शुक्रवार, 28 जून 2019

👉 10% का हक

एक बहुत अमीर आदमी ने रोड के किनारे एक भिखारी से पूछा.. "तुम भीख क्यूँ मांग रहे हो जबकि तुम तन्दुरुस्त  हो...??"

भिखारी ने जवाब दिया... "मेरे पास महीनों से कोई काम नहीं है...
अगर आप मुझे कोई नौकरी दें तो मैं अभी  से भीख मांगना छोड़ दूँ"

अमीर मुस्कुराया और कहा.. "मैं तुम्हें कोई नौकरी तो नहीं दे सकता ..
लेकिन मेरे पास इससे भी अच्छा कुछ है...
क्यूँ नहीं तुम मेरे बिज़नस पार्टनर बन जाओ..."

भिखारी को उसके कहे पर यकीन नहीं हुआ...
"ये आप क्या कह रहे हैं क्या ऐसा मुमकिन है...?"

"हाँ मेरे पास एक चावल का प्लांट है.. तुम चावल बाज़ार में सप्लाई करो और जो भी मुनाफ़ा होगा उसे हम महीने के अंत में आपस में बाँट लेंगे.."

भिखारी के आँखों से ख़ुशी के आंसू निकल पड़े...
" आप मेरे लिए जन्नत के फ़रिश्ते बन कर आये हैं मैं किस कदर आपका शुक्रिया अदा करूँ.."

फिर अचानक वो चुप हुआ और कहा.. "हम मुनाफे को कैसे बांटेंगे..?
क्या मैं 20% और आप 80% लेंगे ..या मैं 10% और आप 90% लेंगे..
जो भी हो ...मैं तैयार हूँ और बहुत खुश हूँ..."

अमीर आदमी ने बड़े प्यार से उसके सर पर हाथ रखा ..
"मुझे मुनाफे का केवल 10% चाहिए बाकी 90% तुम्हारा ..ताकि तुम तरक्की कर सको.."

भिखारी अपने घुटने के बल गिर पड़ा.. और रोते हुए बोला...
"आप जैसा कहेंगे मैं वैसा ही करूंगा... मैं आपका बहुत शुक्रगुजार हूँ ...।

और अगले दिन से भिखारी ने काम शुरू कर दिया ..उम्दा चावल और बाज़ार से सस्ते... और दिन रात की मेहनत से..बहुत जल्द ही उसकी बिक्री काफी बढ़ गई... रोज ब रोज तरक्की होने लगी....

और फिर वो दिन भी आया जब मुनाफा बांटना था.

और वो 10% भी अब उसे बहुत ज्यादा लग रहा  था... उतना उस भिखारी ने कभी सोचा भी नहीं था... अचानक एक शैतानी ख्याल उसके दिमाग में आया...

"दिन रात मेहनत मैंने की है...और उस अमीर आदमी ने कोई भी काम नहीं किया.. सिवाय मुझे अवसर देने की..मैं उसे ये 10% क्यूँ दूँ ...वो इसका
हकदार बिलकुल भी नहीं है..।

और फिर वो अमीर आदमी अपने नियत समय पर मुनाफे में अपना हिस्सा 10% वसूलने आया और भिखारी ने जवाब दिया
" अभी कुछ हिसाब बाक़ी है, मुझे यहाँ नुकसान हुआ है, लोगों से कर्ज की अदायगी बाक़ी है, ऐसे शक्लें बनाकर उस अमीर आदमी को हिस्सा देने को टालने लगा."

अमीर आदमी ने कहा के "मुझे पता है तुम्हे कितना मुनाफा हुआ है फिर कयुं तुम मेरा हिस्सा देनेसे टाल रहे हो ?"

उस भिखारी ने तुरंत जवाब दिया "तुम इस मुनाफे के हकदार नहीं हो ..क्योंकि सारी मेहनत मैंने की है..."

अब सोचिये...
अगर वो अमीर हम होते और भिखारी से ऐसा जवाब सुनते ..
तो ...हम क्या करते ?

ठीक इसी तरह.........
भगवान  ने हमें जिंदगी दी..हाथ- पैर..आँख-कान.. दिमाग दिया..
समझबूझ  दी...बोलने को जुबान दी...जज्बात दिए..."

