बुधवार, 28 अगस्त 2019
👉 अस्थिर आस्था के लूटेरे
एक विशाल नगर में हजारों भीख मांगने वाले थे। अभावों में भीख मांगकर आजिविका चलाना उनका पेशा था। उनमें कुछ अन्धे भी थे। उस नगर में एक ठग आया और भीखमंगो में सम्मलित हो गया। दो तीन दिन में ही उसने जान लिया कि उन भीखारियों में अंधे भीखारी अधिक समृद्ध थे। अन्धे होने के कारण दयालु लोग उन्हे कुछ विशेष ही दान देते थे। उनका धन देखकर ठग ललचाया। वह अंधो के पास पहुंच कर कहने लगा-“सूरदास महाराज ! धन्य भाग जो आप मुझे मिल गये। मै आप जैसे महात्मा की खोज में था! गुरूवर, आप तो साक्षात भगवान हो। मैं आप की सेवा करना चाहता हूँ! लीजिये भोजन ग्रहण कीजिए, मेरे सर पर कृपा का हाथ रखिए और मुझे आशिर्वाद दीजिये।“
अन्धे को तो जैसे बिन मांगी मुराद मिल गई। वह प्रसन्न हुआ और भक्त पर आशिर्वाद की झडी लगा दी। नकली भक्त असली से भी अधिक मोहक होता है। वह सेवा करने लगा। अंधे सभी साथ रहते थे। वैसे भी उन्हे आंखो वाले भीखमंगो पर भरोसा नहीं था। थोडे ही दिनों में ठग ने अंधो का विश्वास जीत लिया। अनुकूल समय देखकर उस भक्त ने, अंध सभा को कहा-“ महात्माओं मुझे आप सभी को तीर्थ-यात्रा करवाने की मनोकामना है। आपकी यह सेवा कर संतुष्ट होना चाहता हूँ। मेरा जन्म सफल हो जाएगा। सभी अंधे ऐसा श्रवणकुमार सा योग्य भक्त पा गद्गद थे। उन्हे तो मनवांछित की प्राप्ति हो रही थी। वे सब तैयार हो गये।सभी ने आपना अपना संचित धन साथ लिया और चल पडे। आगे आगे ठगराज और पिछे अंधो की कतार।
भक्त बोला- “महात्माओं, आगे भयंकर अट्वी है, जहाँ चोर डाकुओं का उपद्रव रहता है। आप अपने अपने धन को सम्हालें”। अंध-समूह घबराया ! हम तो अंधे है अपना अपना धन कैसे सुरक्षित रखें? अंधो ने निवेदन किया – “भक्त ! हमें तुम पर पूरा भरोसा है, तुम ही इस धन को अपने पास सुरक्षित रखो”, कहकर सभी ने नोटों के बंडल भक्त को थमा दिये। ठग ने इस गुरुवर्ग को आपस में ही लडा मारने की युक्ति सोच रखी थी। उसने सभी अंधो की झोलीयों में पत्थर रखवा दिये और कहा – “आप लोग मौन होकर चुपचाप चलते रहना, आपस में कोई बात न करना। कोई मीठी मीठी बातें करे तो उस पर विश्वास न करना और ये पत्थर मार-मार कर भगा देना। मै आपसे दूरी बनाकर नजर रखते हुए चलता रहूंगा”। इस प्रकार सभी का धन लेकर ठग चलते बना।
उधर से गुजर रहे एक राहगीर सज्जन ने, इस अंध-समूह को इधर उधर भटकते देख पूछा –“सूरदास जी आप लोग सीधे मार्ग न चल कर, उन्मार्ग – अटवी में क्यों भटक रहे हो”? बस इतना सुनते ही सज्जन पर पत्थर-वर्षा होने लगी. पत्थर के भी कहाँ आँखे होती है, एक दूसरे अंधो पर भी पत्थर बरसने लगे। अंधे आपस में ही लडकर समाप्त हो गये।
