सोमवार, 30 जनवरी 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 31 Jan 2017

👉 आज का सद्चिंतन 31 Jan 2017


👉 जीवन देवता की साधना-आराधना (भाग 24) 31 Jan

🌹 व्यावहारिक साधना के चार पक्ष   

🔴 मृत्यु अवश्यम्भावी है। लोग उसे भूल जाते हैं और बाल क्रीड़ा की तरह महत्त्वहीन कार्यों में जीवन बिता देते हैं। यदि यह ध्यान रखा जाये कि चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के उपरान्त जो अलभ्य हस्तगत हुआ है, उसे इस प्रकार व्यतीत किया जाये जिससे भविष्य उज्ज्वल बने। देवमानव स्तर तक पहुँचाने की आशा बँधे। दूसरों को अनुकरण की प्रेरणा मिले। स्रष्टा को, दायित्व निर्वाह की प्रामाणिकता का परिचय पाकर प्रसन्नता हो। पदोन्नति का सुयोग इस आधार पर उपलब्ध हो।                

🔵 रात्रि को जिस प्रकार निश्चिंततापूर्वक सोया जाता है, उसी प्रकार मरणोत्तर काल से लेकर पुनर्जन्म की मध्यावधि में भी ऐसी ही शान्ति रह सकती है। इसकी तैयारी इन्हीं दिनों करनी चाहिये। हँसी-खुशी से दिन बीतता हो तो रात्रि को गहरी नींद आती है। दिन यदि शान्तिपूर्वक गुजारा जाये-श्रेष्ठता के साथ जुड़ा रहे तो मरणोत्तर विश्राम काल में नरक नहीं भुगतान पड़ेगा। स्वर्ग जैसी शान्ति का रसास्वादन मिलता रहेगा। इस प्रक्रिया को तत्त्व बोध कहा गया है।  

🔴 प्रज्ञायोग के दो और चरण हैं जिनको दिन में पूरा किया जाता है। इनमें एक है-भजन दूसरा-मनन भजन के लिये नित्य कर्म से निवृत्त होकर नियत पूजा स्थान पर पालथी मारकर बैठा जाता है। शरीर, मन और वाणी की शुद्धि के लिये जल द्वारा पवित्रीकरण, सिंचन, आचमन किया जाता है। देव प्रतिमा के रूप में गायत्री की छवि अथवा धूप, दीप में से कोई प्रतीक स्थापित करके इसे इष्ट, आराध्य माना जाता है। धूप, दीप, नैवेद्य, जल, अक्षत, पुष्प में से जो उपलब्ध हो उससे उसका पूजन किया जाता है। 

🔵 पूजन में प्रयुक्त वस्तुओं की तरह अपने जीवन में उन विशेषताओं को उत्पन्न करने की भावना की जाती है जो इन उपचार, साधनों में पाई जाती है। चन्दन समीपवर्तियों में सुगन्ध भरता है। दीपक अपने प्रभाव क्षेत्र में ज्ञानरूपी प्रकाश फैलाता है। पुष्प हँसता है और खिलता रहता है। जल शीतलता का प्रतीक बनकर रहता है। अक्षत, नैवेद्य के पीछे समयदान, अंशदान परमार्थ प्रयोजन के लिये निकाले जाने की भावना है। इष्टदेव को सत्प्रवृत्ति का समुच्चय माना जाये। इन मान्यताओं के आधार पर देव पूजन समग्र बन पड़ता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 कर्त्तव्य का पाठ

🔴 तपस्वी जाजलि श्रद्धापूर्वक वानप्रस्थ धर्म का पालन करने के बाद खडे़ होकर कठोर तपस्या करने लगे।उन्हें गतिहीन देखकर पक्षियों ने उन्हें कोई वृक्ष समझ लिया और उनकी जटाओं में घोंसले बनाकर अंडे दे दिए।

🔵 अंडे बढे़ और फूटे, उनसे बच्चे निकले। बच्चे बड़े हुए और उड़ने भी लगे। एक बार जब बच्चे उड़कर पूरे एक महीने तक अपने घोंसले में नहीं लौटे, तब जाजलि हिले।

🔴 वह स्वयं अपनी तपस्या पर आश्चर्य करने लगे और अपने को सिद्ध समझने लगे। उसी समय आकाशवाणी हुई, 'जाजलि, गर्व मत करो। काशी में रहने वाले व्यापारी तुलाधार के समान तुम धार्मिक नहीं हो।'

🔵 आकाशवाणी सुनकर जाजलि को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह उसी समय काशी चल पड़े। उन्होंने देखा कि तुलाधार तो एक अत्यंत साधारण दुकानदार हैं। वह अपनी दुकान पर बैठकर ग्राहकों को तौल-तौलकर सौदा दे रहे थे।

🔴 जाजलि को तब और भी आश्चर्य हुआ जब तुलाधार ने उन्हें उठकर प्रणाम किया, उनकी तपस्या, उनके गर्व तथा आकाशवाणी की बात भी बता दी। जाजलि ने पूछा, 'तुम्हें यह सब कैसे मालूम?' तुलाधार ने विनम्रतापूर्वक कहा, 'सब प्रभु की कृपा है। मैं अपने कर्त्तव्य का सावधानी से पालन करता हूं। न मद्य बेचता हूं, न और कोई निंदित पदार्थ। अपने ग्राहकों को मैं तौल में कभी ठगता नहीं। ग्राहक बूढ़ा हो या बच्चा, वह भाव जानता हो या न जानता हो, मैं उसे उचित मूल्य पर उचित वस्तु ही देता हूं। किसी पदार्थ में दूसरा कोई दूषित पदार्थ नहीं मिलाता। ग्राहक की कठिनाई का लाभ उठाकर मैं अनुचित लाभ भी उससे नहीं लेता हूं। ग्राहक की सेवा करना मेरा कर्त्तव्य है, यह बात मैं सदा स्मरण रखता हूं। मैं राग-द्वेष और लोभ से दूर रहता हूं। यथाशक्ति दान करता हूं और अतिथियों की सेवा करता हूं। हिंसारहित कर्म ही मुझे प्रिय है। कामना का त्याग करके संतोषपूर्वक जीता हूं।'