हमें याद रखना चाहिए कि दिन के 24 घंटों में  10% भगवान का हक है....
हमें इसे राज़ी ख़ुशी भगवान के नाम सिमरन में अदा करना चाहिए.
अपनी Income से 10%  निकाल कर अछे कामो मे लगाना चाहिए और... भगवान का शुक्रिया अदा करना चाहिए जिसने हमें  जिंदगी दी सुख दिए ....

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 28 June 2019


👉 आज का सद्चिंतन 28 June 2019


👉 इस आपत्ति−काल में हम थोड़ा साहस तो करें ही! (भाग 1)

क्रिया या कलेवर एक जैसे होने पर भी व्यक्तियों की वास्तविकता एक जैसी नहीं हो सकती। किसी ऐतिहासिक व्यक्ति की फिल्म बनाने वाले सुरत का आदमी ढूँढ़ निकालते हैं और उससे ऐक्टिंग भी वैसा ही करा लेते हैं। इतने पर भी वह नर वैसा नहीं हो सकता, जैसा कि वह मृत व्यक्ति था। सूर, कबीर, मीरा, तुलसी, चैतन्य,विवेकानन्द, ज्ञानेश्वर आदि पर फिल्में बन चुकी हैं। जिनने पाठ किये है, वे देखने वाले को असली या नकली के भ्रम में डाल देते हैं। ’बहुरूपिये’ कई−कई तरह के वेष बदल कर दर्शकों को चक्कर में डाल देते हैं और अपनी कला का पुरस्कार पाते है। इतने पर भी वे उस असली के स्थान पर नहीं पहुँच सकते, जिसकी कि नकल बनाई गई थी।

आज साधु−ब्राह्मणों की नकल बनाने वाले बहुरूपियों की—ऐक्टरों की भरमार है। जटा, कमण्डल, धूनी, चिमटा, दाढ़ी, कोपीन सब ऐसी मानों महर्षि वेदव्यास अभी सीधे ही हिमालय से चले आ रहे हैं। ब्राह्मणों के तिलक−छाप, पगड़ी,दुपट्टा,कथा,मंत्रोच्चार ठीक वैसा ही गुरु−वशिष्ठ का आगमन अभी−अभी हो रहा है। बाहरी दृष्टि से सब कुछ ऐसा बन जाता है कि ‘टू कापी’ कहने में किसी को झिझकना पड़े। किन्तु आचार और विचार में जमीन−आसमान जितना अन्तर होने से उस नकल से कुछ प्रयोजन साधता नहीं—कुछ बात बनती नहीं।

अवाँछनीय लाभ उठाते रहने वाले वर्गों को कष्टसाध्य आदर्शवादी मार्ग पर चलने के लिए तैयार करना प्रायः असम्भव हो जाता है। राजा लोग समय रहते बदल सकते थे। ऐसा करके वे अपना प्रभाव और वर्चस्व भी बनाये रह सकते थे, जनता का हित कर सकते थे और दुर्गति से बच सकते थे, पर उनसे वैसा साहस करते बन नहीं पड़ा। जमींदार,रईस, सामन्त मिटते गये,पर बदले नहीं। जिन्हें मुफ्त में प्रचूर धन वैभव मिल रहा है। बिना तप, त्याग के पूजा−सम्मान पा रहे हैं, उनकी आत्मा इतनी बलिष्ठ न हों सकती कि आदर्शवादी जीवनचर्या अपना सकें, अहंकार को त्याग सकें और कष्टसाध्य सेवा साधना में आने को संलग्न कर सकें। यह इसलिए और भी अधिक कठिन है कि उन्हें आरम्भिक प्रेरणा व्यक्तिवादी स्वार्थपरता की पूर्ति से मिली है। उनका मन, मस्तिष्क इसी लाभ ने आकर्षित किया है। लोक में धन, सम्मान,परलोक में स्वर्ग−मुक्ति का लाभ तनिक −सा वेष बदलने भर से मिल सकता है। यही आकर्षण उन्हें इस राह पर खींच कर लाया है।

