शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017

👉 आज का सद्चिंतन 8 April 2017


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 8 April 2017


👉 गायत्री महाविज्ञान है अवसाद की औषधि

🔴 १९७० के दशक में हमारा परिवार गाँव का एक आदर्श परिवार था। पढ़ लिखकर मैं सन् १९७९ ई. में सरकारी सर्विस में आया। पढ़ाई के दिनों से ही मैं अपनी कमाई परिवार के सभी सदस्यों पर खर्च करने के मीठे सपने देखता रहा था, इसलिए मामूली जेब खर्च को छोड़कर अपना पूरा वेतन घर भेजने लगा। उन दिनों मेरी खूब आवभगत होती, कमाऊ पूत जो था। मैं स्वयं को धन्य मानता कि मैंने अपने परिवार का सारा कर्ज उतार दिया है और सभी सदस्यों की छोटी- बड़ी जरूरतें पूरी करता जा रहा हूँ।

🔵 धीरे- धीरे परिवार बढ़ता गया। पहले पत्नी आयी, फिर एक- एक कर तीन बच्चियों की किलकारियों से घर चहक उठा। किन्तु फिर भी मैं पहले की तरह ही परिवार वालों के काम आता रहा। पत्नी कभी कभार इस बात को लेकर शंका व्यक्त करती रहती थी कि जब बेटियाँ बड़ी हो जाएँगी, तो उनका घर बसाने में कोई भी हमारा साथ न देगा। तब मैं उन्हें झिड़क देता था। कुछ वर्षों बाद बड़ी बेटी की शादी तय हुई, तो शादी के खर्च की बात को लेकर घर में हंगामा खड़ा हो गया। सभी ने एक- दूसरे के सुर में सुर मिलाते हुए कहा- इतना खर्च हम कहाँ से करेंगे, जमा पूँजी तो कुछ भी नहीं है।

🔴 जैसे- तैसे बिटिया का विवाह तो संपन्न हो गया लेकिन बाहर से आए मेहमानों के एक- एक कर चले जाने के बाद घर में बैठक हुई और भाइयों ने कहा कि हमने आपके हिस्से की जमीन बेचकर यह विवाह सम्पन्न कराया है अतः आपका अब गाँव में कुछ नहीं बचा। भाइयों की बात सुनकर मैं सकते में आ गया। मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि जिस परिवार की बेहतरी के लिये हमने पत्नी तक की बात नहीं सुनी, उसी परिवार के सदस्य हमें हिस्सेदारी से वंचित कर देंगे। किससे क्या कहा जाए, कुछ समझ में नहीं आ रहा था।

🔵 पत्नी का सामना करना मेरे लिए कठिन हो गया था। उसने तो कई बार टोका था- सँभल कर खर्च कीजिए न, तीन- तीन बेटियों की भी जिम्मेदारियाँ आपके ऊपर हैं। उनका भी तो आप पर कुछ अधिकार है आदि- आदि। उसकी इन बातों को मैंने कभी महत्त्व नहीं दिया। पर आज जब उसकी बातें सच साबित हुईं तो मेरे पास सिवाय पछताने के और बचा ही क्या था?

🔴 इसी बीच बड़ी बेटी ससुराल में न जाने किन परिस्थितियों का शिकार हुई कि आखिरकार दुनिया ही छोड़कर चली गई। बदली हुई विषम परिस्थितियों पर दिन- रात सोच- सोच कर मैं डिप्रेशन में चला गया। खाना- पीना सब कुछ अनियमित हो गया। इसका स्वास्थ्य पर असर तो पड़ना ही था। पत्नी बार- बार समझाती रही कि जो हो गया, उसे भूल जाएँ। नए सिरे से जिन्दगी को सम्भालें, सब ठीक हो जाएगा, पर मैं अन्दर से इतना टूट चुका था कि उसकी इन बातों का मुझ पर कोई असर नहीं होता। मेरे दिमाग में तो दिन- रात एक ही बात चक्कर काटती रहती कि काश हमने परिवार पर अपनी समस्त पूँजी न लुटाई होती? अवसाद इस सीमा तक पहुँच गया कि नौकरी से छुट्टी लेनी पड़ी। किसी प्रकार समय बीतने लगा, और धीरे- धीरे पूरा साल निकल गया। गृहस्थी का खर्च कैसे चलता था, मुझे कुछ नहीं मालूम।

🔵 सहधर्मिणी ने खूब साथ निभाया। कैसे भी, सिलाई बुनाई कर, बच्चों की परवरिश की। साथ ही दिन- रात मुझे अपने पहरे में रखती। बाद के दिनों में तो मैं दिन- रात कभी भी घर से निकल कर कहीं भी चला जाता। मुझे संसार से, स्वयं अपने जीवन से वितृष्णा हो गई थी। लगता था संसार के सारे व्यक्ति स्वार्थी, लोभी, लालची हैं। इनके साथ क्या जीना?

