बुधवार, 23 मई 2018

👉 खुश रहने का रहस्य

🔷 बहुत समय पहले की बात है, एक गाँव में एक महात्मा रहते थे। आसपास के गाँवो के लोग अपनी समस्याओं और परेशानियों के समाधान के लिए महात्मा के पास जाते थे। और संत उनकी समस्याओं, परेशानियों को दूर करके उनका मार्गदर्शन करते थे। एक दिन एक व्यक्ति ने महात्मा से पूछा – गुरुवर, संसार में खुश रहने का रहस्य क्या है ?

🔶 महात्मा ने उससे कहा कि तुम मेरे साथ जंगल में चलो, मैं तुम्हे खुश रहने का रहस्य बताता हूँ। उसके बाद महात्मा और वह व्यक्ति जंगल की तरफ चल दिए। रास्ते में चलते हुए महात्मा ने एक बड़ा सा पत्थर उठाया और उस व्यक्ति को देते हुए कहा कि इसे पकड़ो और चलो। उस व्यक्ति ने वह पत्थर लिया और वह महात्मा के साथ साथ चलने लगा।

🔷 कुछ देर बाद उस व्यक्ति के हाथ में दर्द होने लगा लेकिन वह चुप रहा और चलता रहा। जब चलते चलते बहुत समय बीत गया और उस व्यक्ति से दर्द सहा नहीं गया तो उसने महात्मा से कहा कि उस बहुत दर्द हो रहा है। महात्मा ने कहा कि इस पत्थर को नीचे रख दो। पत्थर को नीचे रखते ही उस व्यक्ति को बड़ी राहत मिली।

🔶 तब महात्मा ने उससे पूछा – जब तुमने पत्थर को अपने हाथ में उठा रखा था तब तुम्हे कैसा लग रहा था। उस व्यक्ति ने कहा – शुरू में दर्द कम था तो मेरा ध्यान आप पर ज्यादा था पत्थर पर कम था। लेकिन जैसे जैसे दर्द बढ़ता गया मेरा ध्यान आप पर से कम होने लगा और पत्थर पर ज्यादा होने लगा और एक समय मेरा पूरा ध्यान पत्थर पर आ गया और मैं इससे अलग कुछ नहीं सोच पा रहा था।

🔷 तब महात्मा ने उससे दोबारा पूछा – जब तुमने पत्थर को नीचे रखा तब तुम्हे कैसा महसूस हुआ।

🔶 इस पर उस व्यक्ति ने कहा – पत्थर नीचे रखते ही मुझे बहुत रहत महसूस हुई और ख़ुशी भी महसूस हुई।

🔷 तब महात्मा ने कहा कि यही है खुश रहने का रहस्य! इस पर वह व्यक्ति बोला – गुरुवर, मैं कुछ समझा नहीं।

🔶 तब महात्मा ने उसे समझाते हुए कहा – जिस तरह इस पत्थर को थोड़ी देर हाथ में उठाने पर थोड़ा सा दर्द होता है, थोड़ी और ज्यादा देर उठाने पर थोड़ा और ज्यादा दर्द होता है और अगर हम इसे बहुत देर तक उठाये रखेंगे तो दर्द भी बढ़ता जायेगा। उसी तरह हम दुखों के बोझ को जितने ज्यादा समय तक उठाये रखेंगे हम उतने ही दुखी और निराश रहेंगे। यह हम पर निर्भर करता है कि हम दुखों के बोझ को थोड़ी सी देर उठाये रखते हैं या उसे ज़िंदगी भर उठाये रहते हैं।

🔷 इसलिए अगर तुम खुश रहना चाहते हो तो अपने दुःख रुपी पत्थर को जल्दी से जल्दी नीचे रखना सीख लो और अगर संभव हो तो उसे उठाओ ही नहीं।

🔶 इस कहानी से हमें ये शिक्षा मिलती है कि यदि हमने अपने दुःख रुपी पत्थर को उठा रखा है तो शुरू शुरू में हमारा ध्यान अपने लक्ष्यों पे ज्यादा तथा दुखो पर कम होगा। लेकिन अगर हमने अपने दुःख रुपी पत्थर को लम्बे समय से उठा रखा है तो हमारा ध्यान अपने लक्ष्यों से हटकर हमारे दुखों पर आ जायेगा। और तब हम अपने दुखों के अलावा कुछ नहीं सोच पाएंगे और अपने दुखो में ही डूबकर परेशान होते रहेंगे और कभी भी खुश नहीं रह पाएंगे।

