मंगलवार, 6 अक्तूबर 2020

👉 कर्म करो तभी मिलेगा

कौरवों की राज सभा लगी हुई है। एक ओर कौने में पाण्डव भी बैठे हैं। दुर्योधन की आज्ञा पाकर दुःशासन उठता है और द्रौपदी को घसीटता हुआ राज सभा में ला रहा है। आज दुष्टों के हाथ उस अबला की लाज लूटी जाने वाली है। उसे सभा में नंग किया जायेगा। वचनबद्ध पाण्डव सिर नीचा किए बैठे हैं।

द्रौपदी अपने साथ होने वाले अपमान से दुःखी हो उठी। उधर सामने दुष्ट दुःशासन आ खड़ा हुआ। द्रौपदी ने सभा में उपस्थित सभी राजों महाराजों, पितामहों को रक्षा के लिए पुकारा, किन्तु दुर्योधन के भय से और उसका नमक खाकर जीने वाले कैसे उठ सकते थे। द्रौपदी ने भगवान को पुकारा अन्तर्यामी घट−घटवासी कृष्ण दौड़े आये कि आज भक्त पर भीर पड़ी है। द्रौपदी को दर्शन दिया और पूछा किसी को वस्त्र दिया हो तो याद करो? द्रौपदी को एक बात याद आई और बोली—‟भगवान् एक बार पानी भरने गई थी तो तपस्या करते हुए ऋषि की लँगोटी नदी में बह गई, तब उसे धोती में से आधी फाड़कर दी थी। कृष्ण भगवान ने कहा—द्रौपदी अब चिन्ता मत करो। तुम्हारी रक्षा हो जायगी और जितनी साड़ी दुःशासन खींचता गया उतनी ही बढ़ती गई। दुःशासन हारकर बैठ गया, किन्तु साड़ी का ओर छोर ही नहीं आया।

यदि मनुष्य का स्वयं का कुछ किया हुआ न हो तो स्वयं विधाता भी उसकी सहायता नहीं कर सकता। क्योंकि सृष्टि का विधान अटल है। जिस प्रकार विधान बनाने वाले विधायकों को स्वयं उसका पालन करना पड़ता है वैसे ही ईश्वरीय अवतार महापुरुष स्वयं भगवान भी अपने बनाये विधानों का उल्लंघन नहीं कर सकते। इससे तो उनका सृष्टि संचालन ही अस्त−व्यस्त हो जायेगा।

इस सम्बन्ध में उन लोगों को सचेत होकर अपना कर्म करना चाहिए जो सोचते हैं कि भगवान सब कर देंगे और स्वयं हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें। जीवन में जो कुछ मिलता है अपने पूर्व या वर्तमान कर्मों के फल के अनुसार। बैंक बैलेन्स में यदि रकम नहीं हो तो खातेदार को खाली हाथ लौटना पड़ता है। मनुष्य के कर्मों के खाते में यदि जमा में कुछ नहीं हो तो कुछ नहीं मिलने का। कर्म की पूँजी जब इकट्ठी करेंगे तभी कुछ मिलना सम्भव है। भगवान और देवता क्या करेंगे?

👉 छिद्रान्वेषण की दुष्प्रवृत्ति

छिद्रान्वेषण की वृत्ति अपने अन्दर हो तो संसार के सभी मनुष्य दुष्ट दुराचारी दिखाई देंगे। ढूँढ़ने पर दोष तो भगवान में भी मिल सकते है, न हों तो थोपे जा सकते हैं। कोई हानि होने या आपत्ति आने पर लोग करने भी हैं। कई तो अपने ऊपर आई हुई आपत्ति का कारण तक पूजा को मान लेते हैं और उसी पर सारा दोष थोपकर छोड़कर अलग हो जाते हैं। मनुष्यों में दोष ढूँढ़ते रहने पर तो उनमें असंख्य दोष निकाले या सोचे जा सकते हैं। ऐसी छिद्रान्वेषी प्रकृति के लोगों को सारी दुनियाँ बुराइयों से भरी हुई दुष्ट दुराचारी और अपने प्रति शत्रुता रखने वाली दिखाई देती हैं। उन्हें अपने चारों ओर नारकीय वातावरण दृष्टिगोचर होता है। निन्दा और आलोचना के अतिरिक्त कभी किसी के प्रति अच्छे भाव वे प्रकट ही नहीं कर पाते किसी की प्रशंसा उनके मुख से निकलती ही नहीं। ऐसे लोग अपनी इस क्षुद्रता के कारण ही सब के बुरे बने रहते हैं। 

पीठ पीछे की हुई निन्दा नमक-मिर्च मिलकर उस आदमी के पास जा पहुँचती है जिसके बारे में बुरा अभिमत प्रकट किया गया था। आमतौर पर सुनने वाले लोग अपनी विशेषता प्रकट करने के लिए उस सुनी हुई बुराई को उस तक पहुँचा देते हैं जिसके संबंध में कटु अभिमत प्रकट किया गया था ऐसी दशा में वह भी प्रतिरोध की भावना में शत्रुता का ही रुख धारण करता है और धीरे−धीरे उसके विरोधी एवं शत्रुओं की संख्या बढ़ती जाती है। रूठे बैठे रहने वाले, मुँह फुलाकर बात करने वाले, भौहें बढ़ाये रहने वाले और कर्कश स्वर में बोलने वाले व्यक्ति किसी के मन में अपने लिए आदर भाव प्राप्त नहीं कर सकते उन्हें बदले में द्वेष, घृणा, विरोध ही उपलब्ध होते हैं। अपना मन हर घड़ी खिन्न, संतप्त और क्षुभित रहता है उसकी जलन से होने वाले शारीरिक एवं मानसिक दुष्परिणामों की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जून 1962 