🔴 मैं विचारों से इतना संकीर्ण हो गया था कि बच्चों की ममता में भी मुझे स्वार्थ की बू आने लगी थी। सबको पराया मान कर स्वयं को समाप्त कर देने की मनःस्थिति आ गई थी कि इसी दौरान एक चमत्कार हुआ। कहीं से मुझे गायत्री यज्ञ का एक पर्चा मिला। उसमें लिखा था- जीवन से निराश, हताश व्यक्ति भी दुगुने उत्साह से जीवन जीने हेतु घीयामण्डी, मथुरा से सम्पर्क कर नवजीवन पाएँ व यहाँ से जीवनोपयोगी पुस्तकें मँगा कर पढ़ें।

🔵 इसे पढ़कर मेरे मन में आशा की नई किरण फूट पड़ी। मैंने वहाँ से एक पुस्तक मँगाई। उसमें लिखा था- महान व्यक्ति सदैव अकेले ही चले हैं। जो किसी दूसरे के आधार पर खड़ा होता है, वह तो निश्चित रूप से गिरता है, भला कभी नींव रहित मकान भी स्थाई हो सकता है? आदि- आदि।

🔴 इन बातों से मेरा अवसाद मिटने लगा। थोड़ा बहुत आत्मविश्वास लौटा तो लगा कि जीने की कोशिश तो कर ही सकता हूँ। अगले दो दिनों में मैंने गायत्री महाविज्ञान के तीनों भाग पढ़े तो मन विश्वास से भर उठा। शान्तिकुञ्ज जाने की व्याकुलता बढ़ी। पड़ोस के लोगों से गिड़गिड़ाकर कहने लगा कि कोई कृपा करके मुझे शान्तिकुञ्ज पहुँचा दे, पर सभी मुझे पागल समझकर मेरी बात टाल दिया करते थे। अन्त में एक भोले पड़ोसी को मुझ पर तरस आया और उसने मुझे पास के गाँव से शांतिकुंज जा रहे एक व्यक्ति के साथ लगा दिया। शान्तिकुञ्ज पहुँचकर कुछ समझ में नहीं आया कि मैं क्या करूँ। किसी से कुछ पूछने का साहस भी नहीं हो रहा था। आत्मबल नाम की कोई चीज तो रह ही नहीं गई थी।

🔵 अन्ततः मैं माताजी व पूज्य गुरुदेव की समाधि के आगे बैठ गया और खूब देर तक रोता रहा। अपने हृदय में विराजमान ईश्वर से मन की व्यथा सुनाकर उनसे प्रार्थना करता रहा कि मुसीबतों के इस दौर से मुझे उबार लें। रो- रोकर मेरा मन बहुत हल्का हो चुका था। वहाँ का सुरम्य वातावरण मुझे भाने लगा। तीन दिन कैसे कट गए मुझे पता ही नहीं चला।

🔴 घर वापस आने पर नहा धोकर पूजा कक्ष में गया और पूज्य गुरुदेव का ध्यान करने लगा। अचानक पूरे कमरे में रोशनी की बाढ़ सी आ गई। मैंने देखा कि पूज्य गुरुदेव सामने खड़े मुस्करा रहे हैं। मुझे उनकी आवाज साफ- साफ सुनाई पड़ी।

🔵 गुरुदेव कह रहे थे- चिन्ता क्यों करता है- तेरी सभी समस्याओं का निवारण धीरे- धीरे होगा, प्रयत्न कर। मैं हमेशा तुम्हारा साथ दूँगा। पूज्य गुरुदेव के इस आश्वासन से मेरा खोया हुआ मनोबल लौट आया। जिन परिस्थितियों से मैं दूर भागना चाहता था, अब मैंने उन्हीं से लड़ना शुरू कर दिया था। पत्नी और बच्चों का जो प्रेमपूर्ण व्यवहार मुझे मोह माया का बंधन लगने लगा था, वही मुझे ईश्वर का अनुदान लगने लगा।

