सोमवार, 29 अप्रैल 2019

अंतःकरण के धन को ढ़ूंढो | Look for the Treasure Within Yourself

👉 आज का सद्चिंतन 29 April 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 29 April 2019


👉 सकारात्मक सोच की शक्ति!

हम हमेशा एक कहावत सुनते हैं, जैसा हम सोचते हैं वैसा ही हम बन जाते हैं. ये कहावत पूरी तरह से सही हैं, क्योकि हमारा Mind एक वक्त में एक ही विचार कर सकता हैं Negative या Positive!

आप लोग हमेशा सुनते होंगे, हमें positive सोच रखनी चाहिए negative नहीं. क्या है ये positive और negative विचार?

दुनिया में हो रही घटनाओं को देखने का हम सभी का अपना अलग अलग नजरिया होता है। कुछ लोग इसे negative रूप में देखते हैं, अर्थात हमेशा कुछ न कुछ कमी निकालते रहते हैं जब कि कुछ लोग उसी घटना को positive रूप में देखते हैं और उसमे ये खोजते है कि इसमें क्या अच्छाई है, और उसी अच्छाई से सिख लेकर नित अपना जीवन सफल बनाते चले जाते हैं। वास्तव में हमारे जीवन में जो होता हैं अच्छे के लिए होता है। हमें कुछ समय के लिए उस घटना से दुःख जरुर होता है लेकिन बाद में यही पता चलता है कि ये हमारे लिए अच्छा ही हुआ।

आइये पढ़ते हैं एक कहानी >>>

एक ऋषि के दो शिष्य थे जिनमें से एक शिष्य सकारात्मक सोच वाला था वह हमेशा दूसरों की भलाई का सोचता था और दूसरा बहुत नकारात्मक सोच रखता था और स्वभाव से बहुत क्रोधी भी था। एक दिन महात्मा जी अपने दोनों शिष्यों की परीक्षा लेने के लिए उनको जंगल में ले गये।

जंगल में एक आम का पेड़ था जिस पर बहुत सारे खट्टे और मीठे आम लटके हुए थे। ऋषि ने पेड़ की ओर देखा और शिष्यों से कहा की इस पेड़ को ध्यान से देखो। फिर उन्होंने पहले शिष्य से पूछा की तुम्हें क्या दिखाई देता है।

शिष्य ने कहा कि ये पेड़ बहुत ही विनम्र है लोग इसको पत्थर मारते हैं फिर भी ये बिना कुछ कहे फल देता है। इसी तरह इंसान को भी होना चाहिए, कितनी भी परेशानी हो विनम्रता और त्याग की भावना नहीं छोड़नी चाहिए। फिर दूसरे शिष्य से पूछा कि तुम क्या देखते हो, उसने क्रोधित होते हुए कहा की ये पेड़ बहुत धूर्त है बिना पत्थर मारे ये कभी फल नहीं देता इससे फल लेने के लिए इसे मारना ही पड़ेगा।

इसी तरह मनुष्य को भी अपने मतलब की चीज़ें दूसरों से छीन लेनी चाहिए। गुरु जी हँसते हुए पहले शिष्य की बडाई की और दूसरे शिष्य से भी उससे सीख लेने के लिए कहा। सकारात्मक सोच हमारे जीवन पर बहुत गहरा असर डालती है। नकारात्मक सोच के व्यक्ति अच्छी चीज़ों मे भी बुराई ही ढूंढते हैं।

उदाहरण के लिए:- गुलाब के फूल को काँटों से घिरा देखकर नकारात्मक सोच वाला व्यक्ति सोचता है की “इस फूल की इतनी खूबसूरती का क्या फ़ायदा इतना सुंदर होने पर भी ये काँटों से घिरा है ”जबकि उसी फूल को देखकर सकारात्मक सोच वाला व्यक्ति बोलता है की “वाह! प्रकृति का कितना सुंदर कार्य है की इतने काँटों के बीच भी इतना सुंदर फूल खिला दिया” बात एक ही है लेकिन फ़र्क है केवल सोच का।

अब ये हम पर निर्भर करता है कि हम अपने दुखों को देखकर और दुखी होते चले जाएँ ये इससे सिख लेकर अपने जीवन को एक नयी दिशा में ले जाएँ। प्रकृति का ये नियम है कि आप जितना संघर्ष करोगे आपके सफलता का प्रतिशत उतना ही अधिक होगा। इसलिए संघर्ष करना हमारे जीवन का महत्वपूर्ण हिसा इससे भागे नहीं बल्क़ि इसे अपना दोस्त बना लें।

आप जब चाहे Negative Thinking को Positive Thinking में बदल सकते हैं। यदि आप Positive Thinking को पुरे निश्चय के साथ कई बार दोहराए की मुझे इस काम से डर नहीं लगता या कोई आशंका नहीं हैं मैं इसे बहुत अच्छे से पूरा करुगा या मेरा ये काम अवश्य सिद्ध होगा, तो आप निश्चत ही अपने काम में सफल हो जाऐगे।

अंत में कोई परिस्थिति कितनी भी बुरी क्यों न हो हमें उसे सकरात्मक नजरिये से देखना चाहिए क्योंकि ये हमारे जीवन को सफल बना सकता है, हमें इसकी power को अनदेखा नहीं करनी चाहिए।

👉 The Absolute Law Of Karma (Part 12)

MENTAL SUFFERINGS (Daivik–Dukhas):

All types of sorrows, mental suffering, are results of ‘Mental Sins’. Worry, anxiety, anger, humiliation, animosity, separation from a beloved one, fear, grief, etc. are signs of divine justice for mental sins. Mental sins are those willful karmas (deliberate acts) of mind, which are carried out under the influence of strong negative emotional stimuli. We may call mental sins as corrupt functions of mind like jealousy, perfidy, deception, annoyance, cruelty, etc., which pollute the environment around the inner psyche.Mental sins do not provide any physical gratification. Like a smoke-filled room, an environment created by pollutants of mind suffocates the soul. The soul, being a portion of the omnipresent Divinity, is intrinsically pure. It does not permit accumulation of sinful thoughts around itself and is always eager to push out of pollutants in someway or the other, in the same manner, as the body expels the harmful food. The soul is meticulously careful about its purity. The moment it finds the mental sins polluting its environment, it feels uncomfortable and immediately reacts to discard the pollutants. Though our external conscious mind is hardly aware, the inner, subtle mind is always seeking the opportunities to throw off this burden. Sometime, somehow, from somewhere, it involves man in situations, which neutralize the samskars created by mental sins through such reactions as humiliation, failure, disrepute, etc.

Death of a beloved person, loss in business and property, public-defamation, poverty etc. are also mental agonies. Such situations bringout the inner pain to the surface and the aggrieved person weeps, wails and is reminded of the futility of worldly attachments and impermanency of material things. Situations creating acute unhappiness bring out a greater awareness of the need for righteous living. Man is motivated to refrain from committing sinful deeds in future and follow an upright path in life. While attending funerals, people are reminded of the urgency of living a purposeful life. When suffering from financial loss man seeks God’s help. On being defeated and becoming unsuccessful, vanity is deflated. When the intoxication is over, the drunk begins to talk sense.

The only purpose of mental distress is to cleanse the mind of garbage of mental pollutants such as jealously, ingratitude, selfishness, cruelty, heartlessness cunning, hypocrisy and egoism. Through suffering, the intelligent divine mechanism ensures removal of samskars created by Prarabdha Karmas (discussed later). Pain and anguish spring forth to wash out the deleterious samskars generated by Prarabdha Karmas. Apparently, sins like theft, burglary, robbery, adultery, kidnapping and violence are committed physically, but since these are basically outer manifestation of mental stimuli such acts fall in the category of mental sins.

.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 20

रविवार, 28 अप्रैल 2019

👉 आज का सद्चिंतन 28 April 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 28 April 2019


👉 प्यार और भरोसे

एक सरल चित्र है, लेकिन बहुत ही गहरे अर्थ के साथ।

आदमी को पता नहीं है कि नीचे सांप है और महिला को नहीं पता है कि आदमी भी किसी पत्थर से दबा हुआ है।

महिला सोचती है: "मैं गिरने वाली हूँ! और मैं नहीं चढ़ सकती क्योंकि साँप मुझे काटने वाला है।"

आदमी थोड़ा अधिक ताक़त का उपयोग करके मुझे ऊपर क्यों नहीं खींच सकता है! "

आदमी सोचता है: "मैं बहुत दर्द में हूँ! फिर भी मैं अभी भी आपको उतना ही खींच रहा हूँ जितना मैं कर सकते हूँ!सामने वाला खुद कोशिश क्यों नहीं करता और थोड़ा कठिन चढ़ाई को पार कर लेता?"

नैतिकता: आप उस दबाव को देख नहीं सकते जो सामने वाला झेल रहा है, और ठीक उसी तरह सामने वाला भी उस दर्द को नहीं देख सकता जिसमें आप हैं।

यह जीवन है, भले ही यह काम, परिवार, भावनाओं, दोस्तों, परिवार के साथ हो, आपको एक-दूसरे को समझने की कोशिश करनी चाहिए, अलग-अलग सोचना, एक-दूसरे के बारे में सोचना और बेहतर तालमेल बिठाना चाहिए।

हर कोई अपने जीवन में अपनी लड़ाई लड़ रहा है और सबके अपने अपने दुख हैं इसीलिए कम से कम हम जब सभी अपनों से मिलते हैं तब एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप करने के बजाय एक दूसरे को प्यार, स्नेह और साथ रहने की खुशी का एहसास दें, जीवन की इस यात्रा को लड़ने की बजाय प्यार और भरोसे से आसानी से पार किया जा सकता है। 🙏🙏

👉 The Absolute Law Of Karma (Part 11)

THE THREE TYPES OF AGONIES AND THEIR CAUSATION

Sudden happenings of good fortune and misfortune are part of life and there is no escape from them. Saintpoet Soordas has rightly stated that the effects of actions (Karmas) cannot be avoided even with the best of guidance from an enlightened and experienced person. In spite of having Maharshi Vashishtha as his Guru, Sri Ram had to undergo the agony of the death of his father, abduction of his wife, Sita, and subsequently her forced banishment to rishi Valmiki’s Ashram. It would not be proper to assume that misfortunes are punishments given by an angry God to chastite an erring person. The Epic Ramayana says that each individual is himself personally responsible for his happiness and miseries (“Kahu na kowoo dukha-sukhkar data| Nij nij karm bhog sab bhrata||”). All beings reap the fruits of their own karmas. They rejoice or wail, weep and suffer because of their own doings. With each living being, God has provided an unerring and intelligent mechanism, which determines fruits of his actions. Like a fish swimming in the water of a snake moving on sand, we leave behind footprints of our own karmas. These impressions are known as “samskars” in spiratual parlance. Evil deeds generate distressful samskars, which in course of time sprout as sufferings, like self-growing thorny bushes.