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ४४)

जब वैराग्य से धुल जाए मन
    
जबकि वितर्क की भूमि विधेयात्मक है। एक तरह से वितर्क ‘आर्ट ऑफ पॉजिटिव थिंकिंग’ है। विधेयात्मक चिन्तन की कला है। यह सम्प्रज्ञात समाधि का पहला तत्त्व है। जो व्यक्ति आन्तरिक शान्ति पाना चाहता है, उसे वितर्क को अपनाना पड़ता है। ऐसा व्यक्ति ज्यादा प्रकाशमय पक्ष की ओर देखता है। वह फूलों को महत्त्व देता है, काँटों को भूल जाता है। उसके लिए अपने आप ही शुभ और सुन्दर के द्वार खुलते हैं।
    
परम पूज्य गुरुदेव कहते थे कि जो व्यक्ति हमेशा पॉजिटिव सोचता है, तो समझो उसका अध्यात्म राज्य में प्रवेश निश्चित है। उसने समाधि के द्वार पर अपना पहला कदम रख दिया। उनका कहना था-विधेयात्मक सोच से विचारणा उदय होती है। विचारणा का अर्थ है-सुव्यवस्थित विचार। इसे विचारों की समग्रता भी कह सकते हैं। गुरुदेव का कहना था कि विचार और विचारशीलता में भारी फर्क है। विचार तो यूँ ही उठते-गिरते रहते हैं, बनते-बिगड़ते रहते हैं। जबकि विचारशीलता अपने अस्तित्व की आन्तरिक गुणवत्ता है। विचारशीलता का अर्थ है-सजग एवं जागरूक बने रहना। यह विचारशीलता सम्प्रज्ञात समाधि की दूसरी भावदशा है। यहाँ चिन्तन की नवीन कोपलें फूटती हैं। चेतना का अँधियारा समाप्त होता है।
    
महर्षि पतंजलि कहते हैं कि वितर्क यानि की सम्यक् तर्क ले जाता है विचारणा की ओर और विचारणा ले जाती है आनन्द की ओर। इस आनन्द की अनुभूति में अपनी अन्तर्चेतना की पहली झलक मिलती है। सम्प्रज्ञात समाधि की यह ऐसी अवस्था है, जैसे बादल हट गए और हमने क्षण भर के लिए सही चाँद को देख लिया। फिर से बादल घिर आते हैं। इसे कुछ इस तरह भी समझ सकते हैं कि जैसे हम हिमालय यात्रा पर गए और वहाँ चहुँओर धुंध छायी हुई है। यकायक धुंध हटी और हिमालय के उच्चतम शिखर की शुभ्र धवल ज्योतिर्मय झलक मिल गयी। सच कहें, तो यथार्थ में यह सम्प्रज्ञात समाधि का पहला स्वाद है।
    
आनन्द की यह भावदशा ले जाती है विशुद्ध अंतस् सत्ता की अवस्था में। यह विशुद्ध अंतस् सत्ता ही अस्मिता है। अन्तस् सत्ता का अशुद्ध प्रकटीकरण अहंकार के रूप में होता है। अहंकार में तुलना होती है। यह किसी से ज्यादा होने का सुख हो उठता है। किसी का विरोध करने में, उससे जीवन में इसे बड़ा आनन्द आता है। अहंकार जीवन का नकारात्मक दृष्टिकोण है। जबकि अस्मिता विधेयात्मक दृष्टिकोण की अनुभूति है। इस अनुभूति में अपने स्वरूप की झलक मिलती है। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि अस्मिता मैं का सम्यक् बोध है, जबकि अहंकार मैं का गलत बोध है। ध्यान की प्रगाढ़ता में अस्मिता की बड़ी सम्मोहक झलक मिलती है। ऐसा लगता है, जैसा सागर के बीच बूँद- जो अपने होने का अहसास तो कर पाती है, परन्तु अलगाव की अनुभूति नहीं कर पाती।

इस तरह सम्प्रज्ञात समाधि में सम्यक् तर्क, सम्यक् विचारणा, आनन्द की अवस्था और ‘हूँ’ पन की या अस्मिता का अनुभव समाया है। इस समाधि की भावदशा में चेतना अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करती है। परन्तु यहाँ अभी कर्मों के संस्कारों के बीज बने रहते हैं। इन्हें निर्बीज करने के लिए समाधि के अगले चरण में प्रवेश आवश्यक है। 

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ७९
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 Prepare Yourself to Receive God's Grace

Someone had left two tubs out in the open. One was facing up, the other was facing down. Rains came and filled the tub with its face up. The other one, facing down remained totally empty. The empty tub was furious. He cursed the other tub as well as the rain. The rain told him, "Don't be upset. I am not prejudiced. I provide water everywhere. The fault is entirely yours. If you turn your face up, I will fill you with water as well."  

The tub got the point and accepted his mistake. Telling this story to his disciples a monk said, "Just like rains, God's grace is showering down everywhere. We must prepare ourselves to receive it by performing Upasana. Worship is not begging for alms, it is about preparing oneself to receive the grace of God.

📖 From Pragya Puran

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...