सोमवार, 20 सितंबर 2021

हमारी माता जी सब जानतीं हैं।

जिला बारां राजस्थान के एक प्रतिष्ठित चिकित्सक डॉ फूलसिंह यादव के जीवन में घटी एक ऐसी घटना जिसने डॉ फूलसिंह यादव का नजरिया बदल दिया। बात उन दिनों की है जब अखिल विश्व गायत्री परिवार के जनक, संस्थापक, आराध्य वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी सूक्ष्मीकरण साधना हेतु एकांतवास में चले गए। पूज्य गुरुदेव के एकांतवास में चले जाने के उपरांत गायत्री परिवार की समस्त जिम्मेदारियां स्नेह सलिला वंदनीया माता भगवती देवी शर्मा जी पर आ गयी। माता जी ने पहले भी पूज्यवर के हिमालय प्रवास एवं अन्य समय की अनुपस्थिति में गायत्री परिवार को संचालित संगठित एवं विस्तारित किया था।

1984 से माता जी के अनेक रूप दिखाई पड़ने लगे. वात्सल्यमयी माँ का रूप, ससक्त संगठनकर्ता का रूप, प्रकाण्ड विद्वान का रूप, प्रखर वक्ता, भविष्यद्रष्टा,  अनेकों रूपों में माता जी के दर्शन लोगों को होने लगे। साधारणतः तो माता जी को परिजन यही मानते रहे कि माता जी गुरुदेव की पत्नी हैं, गुरुमाता हैं, माँ अन्नपूर्णा का आशीर्वाद माता जी को है, माता जी कभी किसी भी आगंतुक को बिना भोजन प्रसाद के जाने नहीं देतीं हैं आदि आदि। पूज्य गुरुदेव के एकांतवास में जाने के उपरांत जगत जननी माँ भगवती ने समस्त संगठन या यूँ कहें की समस्त चराचर जगत का सूत्र सञ्चालन अपने हाथों में ले लिया। उस समय वंदनीया माता जी अनायास ही अपने बच्चों पर कृपा कर अपने जगदम्बा अवतारी स्वरुप का आभास करा देती थीं।

ऐसी ही एक घटना डॉ फूलसिंह यादव के साथ घटी। डॉ फूलसिंह यादव चिकित्सा विभाग में कार्यरत थे, उनका प्रमोशन किन्हीं कारणों से रुका हुआ था। डॉ यादव जी का गुरुदेव के पास मार्गदर्शन, आशीर्वाद के लिए आना-जाना लगातार लगा रहता था। डॉ यादव ने अपने रुके हुए प्रमोशन को पाने के लिए गुरुदेव से प्रार्थना करने का सोचा और हरिद्वार की ओर प्रस्थान कर गए। डॉ यादव शांतिकुंज पहुंचे, दर्शन प्रणाम के क्रम में वंदनीया माता जी के पास पहुँच माता जी के चरणों में जैसे ही शीश झुकाया माता जी ने पुकार लगायी। कब आया फूलसिंह बेटा! तू ठीक तो है? तेरा सफ़र कैसा रहा कोई कठिनाई तो नहीं आई रास्ते में। फिर डॉ यादव की पत्नी और बच्चों का नाम लेकर माता जी ने उन सभी का समाचार पूछा। डॉ यादव अचंभित हो माता जी की ओर देखने लगे, सोचने लगे माता जी से तो कभी मैं इस प्रकार मिला नहीं, माता जी कैसे जानती हैं ये सब। दर असल डॉ फूलसिंह यादव जब भी शांतिकुंज पहुँचते गुरुदेव से ही आशीर्वाद परामर्श पाते थे। माता जी के पास तो भोजन प्रसाद और लड्डू ही पाते थे। इस दफ़ा माता जी को इस रूप में देखा, पहली ही मुलाकात में माता जी ने उनके बारे में, उनके परिवार के बारे सबकुछ नाम सहित पूछा। डॉ यादव सोचने लगे माता जी को मेरा परिचय किसने दिया? तभी माता जी की आवाज उनके कानों में टकराई जिससे उनकी विचार श्रृंखला टूटी। माता जी ने कहा बेटा माँ से उसके बच्चों की पहचान थोड़ी ही करानी पड़ती है, माँ अपने सभी बच्चों के विषय में सब कुछ जानती है। तू चिंता न कर तेरे प्रमोशन का ध्यान है मुझे, तेरा प्रमोशन हो जायेगा। तेरा प्रमोशन मैं कराऊँगी, तू इसके विषय में सोचना छोड़ दे।