🔵 जाजलि समझ गए कि आखिर क्यों उन्हें तुलाधार के पास भेजा गया। उन्होंने तुलाधार की बातों को अपने जीवन में उतारने का संकल्प किया।

👉 गायत्री विषयक शंका समाधान (भाग 40) 31 Jan

🌹 साधना की पूर्णाहुति

🔴 गायत्री और यज्ञ का अनिवार्य सम्बन्ध है। यज्ञ भारतीय संस्कृति का आदि प्रतीक है। गायत्री को भारतीय संस्कृति की जननी कहा गया है तो यज्ञ को संस्कृति का पिता। भारतीय धर्मानुयायियों के जीवन में यज्ञ का बड़ा महत्व है। कोई भी कार्यक्रम बिना यज्ञ के पूरा नहीं होता। साधनाओं में तो हवन और भी अनिवार्य है। जितने भी पाठ, पुरश्चरण, जप, साधन किये जाते हैं वे चाहे वेदोक्त हों चाहे तांत्रिक उनमें किसी न किसी रूप में यज्ञ, हवन अवश्य करना पड़ता है। प्रत्येक कथा, कीर्तन, व्रत, उपवास, पर्व, त्यौहार, उत्सव, उद्यापन सभी में यज्ञ अवश्य करना पड़ता है।

🔵 इस प्रकार गायत्री उपासना में भी हवन आवश्यक है। अनुष्ठान या पुरश्चरण में जप से दसवां भाग हवन करने का विधान है। यदि इतना न बन पड़े तो शतांश [सौवां भाग] हवन करना चाहिए। गायत्री उपासना के साथ यज्ञ का युग्म बनता है। गायत्री को माता और यज्ञ को पिता माना गया है। इन्हीं दोनों के संयोग से मनुष्य का आध्यात्मिक जन्म होता है, जिसे द्विजत्व कहते हैं। द्विज का अर्थ है दूसरा जन्म। जैसे अपने शरीर को जन्म देने वाले माता, पिता की सेवा पूजा करना मनुष्य का कर्तव्य है, उसी प्रकार गायत्री माता और यज्ञ पिता की पूजा भी प्रत्येक द्विज का आवश्यक धर्म कर्तव्य है।

🔴 यह नहीं सोचना चाहिए कि सामान्य और नियमित उपासना क्रम में यज्ञ की कोई आवश्यकता नहीं है। यज्ञ को प्रत्येक व्यक्ति का आवश्यक नित्य कर्म माना गया है। यह बात अलग है कि लोग उसका महत्व एवं विधान भूल गये हैं और केवल चिन्ह पूजा करके काम चला लेते हैं। घरों में स्त्रियां किसी रूप में यज्ञ की चिन्ह पूजा करती हैं। त्यौहारों या पर्वों पर अग्नि को जिमाने या अज्ञारी करने का कृत्य प्रचलित है। थोड़ी-सी अग्नि को लेकर, घी डालकर उसे प्रज्वलित करना और उस पर पकवान के छोटे-छोटे ग्रास चढ़ाना तथा फिर अग्नि से जल की परिक्रमा करा देना, यही प्रक्रिया प्रत्येक घर में पर्व एवं त्यौहारों पर सम्पन्न होते देखी जा सकती है। शास्त्रों में बलिवैश्व का नित्य विधान है। प्रतिदिन भोजन बनने के बाद बलिवैश्व के लिए अग्नि में आहुति देनी होती है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 मन: स्थिति बदले तो परिस्थिति बदले (भाग 3)

🌹 युगधर्म का परिपालन अनिवार्य

🔵 समय पीछे नहीं लौटता, वह निरन्तर आगे ही बढ़ता है। उसके बाद ही मान्यताओं में, प्रचलनों में भी परिवर्तन होता चलता है। ऐसा आग्रह कोई कदाचित् ही करता हो, कि जो पहले दिनों माना या किया जाता रहा है, वही पत्थर की तरह सदा सर्वदा जारी रहना चाहिये। ऐसे दुराग्रही तो शायद बिजली का प्रयोग करने और नल का पानी पीने से भी ऐतराज कर सकते हैं? उन्हें शायद गुफा बनाकर रहने का भी आग्रह हो, क्योंकि पूर्व पुरुषों ने निवास के लिए उसी प्रक्रिया को सरल समझा था।

🔴 कभी मिट्टी के खपरों पर लेखन का काम लिया जाता था। बाद में चमड़े, भोजपत्र, ताड़पत्र आदि पर लेखन कार्य चलने लगा। कुछ दिनों हाथ का बना कागज भी चला, पर अब तो सर्वत्र मिलों का बना कागज ही काम में आता है। हाथ से ग्रन्थों की नकल करने का उपक्रम लम्बे समय तक चलता रहा है, पर अब तो छपाई की सरल और सस्ती सुविधायें छोड़ने के लिये कोई तैयार नहीं। तब रेल मोटर आदि की आवश्यकता न थी, पर अब तो उनके बिना परिवहन और यातायात का काम नहीं चलता। डाक से पत्र व्यवहार करने की अपेक्षा घोड़ों पर लम्बी दूरी पर सन्देश भेजने की प्रथा अब एक प्रकार से समाप्त ही हो गयी है।