🔴 घर के लोगों द्वारा उपकार के बदले में मुझे जो तिरस्कार मिला, उसे मैं अब ईश्वर द्वारा ली गई परीक्षा मानने लगा था। यह बात मेरी समझ में आ चुकी थी कि परिवार के लोगों के लिए इतना कुछ करके मैंने उन पर कोई उपकार नहीं किया, बल्कि अपना ही ऋण चुकाया है। धीरे- धीरे मेरे परिवार की गाड़ी पुनः पटरी पर आ गई। वैसे तो मेरी समस्याओं के निदान में कुछ वक्त लग गया, लेकिन उन समस्याओं से लड़ने में मैं जहाँ भी लड़खड़ाने लगता था, किसी न किसी रूप में पूज्य गुरुदेव पास आकर मुझे संभाल ही लेते थे। आज मैं समृद्धि की जिस सीढ़ी पर हूँ, वहाँ पहुँचना गुरुसत्ता के अनुदान के बिना कतई संभव नहीं था।                   
  
🌹 पारस नाथ तिवारी, राँची (झारखण्ड)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Wonderful/Gayatri.1

👉 परंपरा जब अंधी हो जाती है

🔵 बात उन दिनों की है जब रूस में जार अलेक्जेंडर का शासन था। उसके व्यक्तिगत निवास में बहुत थोडे और विश्वसनीय लोग ही पहुँच सकते थे, इसलिए कितने ही रहस्य ऐसे थे, जो औरो तक कभी प्रकट नहीँ नहीं हो सके।

🔴 एक दिन प्रशा के राजदूत बिस्मार्क जार से भेंट करने उनके महल पर गये। बिरमार्क जहाँ बैठे थे उसके ठीक सामने खिड़की पडती थी बहुत पीछे तक का बाहरी दृश्य भी वहाँ से अच्छी तरह दिखाई दे रहा था। बिस्मार्क ने देखा कि बहुत देर से एक रायफलधारी संतरी मैदान मे खडा है जबकि रक्षा करने जैसी कोई वस्तु वहाँ पर नहीं है। शांतिकाल था- इसलिये सैनिक गश्त जैसी कोई बात भी नहीं थी।

🔵 बडी़ देर हो गई तब बिस्मार्क ने जार से पूछा-यह संतरी क्यों खडा़ है? जार को स्वयं भी पता नहीं था कि संतरी वहाँ किस बात का पहरा दे रहा है ?

🔴 जार ने अपने अंगरक्षक सेनाधिकारी को बुलाया और पूछा- यह संतरी इस पीछे के मैदान में किसलिए नियुक्त किया जाता है ? सेनाधिकारी ने बताया-सरकार! यह बहुत दिनों से ही यही खड़ा होता चला आ रहा है। जार ने थोडा कडे़ स्वर में कहा- यह तो मैं भी देख रहा हूँ मेरा प्रश्न यह है कि संतरी यहाँ किसलिए खडा होता है ' जाओ और पता लगाकर पूरी बात मालूम करो।''

🔵 सेनाधिकारी को कई दिन तो यह पता लगाने में ही लग गए थे। चौथे दिन सारी स्थिति का पता कर वह जार के सम्मुख उपस्थित हुआ और बताया- 'पुराने सरकारी कागजात देखने से पता चला कि ८० वर्ष पहले महारानी कैथरीन के आदेश से एक संतरी वहां खडा किया गया था। बात यह थी कि एक दिन जब वे घूमने के लिए निकली, तब इरा मैदान में बर्फ जमा थी। सारे मैदान में एक ही फूल का पौधा था और उसमें एक बहुत सुंदर फूल खिला हुआ था। कैथरीन को वह फूल बेहद सुंदर लगा सो उसकी सुरक्षा के लिए तत्काल वहाँ एक संतरी खडा़ करने का आदेश दिया और इस तरह वहाँ संतरी खडा़ करने की परपरा चल पडी़। ८० वर्ष हो गए न किसी ने आदेश को बदला, न किसी ने उसकी आवश्यकता अनुभव की, सो उस स्थान पर व्यर्थ ही पहरेदारी बराबर चलती आ रही है। जार को गुस्सा भी आया और हँसी भी। गुस्सा इसलिए कि परंपराओं का निरीक्षण न होने से यह खर्च व्यर्थ ही होता रहा और हँसी इसलिये कि पहले तो एक भी फूल था पर ८० वर्ष से तो उस मैदान में अच्छी घास भी नहीं है, न जाने संतरी किसकी रखवाली कर रहा है ?