🔷 इसलिए अगर आपने भी कोई दुःख रुपी पत्थर उठा रखा है तो उसे जल्दी से जल्दी नीचे रखिये मतलब अपने दुखो को , तनाव को अपने दिलो दिमाग से निकल फेंकिए और खुश रहिये।

http://awgpskj.blogspot.in/2016/07/blog-post_2.html

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 24 May 2018

👉 आज का सद्चिंतन 24 May 2018


👉 यह अच्छी आदतें डालिए (भाग 2)

🔷 सुप्रवृत्तियों के विकास से अच्छी आदतों का निर्माण होता है, मनुष्य अपने उत्तम गुणों का विकास करता है और चरित्र में, अंधकार में प्रविष्ट दुर्गुणों का उन्मूलन होता है। अतः हमें प्रारंभ से ही यह जान लेना चाहिए कि हम किन किन गुणों तथा आदतों का विकास करें।

2. संयम :-

🔶 नैतिकता जीवन की आधार शिला संयम पर निर्भर है। संयम का तात्पर्य है अपने ऊपर अनुशासन रखना, विवेक के अनुसार शरीर को चलाना इत्यादि। संयमी व्यक्ति अपने मन, वचन, तथा शरीर पर पूर्ण अधिकार रखता है। वह उसे उचित ढंग से चलाता है और मिथ्या प्रलोभनों के वश में नहीं आता। जैसे ही कोई प्रलोभन मन मोहक रूप धारण कर उसके सम्मुख आता है, वैसे ही आत्म−अनुशासन उसकी रक्षा को आ उपस्थित होता है।

🔷 संयम हमारे असंयमी उन्मुक जीवन को अनुशासन में लाता है। संयम हमें उचित और विवेक पूर्ण मर्यादा में रहना सीखता है। जो वस्तुएं, आदतें अथवा कार्य हानिकर हैं, उनसे हमारी रक्षा करता है।

🔶 मनुष्य तथा पशु, उच्च तथा निम्न कोटि के जीवन में क्या अन्तर है? मनुष्य गन्दगी, त्रुटि, ज्यादती, खराबी, दुर्भाव से अपने आपको रोक सकता है, पशु में यह नियंत्रण नहीं होता। वह वासना के प्रवाह में अन्धा हो जाता है उसे हिताहित, कर्त्तव्य−अकर्त्तव्य, विवेक अविवेक का ज्ञान नहीं होता। मनुष्य संयम द्वारा अपनी इन्द्रिय मन तथा शरीर पर अनुशासन कर सकता है।

🔷 विवेक के विकास से संयम आता है। जैसे जैसे मनुष्य का विवेक बढ़ता है उसे यह ज्ञान होता है कि किस बात के अनियंत्रण से क्या क्या हानियाँ संभव हैं। वह इनसे अपनी रक्षा करने का प्रयत्न करता है। फलतः उसका आत्म विकास होता है।

🔶 संयम का प्रयोग पाँचों इन्द्रियों के विग्रह में करना चाहिए। हमारी इन्द्रियों के अमर्यादित और अनियंत्रित हो जाने से अनेक रोग पाप दुर्भावों की सृष्टि होती है। अतः सर्वप्रथम इन्द्रिय निग्रह से ही संयम का प्रयोग करना चाहिए।

🔷 जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं जिसमें संयम का उपयोग का हो। संयमी व्यक्ति अपनी वासनाओं के परिष्कार द्वारा दीर्घजीवन प्राप्त करता है और शरीर को रोग मुक्त रखता है। संयम अनुशासन का पिता है और हमें वैराग्य भावना प्रदान करता है, योग मार्ग पर एकाग्रता पूर्वक चलने की शिक्षा प्रदान करता है। यह हमारी शक्ति को संग्रह, बुद्धि को स्थिर और मन को अनुशासन से परिपूर्ण करता है।

📖 अखण्ड ज्योति, अप्रैल 1955 पृष्ठ 19
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1955/April/v1.19

👉 Awakening Divinity in Man (Part 10)

All you really need will be provided

🔷 transparency of character is a great asset of a person through which he gets abundant support, affection and co-operation from all quarters. This is real prosperity. Can any monetary or material resources ever provide it? People donated unasked all their wealth and resources at the  feet of Buddha, moved by his compassion and absolute selflessness. Gandhiji’s benevolence, his missionary zeal, his aspirations were all aimed at the welfare of the lowliest and the lost.

