रविवार, 11 जून 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 11 June 2023

🔶 ईर्ष्या एक भयानक आसुरी वृत्ति है। यह अपने साथ द्वेष, निराशा, निरुत्साहिता का असुर परिवार भी रखती है। ईर्ष्या बढ़ती है तो द्वेष भी उठ खड़ा होता है। द्वेष के कारण मनुष्य में दूसरों को हानि पहुँचाने, उनका विरोध करने और अनावश्यक रूप से शत्रुता बाँध लेने का दोष उत्पन्न हो जाता है जिसका परिपाक अपराधों के रूप में होता है और परिणाम राजदण्ड, सामाजिक बहिष्कार, निन्दा और असम्मान के रूप में भोगना पड़ता है।

🔷 समाज में परस्पर सहयोग, सहृदयता एवं संगठन का भाव बढ़ाने के लिए हम सब एक दूसरे के प्रति शिष्ट एवं यथोचित व्यवहार करने के लिए कर्त्तव्यबद्ध हैं। यदि हम कृत्रिम व्यवहार और दिखावटी शिष्टाचार का बर्ताव करते हैं तो निश्चय ही समाज में विघटन, संदेह, संशय एवं शत्रुता के बीज बोते हैं, जिसके विषफल अपने साथ पूरे समाज के हित में घातक होंगे। हमारी सभ्यता, नागरिकता और मानवता इसी में है कि हम सबके साथ यथोचित शिष्टाचार का व्यवहार करें।

🔶 जब तक विचारों में एकता न होगी, आकाँक्षाओं और भावनाओं का प्रवाह एक दिशा में न होगा, तब तक संगठन में मजबूती असंभव है।  जाहिर है कि किसी भी संगठन का प्राण उसके आदर्शों में अटूट निष्ठा ही होती है। आस्थावान् व्यक्ति ही किसी संगठन की  रीढ़ होते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 स्थायी सफलता का राजमार्ग (भाग 1)

जब हम किसी वस्तु की पूरी-पूरी कीमत चुका देते हैं तभी हम उसके पूर्णतया स्वामी होते हैं। उसी तरह जब हमें किसी वस्तु को प्राप्त करने की पूर्ण योग्यता होती है। तभी वह वस्तु हमारे और हमारे अनुगामियों के पास बहुत समय तक टिकती है। ऐसी सफलता को ही हम स्थायी सफलता कह सकते हैं।

संसार के पदार्थों की प्राप्ति के लिए हमें उनके अनुरूप ही पुरुषार्थ प्रकट करना पड़ता है और यह पुरुषार्थ ही हमारी सफलता को स्थिर बनाता है। मान लीजिए किसी परतंत्र राष्ट्र को स्वतन्त्र होना है तो उसे इस कार्य के लिए अपनी अन्तः शक्ति को संगठित करना पड़ेगा, उसे अपनी कमजोरियों को दूर करना पड़ेगा। किन्तु यदि उसे स्वतंत्रता प्राप्ति का यह राजमार्ग स्वीकार न हो और वह बाह्य शक्तियों की सहायता से उसे प्राप्त करना चाहे तो हम कहेंगे कि उस राष्ट्र की वह स्वतंत्रता स्थिर न रहेगी और उस राष्ट्र के पुनः परतंत्र हो जाने की सम्भावना बनी रहेगी।

मनुष्य की उद्देश्य-सिद्धि उसकी कार्य-शक्ति पर निर्भर है। उद्देश्य-सिद्धि उसके जीवन का प्रधान लक्ष्य है किन्तु उसके लिए वह अपनी कार्य-शक्ति का किस तरह प्रयोग करता है वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। उद्देश्य सिद्धि तब ही स्थायी होगी जब कि उसकी कार्य-शक्ति का उचित प्रयोग होगा। साध्य हमें तब ही सुखदायी हो सकता है जब कि साधन भी न्यायसंगत हो। “येन केन प्रकारेण प्रसिद्धो पुरुषो भवेत्” वाली नीति यहाँ कभी स्थायी सफलता न देगी।

अखण्ड ज्योति-मार्च 1949 पृष्ठ 24
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1949/March/v1.24

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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...