आपकी डाँवाडोल, अदृढ श्रद्धा को चुराने के लिए, सेवा, परोपकार और सरलता का स्वांग रचकर ठग, आपकी आस्था को लूटेने के लिए तैयार बैठे है। यथार्थ दर्शन चिंतन के अभाव में हमारा ज्ञान भी अंध है। अज्ञान का अंधापा हो तो अस्थिर आस्था जल्दी विचलित हो जाती है। एक बार आस्था लूट ली जाती है तो सन्मार्ग दिखाने वाला भी शत्रु लगता है. अज्ञानता के कारण ही अपने समृद्ध दर्शन की कीमत हम नहीं जान पाते। हमेशा डाँवाडोल श्रद्धा को सरल-जीवन, सरल धर्म के पालन का प्रलोभन देकर आसानी से ठगा जा सकता है। विचलित विचारी को गलत मार्ग पर डालना बड़ा आसान है। आस्था टूट जाने के भय में रहने वाले ढुल-मुल अंधश्रद्धालु को सरलता से आपस में लडाकर खत्म किया जा सकता है।
अस्थिर आस्थाओं की ठग़ी ने आज जोर पकड़ा हुआ है। निष्ठा पर ढुल-मुल नहीं सुदृढ बनें।
अन्धे को तो जैसे बिन मांगी मुराद मिल गई। वह प्रसन्न हुआ और भक्त पर आशिर्वाद की झडी लगा दी। नकली भक्त असली से भी अधिक मोहक होता है। वह सेवा करने लगा। अंधे सभी साथ रहते थे। वैसे भी उन्हे आंखो वाले भीखमंगो पर भरोसा नहीं था। थोडे ही दिनों में ठग ने अंधो का विश्वास जीत लिया। अनुकूल समय देखकर उस भक्त ने, अंध सभा को कहा-“ महात्माओं मुझे आप सभी को तीर्थ-यात्रा करवाने की मनोकामना है। आपकी यह सेवा कर संतुष्ट होना चाहता हूँ। मेरा जन्म सफल हो जाएगा। सभी अंधे ऐसा श्रवणकुमार सा योग्य भक्त पा गद्गद थे। उन्हे तो मनवांछित की प्राप्ति हो रही थी। वे सब तैयार हो गये।सभी ने आपना अपना संचित धन साथ लिया और चल पडे। आगे आगे ठगराज और पिछे अंधो की कतार।
भक्त बोला- “महात्माओं, आगे भयंकर अट्वी है, जहाँ चोर डाकुओं का उपद्रव रहता है। आप अपने अपने धन को सम्हालें”। अंध-समूह घबराया ! हम तो अंधे है अपना अपना धन कैसे सुरक्षित रखें? अंधो ने निवेदन किया – “भक्त ! हमें तुम पर पूरा भरोसा है, तुम ही इस धन को अपने पास सुरक्षित रखो”, कहकर सभी ने नोटों के बंडल भक्त को थमा दिये। ठग ने इस गुरुवर्ग को आपस में ही लडा मारने की युक्ति सोच रखी थी। उसने सभी अंधो की झोलीयों में पत्थर रखवा दिये और कहा – “आप लोग मौन होकर चुपचाप चलते रहना, आपस में कोई बात न करना। कोई मीठी मीठी बातें करे तो उस पर विश्वास न करना और ये पत्थर मार-मार कर भगा देना। मै आपसे दूरी बनाकर नजर रखते हुए चलता रहूंगा”। इस प्रकार सभी का धन लेकर ठग चलते बना।
उधर से गुजर रहे एक राहगीर सज्जन ने, इस अंध-समूह को इधर उधर भटकते देख पूछा –“सूरदास जी आप लोग सीधे मार्ग न चल कर, उन्मार्ग – अटवी में क्यों भटक रहे हो”? बस इतना सुनते ही सज्जन पर पत्थर-वर्षा होने लगी. पत्थर के भी कहाँ आँखे होती है, एक दूसरे अंधो पर भी पत्थर बरसने लगे। अंधे आपस में ही लडकर समाप्त हो गये।