Now we shall discuss the three categories of karmas, their characteristics and consequences.

Happiness and peace is the natural state of mind. Man is instinctively inclined to act for welfare of self and others, which naturally results in peace and joy. He suffers only when he is mentally disturbed. He dreads mental turbulence, sorrow and grief. Hence it would be useful to discuss about the causes of unhappiness. As the medical science has two independent streams, one for promotion of health and another for treatment of diseases, there are two branches of spiritual effects – one for promoting happiness and the other for unhappiness. Righteous living is essential for inner peace and happiness just as nutritional food is for health. In therapy it is necessary to first have a diagnosis and then look for treatment. The same holds true for unhappiness. By discarding the karmas, which produce bad Samskars, we can get rid of the resultant suffering and pain.

Let us now discuss the three types of sufferings in detail. As mentioned earlier, misfortunes influence a person by creating three types of adverse reactions: (1) Mental suffering, (2) Physical pain and (3) Distress caused by natural disasters. In spiritual parlance these are known as “Daivik”, “Daihik” and “Bhautik”- Dukhas.

.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 20

शनिवार, 27 अप्रैल 2019

👉 आज का सद्चिंतन 27 April 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 27 April 2019


👉 बुलंद हौसले

एक कक्षा में शिक्षक छात्रों को बता रहे थे कि अपने जीवन का एक लक्ष्य निर्धारित करो। वे सभी से पूछ रहे थे कि उनके जीवन का क्या लक्ष्य है? सभी विद्यार्थी उन्हें बता रहे थे कि वह क्या बनना चाहते हैं। तभी एक छात्रा ने कहा, 'मैं बड़ी होकर धाविका बनकर, ओलिंपिक में स्वर्ण पदक जीतना चाहती हूं, नए रेकॉर्ड बनाना चाहती हूं।' उसकी बात सुनते ही कक्षा के सभी बच्चे खिलखिला उठे। शिक्षक भी उस लड़की पर व्यंग्य करते हुए बोले, 'पहले अपने पैरों की ओर तो देखो। तुम ठीक से चल भी नहीं सकती हो।'

वह बच्ची शिक्षक के समक्ष कुछ नहीं बोल सकी और सारी कक्षा की हंसी उसके कानों में गूंजती रही। अगले दिन कक्षा में मास्टर जी आए तो दृढ़ संयमित स्वरों में उस लड़की ने कहा, 'ठीक है, आज मैं अपाहिज हूं। चल-फिर नहीं सकती, लेकिन मास्टर जी, याद रखिए कि मन में पक्का इरादा हो तो क्या नहीं हो सकता। आज मेरे अपंग होने पर सब हंस रहे हैं, लेकिन यही अपंग लड़की एक दिन हवा में उड़कर दिखाएगी।'

उसकी बात सुनकर उसके साथियों ने फिर उसकी खिल्ली उड़ाई। लेकिन उस अपाहिज लड़की ने उस दिन के बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा। वह प्रतिदिन चलने का अभ्यास करने लगी। कुछ ही दिनों में वह अच्छी तरह चलने लगी और धीरे-धीरे दौड़ने भी लगी। उसकी इस कामयाबी ने उसके हौसले और भी बुलंद कर दिए। देखते ही देखते कुछ दिनों में वह एक अच्छी धावक बन गई। ओलिंपिक में उसने पूरे उत्साह के साथ भाग लिया और एक साथ तीन स्वर्ण पदक जीतकर सबको चकित कर दिया। हवा से बात करने वाली वह अपंग लड़की थी अमेरिका के टेनेसी राज्य की ओलिंपिक धाविक विल्मा गोल्डीन रुडाल्फ, जिसने अपने पक्के इरादे के बलबूते पर न केवल सफलता हासिल की अपितु दुनियाभर में अपना नाम किया।

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2019

👉 Injustice should not be tolerated till the last breath

Mahmud Ghajnabi was going back after looting the temple of Somnath. He had an army of one lack soldiers. As soon as army his army reached the camp, they saw a squad of one hundred horse riders was coming towards them with the speed of arrow.  A seventy year old, Rajput was leading the squad.

Mahmood Ghajnani could not understand why such a small force of soldiers was coming to destroy them by fighting with our army of one lack soldiers. He sent a messenger to ask the objective of those soldiers.

The old Rajput leader said to that messenger to tell the emperor that we know the result to fight with force with so much of difference in power. But we do not forget that in any condition, we should not tolerate injustice till our last breath.
Squad of one hundred horse riders fought with readiness to sacrifice their own lives and walloped thousands in no time. While facing heavy force, they lost their lives but till the last breath they kept saying that they were enough to face those one lakhs even if they were hundred in numbers.

This kind of shocking battle had a huge impact on Mahmud. He got astonished with amazing bravery of Rajputs. He thought of a new formula while determining new future war policies. Indians cannot be won by force, they should use cheating to win them because the inhabitants of this country are not familiar with the cheating.

Akhand Jyoti 1974

👉 दोष नहीं गुण देखो

लोग एक दूसरे से लाभ उठाते हैं। परंतु यह नहीं जानते कि हम तभी एक दूसरे से लाभ उठा पाएंगे, जब हमारा संबंध परस्पर प्रेमपूर्ण हो। संबंध को स्वस्थ या प्रेमपूर्ण बनाए रखने के लिए यह नियम आवश्यक है, कि जिस के साथ आप संबंध रखते हैं, वह व्यक्ति आपसे प्रसन्न हो, तभी वह आपके साथ संबंध रखना चाहेगा, और मधुर संबंध बना भी रहेगा।

अब संबंध प्रेमपूर्ण हो, इसके लिए आवश्यक है कि आप उसके गुणों की चर्चा करें। उसकी यथा योग्य प्रशंसा करें। झूठी प्रशंसा न करें, पर जितने गुण उस व्यक्ति में वास्तव में हों, उतनी तो न्याय पूर्वक अवश्य करें।

ऐसा करने से आपका प्रेम बढ़ता है और बना रहता है। इसलिए संबंध को स्वस्थ एवं प्रेमपूर्ण बनाए रखने के लिए आवश्यक है, कि दूसरे व्यक्ति के गुणों की चर्चा की जाए। वह भी प्रसंग के अनुसार की जाए, उचित अवसर पर की जाए। चापलूसी भी ना हो।

और मनोविज्ञान की दूसरी बात यह है कि यदि आप दूसरे व्यक्ति के दोषों की चर्चा करेंगे, तो उसे कष्ट होगा, नाराजगी होगी। इससे आपका संबंध कमजोर हो जाएगा। इसलिए जहां तक संभव हो दूसरों के दोषों की चर्चा ना करें। यदि करनी ही पड़े, तो उसी से करें जिसका दोष हो। उसकी पीठ पीछे, दूसरों को दोष न बताएं। इससे अधिक हानि होती है।

सीधा उसी व्यक्ति को दोष बताने से कम हानि होती है।

तो कोशिश करें, कि दोषों की चर्चा कम से कम हो। वह भी सुधार के उद्देश्य से हो। झगड़ा करने या अपमानित करने के उद्देश्य से ना हो। गुणों की चर्चा अधिक हो, तो आपका संबंध प्रेमपूर्ण बना रहेगा। आप एक दूसरे को लाभ देते लेते रहेंगे।

👉 The Absolute Law Of Karma (Part 10)

THE SECRET OF UNEXPECTED GOOD FORTUNE AND MISFORTUNE

There are quite a few “Believers” in this world who correlate people, places and things with good and bad luck Such superstitions have caused extreme miseries to innocent persons. The root cause for such irrational behaviour is the belief that whatever come to pass is predestined by God and the beings created by Him have absolutely no role in shaping their own destiny. Quite a few persons in this world forsake their responsibility in the mistaken belief that the gain and loss being predestined, there is no necessity of personal effort. They mistakenly believe that they cannot change the Will of God who is supposed to have programmed their life beforehand. We often hear expression like – “Whatever is destined cannot be changed” or “Who can change the fate predestined by God?” or “It was the Will of God”. As a matter of fact man uses such expressions when he finds himself helpless, disturbed and confused while undergoing adversity.

In the absence of an understandable cause, the agitated mind finds a scapegoat in the Divine Will. Nevertheless, such outbursts do have an advantage. The help in releasing the stress of hte disturbed mind, which would have otherwise done incalculable harm to the person concerned. There are however many mautre persons who shirk their responsibility of self-effort to meet a given challenge under the pretext of inexorability of Divine Will.

Because of their influence, the less knowledgeable younger persons around them too begin to feel helpless and despaired because of teh so-called “inevitability of fate”.

Readers would appreciate how ignorance of the real causes of unexpected calamaties create ridiculuous concepts, wich distort and vitiate the value-system of life.

Since times immemorial, man has been attempting to correlate human activities with events of life over which he has no control. Research in deeper spirituality has discovered ways and means to find answers to such problems of life. In the following section, we shall discuss how mental and physical actions of an individual and collective activities of hte society become responsible for good fortune and misfortune of individuals and the community.

.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 19

👉 The Absolute Law Of Karma (Part 10)

THE SECRET OF UNEXPECTED GOOD FORTUNE AND MISFORTUNE

There are quite a few “Believers” in this world who correlate people, places and things with good and bad luck Such superstitions have caused extreme miseries to innocent persons. The root cause for such irrational behaviour is the belief that whatever come to pass is predestined by God and the beings created by Him have absolutely no role in shaping their own destiny. Quite a few persons in this world forsake their responsibility in the mistaken belief that the gain and loss being predestined, there is no necessity of personal effort. They mistakenly believe that they cannot change the Will of God who is supposed to have programmed their life beforehand. We often hear expression like – “Whatever is destined cannot be changed” or “Who can change the fate predestined by God?” or “It was the Will of God”. As a matter of fact man uses such expressions when he finds himself helpless, disturbed and confused while undergoing adversity.

In the absence of an understandable cause, the agitated mind finds a scapegoat in the Divine Will. Nevertheless, such outbursts do have an advantage. The help in releasing the stress of hte disturbed mind, which would have otherwise done incalculable harm to the person concerned. There are however many mautre persons who shirk their responsibility of self-effort to meet a given challenge under the pretext of inexorability of Divine Will.

