शनिवार, 12 दिसंबर 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ८३)

ध्यान की गहराई में छिपा है परम सत्य

परम पूज्य गुरुदेव अपनी चर्चाओं व संगोष्ठियों में प्रायः एक बात कहा करते थे कि आध्यात्मिक जीवन की पहली किरण जिसने देख ली, वह स्वतः ही संसार की सभी बुराइयों से दूर हो जाता है। उसका मन अपने आप ही सांसारिक रसों से दूर हो जाता है।  गुरुदेव के अनुसार ज्यों-ज्यों हम स्थूल भोगों को भोगते हैं, हमारी चेतना भी उतनी ही स्थूल एवं संवेदनहीन हो जाती है। इतना ही नहीं, हम इतने ज्यादा बर्हिमुखी हो जाते हैं कि हमारी समूची आन्तरिक योग्यताएँ ही समाप्त हो जाती हैं।
     
इसके विपरीत जब हम सूक्ष्म तत्त्वों के प्रति प्रकाग्र होते हैं तो संवेदना व चेतना भी सूक्ष्म हो जाती है। और साथ ही हमारे सामने सूक्ष्म जगत् की झाँकी झलकने लगती है। जिसने ऐसा किया है, वह आँख बंद करते ही हृदयाकाश में उदित होते हुए सूर्य की झाँकी पा लेता है। यही नहीं हृदय के पास ज्योतित अग्निशिखा भी हमें दिखाई देती है। यद्यपि वह सब समय वहीं पर है, लेकिन हम उसे यूँ ही अभी देख नहीं सकते। दूसरे भी नहीं देख सकते। इसका कारण केवल इतना भर है कि अभी हमारे पास उपयुक्त सूक्ष्म-चेतना का अभाव है। जप की तल्लीनता हो या ध्यान की गहनता इसकी यथार्थ उपलब्धि हमारे अन्तस् की सूक्ष्मता है।
    
गुरुदेव इस क्रम में एक गायत्री साधक की घटना सुनाते हैं। इन साधक का नाम वीरमणि था। वीरमणि पढ़े तो ज्यादा नहीं थे। पर उनकी अनुभूतियों का संसार अनोखा था। उन्होंने ग्यारह साल की उम्र से गायत्री का जप शुरू किया था। प्रातः सायं गायत्री जप यही उनका नियम था। यूँ उनका पेशा तो खेती करना था। खेती के सभी कामों को वह मनोयोगपूर्वक करते थे। इसी के साथ उनका मानसिक जप भी चलता रहता था। बुवाई, निराई, गुड़ाई, सिंचाई आदि कार्यों के साथ उन्होंने गायत्री जप का अच्छा क्रम बिठा लिया था। जप के प्रभाव से उनकी भावचेतना उत्तरोत्तर सूक्ष्म होती गयी। जप की गहराई ने कब ध्यान का रूप ले लिया, यह पता ही न चला। बस गायत्री उनके लिए अजपा हो गयी। और ध्यान की प्रगाढ़ता भाव समाधि में बदल गयी।
    
इस प्रगाढ़ ध्यान में वह आन्तरिक प्रकाश में घण्टों डूबे रहते थे। यहाँ तक कि उनका निद्राकाल भी साधना में परिवर्तित हो गया था। जितनी उनकी साधना प्रगाढ़ होती गयी, उतनी ही शान्ति भी गहन होती गयी। इस साधना क्रम में उनकी रुचियाँ, प्रवृत्तियाँ, सभी उत्तरोत्तर सूक्ष्म एवं प्रकाशित हो गयी। कभी पूछने पर वह कहते कि मुझे तो बस इतना ही मालूम है कि आँख बन्द करते ही मैं प्रकाश के महासागर में तैरने लगता हूँ। इस प्रकाश से मेरी समूची दुनिया ही बदल गयी है। पहले मैं प्रयास से साधना करता था, अब तो अपने आप ही साधना होती है। सचमुच ही यह बिना किए होती है। मन अपने आप ही स्थिर, एकाग्र व शान्त रहता है। सब कुछ बदल गया है। बस यही अनुभव होता है कि गायत्री ही प्रकाश है और वह प्रकाश स्वयं मैं हूँ।
    
पतंजलि कहते हैं कि इस प्रकाश के भाव चेतना में उदय होते ही सारे शोक विलीन हो जाते हैं। जो इसे अनुभव करता है, वह जानता है कि इससे अधिक आनन्दमय और कुछ भी नहीं। और कुछ भी हृदय के भीतर अनुभव होने वाले इस प्रकाश से ज्यादा संगीतपूर्ण एवं सुसंगत नहीं होता है। इसकी अनुभूति जितनी प्रगाढ़ होती है, हम उतने ही ज्यादा शान्तिपूर्ण, मौन व एकजुट हो जाते हैं।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १४३
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

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