आपकी डाँवाडोल, अदृढ श्रद्धा को चुराने के लिए, सेवा, परोपकार और सरलता का स्वांग रचकर ठग, आपकी आस्था को लूटेने के लिए तैयार बैठे है। यथार्थ दर्शन चिंतन के अभाव में हमारा ज्ञान भी अंध है। अज्ञान का अंधापा हो तो अस्थिर आस्था जल्दी विचलित हो जाती है। एक बार आस्था लूट ली जाती है तो सन्मार्ग दिखाने वाला भी शत्रु लगता है. अज्ञानता के कारण ही अपने समृद्ध दर्शन की कीमत हम नहीं जान पाते। हमेशा डाँवाडोल श्रद्धा को सरल-जीवन, सरल धर्म के पालन का प्रलोभन देकर आसानी से ठगा जा सकता है। विचलित विचारी को गलत मार्ग पर डालना बड़ा आसान है। आस्था टूट जाने के भय में रहने वाले ढुल-मुल अंधश्रद्धालु को सरलता से आपस में लडाकर खत्म किया जा सकता है।
अस्थिर आस्थाओं की ठग़ी ने आज जोर पकड़ा हुआ है। निष्ठा पर ढुल-मुल नहीं सुदृढ बनें।
👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ५७)
👉 अंतर्मन की धुलाई एवं ब्राह्मीचेतना से विलय का नाम है- ध्यान
ध्यान के प्रयोग अध्यात्म चिकित्सा के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। यदि कोई इन्हें सम्यक् रूप से जान ले- सीख ले तो वह स्वयं ही अपने व्यक्तित्व की चिकित्सा कर सकता है। ध्यान शब्द से बहुसंख्यक लोग सुपरिचित हो चले हैं। क्योंकि इन दिनों इसके बारे में बहुत कुछ कहा- सुना और लिखा- पढ़ा जा रहा है। किन्तु इसके अर्थ के बारे में, मर्म के बारे में प्रायः सभी अपरिचित हैं। इनमें वे भी शामिल हैं जो ध्यान के बारे में जानने और नियमित इसके अभ्यास का दावा करते हैं। यह अचरज भरा सच हो सकता है कई लोगों को नागवार लगे। फिर भी सत्य को कहा जाना चाहिए। यही सोचकर विनम्रतापूर्वक ये पंक्तियाँ लिखी गयी हैं, क्योंकि इनसे आत्मावलोकन में मदद मिलेगी और नए सिरे से ध्यान के बोध को पाया जा सकेगा।
ध्यान के प्रयोग में हम अपने विचारों और भावनाओं को रूपान्तरित करते हैं। इन्हें लयबद्ध करते हैं- स्वरबद्ध करते हैं। और फिर इस लय से हम अपने जीवन की खोई हुई लय को फिर से पाते हैं। बिखरे हुए स्वरों को, ध्यान के संगीत को सजाकर जिन्दगी का भूला हुआ गीत फिर से गाते हैं। दुःख- विषाद को आनन्द में बदलना, पतन के गर्त में गिरती जा रही जीवन की ऊर्जा का फिर से ऊर्ध्वारोहण करना ध्यान के प्रयोगों का ही सुफल है। बस हमें इन्हें करना आना चाहिए। ध्यान के अभाव में ही हम ब्राह्मी चेतना से अपना सामञ्जस्य गंवा बैठे हैं। ब्रह्माण्ड की अनन्त शक्तियों से विलग होकर हम निस्तेज और शक्तिहीन हो गए हैं। ध्यान के प्रयोग से यह योग पुनः सम्भव है।
यूं तो ध्यान अपने में गहरी आध्यात्मिक प्रक्रिया है। प्रत्येक धर्म व पंथ के आचार्यों ने इसका विशद विवेचन किया है। इसकी प्रक्रिया, प्रभावों व परिणामों का बोध कराया है। महर्षि पतंजलि के योग सूत्र का तो यह केन्द्रीय तत्त्व है। अष्टांग योग के आठ अंगों के क्रम में यह सातवें स्थान पर है। इसके पहले के छह अंग ध्यान की तैयारी के लिए है। और बाद का आठवां अंग ध्यान के परिणाम व सुफल बताने के लिए है। यह विवेचन कहीं भी और कितना भी क्यों न किया गया हो, पर उसका सार यही है कि हम अपने विचारों और भावनाओं को श्रेष्ठता- महानता और व्यापकता में एकाग्र करना सीखे। इसके माध्यम से व्यक्तित्व में ऐसे खिड़की- दरवाजे खोलें, जिनके माध्यम से ब्राह्मी चेतना का सुखद- सुरभित और निर्मल झोंका हमारे व्यक्तित्व में प्रवाहित हो सके।