डॉ फूलसिंह यादव का मुंह खुला का खुला रह गया। यह क्या, वंदनीया माता जी को किसने बताया कि मैं प्रमोशन के लिए आशीर्वाद मांगने आया हूँ। इसकी चर्चा तो मैंने किसी से करा ही नहीं। डॉ यादव के आँखों से आंसू बहने लगे, माँ को प्रणाम किया अंतस में उठ रहे भावों में उलझे मन के साथ सीढ़ियों से उतरते चले गए। ह्रदय में अनेकों भावों के उठते ज्वार भाटे की उलझन में कहीं खो गए। सोचने लगे, पूज्य गुरुदेव से तो अपने लिए भौतिक उपलब्धियां मांगना पड़ता है, माँ ने बिना मांगे ही दे दिया। पूज्य गुरुदेव के सामने अपनी आवश्यकतायें बताने पर गुरुदेव कृपा करते हैं, माँ ने पुत्र के ह्रदय की बात स्वयं ही जान लिया। मैंने पहले माता जी को क्यूँ नहीं पहचाना। माता जी सबकुछ जानती हैं। माता जी कोई योगमाया जानती हैं? कोई तपस्विनी हैं? डॉ फूलसिंह यादव के अंतस ने कहा नहीं, स्नेह सलिला परम वंदनीया माता जी जगदम्बा की अवतार हैं। मेरी माता जी जगदम्बा हैं। मेरी माता जी सब जानती हैं। माँ जगदम्बा अवतारी माता जी को समस्त रोम कूपों से बारम्बार प्रणाम बारम्बार नमन।

👉 चिंतन सरिता

दु:ख भुगतना ही, कर्म का कटना है. हमारे कर्म काटने के लिए ही हमको दु:ख दिये जाते है. दु:ख का कारण तो हमारे अपने ही कर्म है, जिनको हमें भुगतना ही है। यदि दु:ख नही आयेगें तो कर्म कैसे कटेंगे?

एक छोटे बच्चे को उसकी माता साबुन से मलमल के नहलाती है जिससे बच्चा रोता है. परंतु उस माता को, उसके रोने की, कुछ भी परवाह नही है, जब तक उसके शरीर पर मैल दिखता है, तब तक उसी तरह से नहलाना जारी रखती है और जब मैल निकल जाता है तब ही मलना, रगड़ना बंद करती है।
      
वह उसका मैल निकालने  के लिए ही उसे मलती, रगड़ती है, कुछ द्वेषभाव से नहीं. माँ उसको दु:ख देने के अभिप्राय से नहीं रगड़ती,  परंतु बच्चा इस बात को समझता नहीं इसलिए इससे रोता है।
      
इसी तरह हमको दु:ख देने से परमेश्वर को कोई लाभ नहीं है. परंतु हमारे पूर्वजन्मों के कर्म काटने के लिए, हमको पापों से बचाने के लिए और जगत का मिथ्यापन बताने के लिए वह हमको दु:ख देता है।
      
अर्थात् जब तक हमारे पाप नहीं धुल जाते, तब तक हमारे रोने चिल्लाने पर भी परमेश्वर हमको नहीं छोड़ता ।
      
इसलिए दु:ख से निराश न होकर, हमें मालिक से मिलने के बारे मे विचार करना चाहिए और भजन सुमिरन का ध्यान करना चाहिए..!!

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ६५)

एक ही सत्ता ओत-प्रोत है

नोवल पुरस्कार विजेता डा. एलेक्सिस कारेल उन दिनों न्यूयार्क के राक फेलर चिकित्सा अनुसंधान केन्द्र में काम कर रहे थे। एक दिन उन्होंने एक मुर्गी के बच्चे के हृदय के जीवित तन्तु का एक रेशा लेकर उसे रक्त एवं प्लाज्मा के घोल में रख दिया। वह रेशा अपने कोष्टकों की वृद्धि करता हुआ विकास करने लगा। उसे यदि काटा-छांटा न जाता तो वह अपनी वृद्धि करते हुए वजनदार मांस पिण्ड बन जाता। उस प्रयोग से डा. कारेल ने यह निष्कर्ष निकाला कि जीवन जिन तत्वों से बनता है यदि उसे ठीक तरह जाना जा सके और टूट-फूट को सुधारना सम्भव हो सके तो अनन्तकाल तक जीवित रह सकने की सभी सम्भावनायें विद्यमान हैं।

प्रोटोप्लाज्म जीवन का मूल तत्व है। यह तत्व अमरता की विशेषता युक्त है। एक कोश वाला अमीवा प्राणी निरन्तर अपने आपको विभक्त करते हुये वंश वृद्धि करता रहता है। कोई शत्रु उसकी सत्ता ही समाप्त करदे यह दूसरी बात है अन्यथा वह अनन्त काल तक जीवित ही नहीं रहेगा वरन् वंश वृद्धि करते रहने में भी समर्थ रहेगा।

रासायनिक सम्मिश्रण से कृत्रिम जीवन उत्पन्न किये जाने की इन दिनों बहुत चर्चा है। छोटे जीवाणु बनाने में ऐसी कुछ सफलता मिली भी हैं, पर उतने से ही यह दावा करने लगना उचित नहीं कि मनुष्य ने जीवन का—सृजन करने में सफलता प्राप्त करली।