🔴 कहानी यहाँ समाप्त नहीं हो गई वरन् सही कहानी अब प्रारंभ होती है और वह यह है कि समाज में स्वय आज दहेज, पर्दा प्रथा जाति-पाँति ऊँच-नीच, मृतक भोज स्वस्थ परंपरा के रूप में प्रचलित किए गये थे। अब अंध परंपरा बन चुके हैं। वर्तमान परिस्थितियों में न तो उनकी आवश्यकता है और न उपयोगिता फिर भी न तो कोई यह देख रहा कि यह परंपराऐं आखिर किस उद्देश्य से बनी थी और न ही कोई उन्हें मिटाने का साहस कर रहा है। हम व्यर्थ ही उपहास और अपव्यय के पात्र बने उन्हें अपने छाती से वैसे ही चिपकाए है जैसे-रूस का यह बिना कारण-पहरा।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 125, 126

👉 परिवर्तन की घड़ियाँ आ रही हैं

🔷 प्रजातन्त्र के नाम पर चलने वाली धाँधली में कटौती होगी। बोट उपयुक्त व्यक्ति ही दे सकेंगे। अफसरों के स्थान पर पंचायतें शासन सम्भालेंगी और जन सहयोग से ऐसे प्रयास चल पड़ेंगे जिनकी कि इन दिनों सरकार पर ही निर्भरता रहती है। नया नेतृत्व उभरेगा। इन दिनों धर्म क्षेत्र के और राजनीति के लोग ही समाज का नेतृत्व करते हैं। अगले दिनों मनीषियों की एक नई बिरादरी का उदय होगा जो देश, जति, वर्ग आदि के नाम पर विभाजित वर्तमान समुदाय को विश्व नागरिक स्तर की मान्यता अपनाने विश्व परिवार बनाकर रहने के लिए सहमत करेंगे। तब विग्रह नहीं, हर किसी पर सृजन और सहकार सवार होगा।

🔶 विश्व परिवार की भावना दिन-दिन जोर पकड़ेगी और एक दिन वह समय आवेगा जब विश्व राष्ट्र, आबद्ध विश्व नागरिक बिना आपस में टकराये प्रेम पूर्वक रहेंगे। मिल-जुलकर आगे बढ़ेंगे और वह परिस्थितियाँ उत्पन्न करेंगे जिसे पुरातन सतयुग के समतुल्य कहा जा सके।

🔷 इसके लिए नव सृजन का उत्साह उभरेगा। नये लोग नये परिवेश में आगे आयेंगे। ऐसे लोग जिनकी पिछले दिनों कोई चर्चा तक न थी, वे इस तत्परता से बागडोर संभालेंगे मानो वे इसी प्रयोजन के लिए कहीं ऊपर आसमान से उतरे हों या धरती फोड़ कर निकले हों।

🔶 दूसरों को विनाश दीखता है, सो ठीक है, परिस्थितियों का जायजा लेकर निष्कर्ष निकालने वाली बुद्धि को भी झुठलाया नहीं जा सकता। विनाश की भविष्यवाणियों में सत्य भी है और तथ्य भी। पर हम आभास और विश्वास को क्या कहें। जो कहता है कि समय बदलेगा। घटाटोप की तरह घुमड़ने वाले काले मेघ किसी प्रचण्ड तूफान की चपेट से आकर उड़ते हुए कहीं से कहीं चले जायेंगे।

🔷 सघन तमिस्रा का अन्त होगा। ऊषाकाल के साथ उभारता हुआ अरुणोदय अपनी प्रखरता का परिचय देगा। जिन्हें तमिस्रा चिरस्थायी लगती हो, वे अपने ढंग से सोचें, पर हमारा दिव्य दर्शन, उज्ज्वल भविष्य की झाँकी करता है। लगता है इस पुण्य प्रयास में सृजन की पक्षधर देवशक्तियाँ प्राण-पण से जुट गयी हैं। इसी सृजन प्रयास के एक अकिंचन घटक के रूप में हमें भी कुछ कारगर अनुदान प्रस्तुत करने का अवसर मिल रहा है। इस सुयोग्य सौभाग्य पर हमें अतीव सन्तोष है और असाधारण आनन्द।

✍🏻 पूज्य पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी
📖 अखण्ड ज्योति, जून 1984 पृष्ठ 18

👉 समय का सदुपयोग करें (भाग 1)

🌹 समय का सदुपयोग करें

🔴 जीवन का महल समय की—घण्टे-मिनटों की ईंटों से चिना गया है। यदि हमें जीवन से प्रेम है तो यही उचित है कि समय को व्यर्थ नष्ट न करें। मरते समय एक विचारशील व्यक्ति ने अपने जीवन के व्यर्थ ही चले जाने पर अफसोस प्रकट करते हुए कहा—‘‘मैंने समय को नष्ट किया, अब समय मुझे नष्ट कर रहा है।’’