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ७९
ध्यान के प्रयोग अध्यात्म चिकित्सा के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। यदि कोई इन्हें सम्यक् रूप से जान ले- सीख ले तो वह स्वयं ही अपने व्यक्तित्व की चिकित्सा कर सकता है। ध्यान शब्द से बहुसंख्यक लोग सुपरिचित हो चले हैं। क्योंकि इन दिनों इसके बारे में बहुत कुछ कहा- सुना और लिखा- पढ़ा जा रहा है। किन्तु इसके अर्थ के बारे में, मर्म के बारे में प्रायः सभी अपरिचित हैं। इनमें वे भी शामिल हैं जो ध्यान के बारे में जानने और नियमित इसके अभ्यास का दावा करते हैं। यह अचरज भरा सच हो सकता है कई लोगों को नागवार लगे। फिर भी सत्य को कहा जाना चाहिए। यही सोचकर विनम्रतापूर्वक ये पंक्तियाँ लिखी गयी हैं, क्योंकि इनसे आत्मावलोकन में मदद मिलेगी और नए सिरे से ध्यान के बोध को पाया जा सकेगा।
ध्यान के प्रयोग में हम अपने विचारों और भावनाओं को रूपान्तरित करते हैं। इन्हें लयबद्ध करते हैं- स्वरबद्ध करते हैं। और फिर इस लय से हम अपने जीवन की खोई हुई लय को फिर से पाते हैं। बिखरे हुए स्वरों को, ध्यान के संगीत को सजाकर जिन्दगी का भूला हुआ गीत फिर से गाते हैं। दुःख- विषाद को आनन्द में बदलना, पतन के गर्त में गिरती जा रही जीवन की ऊर्जा का फिर से ऊर्ध्वारोहण करना ध्यान के प्रयोगों का ही सुफल है। बस हमें इन्हें करना आना चाहिए। ध्यान के अभाव में ही हम ब्राह्मी चेतना से अपना सामञ्जस्य गंवा बैठे हैं। ब्रह्माण्ड की अनन्त शक्तियों से विलग होकर हम निस्तेज और शक्तिहीन हो गए हैं। ध्यान के प्रयोग से यह योग पुनः सम्भव है।
यूं तो ध्यान अपने में गहरी आध्यात्मिक प्रक्रिया है। प्रत्येक धर्म व पंथ के आचार्यों ने इसका विशद विवेचन किया है। इसकी प्रक्रिया, प्रभावों व परिणामों का बोध कराया है। महर्षि पतंजलि के योग सूत्र का तो यह केन्द्रीय तत्त्व है। अष्टांग योग के आठ अंगों के क्रम में यह सातवें स्थान पर है। इसके पहले के छह अंग ध्यान की तैयारी के लिए है। और बाद का आठवां अंग ध्यान के परिणाम व सुफल बताने के लिए है। यह विवेचन कहीं भी और कितना भी क्यों न किया गया हो, पर उसका सार यही है कि हम अपने विचारों और भावनाओं को श्रेष्ठता- महानता और व्यापकता में एकाग्र करना सीखे। इसके माध्यम से व्यक्तित्व में ऐसे खिड़की- दरवाजे खोलें, जिनके माध्यम से ब्राह्मी चेतना का सुखद- सुरभित और निर्मल झोंका हमारे व्यक्तित्व में प्रवाहित हो सके।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ७९
