शुक्रवार, 11 मई 2018

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 11 May 2018


👉 आज का सद्चिंतन 11 May 2018

👉 Maharshi Patanjali

🔷 Some people brought a young man to Maharshi Patanjali and said-“Despite the best efforts from  our side, we are not able to teach this man the importance of yoga sadhana in human life. Kindly help us in this regard”. The Maharshi asked the young man to stay back in his Ashram for a few days.
  
🔶 Several days passed. The people who had brought that man to the Ashram came to meet him there. It was indeed a pleasant surprise for them to see him completely transformed. That man, who was addicted to intoxicating drugs and sensual pleasures a few days back, was now living a life of austerity and self control. He was engrossed in deep meditation beneath a huge tree when they reached the Ashram.
  
🔷 “How did this magical change occur?”-they couldn’t help asking Maharshi Patanjali. The latter humbly replied that there was nothing  amazing in this. It was due to healing and soothing influence of the spiritually suffused vibrations of this Ashram, where every inmate is a devoted sadhaka; this acts as an attitudinal therapy. Those people were well aware that the environment also plays an important role in the progress of sadhana but they could not follow what the Maharshi meant by attitudinal therapy.

🔶 Maharshi further explained –“An eye-specialist cures the problems of eyesight but treatment of the mental-sight, he outlook towards the self and the world.., is the job of a rishi. Because of the deep insight awakened by long-term sadhana, a rishi can view the hidden tendencies and nature of a person and diagnose the ailments of his mental and emotional selves. Using their spiritual powers, rishi can heal such ailments and infirmities of the inner selves of a person. The treatment and righteous orientation of one’s mentality is achieved not merely by preaching and teaching but by the impact of the rishi-level sadhana.

📖 From Akhand Jyoti

👉 कर्मयोग का रहस्य (भाग 3)

🔷 कर्मयोग, भक्ति योग, अथवा ज्ञानयोग के साथ मिला होता है। जिस कर्मयोगी ने भक्ति योग से कर्मयोग को मिलाया है उसका निमित्त भाव होता है, वह अनुभव करता है कि ईश्वर सब कुछ कार्य कर सकता है और वह ईश्वर के हाथों में निमित्त मात्र है, इस प्रकार वह धीरे−धीरे कर्मों के बन्धन से छूट जाता है, कर्म के द्वारा उसे मोक्ष मिल जाती है। जिस कर्मयोगी ने ज्ञानयोग और कर्मयोग को मिलाया है वह अपने कर्मों से साक्षी भाव रखता है। वह अनुभव करता है कि प्रकृति सब काम करती है और वह मन और इन्द्रियों की क्रियाओं और जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं का साक्षी भाव रख कर कर्म के द्वारा मोक्ष प्राप्त करता है।

🔶 कर्मयोगी निरन्तर निःस्वार्थ सेवा से अपना चित्त शुद्ध कर लेता है। वह कर्म फल की आशा न रखता हुआ कार्य करता है, वह अहंकारहीन अथवा कर्तापन के विचार रहित होकर कार्य करता है, वह हर एक रूप में ईश्वर को देखता है, वह अनुभव करता है कि सारा संसार परमात्मा के व्यक्ति त्व का विकास है और यह जगत वृन्दावन है। वह कठोर ब्रह्मचर्य−व्रत पालन करता है, वह करता हुआ मन से ‘ब्रह्मार्पणम्’ करता रहता है, अपने सारे कार्य ईश्वर के अर्पण करता है और सोने के समय कहता है—’हे प्रभु! आज मैंने जो कुछ किया है आपके लिए है, आप प्रसन्न होकर इसे स्वीकार कीजिए।

🔷 वह इस प्रकार कर्मों के फल को भस्म कर देता है और कर्मों के बन्धन में नहीं फँसता, वह कर्म के द्वारा मोक्ष प्राप्त कर लेता है, निष्काम कर्मयोग से उसका चित्तशुद्धि होता है और चित्तशुद्धि होने पर आत्मज्ञान प्राप्त हो जाता है। देश सेवा, समाज सेवा, दरिद्र सेवा, रोगी सेवा, पितृ सेवा गुरु सेवा यह सब कर्मयोग है। सच्चा कर्मयोगी दास कर्म और सम्मान पूर्ण कर्म से भेद नहीं करता, ऐसा भेद अन्य जन ही किया करते हैं, कुछ साधक अपने साधन के प्रारम्भ में बड़े विनीत और नम्र होते हैं, परन्तु जब उन्हें कुछ यश और नाम मिल जाता है तब वे अभिमान के शिकार बन जाते हैं।

✍🏻 श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज
📖 अखण्ड ज्योति, मार्च 1955 पृष्ठ 7

👉 गुरुगीता (भाग 106)

👉 ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान रूप में गुरूगीता

🔷 गुरूगीता शिष्य की हृदयवीणा से निकले भक्ति के स्वरों की गूँज है। यह ऐसी झंकार है, जो शिष्य के भाव विह्वल हृदय से उठकर सीधे अपने सारे सद्गुरू के प्रेम विह्वल को झंकृत कर देती है। शिष्य के हृदय के इस मौन कंपन को भला उसके गुरूदेव के अलावा और सुनेगा भी तो कौन? यह एक ऐसा सच है, जिसे शिष्य हुए बिना गाया नहीं जा सकता। जिनके जीवन में सारे रिश्ते उसके गुरूदेव में ही समा चुके हों, वह भला किसी और की याद कैसे करें और क्यों करें? वह तो अपने जीवन की हर साँस में अपने गुरू का नाम लेता है। वह तारे, चाहे मारे, शिष्य की गति और कहीं नहीं हो सकती।

🔶 गुरूगीता के पिछले क्रम में शिष्य के जीवन का यह यथार्थ नए- नए प्रसंगों नए- नए संदर्भों में नए- नए ढंग से कहा गया है। पिछले क्रम में भी इन्हीं स्वरों की गूँज उठी थी कि जो शिष्य है, उनके जीवन का परम शास्त्र गुरूगीता के सिवा और कुछ नहीं है। गुरूगीता का भक्तिपूर्ण पठन, श्रवण एवं लिखकर इसका दान करने से सभी सुफल प्राप्त होते हैं। भगवान् सदाशिव ने भगवती जगदम्बा से यही कहा था कि गुरूगीता का जो शुद्धतत्त्व मैंने आपके सामने कहा है, उसके सविधि जप से संसार की सारी कठिनाइयाँ दूर होती हैं। गुरूगीता स्वयं में मंत्रराज है, इसके जप का अनन्त फल है। इसका पाठ करने वाला इस अनन्त फल को प्राप्त किए बिना नहीं रहता। ऐसा करने से उसके पाप एवं दरिद्रता दोनों ही सदा के लिए नष्ट हो जाते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 161

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...