🔶 This, together with the impeccability of his character, made him a universally acclaimed mahatma.  People from all strata of the society stood by him, cooperated with him and followed him. Millions of people voluntarily went to jails and sacrificed their lives for the noble cause of national freedom upon his call. Is such ethical and spiritual eminence attainable by us all? Yes, indeed, subject to only one condition – you too like mahatma, should be ready to be led by truth dwelling light of the spirit. Light, your shadow will follow you.

🔷 But you seem to be chasing your own shadow, the shadow of m³y³ – illusive worldly attractions and attachments – that seem to have overwhelmed you. You should learn to walk towards the light, towards God, noble aims and ideals. Such ideals are the attributes of deities like Hanuman and other emanations of God. 
 
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 गुरुगीता (भाग 118)

👉 कामधेनु, कल्पतरू, चिन्तामणि है गुरूगीता का पाठ

🔷 गुरूगीता के मंत्र गीत शिष्यों की प्राणचेतना में गूँजते हैं। प्राणों में निरन्तर होती इनकी अनुगूँज से उन्नयन, विकास एवं रूपान्तरण की अनेकों प्रक्रियायें घटित होती हैं। हालाँकि ये चमत्कारी प्रक्रियायें एवं परिणतियाँ होती उन्हीं के जीवन में हैं, जिनके अंतःकरण में शिष्यत्व का भाव बीज अंकुरित हो रहा है। अथवा जिनके अंतस् में किसी न किसी रूप में इसकी अवस्थिति व उपस्थिति है। बीज के सच को, इसके यथार्थ को हम सभी जानते हैं। कंकरीली- पथरीली जमीन की तहों में दबा हुआ बीज मौसम आने पर अंकुरित हुए बिना नहीं रहता। यह बीजांकुर भले ही कितना कोमल और नाजुक हो, फिर भी बड़ी आसानी से उस कंकरीली- पथरीली जमीन को भेदकर खुली हवा और सूर्य के उजाले
में अपने अस्तित्व की अमिट पहचान बताता है।

🔶 ठीक यही स्थिति शिष्य के बीज की है। शिष्य की अंतर्चेतना में, उसकी चित्त भूमि में इसकी उपस्थिति यदि है, तो समझो कि आध्यात्मिक जीवन की सम्भावनाएँ भी हैं। फिर भले ही यह बीज चित्त की कितनी ही गहरी तहों या परतों में क्यों न दबा हुआ हो। कामना, वासना अथवा लालसाओं के कितने ही कुसंस्कार इसे क्यों न घेरे हुए हों, परन्तु सही काल आने पर इसका अंकुरण सुनिश्चित है। इसी के साथ उन कुसंस्कारों की कालिमा का मिटना भी अनिवार्य है, जो इसे बाँधे है। श्रीमद्भगवद्गीता के महानायक परमगुरू योगेश्वर श्री कृष्ण का वचन- 'न मे भक्तः प्रणश्यति' मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता- त्रिकाल सत्य है। सतयुग त्रेता, द्वापर अथवा कलयुग के कालक्रम का इस पर कोई फर्क नहीं होता। सच्चा गुरूभक्त, सच्चा शिष्य अपने गुरू की कृपा से जीवन के परम लक्ष्य को पा ही लेता है।

🔷 गुरूगीता के पिछले क्रम में इसी यथार्थ की चर्चा की गयी थी। इसमें बताया गया था कि भोग हो या मोक्ष अथवा फिर आपदा निवारण गुरूगीता के अनुष्ठान से सब कुछ सम्भव है। आयु- आरोग्य, अचर सौभाग्य, दुःख, भय, विध्न एवं शापों का नाश गुरूगीता की साधना करने वाले को स्वयमेव मिलते हैं। इसकी साधना सभी बाधाओं का शमन करके धर्म, अर्थ काम एवं मोक्ष देने वाली है। यहाँ तक कि साधक जो- जो भी इच्छा करता है, वे सभी इच्छाएँ इससे निश्चित ही पूरी होती हैं। गुरूगीता का पाठ कामना पूर्ति के लिए कामधेनु है, कल्पनाओं की साकार करने वाला कल्पतरू है। यह चिंताओं को दूर करने वाली चिंतामणि है। इससे सभी तरह का मंगल होता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 177