🔵 खोई दौलत फिर कमाई जा सकती है। भूली हुई विद्या फिर याद की जा सकती है। खोया हुआ स्वास्थ्य चिकित्सा द्वारा लौटाया जा सकता है, पर खोया हुआ समय किसी प्रकार नहीं लौट सकता, उसके लिए केवल पश्चाताप ही शेष रह जाता है।

🔴 जिस प्रकार धन के बदले में अभीष्ट वस्तुएं खरीदी जा सकती हैं, उसी प्रकार समय के बदले में विद्या, बुद्धि, लक्ष्मी, कीर्ति, आरोग्य, सुख-शान्ति, मुक्ति आदि जो भी वस्तू रुचिकर हो खरीदी जा सकती है। ईश्वर ने समय रूपी प्रचुर धन देकर मनुष्य को पृथ्वी पर भेजा है और निर्देश दिया है कि वह इसके बदले में संसार की जो भी वस्तु रुचिकर समझे खरीद ले।

🔵 किन्तु कितने व्यक्ति हैं जो समय का मूल्य समझते और उसका सदुपयोग करते हैं? अधिकांश लोग आलस्य और प्रमाद में पड़े हुए जीवन के बहुमूल्य क्षणों को यों ही बर्बाद करते रहते हैं। एक-एक दिन करके सारी आयु व्यतीत हो जाती है और अन्तिम समय वे देखते है कि उन्होंने कुछ भी प्राप्त नहीं किया, जिन्दगी के दिन यों ही बिता दिये। इसके विपरीत जो जानते हैं कि समय का नाम ही जीवन है वे एक एक क्षण को कीमती मोती की तरह खर्च करते हैं और उसके बदले में बहुत कुछ प्राप्त कर लेते हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा (भाग 30)

🌹 युग परिवर्तन प्रतिभा ही करेगी

🔵 प्रतिभाओं का निखार दूसरे तो क्या, किसी की भी कृपा-अनुकंपा के ऊपर निर्भर नहीं है। वह तो पूरे तरह अपने बस की बात है। शरीर से इच्छानुसार काम लिया जा सकता है। उस पर पूरा नियंत्रण अपना रहता है। जो लोग संसार के वर्तमान प्रचलनों की बातों को ही सब कुछ मानते हैं, उन्हें क्या कहा जाए अन्यथा अपने मनोबल और प्रयास को यदि दिशाबद्ध किया जा सके तो हर व्यक्ति अंत: की प्रेरणा से न जाने क्या से क्या कुछ करके दिखा सकता है। यह नया प्रयोग नहीं है। भूतकाल में ऐसे ही प्रयोग होते रहे हैं। युग बदलते रहे और मनुष्य अपनी प्रथा-परम्पराओं में आमूलचूल परिवर्तन करता रहा है। इस बार की महाकाल द्वारा दी गई चुनौती को अस्वीकार करते न बन पड़ेगा।                   

🔴 गाँधी, बुद्ध, ईसा आदि के धार्मिक आंदोलनों को सफल बनाने के पीछे भगवान् की इच्छा कार्य करती रही है। इस बार प्रतिभावानों की पूर्ति का सरंजाम जुट रहा है। समय रहते वह पूरा भी होगा। यह संभावना अधूरी न रहेगी; क्योंकि प्रतिभावानों में हुंकार जब भी उठी है, उसने विशिष्ट स्तर की प्रतिभाओं को विकसित किया है। यह प्रतिभावानों की विशेषता रही है। इसके लिये शरीरबल, साधनाबल, बुद्धिबल की उतनी आवश्यकता नहीं, जितनी कि गाँधी, बुद्ध, विनोबा जैसे प्रतिभावानों की। समय स्वल्प हो तो भी अपने संपर्क क्षेत्र में प्रतिभा का परिचय देने वाले मनस्वी तो हर किसी को उभार सकते हैं, और गीध, गिलहरी, शबरी, भील जैसे चमत्कार प्रस्तुत कर सकते हैं, जो छोटों के लिये भी संभव हो सकता है।

🔵 इक्कीसवीं सदी में आंदोलन की भागीदारी स्वीकार करने के लिये भाव-संवेदना के धनी वर्ग का आह्वान किया गया है। आरंभ की दृष्टि से हल्के काम सौंपे गये हैं- युगसंधिपुरश्चरण के अंतर्गत जप, साधना, समयदान, अंशदान, साप्ताहिक सत्संग, झोला-पुस्तकालय आदि। उन्हें हल्के दरजे के स्काउट व्यायाम स्तर का समझा जाए, जिससे अभिरूचि और आस्था की परिस्थिति बढ़ चले।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...