शुक्रवार, 27 मार्च 2020

👉 यह भी नहीं रहने वाला

एक साधु देश में यात्रा के लिए पैदल निकला हुआ था। एक बार रात हो जाने पर वह एक गाँव में आनंद नाम के व्यक्ति के दरवाजे पर रुका।
आनंद ने साधू  की खूब सेवा की। दूसरे दिन आनंद ने बहुत सारे उपहार देकर साधू को विदा किया।

साधू ने आनंद के लिए प्रार्थना की  - "भगवान करे तू दिनों दिन बढ़ता ही रहे।"

साधू की बात सुनकर आनंद हँस पड़ा और बोला - "अरे, महात्मा जी! जो है यह भी नहीं रहने वाला।" साधू आनंद  की ओर देखता रह गया और वहाँ से चला गया।

दो वर्ष बाद साधू फिर आनंद के घर गया और देखा कि सारा वैभव समाप्त हो गया है। पता चला कि आनंद अब बगल के गाँव में एक जमींदार के यहाँ नौकरी करता है । साधू आनंद से मिलने गया।

आनंद ने अभाव में भी साधू का स्वागत किया। झोंपड़ी में फटी चटाई पर बिठाया। खाने के लिए सूखी रोटी दी। दूसरे दिन जाते समय साधू की आँखों में आँसू थे। साधू कहने लगा - "हे भगवान्! ये तूने क्या किया?"

आनंद पुन: हँस पड़ा और बोला - "महाराज  आप क्यों दु:खी हो रहे है? महापुरुषों ने कहा है कि भगवान्  इन्सान को जिस हाल में रखे, इन्सान को उसका धन्यवाद करके खुश रहना चाहिए। समय सदा बदलता रहता है और सुनो! यह भी नहीं रहने वाला।"

साधू मन ही मन सोचने लगा - "मैं तो केवल भेष से साधू  हूँ। सच्चा साधू तो तू ही है, आनंद।"

कुछ वर्ष बाद साधू फिर यात्रा पर निकला और आनंद से मिला तो देखकर हैरान रह गया कि आनंद  तो अब जमींदारों का जमींदार बन गया है।  मालूम हुआ कि जिस जमींदार के यहाँ आनंद  नौकरी करता था वह सन्तान विहीन था, मरते समय अपनी सारी जायदाद आनंद को दे गया।

साधू ने आनंद  से कहा - "अच्छा हुआ, वो जमाना गुजर गया। भगवान् करे अब तू ऐसा ही बना रहे।"

यह सुनकर आनंद  फिर हँस पड़ा और कहने लगा - "महाराज  ! अभी भी आपकी नादानी बनी हुई है।"

साधू ने पूछा - "क्या यह भी नहीं रहने वाला?"

आनंद उत्तर दिया - "हाँ! या तो यह चला जाएगा या फिर इसको अपना मानने वाला ही चला जाएगा। कुछ भी रहने वाला नहीं है और अगर शाश्वत कुछ है तो वह है परमात्मा और उस परमात्मा की अंश आत्मा।"

आनंद  की बात को साधू ने गौर से सुना और चला गया।

साधू कई साल बाद फिर लौटता है तो देखता है कि आनंद  का महल तो है किन्तू कबूतर उसमें गुटरगूं कर रहे हैं, और आनंद  का देहांत हो गया है। बेटियाँ अपने-अपने घर चली गयीं, बूढ़ी पत्नी कोने में पड़ी है।

कह रहा है आसमां यह समा कुछ भी नहीं।

रो रही हैं शबनमें, नौरंगे जहाँ कुछ भी नहीं।
जिनके महलों में हजारों रंग के जलते थे फानूस।
झाड़ उनके कब्र पर, बाकी निशां कुछ भी नहीं।

साधू कहता है - "अरे इन्सान! तू किस बात का अभिमान करता है? क्यों इतराता है ? यहाँ कुछ भी टिकने वाला नहीं है, दु:ख या सुख कुछ भी सदा नहीं रहता। तू सोचता है पड़ोसी मुसीबत में है और मैं मौज में हूँ। लेकिन सुन, न मौज रहेगी और न ही मुसीबत। सदा तो उसको जानने वाला ही रहेगा। सच्चे इन्सान वे हैं, जो हर हाल में खुश रहते हैं। मिल गया माल तो उस माल में खुश रहते हैं, और हो गये बेहाल तो उस हाल में खुश रहते हैं।"

साधू कहने लगा - "धन्य है आनंद! तेरा सत्संग, और धन्य हैं तुम्हारे सतगुरु! मैं तो झूठा साधू हूँ, असली फकीरी तो तेरी जिन्दगी है। अब मैं तेरी तस्वीर देखना चाहता हूँ, कुछ फूल चढ़ाकर दुआ तो मांग लूं।"

साधू दूसरे कमरे में जाता है तो देखता है कि आनंद  ने अपनी तस्वीर  पर लिखवा रखा है - "आखिर में यह भी नहीं रहेगा।"


108 Gayatri Mantra
Gurudev Pt. Shriram Sharma Acharya's Voice
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https://youtu.be/Fv7Iy3g42QY