Because of their influence, the less knowledgeable younger persons around them too begin to feel helpless and despaired because of teh so-called “inevitability of fate”.

Readers would appreciate how ignorance of the real causes of unexpected calamaties create ridiculuous concepts, wich distort and vitiate the value-system of life.

Since times immemorial, man has been attempting to correlate human activities with events of life over which he has no control. Research in deeper spirituality has discovered ways and means to find answers to such problems of life. In the following section, we shall discuss how mental and physical actions of an individual and collective activities of hte society become responsible for good fortune and misfortune of individuals and the community.

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✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 19

👉 आज का सद्चिंतन 26 April 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 26 April 2019


गुरुवार, 25 अप्रैल 2019

👉 आज का सद्चिंतन 25 April 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 25 April 2019


👉 The Absolute Law Of Karma (Part 9)

THE SECRET OF UNEXPECTED GOOD FORTUNE AND MISFORTUNE

There is a saying in the scriptures that the factors responsible for mental-physical agonies and natural disasters (Daivik-Daihik Bhautik Dukha) are selfgenerated. We often come across phenomena, which appear quite contradictory to the known laws of nature, creating doubts about the impartiality of divine justice. For instance, an honest, duty conscious, morally superior person is suddenly struck with a great misfortune in life as though he/she was being punished by God for a great sin. On the other hand, we find persons engaged in worst type of corrupt practices living in peace and prosperity. An idler wins a jackpot or inherits a fortune from unexpected quarters, whereas a hard working intelligent person is found suffering endlessly for want of basic necessities. One person achieves great success with little effort, whereas another does not succeed in spite of his best efforts.

Such phenomena are popularly ascribed to the role of the fate (prarbdh, bhagya, etc). Similarly, unprecedented natural calamities like famine, epidemics, tornadoes, deluge, damage by lightning and eqrthquake and ‘untimely death’are commonly attributed to the ‘Will of God’ and known as predestination (bhagya). Such unexpected happenings as financial loss, accidents, sudden mental / physical disability and physical separation from a dear one are also attributed to fate.

Such unexpected adversities are rare, but they do occur in life. At times, they leave such deep imprints on the psyche, that it is not possible to ignore them. Those who are not familiar with the mysteries of divine justice become very much perplexed by such phenomena and  form opinions, which are extremely dangerous for life. Many become resentful towards God, blame and abuse Him for an unjust injustice. A few even become atheists, considering the fuitility of worshiping God who does not respond to
prayers in distress, despite their prolonged adherences to religiosity. Then there is a class of devotees who serve the saints and worship deities in expectation of some material gains. However, it they are visited with some unfavourable phenomena coincidentally, their adoration changes to contempt or disbelief.

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✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 17

मंगलवार, 23 अप्रैल 2019

👉 आज का सद्चिंतन 23 April 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 23 April 2019


👉 अनीति को जीवित रहते सहन नहीं करना चाहिये

सोम नाथ का मन्दिर लूट कर महमूद गजनबी वापिस गजनी जा रहा था। उसके साथ एक लाख सेना थी।

एक पड़ाव पर जैसे ही सेना पहुँची कि डेढ़ सौ घुड़सवारों का एक जत्था लोहा लेने के लिये तीर की तरह बढ़ता आ रहा उनने देखा। टुकड़ों का नेतृत्व एक सत्तर वर्ष का बूढ़ा राजपूत कर रहा था।

महमूद गजनबी समझ नहीं सका कि इतनी छोटी टुकड़ी आखिर क्यों एक लाख सेना से लड़ कर अपने को समाप्त करने आ रही है। उसने दूत भेजा और इन लड़ाकुओं का मंतव्य पुछवाया।

बूढ़े नायक ने कहा— बादशाह से कहना — संख्या और साधन− बल में इतना अन्तर होने पर भी लड़ने का क्या परिणाम हो सकता है सो हम जानते हैं। पर भूलें यह भी नहीं कि अनीति को जीवित रहते सहन नहीं करना चाहिये।

घुड़सवारों की टुकड़ी जान हथेली पर, रख कर इस तरह लड़ी कि डेढ़ सौ न देखते−देखते डेढ़ हजार को धराशायी बना दिया। भारी प्रतिरोध में वह दस मर खप कर समाप्त हो गया। पर मरतेदम तक वे कहते यही रहे सदि हम प्रतिरोधी एक हजार भी होते तो इन एक लाख से निपटने के लिये पर्याप्त थे।

इस बिजली झपट लड़ाई का महमूद पर भारी प्रभाव पड़ा। वह राजपूतों की अद्भुत वीरता पर अवाक् रह गया। भविष्य की नीति निर्धारित करते हुए उसने नया आधार ढूँढ़ा। भारतीयों को बल से नहीं जीता जा सकता, उन पर विजय पाने के लिए छल का प्रयोग करना चाहिए। क्योंकि इस देश के निवासी छल से परिचित ही नहीं है।

📖 अखण्ड ज्योति 1974

गुरुवार, 18 अप्रैल 2019

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 18 April 2019



👉 आज का सद्चिंतन 18 April 2019


👉 The Absolute Law Of Karma (Part 8)

HOW DOES CHITRAGUPTA MAINTAIN THE RECORD?

A sinful act leaves an indelible dark spot on the conscience of a relatively more virtuous individual. In other words, the gravity of sin is considered lesser in the case of an illiterate, ignorant, uncivilized person. With the increase in wisdom a person acquires a greater capability to discriminate between right and wrong, proper and improper. The conscience becomes aware of the consequences of proper and improper actions. The “Voice of Conscience”, therefore, becomes more assertive. It becomes more responsible. None blames an infant for dirtying its undergarments. Nor does the child feel embarrassed for it.

On the other hand, if a grown-up person behaves in such a manner, the society considers it disgraceful and the individual too feels embarrassed and humiliated. With self-evolution, the soul also has to share additional responsibility for higher level of morality and ethics. A soldier will probably be discharged after a minor punishment an account of disobedience, but an officer will have to face court martial for a similar  misconduct. When wise, intelligent and empathic persons indulge in corrupts practices, Chitragupta records these in the category of grave sins.

Mythology tells us that king Nripa had to face hell for a minor offence. When an ignorant person commits a crime, it is not taken seriously, but if a person made responsible for upholding standards of morality for the masses (a brahmin) deviates from his course of duty, in the court of divine justice he/she deserves a stern punishment. A social reformer has the status of a leader in society. Being a leader has its own advantages, but the leader also has the highest responsibility. Knowledgeable persons have the formidable responsibility of adhering to upright conduct and unimpeachable character, failing which; divine justice will make them suffer the agony of falling from a mountaintop to the depths of a valley. In the following chapter we shall discuss the various types of actions (karmas) and their relationship with Divine Justice.

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✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 16

👉 आत्मचिंतन के क्षण 18 April 2019

★ आज मित्रता की आड़ लेकर शत्रुता बरतने का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। इसे चतुरता, कुशलता समझा जाता है और इस प्रयास में सफल व्यक्ति आत्म-श्लाघा भी बहुत करते हैं। साथी को मित्रता के जाल में फँसाकर उसकी बेखबरी का-भोलेपन का अनुचित लाभ उठा लेना यही आज तथाकथित चतुर लोगों की नीति बनती जा रही है। ऐसी दशा में मित्र और शत्रु की कसौटी को हर घड़ी साथ रखने की आवश्यकता है।

◆ किसी का सम्मान करने का अर्थ है- बदले में उसका सम्मान पाना। दूसरे कम कीमत में सम्मान पाने की बात बन ही नहीं सकती। सादगी से रहा जाय, शालीनता बरती जाये और दूसरों को संतुष्ट रखकर उन  पर अपना प्रभाव छोड़ने की कला सीखी जाये, इससे बढ़कर अपने आपको बड़ा बनाने-ऊँचा उठाने का कोई श्रेष्ठ उपाय है ही नहीं।

◇ विचार फालतू बात नहीं है। वह एक संज्ञा है। एक मजबूत ताकत है। उसका स्पष्ट स्वरूप है। उसमें  जीवन है। वह स्वयं ही हमारा मानसिक जीवन है। वह सत्य है। विचार ही मनुष्य का आदि रूप है। पानी में लकड़ी, पत्थर, गोली आदि फेंकने से जैसा आघात होता है, जैसा रूप बनता है, जो प्रभाव होता है, वैसा ही तथा उससे भी अधिक तेज आघात विचारों को फेंकने से होता  है। मनुष्य के जैसे  विचार होते हैं उसी दिशा में उसकी तीव्र उन्नति-अवनति होती जाती है।

■ आप अवकाश के क्षणों को व्यर्थ ही सिनेमा, क्लबों, व्यर्थ की बातचीत, ताश, चौपड़, गपबाजी, चुहल तथा बेमतलब की बातों में नष्ट कर देते हैं। ये तथाकथित मनोरंजन के साधन स्वस्थ नहीं है। जबकि स्वाध्याय से आप अपनी गुप्त शक्तियों का विकास करते हैं और समुन्नत आत्माओं के सत्संग में रहते हैं। वे आपको पवित्र कल्पनाएँ और विचार की नई दिशाएँ देते हैं। स्वाध्याय का साधन स्वस्थ और गुणकारी है। अतएव स्वाध्याय में प्रमाद नहीं करना चाहिए। यह हमारे  दैनिक जीवन का एक अंग होना चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 प्रज्ञा पुराण (भाग 1 द्वितीयोSध्याय) श्लोक 21 से 23

पिप्पलाद उवाच
महाभाग! न ते प्रश्न: केवलं दीपयत्यहो।
अध्यात्मतत्वज्ञानस्य सारतथ्यात्युतापि तु ॥२१॥
लोककल्याणकृच्चापि, श्रीष्यज्येनं तु ये जना:।
सत्यं ज्ञास्यन्ति यास्यन्ति श्रेयो मार्गेऽविपत्तया ॥२२॥
भवन्त: सर्व एतस्या: समस्यायास्तु कारणम्।
समाधानं च शृण्वन्तु सावधानेन चेतसा ॥२३॥