🔵 परिवर्तन के साथ जुड़े हुये नये आयाम विकसित करने की आवश्यकता अब इतनी अनिवार्य हो गई है कि उसे अपनाने से कदाचित् ही कोई इन्कार करता हो? घड़ी का उपयोग करने से अब कदाचित् ही कहीं एतराज किया जाता हो? समय हर किसी को बाधित करता है कि युग धर्म पहचाना जाये और उसे अपनाने में आनाकानी न की जाये। नीति-निष्ठा एवं समाज-निष्ठा के सम्बन्ध में शाश्वत हो सकता है, पर रीति रिवाजों, क्रिया-कलापों उपकरणों आदि प्रचलित नियम अनुशासन के सम्बन्ध में पुरातन परिपाटी के भक्त तो कहे जा सकते हैं, पर अपने अतिरिक्त और किसी को इसके लिए सहमत नहीं कर सकते कि लकीर के फकीर बने रहने में ही धर्म का पालन सन्निहित है। जो पुरातन काल में चलता रहा है, उसमें हेर-फेर करने की बात किसी को सोचनी ही नहीं चाहिए, ऐसा करने को अधर्म कहा जायेगा और उसे करने वाले पर पाप चढ़ेगा।

🔴 किसी भी भली-बुरी प्रथा को अपनी और पूर्वजों की प्रतिष्ठा का प्रश्न बना कर उस पर अड़ा और डटा तो रहा जा सकता है, पर उसमें बुद्धिमानी का समावेश तनिक भी नहीं है। मनुष्य प्रगतिशील रहा है और रहेगा। वह सृष्टि के आदि से लेकर अनेक परिवर्तनों के बीच से गुजरता हुआ आज की स्थिति तक पहुँचा है। यह क्रम आगे भी चलता ही रहने वाला है। पुरातन के लिए हठवादी बने रहना किसी भी प्रकार किसी के लिए भी हितकारी नहीं हो सकता । युग धर्म को अपनाकर ही मनुष्य आगे बढ़ा है और भी उसके लिए तैयार रहेगा। समय का यह ऐसा तकाजा है, जिससे इन्कार नहीं किया जा सकता।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 आप अपने आपको पहचान लीजिये (भाग 10)

👉 युग ऋषि की अमृतवाणी

🔴 अच्छा हमारे हजार कुण्ड वाले यज्ञ की बात आपको याद है आपने हमारे अनुष्ठान तो तो देखे नहीं है आप हमारे संग रहे नहीं है आप हमारे संग बैठे नहीं हैं। उसकी तो हम नहीं कह सकते लेकिन अभी भी लाखों आदमी जिंदा हैं जिन्होंने हमारा सन् ५८ का यज्ञ देखा है हजार कुण्डीय और जिसको देखकर लोग अचम्भे में पड़ गये थे कि जिस आदमी की जेब खाली हों दोनों जेब खाली हों जिस आदमी ने यह कसम खायी हो हमको किसी आदमी के सामने हाथ नहीं पसारना है और हमको किसी आदमी से यह नहीं कहना है कि हमें एक पैसे की जरूरत है लेकिन तो भी हमने इतना बड़ा आयोजन किया था आयोजन पूरा हुआ कि नहीं हुआ था न एक आदमी का एक्सीडेंट हुआ न एक आदमी की चोरी हुई न कोई बीमार पड़ा और न कोई घटना हुई सारी की सारी चीजों का उसमें पचासों लाख खर्चा हुआ था तो पूरा हो गया आपको नहीं याद है।

🔵  मैं आपको इसलिए कहता हूँ हमारी बातें हमारे जीवन का अनुभव इस लायक है कि आप हमको प्रामाणिक आदमी मान ले और यह मानकर चले कि कोई कहने वाला सामान्य आदमी नहीं है कोई बाजारू आदमी नहीं है कोई यार बाज़ आदमी नहीं है। निरर्थक आदमी नहीं है आवारागर्दी में घूमने वाला आदमी नहीं है। कोई वजनदार और भारी भरकम आदमी है और भारी भरकम आदमी ने भारी भरकम काम किया है उसके लिए जरूरत पड़ी है जरूरत नहीं भी पड़ती तो आपको नहीं भी कहता चलिये। लेकिन जरूरत पड़ी है। हजार कुण्ड का यज्ञ किया था तो हमको जरूरत पड़ी थी क्योंकि हजार कुण्डीय यज्ञ में एक एक कुण्ड में पाँच पाँच आदमी बिठाये गये और एक बार में ५ हजार आदमी बैठे और दस बार बैठाया तो पचास हजार आदमी बैठे ऐसे पाँच दिन तक यज्ञ चला उसमें कितने लाखों आदमी की जरूरत पड़ गयी।