👉 आज का सद्चिंतन 23 May 2018

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 23 May 2018

👉 माँ की सच्ची सीख

🔶 कोई सिद्धान्त अपने आप में अकेला पूर्ण नहीं। प्रयोगपक्ष जाने बिना सारा ज्ञान अधूरा हैं। फिर क्रिया पक्ष, ज्ञान पक्ष का पूरक है। ब्रह्म ज्ञान- तत्व चिन्तन अपनी जगह है, अनिवार्य भी है, परन्तु उसका व्यवहार पदा जिसे साधना- तपश्चर्या के रूप में जाने बिना एक मात्र मानसिक श्रम और ज्ञान वृद्धि तक ही सीमित रहने से उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी। चिकित्सकों को अध्ययन भी करना होता है एवं व्यावहारिक ज्ञान भी प्राप्त करना होता है। यह समग्रता लाये बिना वे चिकित्सक की पात्रता- पदवी नहीं पाते।

🔷 ऐसा अधूरापन अध्यात्म क्षेत्र में बड़े व्यापक रूप में देखने को मिलता है। ब्रह्म की, सद्मुणों की, आदर्शवादिता की चर्चा तो काफी लोग करते पाये जाते हैं परन्तु उसे व्यवहार में उतारने, जीवन का अंग बना लेने वाले कम ही होते हैं।

🔶 एक साधु द्वार पर बैठे तीन भाइयों को उपदेश कर रहे थे- वत्स! संसार में सन्तोष ही सुख है। जो कछुये की तरह अपने हाथ- पाँव सब ओर से समेट कर आत्म- लीन हो जाता है, ऐसे निरुद्योगी पुरुष के लिए संसार में किसी प्रकार का दु:ख नहीं रहता।

🔷 घर के भीतर बुहारी लगा रही माँ के कानों में साधु की यह वाणी पड़ी तो वह चौकन्ना हो उठी। बाहर आई और तीनों लड़की को खड़ा करके छोटे से बोली- 'ले यह घडा, पानी भर कर ला', मझले से कहा- 'उठा यह झाडू और घर- बाहर की बुहारी कर', अन्तिम तीसरे को टोकरी देते हुए उसनें कहा- 'तू चल और सब कूड़ा उठाकर बाहर फेंक' और अन्त में साधु की ओर देखकर उस कर्मवती ने उपदेश दिया- 'महात्मन्! निरुद्योगी मैंने बहुत देखे हैं, कई पड़ोस में ही बीमारी से ग्रस्त, ऋण भार से दबे शैतान की दुकान खोले पड़े है। अब मेरे बच्चों को भी वह विष वारुणी पिलाने की अपेक्षा आप ही निरुद्योगी बने रहिये और इन्हें कुछ उद्योग करने दीजिए। ' ज्ञान को कर्म का सहयोग न मिले तो कितना ही उपयोगी होने पर भी वह ज्ञान निरर्थक है।

👉 यह अच्छी आदतें डालिए (भाग 1)

🔶 सुप्रवृत्तियों के विकास से अच्छी आदतों का निर्माण होता है, मनुष्य अपने उत्तम गुणों का विकास करता है और चरित्र में, अंधकार में प्रविष्ट दुर्गुणों का उन्मूलन होता है। अतः हमें प्रारंभ से ही यह जान लेना चाहिए कि हम किन किन गुणों तथा आदतों का विकास करें।

नैतिकता:—

🔷 उत्तम चरित्र का प्रारंभ नैतिकता से होता है। नैतिकता अर्थात् श्रेष्ठतम आध्यात्मिक जीवन हमारा लक्ष्य होना चाहिए। नैतिकता हमें सद् असद्, उचित अनुचित, सत्य असत्य में अन्तर करना सिखाती है। नैतिकता सद्गुणी जीवक का मूलाधार है। यह हमें असद् आचरण, गलतियों अनीति और दुर्गुणों से बचाती है। नैतिकता का आदि स्रोत परमेश्वर है। अतः यह हमें ईश्वरीय जीवन व्यतीत करने की शिक्षा प्रदान करती है। यह वह जीवन शास्त्र है जो हमारे जीवन के कार्यों की आलोचना कर हमें उच्च आध्यात्मिक जीवन की ओर प्रेरित करती है।

