी दृष्टिïगोचर होती हैं। आत्मा की समीप सत्, चित्त और आनन्दमय तत्त्वों का भण्डार प्रचुर मात्रा में जमा होने लगता है। यह संचय ही आत्मबल कहलाता है। इस प्रकार वेदमाता गायत्री की कृपा के साधक आत्म-बल सम्पन्न बन जाता है।

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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...