🔴 जरूरत पड़ी इसलिये बुलाया जरूरत नहीं पड़ी होती तो हम नहीं भी बुलाते। अब हमने नये कदम उठाये हैं और उनको सुनकर के कोई आदमी भरोसा नहीं करेगा पर मैं आपसे कहता हूँ कि आप भरोसा कर लीजिये हमारा। कोई आदमी से हम कहेंगे कि हम एक लाख कुण्ड का यज्ञ करने वाले हैं यह बात आपकी समझ में आयेगी नहीं आपकी समझ में नहीं आयेगी। बड़े से बड़े यज्ञ कहीं हुये हैं अभी भोपाल में एक आदमी ने यज्ञ किया था इससे पहले एक सज्जन ने दिल्ली में किया था १००-१०० कुण्ड के थे बस और कोई बड़े यज्ञ थे बड़े यज्ञ नहीं थे हजार कुण्डीय यज्ञ किये थे उन्होंने हजार कुण्डीय तो हमने किये हैं बस और हमने अकेले एक मथुरा में नहीं किये थे फिर हमने हमारा कार्यक्षेत्र सात प्रान्तों में है जिनको हम हिन्दी भाषी प्रान्त कहते हैं उनमें कार्यक्षेत्र था तो सातों के सातों में उसी प्रकार के एक- एक हजार कुण्डीय यज्ञ किये थे।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 91)

🌹 आदर्श विवाहों का प्रचलन कैसे हो?

🔴 आदर्श विवाहों का प्रचलन हिन्दू समाज की आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। इसे युग की महत्वपूर्ण मांग कहना चाहिए। नव-निर्माण के लिए कुप्रथाओं को हटाकर उनके स्थान पर स्वस्थ परम्पराओं को जन्म दिया जाना आवश्यक है। ऐसे प्रयत्नों से ही सामाजिक क्रान्ति का उद्देश्य पूर्ण होगा।

🔵 आदर्श विवाहों की 24 सूत्री रूपरेखा मूर्त रूप कैसे धारण करे इसके लिए नीचे आठ उपाय प्रस्तुत किये जा रहे हैं। इनको अपनाने से ही यह महान विचारधारा कार्यान्वित हो सकेगी।

🔴 (1) समान विचार वालों की तलाश— आदर्श विवाह तभी संभव, सफल और सार्थक हो सकते हैं जब दोनों पक्ष समान विचार के हों। एक पक्ष आदर्शवादी हो और दूसरा रूढ़िवादी तो ‘आधा तीतर आधा बटेर’ कहावत के अनुसार वह विवाह भी आधा सुधरा, आधा प्रतिक्रियावादी रहेगा। कभी-कभी तो यह मतभेद उग्र होकर संघर्ष और द्वेष का रूप भी धारण कर लेता है। जो बेमन से ठोक-पीटकर आदर्शवादी बनते हैं वे गुप्त रूप से दहेज आदि मांगते हैं और इच्छानुसार न मिलने पर किसी अन्य बहाने अपना रोष प्रकट करते हैं।

🔵 आवश्यकता इस बात की है कि दोनों ही पक्ष आदर्शवादी विचारों के मिलें। यह खोज काफी कठिन होती है। धन, शिक्षा, स्वास्थ्य की दृष्टि से तो अच्छे लड़के मिल जाते हैं पर विचारों के साथ ताल-मेल न बैठने से उनको नीलामी बोली पर ही खरीदना संभव होता है। अस्तु हमें वह माध्यम ढूंढ़ निकालना पड़ेगा जिसके अनुसार परस्पर विवाह संबंध करने वाली इकाइयों में जो भी प्रगतिशील विचारों के हों वे एक संगठन सूत्र में बंधे हों और उनका परस्पर परिचय सुलभ हो सके। इस वर्ग में से अपनी-अपनी स्थिति के अनुकूल जोड़े ढूंढ़ लिये जाया करें, तब आदर्श विवाहों की परम्परा सरल हो जायगी।

🔴 कई जातीय पत्रों में वर कन्या का परिचय, विवरण छपता रहता है, उससे कुछ विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। ऐसी जानकारी तो किसी भी कालेज में जाकर आसानी से प्राप्त की जा सकती है। जब तक लड़का और उसके घर वाले आदर्श रीति से विवाह करने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध न हों, तब तक लड़कों की सूची छपना कुछ महत्व नहीं रखता। हमें उन जातीय इकाइयों को संघबद्ध करना पड़ेगा जो परस्पर विवाह शादी करती हैं। इसके लिए दो उपाय हो सकते हैं (1) प्रगतिशील जातीय सभाओं का संगठन। (2) उन संगठनों द्वारा आयोजित वार्षिकोत्सव या जातीय मेले। दोनों की रूपरेखा आगे प्रस्तुत की जाती है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 38)

🌹  गुरुदेव का प्रथम बुलावा-पग-पग पर परीक्षा

🔴  इस यात्रा से गुरुदेव एक ही परीक्षा चाहते थे कि विपरीत परिस्थितियों से जूझने लायक मनःस्थिति पकी या नहीं। सो यात्रा अपेक्षाकृत कठिन ही होती गई। दूसरा कोई होता, तो घबरा गया होता, वापस लौट पड़ता या हैरानी में बीमार पड़ गया होता, पर गुरुदेव यह जीवन सूत्र व्यवहार में सिखाना चाहते थे कि मनःस्थिति मजबूत हो, तो परिस्थितियों का सामना किया जा सकता है, उन्हें अनुकूल बनाया या सहा जा सकता है। महत्त्वपूर्ण सफलताओं के लिए आदमी को इतना ही मजबूत होना चाहिए।