टीका- हे महाभाग! आपका प्रश्न न केवल अध्यात्म तत्वज्ञान के सार तथ्यों पर प्रकाश डालता है, वरन् लोक कल्याणकारी भी है। जो इस शंका समाधान को सुनेंगे, वे सभी सत्य को समझेंगे, विपत्ति से बचेंगे और श्रेय-पथ पर चल सकने में समर्थ होंगे। आप सब लोग इस समस्या का कारण और समाधान ध्यानपूर्वक सुनें ॥२१-२३॥

व्याख्या- महाप्राज्ञ पिप्पलाद प्रश्न की गम्भीरता को अनुभव करते हुए कहते हैं कि ऐसी जिज्ञासा का समाधान हर सुनने वाले को सत्य का बोध कराता है। वस्तुत: सुनते तो अनेक हैं पर वे अन्दर तक उसमें प्रवेश कर उसे जीवन में कहाँ उतार पाते हैं। सुनने वाले जिज्ञासु साधक वृत्ति के हों, जन कल्याण ही जिनका उद्देश्य हो, वे कथा श्रवण कर उसे सार्थक कर देते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञा पुराण (भाग १) पृष्ठ 41

बुधवार, 17 अप्रैल 2019

👉 सकारात्मक सोच:--

पुराने समय की बात है, एक गाँव में दो किसान रहते थे। दोनों ही बहुत गरीब थे, दोनों के पास थोड़ी थोड़ी ज़मीन थी, दोनों उसमें ही मेहनत करके अपना और अपने परिवार का गुजारा चलाते थे।

अकस्मात कुछ समय पश्चात दोनों की एक ही दिन एक ही समय पे मृत्यु हो गयी। यमराज दोनों को एक साथ भगवान के पास ले गए। उन दोनों को भगवान के पास लाया गया। भगवान ने उन्हें देख के उनसे पूछा, ” अब तुम्हे क्या चाहिये, तुम्हारे इस जीवन में क्या कमी थी, अब तुम्हें क्या बना के मैं पुनः संसार में भेजूं।”

भगवान की बात सुनकर उनमे से एक किसान बड़े गुस्से से बोला, ” हे भगवान! आपने इस जन्म में मुझे बहुत घटिया ज़िन्दगी दी थी। आपने कुछ भी नहीं दिया था मुझे। पूरी ज़िन्दगी मैंने बैल की तरह खेतो में काम किया है, जो कुछ भी कमाया वह बस पेट भरने में लगा दिया, ना ही मैं कभी अच्छे कपड़े पहन पाया और ना ही कभी अपने परिवार को अच्छा खाना खिला पाया। जो भी पैसे कमाता था, कोई आकर के मुझसे लेकर चला जाता था और मेरे हाथ में कुछ भी नहीं आया। देखो कैसी जानवरों जैसी ज़िन्दगी जी है मैंने।”

उसकी बात सुनकर भगवान कुछ समय मौन रहे और पुनः उस किसान से पूछा, ” तो अब क्या चाहते हो तुम, इस जन्म में मैं तुम्हे क्या बनाऊँ।”

भगवान का प्रश्न सुनकर वह किसान पुनः बोला, ” भगवन आप कुछ ऐसा कर दीजिये, कि मुझे कभी किसी को कुछ भी देना ना पड़े। मुझे तो केवल चारो तरफ से पैसा ही पैसा मिले।”

अपनी बात कहकर वह किसान चुप हो गया। भगवान से उसकी बात सुनी और कहा, ” तथास्तु, तुम अब जा सकते हो मैं तुम्हे ऐसा ही जीवन दूँगा जैसा तुमने मुझसे माँगा है।”

उसके जाने पर भगवान ने पुनः दूसरे किसान से पूछा, ” तुम बताओ तुम्हे क्या बनना है, तुम्हारे जीवन में क्या कमी थी, तुम क्या चाहते हो?”

उस किसान ने भगवान के सामने हाथ जोड़ते हुए कहा, ” हे भगवन। आपने मुझे सबकुछ दिया, मैं आपसे क्या मांगू। आपने मुझे एक अच्छा परिवार दिया, मुझे कुछ जमीन दी जिसपे मेहनत से काम करके मैंने अपना परिवार को एक अच्छा जीवन दिया। खाने के लिए आपने मुझे और मेरे परिवार को भरपेट खाना दिया। मैं और मेरा परिवार कभी भूखे पेट नहीं सोया। बस एक ही कमी थी मेरे जीवन में, जिसका मुझे अपनी पूरी ज़िन्दगी अफ़सोस रहा और आज भी हैं। मेरे दरवाजे पे कभी कुछ भूखे और प्यासे लोग आते थे। भोजन माँगने के लिए, परन्तु कभी कभी मैं भोजन न होने के कारण उन्हें खाना नहीं दे पाता था, और वो मेरे द्वार से भूखे ही लौट जाते थे। ऐसा कहकर वह चुप हो गया।”

भगवान ने उसकी बात सुनकर उससे पूछा, ” तो अब क्या चाहते हो तुम, इस जन्म में मैं तुम्हें क्या बनाऊँ।” किसान भगवान से हाथ जोड़ते हुए विनती की, ” हे प्रभु! आप कुछ ऐसा कर दो कि मेरे द्वार से कभी कोई भूखा प्यासा ना जाये।” भगवान ने कहा, “तथास्तु, तुम जाओ तुम्हारे द्वार से कभी कोई भूखा प्यासा नहीं जायेगा।”

अब दोनों का पुनः उसी गाँव में एक साथ जन्म हुआ। दोनों बड़े हुए।
पहला व्यक्ति जिसने भगवान से कहा था, कि उसे चारो तरफ से केवल धन मिले और मुझे कभी किसी को कुछ देना ना पड़े, वह व्यक्ति उस गाँव का सबसे बड़ा भिखारी बना। अब उसे किसी को कुछ देना नहीं पड़ता था, और जो कोई भी आता उसकी झोली में पैसे डालके ही जाता था।

और दूसरा व्यक्ति जिसने भगवान से कहा था कि उसे कुछ नहीं चाहिए, केवल इतना हो जाये की उसके द्वार से कभी कोई भूखा प्यासा ना जाये, वह उस गाँव का सबसे अमीर आदमी बना।

दोस्तों ईश्वर ने जो दिया है उसी में संतुष्ट होना बहुत जरुरी है। अक्सर देखा जाता है कि सभी लोगों को हमेशा दूसरे की चीज़ें ज्यादा पसंद आती हैं और इसके चक्कर में वो अपना जीवन भी अच्छे से नहीं जी पाते। मित्रों हर बात के दो पहलू होते हैं –

सकारात्मक और नकारात्मक, अब ये आपकी सोच पर निर्भर करता है कि आप चीज़ों को नकारत्मक रूप से देखते हैं या सकारात्मक रूप से। अच्छा जीवन जीना है तो अपनी सोच को अच्छा बनाइये, चीज़ों में कमियाँ मत निकालिये बल्कि जो भगवान ने दिया है उसका आनंद लीजिये और हमेशा दूसरों के प्रति सेवा भाव रखिये!!!

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 17 April 2019


👉 आज का सद्चिंतन 17 April 2019


👉 विद्या से विनय- Vidhya Se Vinay

महर्षि आरुणि के पुत्र श्वेतकेतु ने गुरुकुल में रहकर लगन के साथ विद्याध्ययन किया। साथ ही गुरु-सेवा से उनके कृपा पात्र भी बन गये। यद्यपि गुरु को अपने सभी शिष्य प्रिय थे तथापि अपने सेवा बल से श्वेतकेतु ने विशेषता प्राप्त करली थी। गुरु सेवा की कृपा से जहाँ उन्होंने शीघ्र ही चारों वेदों का अखण्ड ज्ञान प्राप्त कर लिया था। वहाँ गुरु की प्रशंसा और प्रियता के कारण उनमें कुछ अहंकार भी आ गया था। अपने पाण्डित्य के अभिमान में गुरु के सिवाय अन्य किसी का आदर करना ही भूल गये।

निदान श्वेतकेतु जब गुरु का आशीर्वाद और चारों वेदों का सम्पूर्ण ज्ञान लेकर घर आये तो अहंकारवश पिता को भी प्रणाम नहीं किया। उनके पिता महर्षि आरुणि को इसका बड़ा दुःख हुआ। दुःख इसलिये नहीं कि वे पुत्र के प्रणाम के भूखे थे और श्वेतुकेतु ने उन्हें प्रणाम नहीं किया। वरन् दुःख इसलिये हुआ कि पुत्र एक लम्बी अवधि के बाद जहाँ ज्ञानी वहाँ अभिमानी भी होकर आया है।

महर्षि आरुणि पुत्र की इस वृत्ति से चिन्तित हो उठे। क्योंकि वे जानते थे कि जिस विद्या के साथ विनय नहीं रहती वह न तो फलीभूत होती है और न आगे विकसित! उन्होंने पुत्र के हित में उसका यह विकार दूर करने के मन्तव्य से व्यंगपूर्वक कहा— “ऋषिवर ! आपने ऐसी कौन ज्ञान की गूढ़ पुस्तक पढ़ ली है जो गुरुजनों का आदर तक करना भूल गये। मानता हूँ आप बहुत बड़े विद्वान हो गये। चारों वेदों का ज्ञान आपने प्राप्त कर लिया है। किन्तु इसके साथ यह भी जानते होंगे कि विद्या का सच्चा स्वरूप विनय है। जब आप वही न सीख पाये विद्वान कैसे?

पिता की बात सुन कर श्वेतकेतु ने अपनी भूल अनुभव की और लज्जित होकर पिता के चरणों में गिर गये। महर्षि आरुणि ने श्वेतकेतु को उठाकर छाती से लगा लिया और कहा— ”अभिमान तुम्हें नहीं, अपने पुत्र की विद्वता पर अभिमान तो मुझे होना चाहिये था।”

👉 The Absolute Law Of Karma (Part 7)

HOW DOES CHITRAGUPTA MAINTAIN THE RECORD?

In the realm of God of Divine Law (Dharmaraj), the decorations of the exterior world have no values. There only the interior worth is evaluated. It hardly matters whether externally an action of a person appears good or bad. The determining factor is the interior or emotional input. The roots of vice and virtue unquestionably lie in the motives and intensity of emotions and not in the external deeds. In the foregoing paragraphs we have discussed how the deity Chitragupta living intimately associated with our inner lives (Pranas), impartially records our good and bad deeds on the sub-microscopic elements of our inner conscience and that this subtle recording is popularly known as the “Lines of Fate” (Karma Rekha). We have also understood that the process of divine justice does not regard an act as sinful or virtuous by the external appearance of the activity but on the basis of the quality of the motive of the doer. The intensity of motive is directly proportional to the gravity or greatness of the sin or virtue respectively.

