मंगलवार, 30 मार्च 2021

👉 अध्यात्म और प्रेम

“अध्यात्म में प्रेम का प्रमुख स्थान है पर यह प्रेम देश के प्रति, देश-वासियों के प्रति, देश के गौरव, उसकी महानता और जाति के सुख, दैवी आनन्द का, या अपने देशवासियों के प्रति आत्म-बलि देने, उसके कष्ट निवारण के लिए स्वयं कष्ट सहन करने, देश की स्वतन्त्रता के लिए अपना रक्त बहाने, जाति के जनकों के साथ-साथ मृत्यु का आलिंगन करने में, आनन्द की अनुभूति करने का हो।

व्यक्तिगत सुख का प्रेम नहीं। मातृ-भूमि के स्पर्श से शरीर के पुलकित होने का आनन्द हो और हिन्द महासागर से जो हवायें बहती हैं, उनके स्पर्श से भी वहीं अनुभूति हो। भारतीय पर्वत माला से बहने वाली नदियों से भी वही सुख प्राप्त हो। भारतीय भाषा, संगीत , कविता, परिचित दृश्य, स्रोत, आदतें, वेश-भूषा जीवनक्रम आदि भौतिक प्रेम के मूल हैं। अपने अतीत के प्रति गर्व, वर्तमान के प्रति दुःख और भविष्य के प्रति अनुराग उसकी शाखायें हैं।

आत्माहुति और आत्म-विस्मृति, महान सेवा, और देश के लिए महान सेवा, और देश के लिए अपार सहन शक्ति उसके फल हैं। और जो इसे जीवित रखता है, वह है देश में भगवान की, मातृ-भूमि की अनुभूति, माँ का दर्शन, माँ का ज्ञान, और उसका निरन्तर ध्यान एवं माँ की स्तुति तथा सेवा।”

✍🏻 योगी अरविन्द
📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1964 पृष्ठ 1

👉 सद्ज्ञान की उपलब्धि मनुष्य का श्रेष्ठतम सौभाग्य

शरीर को जीवित रखने के लिए अन्न, जल और वायु की अनिवार्य आवश्यकता है। आत्मा को सजीव और सुविकसित बनाने के लिए उस ज्ञान आहार की आवश्यकता है जिसके आधार पर गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता उपलब्ध की जा सके। समुन्नत जीवन का एकमात्र आधार सद्ज्ञान है। इस अवलम्ब के बिना कोई ऊँचा नहीं उठ सकता—आगे नहीं बढ़ सकता। सन्तोष, सम्मान और वैभव की अनेकानेक श्रेयस्कर विभूतियाँ इस सद्ज्ञान सम्पदा पर ही अवलम्बित हैं।

मनुष्य में ज्ञान सम्पादन की क्षमता ही है पर उसे एकाकी विकसित नहीं कर सकता। दूसरों के सहारे ही उसकी महानता विकसित हो सकती है। इस सहारे का नाम स्वाध्याय और सत्संग है। शास्त्र और सत् संपर्क से यह प्रयोजन पूरा होता है प्रशिक्षित मनःस्थिति यह लाभ चिन्तन और मनन से भी ले सकती है। पशु को मनुष्य बनाने के लिए उस सद्ज्ञान की अनिवार्य आवश्यकता रहती है जो उसकी चिन्तन प्रक्रिया एवं कार्य−पद्धति में उच्चस्तरीय उभार उत्पन्न कर सके।

मानवी महानता का सारा श्रेय उस सद्ज्ञान को है जो उसकी चिन्तन प्रक्रिया एवं कार्य−पद्धति को आदर्शवादी परम्पराओं का अवलंबन करने की प्रेरणा देता हो। सौभाग्य और दुर्भाग्य की परख इस सद्ज्ञान संपदा के मिलने न मिलने की स्थिति को देखकर की जा सकती है। जिसे प्रेरक प्रकाश न मिल सका वह अँधेरे में भटकेगा, जिसे सद्ज्ञान की ऊर्जा से वञ्चित रहना पड़ा, वह सदा पिछड़ा और पतित ही बना रहेगा। पारस छू कर लोहे को सोना बनाने वाली किंवदंती सच हो या झूठ, यह सुनिश्चित तथ्य है सद्ज्ञान की उपलब्धि मनुष्य को सौभाग्य के श्रेष्ठतम स्तर तक पहुँचा देती है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1974 पृष्ठ 1

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...