🔵 ऐसा बताया जाता है कि जब धरती का स्वर्ग या हृदय कहा जाने वाला भाग देवताओं का निवास था, तब ऋषि गोमुख से नीचे और ऋषिकेश से ऊपर रहते थे, पर हिमयुग के बाद परिस्थितियाँ एकदम बदल गईं। देवताओं ने कारण शरीर धारण कर लिए और अंतरिक्ष में विचरण करने लगे। पुरातन काल के ऋषि गोमुख से ऊपर चले गए। नीचे वाला भाग हिमालय और सैलानियों के लिए रह गया है। वहाँ कहीं-कहीं साधु बाबाजी की कुटियाँ तो मिलती हैं, पर जिन्हें ऋषि कहा जा सके, ऐसों का मिलना कठिन है।

🔴  हमने भी सुन रखा था कि हिमालय की यात्रा में मार्ग में आने वाली गुफाओं में सिद्धयोगी रहते हैं। वैसा कुछ नहीं मिला। पाया कि निर्वाह एवं आजीविका की दृष्टि से वह कठिनाइयों से भरा क्षेत्र है। इसलिए वहाँ मनमौजी लोग आते-जाते तो हैं, पर ठहरते नहीं। जो साधु-संत मिले, उनसे भेंट वार्ता होने पर विदित हुआ कि वे भी कौतूहलवश या किसी से कुछ मिल जाने की आशा में ही आते थे। न उनका तत्त्वज्ञान बढ़ा-चढ़ा था, न तपस्वियों जैसी दिनचर्या थी। थोड़ी देर पास बैठने पर वे अपनी आवश्यकता व्यक्त करते थे। ऐसे लोग दूसरों को क्या देंगे, यह सोचकर सिद्ध पुरुषों की तलाश में अन्यों द्वारा जब-तब की गई यात्राएँ मजे की यात्राएँ भर रहीं, यही मानकर अपने कदम आगे बढ़ाते गए। यात्रियों को आध्यात्मिक संतोष समाधान तनिक भी नहीं होता होगा, यही सोचकर मन दुःखी रहा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 38)

🌞 हिमालय में प्रवेश (संभल कर चलने वाले खच्चर)

🔵 पहाड़ों पर बकरी के अतिरिक्त खच्चर ही भारवाहन का काम करते हैं। सवारी के लिए भी उधर वे ही उपलब्ध हैं। जिस प्रकार अपने नगरों की सड़कों पर गाड़ी, ठेले, तांगे, रिक्शे चलते हैं उसी तरह चढ़ाव उतार की विषम और खतरनाक पगडंडियों पर यह खच्चर ही निरापद रूप से चलते फिरते नजर आते हैं।

🔴 देखा कि जिस सावधानी से ठोकर और खतरा बचाते हुए इन पगडंडियों पर हम लोग चलते हैं। उसी सावधानी से यह खच्चर भी चल रहे हैं हमारे सिर की बनावट ऐसी है कि पैरों के नीचे की जमीन को देखते हुए, खतरों को बचाते हुए आसानी से चल सकते हैं, पर खच्चरों के बारे में ऐसी बात नहीं है, उनकी आंखें ऐसी जगह लगी हैं और गरदन का मुड़ाव ऐसा है जिससे सामने देखा जा सकता है पर पैरों के नीचे देख सकना कठिन है। इतने पर भी खच्चर का हर कदम बड़ी सावधानी से और सही-सही रखा जा रहा था जरा सी चूक होने पर वह भी उसी तरह लुढ़क कर मर सकता है जैसे कल एक बछड़ा गंगोत्री की सड़क पर चूर-चूर हुआ मरा पड़ा देखा था। बेचारे का पैर जरा सी असावधानी से गलत जगह पड़ा कि अस्सी फुट की ऊंचाई से आ गिरा और उसकी हड्डी-पसली चकना चूर हो गई। ऐसा कभी-कभी ही होता है, खच्चरों के बारे में तो ऐसी घटना कभी नहीं सुनी गई।

🔵 लादने वालों से पूछा तो उनने बताया कि खच्चर रास्ता चलने के बारे में बहुत ही सावधानी और बुद्धिमता से काम लेता है। तेज चलता है पर हर कदम को थाह-थाह कर चलता है। ठोकर या खतरा हो तो तुरन्त संभल जाता है, बढ़े हुए कदम को पीछे हटा लेता है और दूसरी ठीक जगह पैर के सहारे तलाश कर वहीं कदम रखता है। चलने में उसका ध्यान अपने पैरों और जमीन की स्थिति के संतुलन में ही लगा रहता है। यदि वह ऐसा न कर सका होता तो इस विषम भूमि में उसकी कुछ उपयोगिता ही न होती।

🔴 खच्चर की बुद्धिमत्ता प्रशंसनीय है। मनुष्य जब कि बिना आगा-पीछा सोचे गलत दिशा में कदम उठाता रहता है और एक के बाद एक ठोकर खाते हुए भी संभलता नहीं, पर इन खच्चरों को तो देखें। कि हर कदम का संतुलन बनाये रखने से जरा भी नहीं चूकते। यदि इस ऊबड़-खाबड़ दुरंगी दुनिया से जीवन मार्ग पर चलते हुए यदि इन पहाड़ी खच्चरों की भांति अपना हर कदम सावधानी के साथ उठा सकने में समर्थ हो सके तो हमारी स्थिति वैसी ही प्रशंसनीय होती जैसी इस पहाड़ी प्रदेश में खच्चरों की है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गायत्री विषयक शंका समाधान (भाग 39) 30 Jan