Take the case of two individuals nursing a sick person. Apparently both are engaged in the same service, but whereas one is doing it indifferently, the other serves with tenderness, sympathy, large-heartedness and love. Here, in spite of apparently identical service, the measure of virtue will depend on the quality of emotional involvement and love. Similarly, amongst two thieves, one of which is compelled to steal because of starvation and the other steals for acquiring drugs, the sin will undoubtedly be considered greater in the latter case.

deeds on the sub-microscopic elements of our inner conscience and that this subtle recording is popularly known as the “Lines of Fate” (Karma Rekha). We have also understood that the process of divine justice does not regard an act as sinful or virtuous by the external appearance of the activity but on the basis of the quality of the motive of the doer. The intensity of motive is directly proportional to the gravity or greatness of the sin or virtue respectively. Take the case of two individuals nursing a sick person. Apparently both are engaged in the same service, but whereas one is doing it indifferently, the other serves with tenderness, sympathy, large-heartedness and love. Here, in spite of apparently identical service, the measure of virtue will depend on the quality of emotional involvement and love.

Similarly, amongst two thieves, one of which is compelled to steal because of starvation and the other steals for acquiring drugs, the sin will undoubtedly be considered greater in the latter case. hell depend on the state of consciousness i.e. wisdom of the being. If accused of bribery, a peon, a clerk and a juror will receive three different types of punishment. The peon may be acquitted after a serious reprimand, the clerk may be temporarily suspended from the service; but having been entrusted with a great responsibility, the juror cannot escape dismissal. Take one more example. A primitive tribesman hunts and kills animals for his daily meal. On the other hand, a priest preaching virtues of non-violence secretly consumes non-vegetarian food. In Divine Jurisprudence, the priest will add greater sin to his account than the tribesman. Here the states of awareness and morality are being considered for evaluation of the merit or demerit of the deed. As the soul becomes more evolved with acquisition of greater wisdom and morality, the inner conscience (Antaha Chetna) becomes more and more awakened and refined.

.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 14

👉 याज्ञवल्क्य- मैत्रेयी संवाद

महर्षि याज्ञवल्क्य अपनी सम्पत्ति दोनों पत्नियों में बराबर- बराबर बांटकर गृहत्याग के लिए उद्यत मैत्रेयी' को '' संतोष नहीं हुआ।वह पूछ ही बैठी-। ' '' भगवन्। क्या मै इस सबको ले जीव इस सबको ले जीव मुक्ति का लाभ प्राप्त कर सकूँगी' महर्षि ने कहा- ' '' साधन- सुविधा सम्पन्न सुखी जीवन जैसा अब तक चला है आगे भी चलता रहेगा और अन्य सांसारिक लोगों की तरह तुम भी जीवन सुखमय बिता सकोगी।

मैत्रेयी का अन्तर्द्वन्द्व शान्त नहीं हुआ, वे बोली-

येनाहंनामृता स्याम् किमहं तेन कुर्याम्।

''जिससे मुझे अमरत्व प्राप्त न उसे लेकर मैं क्या करूंगी? यह पूछा जाने पर कि वे क्या चाहती हैं- मैत्रेयी ने महर्षि के चरणों में शीश झुकाते हुए कहा-

'' 'असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, '' मृत्योर्माऽमृतं गमय।' ''

''हे प्रभो! रुद्र बनकर मेरे अन्त : के अन्धकार को नष्ट कर''। मुझे भी आप अपने आत्मिक पुरुषार्थ का सहभागी बनायें।''

कात्यायनी ने भौतिक सुख सम्पत्ति- ऐश्वर्य को वरीयता दी और उसे पाया। मैत्रेयी चाहती थी उस परम- तत्व का साक्षात्कार, एकानुभूति, नित्य- दर्शन जो सत्य, ज्योतिर्मय स्वरूप है, जो उसके जीवन का चिर प्रकाश बन सके। याज्ञवल्क्य ने प्रसन्नचित्त हो मैत्रेयी को ब्रह्मज्ञान की शिक्षा दी। उसे पति के साथ श्रेष्ठ ऋषि पद मिला।

हम भी जीवन भर नाना प्रकार के ऐश्वर्य एकत्र करते हैं व अन्त : में स्थित '' मैत्रेयी कात्यायनी '' को सौंपते हुए कहते हैं- लो। इससे तुम्हें प्रसन्नता होगी, आनन्द मिलेगा, किन्तु अन्त : में बैठी यह मैत्रेयी आत्मिक प्रगति की ओर अग्रसर व्यक्ति से पूछती है- '' येनाहं नामृता स्याम् किमहं तेन कुर्याम्?' इस प्रार्थना को हम एकाग्रता के साथ सुनें व उसकी इच्छा पूर्ति करें तो कोई कारण नहीं कि यह जीवन अमृतमय न बन जाय।

📖 प्रज्ञा पुराण भाग 1

👉 प्रज्ञा पुराण (भाग 1 द्वितीयोSध्याय) श्लोक 16 से 20

साश्चर्यस्यासमञ्जस्य कारणं किं भवेदहो।
न सामान्यं धियामेतज्ज्ञातव्यं तु प्रतीयते ॥१६॥
हेतुना सरहस्येन भवितव्यमिह ध्रुवम्।
हेतुमेनं तु विज्ञातुमिच्छास्माकं प्रजायते ॥१७॥
महाप्राज्ञो भवाँस्तत्ववेत्ता कालत्रयस्य च।
द्रष्टाऽमिवज्ञातगुह्यानां ज्ञाता ग्रन्थिं विमोचय ॥१८॥
इदं ज्ञातुं वयं सर्वे त्वातुराश्च समुत्सुका:।
अष्टावक्रस्य जिज्ञासां श्रुत्वा तु ब्रह्मज्ञानिन: ॥१९॥
महाप्राज्ञ: पिप्पलाद: गम्भीरं प्रश्नमन्वभूत्।
प्रशशंस च प्रश्नेऽस्मिन्नवदच्च ततःस्वयम्॥२०॥

टीका- इस आश्चर्य भरे असमंजस का क्या कारण हो सकता है, यह सामान्य बुद्धि की समझ से बाहर की बात है। इसके पीछे कोई रहस्यमय कारण होना चाहिए। इस कारण को जानने की हम सबको बड़ी इच्छा है। आप महाप्राज्ञ है, तत्ववेत्ता है त्रिकालदर्शी हैं अविज्ञात रहस्यों को समझने वाले हैं। कृपया इस गुत्थी को सुलझाइये। हम सब यह जानने के लिए आतुरतापूर्वक इच्छुक हैं। ब्रह्मज्ञानी अष्टावक्र जी की जिज्ञासा सुनकर महाप्राज्ञ पिप्पलाद ने प्रश्न की गम्भीरता अनुभव की। प्रश्न उभारने के लिए उन्हें सराहा और कहा॥१६-२०॥

व्याख्या- यदि यह प्रकरण सामान्य चर्चा से सुलझने जैसा होता तो प्रज्ञासत्र में इस जिज्ञासा को उठाये जाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। यह ऋषि-कालीन परम्परा है कि ऐसे असाधारण-मानवी गरिमा से जुड़े प्रश्नों पर तत्वज्ञान के मर्मज्ञ महाप्राज्ञों से समाधान पूछे जाते रहे हैं एवं तदनुसार अदृश्य, सूक्ष्म जगत में वातावरण बजाया जाता रहा है। जनक एवं याज्ञवस्थ्य तथा काकभुशुण्डि एवं गरुड़ सम्वाद भी इसी प्रयोजन से सम्पन्न हुए हैं। सूत-शौनक सम्वाद के माध्यम से आर्ष ग्रन्थकार ने कथोपकथन से अनेकानेक समस्याएँ उभारी व सुलझाई हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञा पुराण (भाग १) पृष्ठ 40

शनिवार, 13 अप्रैल 2019

👉 साधना से सिद्धि

प्रतिदिन प्रातःकाल अथवा सांयकाल एकान्त स्थान में चले जाओ। तुम्हारा चित्त चंचल या आकर्षित करने का कोई साधन न हो। शान्तचित से नेत्र मूँद कर बैठ जाओ। क्रमशः अपने मने की क्रियाओं का निरीक्षण करो। इन सब विचारों को एक-एक करके निकाल डालो, यहाँ तक कि तुम्हारे मन में कुछ भी न रहे। वह बिल्कुल साफ हो जाये। अब दृढ़तापूर्वक निम्न विचारों की पुनरावृति करो-

‘‘मैं आज से एक नवीन र्माग का अनुसरण कर रहा हूँ, पुराने त्रुटियों से भरे हुए जीवन को सदा र्सवदा के लिए छोड़ रहा हूँ। दोषपूर्ण जीवन से मेरा कोई सरोकार नहीं। वह मेरा वास्तविक स्वरूप कदापि नहीं था।’’

‘‘अब तक मैं शृंगार, देह पूजा, टीप-टाप में ही संलग्र रहता था। दूसरों के दोष निकालने, मजाक उड़ाने, त्रुटियों, कमजोरियों के निरीक्षण तथा आलोचना करने में रस लेता था, पर अब मैं इस अन्धकारमय कूप से निकल गया हूँ। अब मैं इन क्षुद्र उलझनों में नही पड़ सकता। ये अभद्र भ्रांतियाँ, रोग, दुःख, शोक आदि मेरी आत्मा में प्रवेश नहीं कर सकतीं। संसार की क्षणभंगुर वासना तरंगे अब मुझे पथ विचलित नहीं कर सकतीं।’’

‘‘मैं मिथ्या अभिमान में दूसरों की कुछ परवाह नहीं करता था, मदहोश था, अपने को ही कुछ समझता था, किन्तु आत्मा के अन्दर प्रवेश करने से मेरा मिथ्या गर्व चूर्ण हो गया है। मुझे अपने पूर्व कृत्यो पर हँसी आती है।’’

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 साधना से सिद्धि वाङमय क्रमांक-5 पृष्ठ-8.32

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2019

👉 जहाँ प्रेम है, वहाँ लक्ष्मी का वास है।

एक व्यापारी से लक्ष्मी जी रूठ गई। जाते वक्त बोली मैं जा रही हूँ और मेरी जगह टोटा (नुकसान) आ रहा है। तैयार हो जाओ। लेकिन मै तुम्हे अंतिम भेट जरूर देना चाहती हूँ। मांगो जो भी इच्छा हो।

बनिया बहुत समझदार था। उसने 🙏 विनती  की टोटा आए तो आने दो। लेकिन उससे कहना की मेरे परिवार में आपसी  प्रेम बना रहे। बस मेरी यही इच्छा है। लक्ष्मी जी ने तथास्तु कहा।

कुछ दिन के बाद :-

बनिए की सबसे छोटी बहू खिचड़ी बना रही थी। उसने नमक आदि डाला और अन्य  काम करने लगी। तब दूसरे लड़के की बहू आई और उसने भी बिना चखे नमक डाला और चली गई। इसी प्रकार तीसरी, चौथी बहुएं आई और नमक डालकर चली गई। उनकी सास ने भी ऐसा किया।

शाम को सबसे पहले बनिया  आया। पहला निवाला मुह में लिया। देखा बहुत ज्यादा नमक है। लेकिन वह समझ गया टोटा (हानि) आ चुका है। चुपचाप खिचड़ी खाई और चला गया। इसके बाद बङे बेटे का नम्बर आया। पहला निवाला मुह में लिया। पूछा पिता जी ने खाना खा लिया। क्या कहा उन्होंने?