🔶 नैतिकता धर्म का व्यवहारिक स्वरूप है। हम प्रायः उत्तम ग्रन्थ पढ़ते हैं, अनेक जीवन सूत्र जानते हैं किन्तु उत्तम आचरण जीवन में नहीं करते हैं। नैतिकता उस ज्ञान के व्यवहार और प्रयोग का नाम है। यह हमें जीवन को सही रूप में जीना सिखाती है। हमें क्या करना चाहिए? हमारा क्या कर्त्तव्य है? सही मार्ग कौन सा है? किस कार्य से हमें सर्वाधिक आत्म संतोष प्राप्त हो सकता है?—यह नैतिकता के मूल प्रश्न हैं। आपको वही करना चाहिए, जो उचित है, सबसे अधिक फल देने वाला है, जिसमें कोई गलती नहीं है। यह सब ज्ञान हमें नैतिकता से जीवन व्यतीत करने पर प्राप्त होते हैं।

🔷 नैतिकता के बिना धर्म का कोई अर्थ नहीं है। यह अव्यावहारिक और कल्पना शील बनता है। बिना नैतिकता के धर्म एक ऐसे वृक्ष के समान है जिसमें जड़ नहीं है। बिना नैतिकता के व्यवहारिक जीवन ऊँचा नहीं उठ सकता, न ईश्वरीय तथ्यों का जीवन में प्रकाश हो सकता है।

📖 अखण्ड ज्योति, अप्रैल 1955 पृष्ठ 18
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1955/April/v1.18

👉 Awakening Divinity in Man (Part 9)

🔶 My concept of worship and divine blessings is somewhat different. I can say that a true devotee can attract divine energies by the force of his nobility; he can compel deities to help in pursuit of his noble aims. A true devotee in this sense is much stronger a deity; he can get God’s help whenever he asks as his right. God cannot ignore his call.

🔷 Those who worship god begging for a few worldly possessions or for fulfillment of ego-centric desires can’t be true devotees even if they spend all their time in prayers and rituals. Glad consent to God’s will is the real spirit of devotion; it is the prime condition to be fulfilled for being a devotee in its true sense. God has inalterably assured His devotee, the Gita- “yogaksemam vahamyaham” I will provide for all your needs. 

🔶 True, God does take care of his devotee but He has not promised to satisfy his cravings. “Yoga” and “ksema” mean taking care of your physical, mental, intellectual and spiritual well-being. There should not be any confusion that it (God’s arrivance) includes the fulfilment of your gross sensual hunger. Don’t chase the mirage of passions and desires; it devalues the dignity of devotion and the pre-eminence of God’s grace. The relation between the deity and the devotee is graceful and dignified only when the devotee doesn’t beg for anything but rather offers to entirely give himself to the divine.

🔷 God has already given you so much! He has created you. He is always taking care of your yoga-ksema, without your praying for it. God is not a particularly embodied being. It is we who have conceived Him in various forms. If it is a must to give a definition, God could only be vaguely described as “an infinite ensemble of supreme moral principles, saintly ideals and nobility”. Faith in divine values and ideals and a self disciplined endeavor to live for high principles is true devotion and enlightened worship.
 
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 गुरुगीता (भाग 117)

👉 कष्टों में भी प्रसन्न रखती है- गुरूभक्ति

🔶 यह कथा पंजाब प्रान्त के सन्त बाबा लाल के बारे में है। बाबा लाल बड़े पहुँचे हुए फकीर थे। उनकी अलौकिक शक्तियों एवं यौगिक विभूतियों के कारण न केवल सामान्य जन, बल्कि पीर- फकीर एवं शाहजादे, बादशाह भी अभिभूत रहते थे। शाहजहाँ का बड़ा बेटा दाराशिकोह भी उनका भक्त था। इस बात से कम लोग वाकिफ हैं कि वह अपने पीर- मुर्शीद सूफी सरमद से मिलने के पहले से वह बाबा लाल जी से मिला था। वह इन्हें लालपीर जी कहा करता था।