जिन रसायनों से जीवन विनिर्मित किये जाने की चर्चा है क्या उन्हें भी—उनकी प्रकृतिगत विशेषताओं को भी मनुष्य द्वारा बनाया जाना सम्भव है? इस प्रश्न पर वैज्ञानिकों को मौन ही साधे रहना पड़ रहा है। पदार्थ की जो मूल प्रकृति एवं विशेषता है यदि उसे भी मनुष्य कृत प्रयत्नों से नहीं बनाया जा सकता तो इतना ही कहना पड़ेगा कि उसने ढले हुए पुर्जे जोड़कर मशीन खड़ी कर देने जैसे बाल प्रयोजन ही पूरा किया है। ऐसा तो लकड़ी के टुकड़े जोड़कर अक्षर बनाने वाले किन्डर गार्डन कक्षाओं के छात्र भी कर लेते हैं। इतनी भर सफलता से जीव निर्माण जैसे दुस्साध्य कार्य को पूरा कर सकने का दावा करना उपहासास्पद गर्वोक्ति है।

कुछ मशीनें बिजली पैदा करती हैं—कुछ तार बिजली बहाते हैं, पर वे सब बिजली तो नहीं हैं। अमुक रासायनिक पदार्थों के सम्मिश्रण से जीवन पैदा हो सकता है सो ठीक है, पर उन पदार्थों में जो जीवन पैदा करने की शक्ति है वह अलौकिक एवं सूक्ष्म है। उस शक्ति को उत्पन्न करना जब तक सम्भव न हो तब तक जीवन का सृजेता कहला सकने का गौरव मनुष्य को नहीं नहीं मिल सकता।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ १०३
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ६५)

ज्ञान ही है भक्ति का साधन

देवर्षि नारद की अनुभव कथा सुनकर हिमवान के आंगन में भावों की बूंदें बरस पड़ीं। वहाँ उपस्थित सभी ब्रह्मर्षियों, महर्षियों, मुनिजन के साथ, सिद्धों, गन्धर्वों, विद्याधरों व देवों के अन्तःकरण भी भक्ति से सिक्त हो गए। सब ओर एक व्यापक मौन पसर गया। इस मौन में स्पन्द एवं निस्पन्द का अपूर्व संगम हो रहा था। प्रायः सभी के अन्तः में भावों के स्पन्दन से बोध की निस्पन्दता अंकुरित हो रही थी। हालांकि इस सब ओर पसरे मौन के बीच वातावरण में चहुँ ओर एक प्रश्न की अठखेलियाँ विचरण कर रही थी। प्रश्न यही था कि भक्ति व ज्ञान के बीच क्या सम्बन्ध है? भक्ति से ज्ञान प्रकट होता है या फिर ज्ञान से भक्ति? देर तक किसी ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया। सभी अपने भावों में भीग रहे थे।
    
तभी वहाँ पर एक अपूर्व सुगन्धित प्रकाश का वलय छा गया। इस अनुभव में अलौकिकता थी, जिसे सभी ने महसूस किया। इस अद्भुत अहसास की सघनता में सभी ने महर्षि आश्वलायन के दर्शन किए। आश्वलायन की प्रतिभा, मेधा, तप, तितीक्षा से सभी परिचित थे। वहाँ पर उपस्थित विभूतियों में से कुछ ने उनके बारे में सुन रखा था, तो कुछ को उनके सुखद सहचर्य का अनुभव था। ब्रह्मापुत्र पुलस्त्य के वे बालसखा थे। उनकी अन्तरंगता की कई गाथाएँ महर्षियों के बीच उत्सुकतापूर्वक कही-सुनी जाती थीं। आज दीर्घकाल के बाद वे दोनों फिर से मिले थे। इन महर्षियों ने एक दूसरे को देखा, तो न केवल इनके मुख पर बल्कि इन्हें देखकर उपस्थित सभी जनों के मुखों पर सात्त्विक भावनाओं की अनगिन विद्युत् रेखाएँ चमक उठीं।
    
ब्रह्मर्षि पुलस्त्य ने उमगते हुए भावों के साथ आश्वलायन को गले लगाया। मिलन में कुछ ऐसा उछाह और आनन्द था कि भावों के अतिरेक में दोनों मित्र देर तक गले मिलते रहे। इसके बाद पुलस्त्य ने उन्हें अपने पास बैठने का आग्रह किया। परन्तु आश्वलायन ने बड़े मीठे स्वरों में कहा, आप सब सप्तर्षि मण्डल के सदस्य हैं। आप का स्थान विशिष्ट है। विधाता की इस मर्यादा का सम्मान किया जाना चाहिए। ऐसा कहते हुए वे देवर्षि नारद के समीप बैठ गए। आश्वलायन की यह विनम्रता सभी के दिलों में गहराई तक उतर गयी। अनेकों नेत्र उनकी ओर टकटकी बांधे देखते रह गए।
    
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ११६

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...