सभी ने उत्तर दिया-" हाँ खा लिया, कुछ नही बोले।"
अब लड़के ने सोचा जब पिता जी ही कुछ नही बोले तो मै भी चुपचाप खा लेता हूँ।
इस प्रकार घर के अन्य सदस्य एक-एक आए। पहले वालो के बारे में पूछते और चुपचाप खाना खा कर चले गए।

रात को टोटा (हानि) हाथ जोड़कर बनिए से कहने लगा-,"मै जा रहा हूँ।"
बनिए ने पूछा- क्यों?

तब टोटा (हानि) कहता है, "आप लोग एक किलो तो नमक खा गए। लेकिन बिलकुल भी झगड़ा नही हुआ। मेरा यहाँ कोई काम नहीं।"

निचौङ

⭐ झगड़ा कमजोरी,  टोटा, नुकसान की पहचान है।

👏 जहाँ प्रेम है, वहाँ लक्ष्मी का वास है।

🔃 सदा प्या -प्रेम  बांटते रहे। छोटे-बङे की कदर करे।

जो बङे हैं, वो बङे ही रहेंगे। चाहे आपकी कमाई उसकी कमाई से बङी हो।

👉 आज का सद्चिंतन 12 April 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 12 April 2019


👉 शक्ति व स्वास्थ्य प्राप्त करो

इस प्रकार के कितने ही मनुष्य हैं जो दूसरों की भलाई करते हैं पर स्वयं अपना भला नहीं चाहते। वे न तो अपने शरीर और स्वास्थ्य की ही परवाह करते हैं और न अपनी शक्तियों का सदुपयोग। वे दूसरे के मित्र बनना चाहते हैं पर अपने शत्रु बने हुए हैं। दूसरों के साथ भलाई करना अच्छा है पर अपने साथ भलाई करना उससे भी अच्छा है। हर एक व्यक्ति का धर्म है कि मैं ईश्वर की सन्तान हूँ-उसी का प्रतीक हूँ।

ऐसे बहुत से मनुष्य हैं जो चाहें तो बहुत बड़े काम कर सकते हैं परन्तु कर नहीं पाते। उनका जीवन निराशा के झूले में झूलता हुआ उन छोटे कामों में ही व्यतीत हो जाता है। कारण यह है कि उनमें इतनी शक्ति नहीं रही कि वे अपनी कठिनाइयों को दूर कर सकें और विघ्न -बाधाओं को हटा सकें। उन्होंने अपने शरीर की रक्षा नहीं की है और इसी कारण उनका हृदय दुर्बल हो गया है तथा इन्द्रियाँ शिथिल पड़ गई हैं ज़रा ज़रा से कामों के करने पर वे थक जाते हैं।

हमारी शक्ति का बहुत बड़ा भाग क्रोधादि दुर्गुणों से नष्ट हो जाता है। शरीर को भस्म कर देने के लिये क्रोध से बढ़कर कोई चीज़ नहीं। क्रोधी मनुष्य रात-दिन अपने को जलाता रहता है । चिन्ता की उपमा चिता से होती है। ईर्ष्या, द्वेष, निन्दा, घृणा सब शरीर को घुलाने वाली हैं। इनसे मन और शरीर दोनों की अवनति होती है।

तुम्हारे जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य यह होना चाहिए कि अपनी शारीरिक और मानसिक शक्तियों को ऊंची से ऊंची बनाओ।

📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1941 पृष्ठ 10

👉 The Absolute Law Of Karma (Part 6)

HOW DOES CHITRAGUPTA MAINTAIN THE RECORD?

Let us take an example. In a remote, undeveloped tribal area, one may barter a kilogram of food grains for sugar, but in a developed country one has to pay in hard currency. In the material world, people do earn fame and name by making large contributions to charity, helping in popular welfare activities, joining religious or charitable institutions, delivering or listening to sermons, and participating in pilgrimages; but the “Domain of Chitragupta” does not accept this currency. The ledgers of this domain record only debits and credits of motives and emotional involvements in the performance of deeds and convert these into virtues and sins accordingly.

Upon being exhorted by his Divine Teacher Krishna, Arjun got millions killed in the war of Mahabharata. This great confrontation, during which the entire battlefield became littered with corpses, took place because Arjun agreed to take part in the war. In this way, Arjun could have been considered as a great sinner, but Chitragupta gave credit to his motive for waging the Mahabharata war. Arjun’s intentions were pious. He had fought only to re-establish the ‘Moral Order’ (Dharma Sthapana). Chitragupta’s ledger did not take into account the slain bodies of the dead soldiers. Physical objects have no relevance in the invisible realm.

Chitragupta simply ignored the number of toys of flesh and bones destroyed during the war. Does a king bother about the number of toys broken or the number of grains spilled? In this world billionaires are held in high regard but in the realm of Chitragupta they are paupers and nonentities. On the other hand a poor man of this world, if he is kind hearted, could be counted in the realm of Chitragupta amongst the king of kings. Whatever a man does, only his motives-good or bad are recorded in the corresponding account of Chitragupta. A public executioner, who, in course of duty, hangs a person condemned to death without any malice, could be considered a virtuous person by Chitragupta, Whereas a priest, who meticulously follows the rituals, but is secretly engaged in corrupt practices will be labelled as a sinner.

.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 13

👉 आत्मचिंतन के क्षण 12 April 2019

★ स्पष्ट है कि मनेाबल छोटी-छोटी सफलताएँ प्राप्त करते-करते विकसित होता है। वह आसमान से किसी पर नहीं टपकता। छोटे कदम, छोटे प्रयोग, छोटी सफलता का क्रम चलता रहे तो मनुष्य क्रमशः अधिक आत्म विश्वासी बनता जाता है और इस आधार पर विकसित हुई प्रतिभा के सहारे अपने शरीर तंत्र के मनःसंस्थान के हर कलपुर्जे को क्रिया-कुशल बनाकर सचमुच इस स्थिति में जा पहुँचता है कि उसे अतिरिक्त शक्ति संपन्न, असाधारण महत्त्व एवं सामर्थ्य का व्यक्ति समझा जा सके।

◆ अगर हम चाहते हैं कि बच्चा हमारा आज्ञाकारी बने, जो बात हम कहें वह उसकी उपयोगिता को समझे-स्वीकार करे तथा उसी के अनुसार आचरण करे तो हमें पहले उसका श्रद्धास्पद बनना होगा। बालकों के लिए श्रद्धेय बनने का एकमात्र उपाय है-मधुर स्नेह की अभिव्यक्ति। जोर-जबर्दस्ती से बच्चे आपके आदेश को मान लेंगे, उस समय वैसा आचरण भी कर लेंगे, पर जोर-जबर्दस्ती का जो एहसास उन्हें रहेगा वह उनके मन में आपके प्रति विद्रोह के बीच बोयेगा। यह विद्रोह आगे चलकर बड़ा होने पर फूटेगा।

◇ वाणी से असत्य वचन, चापलूसी, परनिन्दा, कटुभाषण, व्यर्थ वार्तालाप का त्याग करना चाहिए, क्योंकि ये अशुभ और अनैतिक हैं। इनसे जीवन में कलह, पश्चाताप, लड़ाई-झगड़े, अशान्ति पैदा हो सकते हैं। परस्पर संबंध खराब हो जाते हैं। उन सभी दृश्यों तथा प्रसंगों से दूर रहें जिनसे दूषित मनोभावों, वासनाओं को पोषण मिलता हो। मनुष्य जो कुछ भी देखता है उसकी प्रतिक्रिया मन पर होती है। उस दृश्य से संबंधित जो वासना मन में होती है, वह प्रबल हो उठती है और मनुष्य को वैसा ही करने की प्रेरणा देती है।

■ निराश कभी मत होइए। उन्नति के लिए, अच्छी आदतों के लिए, अपने शुभ संकल्पों की सिद्धि के लिए सतत प्रयत्न करते रहिए। बार-बार प्रयत्न करने से ही आपको उत्साह मिलेगा, सफलता मिलेगी। आपके कठिन कार्य सरल होते जायेंगे। प्रत्येक प्रत्यन, आपकी प्रत्येक छोटी-सी सफलता आपका आत्मबल बढ़ाने वाली है। भविष्य में आप कठिनतर कार्य भी हँसते-हँसते कर सकेंगे। अपने शुभ संकल्पों की सिद्धि के लिए सावधान रहकर प्रयत्न करना भी  है। अति आवश्यक है। इस आत्मबल की आवश्यकता हम सबको  है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 प्रज्ञा पुराण (भाग 1 द्वितीयोSध्याय) श्लोक 14 से 15

उच्चादर्शाय संसृष्टौ मानवो यदि जीवति।
तिरश्चां प्राणिनां हेयस्तरेण मनसा तथा ॥१४॥
अनात्माचरणं कुर्यान्सृष्टिसन्तुलनं तथा।
विकुर्याद् महदाश्चर्यं चिन्ताया विषयस्तथा॥१५॥

टीका- उच्च प्रयोजनों के लिए सृजा गया मनुष्य तिर्यक् योनियों में रहने वाले प्राणियों सभी अधिक हेय स्तर की मनःस्थिति रखे, अनात्म आचरण करे और सृष्टि सन्तुलन बिगाड़े तो सचमुच ही यह बड़े आश्चर्य और चिन्ता की बात है ॥१४-१५॥