🌹 अभियान साधना और संयम

🔴 इन्द्रिय संयम तपश्चर्या का आरम्भ है, अन्त नहीं। अपनी शक्तियों के अपव्यय को रोककर उन्हें आत्मिक विकास की दिशा में नियोजित करना ही तपश्चर्या का मूल उद्देश्य है और स्मरण रखा जाना चाहिए कि रसना, बकवाद यथा यौन-लिप्सा के कारण जीवनी-शक्ति का अस्सी प्रतिशत भाग नष्ट होता है। यदि इन छिद्रों को बन्द कर दिया जाय तो जीवन की प्रवृति स्वतः ही शुभ से अशुभ की ओर अग्रसर होने लगेगी। इन तीन मुख्य छिद्रों को बन्द कर देने पर अशुभ दृष्टि, विलासी जीवन तथा अन्य इन्द्रिय लिप्साओं को नियन्त्रित कर पाना अपेक्षाकृत बहुत आसान हो जायगा।

🔵 फिर भी यह नहीं समझ लेना चाहिए कि संयम से तात्पर्य उपवास, मौन और ब्रह्मचर्य भर ही है। उसकी परिधि और साधना क्षेत्र बहुत व्यापक है तथा उसमें सभी प्रकार के अपव्ययों को रोकने की आवश्यकता पर जोर दिया गया है, इन्द्रिय संयम उनमें से एक है। मनोनिग्रह उसका दूसरा पक्ष है। मनोनिग्रह अर्थात् चिन्तन को अभीष्ट प्रयोजनों में नियोजित करना और अवांछनीय विचारों को आते ही भगा देना।

🔴 अभियान साधना में सभी स्तर के संयम पर जोर दिया गया है। जैसे समय संयम अर्थात् सोने से लेकर जागने तक एक भी क्षण आलस्य या प्रमाद में बर्बाद न करना। रम सन्तुलन को बुद्धिमता पूर्वक बनाये रहना। न का संयम अर्थात् उचित और न्याय, नीति पूर्वक उपार्जन करना तथा कमाई को आवश्यक प्रयोजनों में ही व्यय करना। यही चारों संयम मिलकर जीवन साधना को तपश्चर्या का समग्र रूप बनाते हैं। इन्द्रिय संयम उनमें प्रथम है। अभियान साधना में निरत साधकों का लक्ष्य प्रथम चरण की चिन्ह पूजा को ही सब कुछ नहीं मान बैठना चाहिए वरन् समग्र संयम की तपश्चर्या को साधना का आवश्यक अंग मानकर चलना चाहिए तथा इन उपचारों के सहारे संयम शीलता अपनाने की व्यावहारिक रूपरेखा निर्मित की जाय।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 मन: स्थिति बदले तो परिस्थिति बदले (भाग 2)

🌹 युगधर्म का परिपालन अनिवार्य

🔵 विकास क्रम में ऐसे बदलाव अनायास ही प्रस्तुत कर दिए गए हैं। इस परिवर्तन क्रम को रोका नहीं जा सकता। जो पुरानी प्रथाओं पर ही अड़ा रहेगा, उसे न केवल घाटा ही घाटा उठाना पड़ेगा, वरन् उपहासास्पद भी बनना पड़ेगा।

🔴 मान्यताएँ, विचारणाएँ, निर्धारण और क्रियाकलाप आदि भी समय के परिवर्तन से प्रभावित हुए बिना रहते नहीं। उनकी सर्वथा उपेक्षा नहीं की जा सकती। धर्मशास्त्र भी समय की मर्यादाओं में बँधे रहे हैं और उनमें प्रस्तुत बदलाव के आधार पर परिवर्तन होते रहे हैं। स्मृतियाँ और सूत्र ग्रन्थ भी भिन्न-भिन्न ऋषियों ने अपने अपने समय के अनुसार, नए सिरे से लिखने की आवश्यकता समझी और वह सुधार ही जनजीवन में मान्यता प्राप्त करता रहा। इसका कारण उन निर्माताओं में परस्पर विवाद या विग्रह होना नहीं है, वरन् यह है कि बदलती परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए धर्म प्रचलन के स्वरूप में भी भारी हेर फेर किया गया।

🔵 प्राचीनकाल में जमीन में गड्ढा खोदकर गुफायें विनिर्मित कर ली जाती थीं, बाद में कुटिया बनाना अधिक सरल और सुविधाजनक लगा। इसके बाद अब तो भूमि सम्बन्धी कठिनाई को देखते हुए, आगे बढ़कर सीमेंट और लोहे के सहारे भवन निर्माण का प्रयोग निरन्तर बढ़ता जा रहा है। लकड़ी और गोबर से ईंधन की आवश्यकता पूरी करने की प्रथा पिछले दिनों रही है, पर उनका पर्याप्त मात्रा में न मिलना, इस प्रयास को तेजी से कार्यान्वित कर रहा है कि गोबर गैस या खनिज गैस से काम लिया जाये। जहाँ इफरात है, वहाँ बिजली से भी ईंधन का काम लिया जा रहा है। खनिज तेल भी किसी प्रकार उस आवश्यकता की पूर्ति कर रहे हैं। अब तो सूर्य की धूप भी ईंधन की जगह प्रयुक्त होने लगी है। इन परिवर्तनों में आवश्यकता के अनुरूप अविष्कार होते चलने की उक्ति ही सार्थक सिद्ध होती है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 आप अपने आपको पहचान लीजिये (भाग 10)