👉 दुःख का सुअवसर

दुःख की कल्पना मात्र से कंपकपी होने लगती है। इसके अहसास से मन विकल, विह्वल, बेचैन हो जाता है। ऐसे में दुःख से होने वाले दर्द की कौन कहे? यही वजह है कि दुःख से सभी भागना चाहते हैं। और अपने जीवन से दुःख को भगाना चाहते हैं। दुःख से भागने और दुःख को भगाने की बात आम है। जो सामान्य जनों और सर्वसाधारण के लिए है। लेकिन इसकी एक खास बात भी है। जो सत्यान्वेषियों के लिए, साधकों के लिए और भगवद्भक्तों के लिए है। यह अनुभूति विरले लोग पाते हैं। ऐसे लोग दुःख से भागते नहीं, बल्कि दुःख में जागते हैं।
  
दुःख उनके लिए रोने, कलपने का साधन नहीं बल्कि परमात्मा द्वारा प्रेरित और उन्हीं के द्वारा प्रदत्त जागरण का अवसर बनता है। दुःख के क्षणों में उनकी अन्तर्चेतना में संकल्प, साहस, संवेदना, पुरुषार्थ की प्रखरता और प्रज्ञा की पवित्रता जागती है। उनकी आत्मचेतना में अनुभूतियों के नए गवाक्ष खुलते हैं, उपलब्धियों के नए अवसर आते हैं। इसीलिए तपस्वियों ने दुःख को देवों के हाथ का हथौड़ा कहा है। जो चेतना में उन्नयन के नए सोपान सृष्ट करता है। विकास और परिष्कार के नए द्वार खोलता है।
  
तभी तो सन्तों ने, साधुओं, दरवेशों और फकीरों ने भगवान् से हमेशा दुःख के वरदान मांगे हैं। सुख की चाहत तो बस आलसी, विलासी करते हैं। जो सुखों के बीच पले, बढ़े हैं, उनकी चेतना सदा-सदा से सुषुप्ति की ओर अग्रसर होती है। उनके जीवन में भला परिष्कार व पवित्रता का दुर्लभ सौभाग्य कहाँ? यह तो बस केवल उन्हीं को मिलता है, जो पीड़ाओं में पलते हैं और दुःख के दरिया में प्रसन्नतापूर्वक बहते हैं। जो बदनामी के क्षणों में प्रभु भक्ति में जीना और गुमनामी के अँधेरों में प्रभु चिन्तन करते हुए मरना जानते हैं। उन्हें ही परमात्म मिलन का अनन्त सौभाग्य मिलता है।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ २०८


यज्ञोपचार पद्धति
Yagya Upchar Paddhti
Shraddheya Dr. Pranav Pandya
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https://youtu.be/s9eVfFZ3ZFc

👉 पारिवारिक कलह और मनमुटाव कारण तथा निवारण (भाग ५)

परिवार के युवक तथा उनकी समस्याएँ-

प्रायः युवक स्वच्छन्द प्रकृति के होते हैं और परिवार के नियंत्रण में नहीं रहना चाहते। वे उच्छृंखल प्रकृति, पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित, हलके रोमाँस से वशीभूत पारिवारिक संगठन से दूर भागना चाहते हैं। यह बड़े परिताप का विषय है।

युवकों के झगड़ों के कारण ये हैं- 1-अशिक्षा 2-कमाई का अभाव, 3-प्रेम सम्बन्धी अड़चनें घर के सदस्यों का पुरानापन और युवकों की उन्मुक्त प्रकृति, 4-कुसंग, 5-पत्नी का स्वच्छन्द प्रिय होना तथा पृथक घर में रहने की आकाँक्षा, 6- विचार सम्बन्धी पृथकता-पिता का पुरानी धारा के अनुकूल चलाना पुत्र का अपने अधिकारों पर जमे रहना, 7-जायदाद सम्बन्धी बटवारे के झगड़े । इन पर पृथक-पृथक विचार करना चाहिए।

यदि युवक समझदार और कर्त्तव्यशील हैं, तो झगड़ों का प्रसंग ही उपस्थित न होगा। अशिक्षित अपरिपक्व युवक ही आवेश में आकर बहक जाते हैं और झगड़े कर बैठते हैं। एक पूर्ण शिक्षित युवक कभी पारिवारिक विद्वेष या कलह में भाग न लेगा। उसका विकसित मस्तिष्क इन सबसे ऊँचा उठ जाता है। वह जहाँ अपना अपमान देखता है, वहाँ स्वयं ही हाथ नहीं डालता।

कमाई का अभाव झगड़ों का एक बड़ा कारण है। निखट्टू पुत्र परिवार में सबकी आलोचना का शिकार होता है। परिवार के सभी सदस्य उससे यह आशा करते हैं कि वह परिवार की आर्थिक व्यवस्था में हाथ बंटाएगा। जो युवक किसी पेशे या व्यवसाय के लिए प्रारम्भिक तैयारी नहीं करते, वे समाज में फिर नहीं हो पाते। हमें चाहिए कि प्रारंभ से ही घर के युवकों के लिए काम तलाश कर लें जिससे बाद में जीवन-प्रवेश करते समय कोई कठिनाई उपस्थित न हो। संसार कर्मक्षेत्र है। यहाँ हम में से प्रत्येक को अपना कार्य समझना तथा उसे पूर्ण करना है। हममें जो प्रतिया बुद्धि, अज्ञात शक्तियाँ हैं, उन्हें विकसित कर समाज के लिए उपयोगी बनाना चाहिए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1951 पृष्ठ 24

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...