दूसरों का शोषण अपनी स्वार्थ −सिद्धि जिन्हें उपयुक्त जंची है, उन्हीं ने इस मार्ग पर छलाँग लगाई है। यदि उन्हें आरम्भ में ही तप, त्याग,संयम,सेवा की बात कही जाती तो कदाचित वे साधु बनने के लिए कदापि तैयार न होते। इस आन्तरिक दुर्बलता का लगातार पोषण ही होता रहा है, समर्थन ही मिलता रहा है। अब वे अपनी मूल मान्यताएँ बदलें तभी उन्हें सेवा−साधना की बात जँच−रुच। यह इतना कठिन है, जिसे लगभग असम्भव भी कहा जा सकता है। जो लोग संसार को माया कहते हैं, सेवा का शूद्रों का कार्य बताते रहे हैं, जिन्हें” तोहि बिरानी क्या पड़ी, तू अपनी निरबेर “ की बात आदि से अन्त तक सुनने को मिलती रही हैं, वे परम गहन सेवा−धर्म स्वीकार करने का, प्रभू समर्पित जीवन जीने का साहस कर सकेंगे,ऐसी आशा नहीं ही की जानी चाहिए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1974 पृष्ठ 22

http://literature.awgp.org/hindi/akhandjyoti/1974/January/v1.22

👉 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति (भाग 17)

👉 कर्मफल के सिद्धान्त को समझना भी अनिवार्य

कर्मसु कौशलम् -- यानि कि कर्मों में कुशलता की सीख जरूरी है। और यह तभी सम्भव है, जब कर्मफल सिद्धान्त को समझा जाय। इसे समझे बिना आध्यात्मिक चिकित्सा सम्भव नहीं। जीवन की आध्यात्मिक दृष्टि कहती है कि उपयुक्त कारण के बिना कोई कार्य हो नहीं सकता। यदि जिन्दगी में कुछ घटित हो रहा है- तो इसके पीछे किन्हीं कारणों का होना आवश्यक है। फिर ये रोग- शोक पैदा करने वाली घटनाएँ हो अथवा हर्ष- उल्लास के उत्प्रेरक घटनाक्रम। जीवन की किसी घटना को संयोग कहकर टालने की कोशिश करना पूरी तरह से अवैज्ञानिक है। सच तो यह है कि प्रकृति के सम्पूर्ण परिदृश्य में कभी भी- कहीं भी संयोग घटित नहीं होते। प्रत्येक घटना उपयुक्त कारणों के गर्भ से जन्म लेती है। प्रत्येक फल बीज के समुचित विकास का परिणाम होता है।

कई बार ऐसा होता है कि हम किसी घटनाक्रम के लिए जिम्मेदार उपयुक्त कारणों को ढूँढने में असफल रहते हैं। और अपनी इस असफलता को संयोगों के मत्थे मढ़कर छुट्टी पा लेते हैं। लेकिन यह प्रक्रिया सिरे से गलत है। इसे गैर जिम्मेदारी के सिवा और कुछ नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक वर्तमान का अतीत होता है, और इसका भविष्य भी। अतीत के गर्भ के बिना कोई वर्तमान अपना अस्तित्त्व नहीं पा सकता। इसी तरह वर्तमान के कार्यों की परिणति भविष्य में अपना सुफल अथवा कुफल प्रकट किए बिना नहीं रहेगी। घटना छोटी हो या बड़ी- प्रत्येक के साथ यही नियम विधान काम करता है। इसे अस्वीकारने अथवा झुठलाने की कोशिश अज्ञान जनित मूढ़ता के सिवा और कुछ नहीं।

कर्मफल विधान की यही सच्चाई हमारी अपनी जिन्दगी के साथ जुड़ी हुई है। हमारा यह जीवन- यह मनुष्य जन्म किन्हीं संयोगों के कारण नहीं उपजा या पनपा है। इसके पीछे हमारे ही द्वारा किए गए कुछ सुनिश्चित कर्म हैं। हमारी बचपन की किलकारियाँ, किशोरवय की कुहेलिकाएँ, यौवन का पौरूष, बुढ़ापे की लाचारी के जिम्मेदार हमारे अपने सिवा और कोई नहीं। परमात्मा कभी किसी के प्रति भेद- भाव नहीं करते। उनकी कृपा या कोप के पीछे हमारे अपने ही सत्कर्म या दुष्कर्म जिम्मेदार होते हैं। जिन्दगी में सुख आएँ अथवा दुःख उनके कारण केवल हम होते हैं। हमारी जिन्दगी की छोटी या बड़ी, सुखद अथवा दुःखद परिस्थितियों के लिए हमारे सिवा कोई भी दूसरा जिम्मेदार नहीं।