👉 युग ऋषि की अमृतवाणी

🔴 विश्वामित्र को जरूरत पड़ी थी तो उन्होंने दशरथ जी के बच्चे थोड़े समय के लिए माँगे थे कि भाई थोड़े समय के लिए दे दो हमें क्यों? क्योंकि हमें यज्ञ की रक्षा करनी है। कितने दिन में कर दोगे वापिस अरे यही कोई साल छ: महीने में आ जायेंगे। लेकिन साल छ: महीने में कहाँ आये वह तो भगवान् हो गये। घर- घर में पहुँच गये। जन- जन की जिव्हा पर पहुँच गये। तुलसीदास के राम बन गये। बाल्मीकि के राम बन गये और सारे संसार के राम बन गये। कहाँ आये। खैर ठीक है अभी तो हम आपसे कोई बात नहीं कहते थोड़े समय की बात कहते हैं कि आप एक साल का समय निकाल सके तो अच्छी बात है।

🔵 किसके लिए हमने भी विश्वामित्र की तरीके से यज्ञ किये हैं और हमारे यज्ञ सामान्य नहीं होते हमने असामान्य काम किये हैं हमें आप सामान्य आदमियों में गिनना और सामान्य आदमी एक दूसरे से जैसे माँगते जाँचते रहते हैं और सलाह देते रहते हैं आप सामान्य मत मानना हमारी सलाह को भी असामान्य मानना और हमारा जो कहना है उसको भी असामान्य मानना। असामान्य बात कह रहे हैं। असामान्य बात कैसे कह रहे हैं हमारी पिछली जिंदगी पर निगाह डाल लीजिये यह सारी की सारी बातें असामान्य हैं। और इससे आगे जिस काम के लिए हमको आपकी जरूरत पड़ी है वह काम भी बहुत असामान्य है।

🔴 उससे भी बड़ा असामान्य है। पहले की बातें मालूम हैं आपको अरे दो पाँच बातें तो मालूम हुई है आपको सारे के सारे ग्रंथ जो ऋषियों के थे वह कहीं दिखाई भी नहीं पड़ते थे। किसी को मालूम भी नहीं था। हमने काश्मीर लाइब्रेरी में से ढूँढ़ कर मंगाये कहीं कोई से मंगाया पता भी नहीं था गायब हो गये थे। लायब्रेरियों में जला दिये गये अरे वेद तो है ही नहीं वेद तो वह उठा ले गया रावण यहाँ है नहीं वह ।। सारी की सारी बातें सामान्य बात थी कि असामान्य बात थी।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 90)

🌹 आदर्श विवाहों के लिए 24 सूत्री योजना

🔴 22. बारात कम समय ठहरे:-- समीप की बारात का एक दिन और दूर की बारात का दो दिन ठहरना पर्याप्त है।

🔵 अधिक दिनों बारात रुकने से सभी की असुविधा होती है और तरह-तरह के खर्च बढ़ते हैं। समय और पैसे की बर्बादी होती है इसलिये कम समय ही बारात का रुकना उचित है।

🔴 23. नेग अपने-अपने चुकायें:-- कहीं-कहीं ऐसे रिवाज अभी भी हैं कि लड़की वाले के ‘काम वालों’ के नेग बेटे वाले को चुकाने पड़ते हैं। कुछ नेग बेटी वाले को बेटे वाले के कर्मचारियों के चुकाने पड़ते हैं। यह झंझट बन्द करके दोनों अपने-अपने कर्मचारियों के खर्चे चुकावें।

🔵 उपरोक्त प्रकार के हेर-फेर से ‘काम वाले’ या तो असन्तुष्ट रहते हैं या अनुचित लाभ लेते हैं। मनोमालिन्य भी बढ़ता है और देखने में भी यह बात भद्दी लगती हैं। उचित यही है कि उनके परिश्रम का ध्यान रखते नेग या वेतन अपने आप ही चुकाया जाय। दूसरे पक्ष पर उसका भार न डाला जाय।

🔴 24. छुट-पुट रस्म रिवाजें संक्षिप्त की जायें:- बार-बार छुट-पुट रस्म रिवाजें चलाने में समय और धन की बर्बादी न की जाय।

🔵 विवाह पक्का होने से लेकर बारात विदाई होने तक ही नहीं वरन् एक साल तक और रिवाज चलाने पड़ते हैं और उनमें बेकार की चीजें खरीद कर इधर से उधर भेजनी पड़ती हैं। इनका खर्च कई बार विवाह जितना ही आ पहुंचता है। इन बेकार बातों को जितना घटाया जा सकता हो तो अवश्य घटाना चाहिये। विवाह के अवसर पर देन-दहेज देने लेने के अनेक ‘ठिक’ बने हुये हैं। इन्हें कम करके (1) पक्की (वर के घर पर) (2) द्वार स्वागत (लड़की के घर) यह दो ही प्रमुख रखें। विदाई, गोद भरना जैसी शुभ समझे जाने वाले रस्म भी स्थानीय लोकाचार के अनुसार की जा सकती हैं।

🔴 हर प्रान्त के सब क्षेत्रों में अपने-अपने ढंग की अगणित प्रकार के अनेकों छुट-पुट रस्म रिवाज हैं। उनमें से कौन-कौन पूरी तरह तुरन्त ही छोड़ देने चाहिये और कौन-कौन किस तरह घटाई जानी चाहिये यह स्थानीय परिस्थितियों को देखकर किया जाय। दृष्टिकोण यही रहे कि जो रूढ़ियां अनावश्यक है उन्हें घटाकर समय और धन की बर्बादी रोकी जाय।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 37)