व्याख्या- सोचा यह था कि मनुष्य अपने को श्रेष्ठता से जोड़े रहेगा, अन्य जीवधारियों के लिए एक आदर्श उदाहरण बनेगा पर स्थिति कुछ विचित्र एवं चिन्ताजनक भी है।

विवेक चूड़ामणि में यह स्पष्ट करते हुए कि मनुष्य भ्रष्ट आचरण की ओर कब प्रवृत्त होता है, संकेत करते हुए कहा गया है-

शब्दादिभि: पञ्चभिरेव पञ्च, पञ्चत्वमापु: स्वगुणेनबद्धा:।
कुरंगमातंगपतंगमीनभृंग नर: पञ्चभिरञ्चित: किम्॥

अर्थात्- 'हिरण, हाथी, पतिंगा, मछली और भौंरा-ये अपने-अपने स्वभाव के कारण शब्दादि पाँच विषयों में से केवल एक-एक से आसक्त होने के कारण मृत्यु को प्राप्त होते हैं, तो फिर इन पाँचों विषयों में जकड़ा हुआ, असंयमी पुरुष कैसे बच सकता है। उसकी तो दुर्गति सुनिश्चित ही है।

अन्य जीवधारियों के समान यदि मनुष्य भी शिश्नोदर परायण रहकर अपना आचरण व चिन्तन बिगाड़ ले तो फिर यह मानना चाहिए कि वह धरती पर इस योनि में अवतरित होकर भी दुर्भाग्यशाली ही बना रहा। आज मानव की उपभोग की ललक व सुख साधना अर्जित करने की एकांगी घुड़दौड़ ने यह भुला दिया कि इस तथाकथित प्रगति और सभ्यता का सृष्टि संतुलन पर क्या असर पडे़गा। उच्छृंखल भौतिकवाद अनियन्त्रित दानव की तरह अपने पालने वाले का ही वह भक्षण कर रहा है। पर्यावरण, असंतुलन और अदृश्य जगत में संव्याप्त हाहाकार मानव की स्वयं की संरचना है जो आस्था संकट के रूप में प्रकट हुआ है और जिसकी प्रतिक्रिया विभिन्न विभीषिकाओं के रूप में मानव जाति को भुगतनी पड़ रही है। इतिहास का अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि ऐसे उदाहरण पहले भी हुए हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञा पुराण (भाग १) पृष्ठ 39

गुरुवार, 11 अप्रैल 2019

👉 मैं खुद बदलूँगा। दुनिया तभी बदलेगी।।

एक दिन सारे कर्मचारी जब ऑफिस पहुंचे तो उन्हें गेट पर एक बड़ा-सा नोटिस लगा दिखा:--

'इस कंपनी में अभी तक जो व्यक्ति आपको आगे बढ़ने से रोक रहा था कल उसकी मृत्यु हो गई।
हम आपको उसे आखिरी बार देखने का मौका दे रहे हैं,
कृपया बारी-बारी से मीटिंग हॉल में जाएं और उसे देखने का कष्ट करें।'

जो भी नोटिस पढ़ता उसे पहले तो दुख होता
...लेकिन फिर जिज्ञासा होती कि आखिर वो कौन था, जिसने उसकी ग्रोथ रोक रखी थी... ??

और वो हॉल की तरफ चल देता...।

देखते-देखते हॉल के बाहर काफी भीड़ इकठ्ठा हो गई |
गार्ड ने सभी को रोक रखा था और उन्हें एक-एक करके अंदर जाने दे रहा था।

सबने देखा कि अंदर जाने वाला व्यक्ति काफी गंभीर होकर बाहर निकलता,
मानो उसके किसी करीबी की मृत्यु हुई हो!

इस बार अंदर जाने की बारी एक पुराने कर्मचारी की थी...
उसे सब जानते थे। सबको पता था कि उसे हर एक चीज़ से शिकायत रहती है।
कंपनी से, सहकर्मियों से,
वेतन से, तरक्की से,
हर एक चीज़ से !!

...पर आज वो थोड़ा खुश लग रहा था!!

उसे लगा कि चलो जिसकी वजह से उसकी लाइफ में इतनी समस्या थीं वो गुज़र गया।

अपनी बारी आते ही वो तेज़ी से ताबूत के पास पहुंचा और बड़ी जिज्ञासा से उचक कर अंदर झांकने लगा।

पर यह क्या...!!!

अंदर तो एक बड़ा-सा आईना रखा हुआ था....

यह देख वह कर्मचारी क्रोधित हो उठा और जोर से चिल्लाने को हुआ,

तभी उसे आईने के बगल में एक संदेश लिखा दिखा--!

"इस दुनिया में केवल एक ही व्यक्ति है जो आपकी ग्रोथ... आपकी उन्नति... आपकी तरक्की रोक सकता है...

...और वो आप खुद हैं !!"

इस पूरे संसार में आप वो अकेले व्यक्ति हैं,
जो आपकी जिंदगी में क्रांति ला सकते हैं।

आपकी जिंदगी तब नहीं बदलती...
जब आपका बॉस बदलता है,
जब आपके दोस्त बदलते हैं,
जब आपके पार्टनर बदलते हैं, या
जब आपकी कंपनी बदलती है...।

ज़िंदगी तब बदलती है, जब हम बदलते हैं;
जब हम अपनी सीमित सोच तोड़ते हैं,
जब हम इस बात को रियलाइज करते हैं कि अपनी जिंदगी के लिए सिर्फ़ और सिर्फ हम ज़िम्मेदार हैं।

मैं खुद बदलूँगा। दुनिया तभी बदलेगी।।🙏🙏

मंगलवार, 9 अप्रैल 2019

👉 दया और सौम्यता

पति ने पत्नी को किसी बात पर तीन थप्पड़ जड़ दिए, पत्नी ने इसके जवाब में अपना सैंडिल पति की तरफ़ फेंका, सैंडिल का एक सिरा पति के सिर को छूता हुआ निकल गया।

मामला रफा-दफा हो भी जाता, लेकिन पति ने इसे अपनी तौहिनी समझी, रिश्तेदारों ने मामला और पेचीदा बना दिया, न सिर्फ़ पेचीदा बल्कि संगीन, सब रिश्तेदारों ने इसे खानदान की नाक कटना कहा, यह भी कहा कि पति को सैडिल मारने वाली औरत न वफादार होती है न पतिव्रता।

इसे घर में रखना, अपने शरीर में मियादी बुखार पालते रहने जैसा है। कुछ रिश्तेदारों ने यह भी पश्चाताप जाहिर किया कि ऐसी औरतों का भ्रूण ही समाप्त कर देना चाहिए।

बुरी बातें चक्रवृत्ति ब्याज की तरह बढ़ती है, सो दोनों तरफ खूब आरोप उछाले गए। ऐसा लगता था जैसे दोनों पक्षों के लोग आरोपों का वॉलीबॉल खेल रहे हैं। लड़के ने लड़की के बारे में और लड़की ने लड़के के बारे में कई असुविधाजनक बातें कही।
मुकदमा दर्ज कराया गया। पति ने पत्नी की चरित्रहीनता का तो पत्नी ने दहेज उत्पीड़न का मामला दर्ज कराया। छह साल तक शादीशुदा जीवन बीताने और एक बच्ची के माता-पिता होने के बाद आज दोनों में तलाक हो गया।

पति-पत्नी के हाथ में तलाक के काग़ज़ों की प्रति थी।
दोनों चुप थे, दोनों शांत, दोनों निर्विकार।
मुकदमा दो साल तक चला था। दो साल से पत्नी अलग रह रही थी और पति अलग, मुकदमे की सुनवाई पर दोनों को आना होता। दोनों एक दूसरे को देखते जैसे चकमक पत्थर आपस में रगड़ खा गए हों।

दोनों गुस्से में होते। दोनों में बदले की भावना का आवेश होता। दोनों के साथ रिश्तेदार होते जिनकी हमदर्दियों में ज़रा-ज़रा विस्फोटक पदार्थ भी छुपा होता।

लेकिन कुछ महीने पहले जब पति-पत्नी कोर्ट में दाखिल होते तो एक-दूसरे को देख कर मुँह फेर लेते। जैसे जानबूझ कर एक-दूसरे की उपेक्षा कर रहे हों, वकील औऱ रिश्तेदार दोनों के साथ होते।

दोनों को अच्छा-खासा सबक सिखाया जाता कि उन्हें क्या कहना है। दोनों वही कहते। कई बार दोनों के वक्तव्य बदलने लगते। वो फिर सँभल जाते।
अंत में वही हुआ जो सब चाहते थे यानी तलाक ................

पहले रिश्तेदारों की फौज साथ होती थी, आज थोड़े से रिश्तेदार साथ थे। दोनों तरफ के रिश्तेदार खुश थे, वकील खुश थे, माता-पिता भी खुश थे।

तलाकशुदा पत्नी चुप थी और पति खामोश था।
यह महज़ इत्तेफाक ही था कि दोनों पक्षों के रिश्तेदार एक ही टी-स्टॉल पर बैठे , कोल्ड ड्रिंक्स लिया।
यह भी महज़ इत्तेफाक ही था कि तलाकशुदा पति-पत्नी एक ही मेज़ के आमने-सामने जा बैठे।

लकड़ी की बेंच और वो दोनों .......
''कांग्रेच्यूलेशन .... आप जो चाहते थे वही हुआ ....'' स्त्री ने कहा।
''तुम्हें भी बधाई ..... तुमने भी तो तलाक दे कर जीत हासिल की ....'' पुरुष बोला।

''तलाक क्या जीत का प्रतीक होता है????'' स्त्री ने पूछा।
''तुम बताओ?''
पुरुष के पूछने पर स्त्री ने जवाब नहीं दिया, वो चुपचाप बैठी रही, फिर बोली, ''तुमने मुझे चरित्रहीन कहा था....
अच्छा हुआ.... अब तुम्हारा चरित्रहीन स्त्री से पीछा छूटा।''
''वो मेरी गलती थी, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था'' पुरुष बोला।
''मैंने बहुत मानसिक तनाव झेली है'', स्त्री की आवाज़ सपाट थी न दुःख, न गुस्सा।

''जानता हूँ पुरुष इसी हथियार से स्त्री पर वार करता है, जो स्त्री के मन और आत्मा को लहू-लुहान कर देता है... तुम बहुत उज्ज्वल हो। मुझे तुम्हारे बारे में ऐसी गंदी बात नहीं करनी चाहिए थी। मुझे बेहद अफ़सोस है, '' पुरुष ने कहा।

स्त्री चुप रही, उसने एक बार पुरुष को देखा।
कुछ पल चुप रहने के बाद पुरुष ने गहरी साँस ली और कहा, ''तुमने भी तो मुझे दहेज का लोभी कहा था।''
''गलत कहा था''.... पुरुष की ओऱ देखती हुई स्त्री बोली।
कुछ देर चुप रही फिर बोली, ''मैं कोई और आरोप लगाती लेकिन मैं नहीं...''