🔷 शाहजादा दाराशिकोह का मन सूफियाना था। उसे परमात्मा से सच्ची लगन थी। बाबा लाल से मिलकर उसने अपनी ख्वाहिश बयान की कि आप मुझे शिष्य के रूप में स्वीकार कर लीजिए। बाबा लाल जी ने उसकी ओर देखा और बोले -दारा! तुझे तेरे मुर्शीद मिलेंगे। इसके लिए गुरूगीता का पाठ किया कर। दाराशिकोह उन दिनों उपनिषदों का फारसी में अनुवाद कर रहे थे। उन्होंने बाबा लाल की बात मान कर गुरूगीता का पाठ प्रारम्भ किया। इसके प्रभाव से उन्हें अपने पीर- मुर्शीद सूफी सरमद से मुलाकात हुई। दारा एवं सरमद जैसे एक- दूसरे के लिए बने थे। हालाँकि सरमद से मिलने के बाद भी दारा ने बाबा लाल की भक्ति नहीं छोड़ी। ऐतिहासिक तथ्य कहते हैं कि दाराशिकोह ने बाबा लाल से सात बार मुलाकातें कीं। इन मुलाकातों में उन्होंने बाबा लाल से अनेकों सवाल किये। दाराशिकोह द्वारा किये गये प्रश्न एवं बाबा लाल द्वारा दिये गये जवाब वास्तव में आध्यात्मिकता का खजाना है। जिन्हें शाहजहान में वजीर राय मुंशी चन्द्रभान विरहमनज् ने फारसी में लिपिबद्ध करने का महान् कार्य किया। जो इसरारे मार्फत या इसरारे गुलजार या नादिरूलनुकात के नाम से प्रसिद्ध है।

🔶 इतिहास इस बात की गवाही देता है कि औरंगजेब ने अपने बड़े भाई दारा के साथ बड़ा ही बर्बर एवं अमानवीय बर्ताव किया। और अंत में उन्हें और उनके बेटे का कत्ल करा दिया। यहाँ तक कि उसने सूफी फकीर सरमद को भी मरवा दिया। इसके बाद वह अपने अहं एवं अकड़ के साथ बाबा लाल जी से मिलने गया। बाबा लाल जी उसे देखकर मुस्कराये। औरंगजेब ने उन्हें व्यंग्यपूर्वक प्रणाम् किया और पूछा- महराज वैसे तो आप कई सिद्धियों के मालिक हैं, फकीर सरमद के बारे में लोग कुछ ऐसा ही कहा करते थे। परन्तु किसी ने दाराशिकोह की मदद नहीं की। आपकी कोई सिद्धि और साधना उसके काम नहीं आयी। बेचारा बेमौत मारा गया!

🔷 बाबा लाल जी औरंगजेब की बात सुनकर हँसे और बोले- औरंगजेब तू मगरूर है और अंधा भी। तेरा भाई दारा दरवेश था, उसे किसी भी राज्य की कोई इच्छा नहीं थी। वह तो बस अपने पिता की रक्षा करना चाहता था। तूने जो उसके साथ बर्बरता का व्यवहार किया है, उसकी सजा तो तू उम्र भर भोगेगा। जिस तरह साँप अपनी केंचुली को छोड़कर यह नहीं सोचता कि उसकी केंचुली का क्या किया जायेगा, उसी प्रकार सच्चा दरवेश अपने बाहरी जीवन की चिंता नहीं किया करते। दारा ने भी अनेक कष्ट एवं यातना सहकर महातप किया और आज वह खुद की रहमतों फरिश्तों का बादशाह है। तू देखना चाहता है तो देख- ऐसा कहते हुए बाबा लाल ने औरंगजेब को स्पर्श किया। इस स्पर्श के साथ औरंगजेब रूहानी दुनिया में पहुँच गया और उसने दारा के आध्यात्मिक वैभव को देखा। उसे अपने किये पर बड़ी शर्म आई। आँख खुलने पर उसने बाबा लाल जी से माफी माँगी। लेकिन प्रत्युत्तर में बाबा ने कुछ नहीं कहा। क्रूर औरंगजेब को अपने मन के कोने में कहीं इसका अहसास जरूर हुआ होगा कि गुरूभक्ति एवं साधना कर्म निरर्थक नहीं होती।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 175

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...