🌹  गुरुदेव का प्रथम बुलावा-पग-पग पर परीक्षा

🔴 पूरा एक वर्ष होने भी न पाया था कि बेतार का तार हमारे अंतराल में हिमालय का निमंत्रण ले आया। चल पड़ने का बुलावा आ गया। उत्सुकता तो रहती थी, पर जल्दी नहीं थी। जो देखा है, उसे देखने की उत्कंठा एवं जो अनुभव हस्तगत नहीं हुआ है, उसे उपलब्ध करने की आकाँक्षा ही थी। साथ ही ऐसे मौसम में जिसमें दूसरे लोग उधर जाते नहीं, ठंड, आहार, सुनसान, हिंस्र जंतुओं का सामना पड़ने जैसे कई भय भी मन में उपज उठते, पर अंततः विजय प्रगति की हुई। साहस जीता। संचित कुसंस्कारों में से एक अनजाना डर भी था। यह भी था कि सुरक्षित रहा जाए और सुविधापूर्वक जिया जाए। जबकि घर की परिस्थितियाँ ऐसी ही थीं दोनों के बीच कौरव पाँण्डवों की लड़ाई जैसा महाभारत चला, पर यह सब २४ घण्टे से अधिक न टिका। दूसरे दिन हम यात्रा के लिए चल दिए। परिवार को प्रयोजन की सूचना दे दी। विपरीत सलाह देने वाले भी चुप रहे। वे जानते थे कि इसके निश्चय बदलते नहीं।

🔵 कड़ी परीक्षा देना और बढ़िया वाला पुरस्कार पाना, यही सिलसिला हमारे जीवन में चलता रहा है। पुरस्कार के साथ अगला बड़ा कदम बढ़ाने का प्रोत्साहन भी। हमारे मत्स्यावतार का यही क्रम चलता आया है।

🔴  प्रथम बार हिमालय जाना हुआ, तो वह प्रथम सत्संग था। हिमालय दूर से तो पहले भी देखा था, पर वहाँ रहने पर किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, इसकी पूर्व जानकारी कुछ भी नहीं थी। वह अनुभव प्रथम बार ही हुआ। संदेश आने पर चलने की तैयारी की। मात्र देवप्रयाग से उत्तरकाशी तक उन दिनों सड़क और मोटर की व्यवस्था थी। इसके बाद तो पूरा रास्ता पैदल का ही था, ऋषिकेश से देव प्रयाग भी पैदल यात्रा करनी होती थी। सामान कितना लेकर चलना चाहिए जो कंधे और पीठ पर लादा जा सके, इसका अनुभव न था। सो कुछ ज्यादा ही ले लिया। लादकर चलना पड़ा, तो प्रतीत हुआ कि यह भारी है। उतना हमारे जैसा पैदल यात्री लेकर न चल सकेगा। सो सामर्थ्य से बाहर की वस्तुएँ रास्ते में अन्य यात्रियों को बाँटते हुए केवल उतना रहने दिया, जो अपने से चल सकता था एवं उपयोगी था।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 37)

🌞 हिमालय में प्रवेश (जंगली सेब)

🔵 मैं भी साथ था। इस सब माजरे के आदि से अन्त तक साथ था। दूसरे और यात्री उन यात्रियों की भूल पर मुस्करा रहे थे; कनखियां ले रहे थे, आपस में उन फलों का नाम ले लेकर हंसी कर रहे थे। उन्हें हंसने का एक प्रसंग मिल गया था, दूसरों की भूल और असफलता पर आमतौर से लोगों को हंसी आती ही है। केवल पीला रंग और बढ़िया रूप देखकर उनमें पका मीठा और स्वादिष्ट फल होने की कल्पना करनी यह उनकी भूल थी। रूप से सुन्दर दीखने वाली सभी चीजें मधुर कहां होती हैं, यह उन्हें जानना चाहिए था। न जानने पर शर्मिंदगी उठानी पड़ी और परेशानी भी हुई। आपस में लड़ाई झगड़ा होता रहा सो व्यर्थ ही।

🔴 सोचता हूं बेचारी इन स्त्रियों की ही हंसी हो रही है और सारा समाज रंग रूप पर मुग्ध होकर पतंगे की तरह जल रहा है, उस पर कोई नहीं हंसता। रूप की दुनिया में सौंदर्य का देवता पूजता है। तड़क-भड़क, चमक-दमक सबको अपनी ओर आकर्षित करती है और उस प्रलोभन से लोग बेकार चीजों पर लट्टू हो जाते हैं। अपनी राह खोटी करते हैं और अन्त में उनकी व्यर्थता पर इस तरह पछताते हैं जैसे यह स्त्रियां बिन्नी के कड़ुवे फलों को समेट कर पछता रही हैं। रूप पर मरने वाले यदि अपनी भूल समझें तो उन्हें गुणों का पारखी बनना चाहिये। पर यह तो तभी सम्भव है जब रूप के आकर्षण से अपनी विवेक बुद्धि को नष्ट होने से बचा सकें।

🔵 बिन्नी के फल किसी ने नहीं खाये। वे फेंकने पड़े। खाने योग्य वे थे भी नहीं। धन, दौलत, रूप, यौवन, राग-रंग, विषय-वासना, मौज-मजा जैसी अगणित चीजें ऐसी हैं जिन्हें देखते ही मन मचलता है किन्तु दुनिया में चमकीली दीखने वाली चीजों में से अधिकांश ऐसी ही होती हैं जिन्हें पाकर पछताना और अन्त में उन्हें आज के जाली सेबों की तरह फेंकना ही पड़ता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...