रविवार, 6 सितंबर 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग १९)

जीवन कमल खिला सकती हैं—पंच वृत्तियाँ
  
यह अवरोधक शक्ति मन की दूसरी वृत्ति है, जिसका नाम है विपर्यय। विपर्यय का मतलब है, मिथ्या ज्ञान। मिथ्या ज्ञान का मतलब है कि है कुछ, पर दिखता है कुछ। है रस्सी, पर नजर आ रहा है साँप। प्रायः जीवन में यह स्थिति बेहोशी भरे अंधकार के कारण पनपती है। जैसे शराबी, भँगेड़ी, नशा गाढ़ा होने पर कुछ अजीबोगरीब अनुभूतियाँ करते हैं। वैसे ही इन्द्रिय लालसाओं, मानसिक वासनाओं एवं कामनाओं के ज्वार में भी इस मिथ्या ज्ञान की बाढ़ आती है। सारी उम्र कभी न खत्म होने पर भटकन की पर्याय बन जाती है। ध्यान रहे इस विपर्यय की समाप्ति ही प्रमाण का जागरण है। योग साधकों को अपने प्रयासों की दिशा इसी प्रमाण वृत्ति के जागरण की ओर मोड़नी होगी। लालसाओं, वासनाओं एवं कामनाओं का नशा उतरते ही मन की विपर्यय का अवसान हो जाता है।
  
तीसरी वृत्ति विकल्प अथवा कल्पना है। यह मन की बड़ी अद्भुत शक्ति है। सामान्य जन इस शक्ति का  दुरुपयोग करते हुए प्रायः ख्याली पुलाव पकाते रहते हैं। लेकिन जिन्हें इस शक्ति का थोड़ा-बहुत सदुपयोग करना आ जाता है, वे कवि या कलाकार बन जाते हैं। इस विकल्प वृत्ति का उत्कृष्ट उपयोग ही उनकी कला की उत्कृष्टता की पहचान बनता है। गुरुदेव कहते थे—विकल्प वृत्ति या कल्पना साधारण चीज नहीं है। यह योगियों, साधकों एवं मनस्वियों की चेतना शक्ति का माध्यम बनती है। इसके माध्यम से उनके प्राण प्रवाहित होते हैं। पश्चिम में एक मनोवैज्ञानिक हुए हैं- ‘कुए’। उसने अपने अनगिनत प्रयोगों से कल्पना शक्ति के चमत्कार को साबित कर दिखाया। उसने इस शक्ति का प्रयोग बड़े कठिन एवं जटिल रोगों से ग्रसित लोगों पर किया। अपने प्रयोगों में उसने इन रोगियों से कहा- ‘तुम अपने मन में प्रगाढ़ कल्पना करो कि मैं स्वस्थ हो रहा हूँ। अपना हर पल-हर क्षण इसी कल्पना में बिताओ।’ इस प्रयोग से कुए ने लाखों असाध्य रोगियों को ठीक किया।
  
अब तो पश्चिम में फेथ हीलिंग की एक समूची प्रक्रिया ही चल पड़ी है। यह और कुछ नहीं कल्पना शक्ति की प्रगाढ़ता से होने वाले परिणामों की चमत्कारी विधि है। इसकी महत्ता को न समझ करके हम इस बेशकीमती शक्ति का भारी दुरुपयोग करते हैं। परम पूज्य गुरुदेव कहा करते थे- कल्पना का सर्वश्रेष्ठ उपयोग शाश्वत् अनन्तता की अनुभूति में है। विश्व चिन्तन ने मनुष्य जाति को जो सर्वश्रेष्ठ कल्पनाएँ दी हैं, उनमें श्रेष्ठतम कल्पनाएँ उपनिषदों में है। इनमें से किसी एक को भी अपनाकर हम अपने जीवन को सार्थक कर सकते हैं। सोऽहम, अहं ब्रह्मास्मि जैसे श्रेष्ठतम महत्त्वाकांक्षाओं को जीवन में धारण कर कल्पना शक्ति की सहायता से उस परम तत्त्व की अनुभूति पायी जा सकती है।
  
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ३७
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 अध्यात्म-लक्ष और उसका आवश्यक कर्तृत्व (भाग ३)

मैं अकेला नहीं हम सब

इस तथ्य को भगवान बुद्ध जानते थे। इसलिए उन्होंने अपना कार्यक्रम सुनिश्चित रूप से स्थिर कर लिया था। वे बारबार कहा करते थे कि—‟जब तक एक भी प्राणी इस बन्धन में है तब तक मैं मुक्त नहीं हो सकता। मैं हर बार जन्म लेकर दूसरों को मुक्ति की प्रेरणा दूँगा और जब तक कोई भी जीव भव-बन्धनों में बंधा मिलेगा तब तक उसे छुड़ाने को ही अपना लक्ष बनाये रहूँगा।” सामाजिक जीवन का व्यक्तिगत जीवन से अटूट संबंध है। समाज की उपेक्षा करके एक व्यक्ति यदि अपनी ही भलाई की बात सोचता है तो यह उसकी संकीर्णता है। संकीर्ण दृष्टिकोण वाला व्यक्ति कैसे अध्यात्मवादी कहला सकता है? और कैसे उस संकुचित हृदय वाले तुच्छ व्यक्ति को परमात्मा की महानता को समझने और प्राप्त करने का अवसर मिल सकता है? परमात्मा दूसरों के लिए ही सब कुछ करने में निरन्तर संलग्न है, फिर उसका सच्चा भक्त अनुदार, स्वार्थी, संकीर्ण एवं केवल अपनी ही बात सोचने तक सीमित कैसे रह सकता है? साधक पर साध्य का कुछ तो प्रभाव पड़ना ही चाहिए। उदार, दानी, सहृदय, उपकारी परमात्मा का भक्त क्या इन गुणों से सर्वथा रहित ही रह जाएगा? क्या वह दूसरों की सेवा और सहायता करके समाज में सज्जनता एवं शान्ति बढ़ाने के लिए कुछ भी न करके केवल पूजा पाठ में ही बैठा रहेगा?

भगवान का मंदिर तोड़ा न जाय

शरीर भगवान का मन्दिर है। आत्मा का निवास होने से उसकी पवित्रता सब प्रकार अक्षुण्य रखे जाने योग्य है। मंदिर को तोड़-फोड़ डालने वाला व्यक्ति पापी और दुष्ट कहा जाता है। फिर असंयम और अनियमितताओं की कुल्हाड़ी चलाकर शरीर को तोड़-फोड़ डालने वाला मनुष्य भला धर्मात्मा कैसे हो सकता है? मंदिरों का सुधारना, जीर्णोद्धार कराना पुण्य कार्यों में गिना जाता है तो अपने या दूसरों के शरीरों को स्वस्थ एवं सुन्दर बनाना, आत्मा के निवास मंदिर को ठीक करना भी एक धर्म कार्य ही माना जाएगा। हममें से प्रत्येक धर्म प्रेमी और अध्यात्मवादी को ईश्वर उपासना की भाँति ही स्वास्थ्य की समुन्नति की ओर भी रुचि लेनी चाहिए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962 पृष्ठ 35

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...