जो जीवन की, प्रकृति की, कर्मफल के नियम की, परमेश्वर के समर्थ विधान की इस सच्चाई को जानते हैं, उन्हीं को विवेकवान कहा जा सकता है। अपने जीवन की जिम्मेदारी स्वीकारने वाले ऐसे कुशल व्यक्ति ही इसे संवारने का सच्चा प्रयत्न कर पाते हैं। अन्यथा और लोग तो अपने गैर जिम्मेदाराना रवैये के कारण अपनी विपन्नताओं का दोष दूसरों के माथे थोपते रहते हैं। इनकी विषम परिस्थितियों के लिए कभी तो भगवान् जिम्मेदार होता है, तो कभी भाग्य, कभी कोई मित्र तो कभी कोई शत्रु। हां जब कोई सुखद परिस्थितियाँ इनके जीवन में आती हैं, तो इनकी अहंता का पारा यकायक चढ़ जाता है। और इसका श्रेय लेने में ये किसी भी तरह से नहीं चूकते। ऐसे लोगों का जीवन हमेशा ही विडम्बना भरी कहानी बना रहता है।

जिन्हें जिन्दगी की आध्यात्मिक चिकित्सा में रुचि या रस है, उनसे समझदारी की अपेक्षा है। इसके लिए वे पूरी ईमानदारी से अपनी जिन्दगी की जिम्मेदारी को स्वीकारें और बहादुरी से इसे निभाएँ। इस रीति को निभाए बगैर महानतम आध्यात्मिक चिकित्सक भी हमारी कारगर चिकित्सा न कर पाएगा। युगऋषि गुरुदेव का कहना था कि कर्मफल विधान आध्यात्मिक चिकित्सा का सर्वमान्य सिद्धान्त है। इसे समझे और स्वीकारे बिना किसी की कोई भी मदद सम्भव नहीं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति

👉 The Absolute Law Of Karma (Part 27)

THE RELATIVITY OF VIRTUES AND SINS

Each individual has his own personal perspective of people, places, things and events. On account of the confusion of perspective, one finds the world bad, whereas the other sees only goodness in it. Throw away the cobwebs of your old biased perspectives. Use your third eye of wisdom to see through the illusions of your old world. Let your present wicked world (Kaliyug) destroy itself and in its place create your own Golden Age (Satyug) in your inner psyche. Stop being deluded by the darkness of the world (Tamogun) and focus your vision at the brightness (Satogun). You will find the world changing into heaven.

When you change your field of vision, you will find your disobedient son/ daughter changing into an obedient one. Your worst enemies, quarrelsome wife and hypocritic neighbours will appear totally different. Actually, the factor of negativity in the character or behaviour of a person is usually very small.

Antagonism in the mind of the observer magnifies it manifold. Suppose your husband or wife does not behave as per your expectations because of preoccupation or some other valid reason; when you are not aware of it, you are likely to take it as an affront and become resentful or angry. With the anger, the evil traits lying dormant in the inner recesses of your mind become activated and produce negative mental image of the subject. Darkness makes out a monster out of a bush. Similarly, anger, due to distortion caused by inner turbulence, produces a defiant, disobedient, disrespectful picture of an otherwise simple, innocent person who receives a harsh punishment for a small lapse. On the other hand, this unjust reaction also infuriates the recipient of the undeserved treatment. The counter-reacting angry person too begins to see wickedness, foolishness, cruelty and many other negative traits in the other person. On repetition of such trivial incidents, the two imaginary ghost personalities continue to grow and their confrontations convert two simple – hearted warmly related persons into bitter antagonists.

.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 48

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...