प्लास्टिक के कप में चाय आ गई।
स्त्री ने चाय उठाई, चाय ज़रा-सी छलकी। गर्म चाय स्त्री के हाथ पर गिरी।
स्सी... की आवाज़ निकली।
पुरुष के गले में उसी क्षण 'ओह' की आवाज़ निकली। स्त्री ने पुरुष को देखा। पुरुष स्त्री को देखे जा रहा था।
''तुम्हारा कमर दर्द कैसा है?''
''ऐसा ही है कभी वोवरॉन तो कभी काम्बीफ्लेम,'' स्त्री ने बात खत्म करनी चाही।

''तुम एक्सरसाइज भी तो नहीं करती।'' पुरुष ने कहा तो स्त्री फीकी हँसी हँस दी।
''तुम्हारे अस्थमा की क्या कंडीशन है... फिर अटैक तो नहीं पड़े????'' स्त्री ने पूछा।
''अस्थमा।डॉक्टर सूरी ने स्ट्रेन... मेंटल स्ट्रेस कम करने को कहा है, '' पुरुष ने जानकारी दी।

स्त्री ने पुरुष को देखा, देखती रही एकटक। जैसे पुरुष के चेहरे पर छपे तनाव को पढ़ रही हो।
''इनहेलर तो लेते रहते हो न?'' स्त्री ने पुरुष के चेहरे से नज़रें हटाईं और पूछा।
''हाँ, लेता रहता हूँ। आज लाना याद नहीं रहा, '' पुरुष ने कहा।

''तभी आज तुम्हारी साँस उखड़ी-उखड़ी-सी है, '' स्त्री ने हमदर्द लहजे में कहा।
''हाँ, कुछ इस वजह से और कुछ...'' पुरुष कहते-कहते रुक गया।
''कुछ... कुछ तनाव के कारण,'' स्त्री ने बात पूरी की।

पुरुष कुछ सोचता रहा, फिर बोला, ''तुम्हें चार लाख रुपए देने हैं और छह हज़ार रुपए महीना भी।''
''हाँ... फिर?'' स्त्री ने पूछा।
''वसुंधरा में फ्लैट है... तुम्हें तो पता है। मैं उसे तुम्हारे नाम कर देता हूँ। चार लाख रुपए फिलहाल मेरे पास नहीं है।'' पुरुष ने अपने मन की बात कही।

''वसुंधरा वाले फ्लैट की कीमत तो बीस लाख रुपए होगी??? मुझे सिर्फ चार लाख रुपए चाहिए....'' स्त्री ने स्पष्ट किया।
''बिटिया बड़ी होगी... सौ खर्च होते हैं....'' पुरुष ने कहा।
''वो तो तुम छह हज़ार रुपए महीना मुझे देते रहोगे,'' स्त्री बोली।
''हाँ, ज़रूर दूँगा।''
''चार लाख अगर तुम्हारे पास नहीं है तो मुझे मत देना,'' स्त्री ने कहा।
उसके स्वर में पुराने संबंधों की गर्द थी।

पुरुष उसका चेहरा देखता रहा....
कितनी सह्रदय और कितनी सुंदर लग रही थी सामने बैठी स्त्री जो कभी उसकी पत्नी हुआ करती थी।
स्त्री पुरुष को देख रही थी और सोच रही थी, ''कितना सरल स्वभाव का है यह पुरुष, जो कभी उसका पति हुआ करता था। कितना प्यार करता था उससे...

एक बार हरिद्वार में जब वह गंगा में स्नान कर रही थी तो उसके हाथ से जंजीर छूट गई। फिर पागलों की तरह वह बचाने चला आया था उसे। खुद तैरना नहीं आता था लाट साहब को और मुझे बचाने की कोशिशें करता रहा था... कितना अच्छा है... मैं ही खोट निकालती रही...''

पुरुष एकटक स्त्री को देख रहा था और सोच रहा था, ''कितना ध्यान रखती थी, स्टीम के लिए पानी उबाल कर जग में डाल देती। उसके लिए हमेशा इनहेलर खरीद कर लाती, सेरेटाइड आक्यूहेलर बहुत महँगा था। हर महीने कंजूसी करती, पैसे बचाती, और आक्यूहेलर खरीद लाती। दूसरों की बीमारी की कौन परवाह करता है? ये करती थी परवाह! कभी जाहिर भी नहीं होने देती थी। कितनी संवेदना थी इसमें। मैं अपनी मर्दानगी के नशे में रहा। काश, जो मैं इसके जज़्बे को समझ पाता।''

दोनों चुप थे, बेहद चुप।
दुनिया भर की आवाज़ों से मुक्त हो कर, खामोश।
दोनों भीगी आँखों से एक दूसरे को देखते रहे....

''मुझे एक बात कहनी है, '' उसकी आवाज़ में झिझक थी।
''कहो, '' स्त्री ने सजल आँखों से उसे देखा।
''डरता हूँ,'' पुरुष ने कहा।
''डरो मत। हो सकता है तुम्हारी बात मेरे मन की बात हो,'' स्त्री ने कहा।
''तुम बहुत याद आती रही,'' पुरुष बोला।
''तुम भी,'' स्त्री ने कहा।
''मैं तुम्हें अब भी प्रेम करता हूँ।''
''मैं भी.'' स्त्री ने कहा।

दोनों की आँखें कुछ ज़्यादा ही सजल हो गई थीं।
दोनों की आवाज़ जज़्बाती और चेहरे मासूम।
''क्या हम दोनों जीवन को नया मोड़ नहीं दे सकते?'' पुरुष ने पूछा।
''कौन-सा मोड़?''
''हम फिर से साथ-साथ रहने लगें... एक साथ... पति-पत्नी बन कर... बहुत अच्छे दोस्त बन कर।''

''ये पेपर?'' स्त्री ने पूछा।
''फाड़ देते हैं।'' पुरुष ने कहा औऱ अपने हाथ से तलाक के काग़ज़ात फाड़ दिए। फिर स्त्री ने भी वही किया। दोनों उठ खड़े हुए। एक दूसरे के हाथ में हाथ डाल कर मुस्कराए। दोनों पक्षों के रिश्तेदार हैरान-परेशान थे। दोनों पति-पत्नी हाथ में हाथ डाले घर की तरफ चले गए। घर जो सिर्फ और सिर्फ पति-पत्नी का था।।

पति पत्नी में प्यार और तकरार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जरा सी बात पर कोई ऐसा फैसला न लें कि आपको जिंदगी भर अफसोस हो।।

👉 आज का सद्चिंतन 9 April 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 9 April 2019


👉 धर्म का आचरण (अन्तिम भाग)

जो मनुष्य कहता है कि मैं कहूँ वह सच है और सब मिथ्या है यह कभी विश्वास योग्य नहीं। एक धर्म सच है तो अन्य धर्म क्योंकर मिथ्या हो सकते हैं? जो परम सहिष्णु और मानव जाति पर प्रेम करे वही सच्चा साधु समझना चाहिए। परमेश्वर हमारा पिता और हम सब भाई हैं, यही भावना मनुष्य को उन्नत बना सकती है। यदि कोई जन्म से अज्ञान है तो क्या उसका कर्त्तव्य ज्ञान सम्पादन करने का नहीं है? वह यों कहे कि हम जन्म से मूर्ख हैं तो अब क्यों ज्ञानी बनें । तो सब उसे महामूर्ख कहेंगे। यदि हमारे संकुचित विचार हों तो उन्हें महान बनाना क्या हमारे लिये कोई अपमान की बात है? धर्मोपासना के विशिष्ट स्थान, निश्चित और खास विधि धर्म-ग्रन्थों में बताये हैं, उनके लिये एक दूसरों का उपहास करना क्या कोई बुद्धिमानी है।

ये तो बालकों के खिलौनों की तरह हैं। ज्ञान होने पर बालक उन खिलौनों की जिस प्रकार परवाह नहीं करते, उसी प्रकार ईश्वर तक पहुँचे हुए लोगों को उक्त साधनों का महत्व नहीं प्रतीत होता किसी खास मत पन्थों को बिना जाने बूझे ज्ञान होने पर भी मानते रहना, बचपन का कुरता युवावस्था में पहनने की इच्छा करने के बराबर उपहास के योग्य है। मैं किसी धर्म पन्थ का विरोधी नहीं हूं और न मुझे उनकी अनावश्यकता ही प्रतीत होती है। पर यह देखकर हँसी रोके से भी नहीं रुकती कि कुछ लोग स्वयं जिस धर्म के रहस्यों को नहीं जानते उसे वे यदि अपना अमूल्य समय इस अध्याषारेघु व्यौपार के बदले उन्हीं तत्वों के जानने में लगावें तो क्या ही अच्छा हो?

अनेक धर्मपन्थ उन्हें क्यों खटकते हैं सो मेरी समझ में नहीं आता ! लोग अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार धर्म का अनुसरण करें तो किसी का क्या बिगड़ेगा? रह एक व्यक्ति के लिये स्वतन्त्र धर्म हो तो भी मेरी समझ में कोई हानि नहीं किन्तु लाभ ही । क्योंकि विविधता से संसार की सुन्दरता बढ़ती है। उदर तृप्ति के लिये अन्न की आवश्यकता है, परन्तु एक ही रस की अपेक्षा अनेक रसों के विविध पदार्थ होने से भोजन में अधिक रुचि आती है। कोई ग्रामीण, जिसे तरह-तरह के पदार्थ मत्सर नहीं और जो केवल रोटी तथा प्याज के टुकड़े से पेट भर लेता है यदि किसी शौकीन के खाने के नाना पदार्थ की निन्दा करे तो वह खुद जिस प्रकार उपहास के पात्र होगा, उसी प्रकार एक ही धर्मविधि के पीछे लगे हुए दूसरे धर्मों की निन्दा करने वाले लोग स्तुति के पात्र नहीं हो सकते।

स्वामी विवेकानन्द जी
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1941 पृष्ठ 10

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...