👉 आत्मचिंतन के क्षण 28 Aug 2019
■ घृणित विचार, क्षणिक उत्तेजना, आवेश हमारी जीवनी शक्ति के अपव्यय के अनेक रुप हैं। जिस प्रकार काले धुएँ से मकान काला पड़ जाता है, उसी प्रकार स्वार्थ, हिंसा, ईर्ष्या, मद, मत्सर के कुत्सित विचारों से मनो-मंदिर काला पड़ जाता है। हमें चाहिये कि इन घातक मनोविकारों से अपने को सदा सुरक्षित रखें। गन्दे, ओछे विचार रखने वाले व्यक्तियों से बचते रहें। वासना को उत्तेजित करने वाले स्थानों पर कदापि न जाय, गन्दा साहित्य कदापि न पढे़।
◇ मानव की कुशलता, बुद्धिमता सांसारिक क्षणिक नश्वर भोगों के एकत्रित करने में न होकर अविनाशी और अमृत स्वरुप ब्रहन की प्राप्ति में है। सब ओर से समय बचाइये, व्यर्थ के कार्यों में जीवन जैसी अमुल्य निधि को नष्ट न कीजिये, वरन उच्च चिन्तन, मनन, ईश्वर पूजन में लगाइये। सदैव परोपकार में निरत रहिये। दूसरों की सेवा, सहायता एवं उपकार से हमे परमेश्वर को प्रसन्न करते हैं।
★ मनुष्य अपने शरीर को भले ही त्याग दे परन्तु उससे वह अपने कर्म के बन्धनों से कदापि मुक्त नहीं हो सकता। कहावत है कि "कटे न पाप भुगते बिना"। जो लोग जीवन के इस रहस्य को समझते है वे दु:ख पड़ने से कभी विचलित नहीं होते, वे जानते हैं कि दु:ख से केवल पापों का ही क्षय नहीं होता, बल्कि उनका आत्मबल भी बढ़ता है जो उनको जीवन संग्राम में सहायक होगा और नये-नये पाप करने से बचायेगा। मन की दुर्बलता ही मनुष्य को पाप कर्मों की ओर खीच ले जाती है।
◇ पिछले सौ-डेढ़ सौ वर्षों से संसार में स्वार्थपरता की वृद्धि के साथ ही ईश्वर से विमुखता का भाव भी जोर पकड रहा था। अब कई बार ठोकरें खाने के बाद संसार को विशेष रुप से सबसे धनी और ऐश्वर्यशाली देशों को फिर से ईश्वर की याद आ रही है। केवल धन से ही सुख तथा शान्ति नहीं मिलती। इसके लिए चित्त की शुद्धता बिना विवेक के संभव नहीं और विवेक धर्म तथा ईश्वर के ज्ञान से ही उत्पन्न हो सकता है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
◇ मानव की कुशलता, बुद्धिमता सांसारिक क्षणिक नश्वर भोगों के एकत्रित करने में न होकर अविनाशी और अमृत स्वरुप ब्रहन की प्राप्ति में है। सब ओर से समय बचाइये, व्यर्थ के कार्यों में जीवन जैसी अमुल्य निधि को नष्ट न कीजिये, वरन उच्च चिन्तन, मनन, ईश्वर पूजन में लगाइये। सदैव परोपकार में निरत रहिये। दूसरों की सेवा, सहायता एवं उपकार से हमे परमेश्वर को प्रसन्न करते हैं।
★ मनुष्य अपने शरीर को भले ही त्याग दे परन्तु उससे वह अपने कर्म के बन्धनों से कदापि मुक्त नहीं हो सकता। कहावत है कि "कटे न पाप भुगते बिना"। जो लोग जीवन के इस रहस्य को समझते है वे दु:ख पड़ने से कभी विचलित नहीं होते, वे जानते हैं कि दु:ख से केवल पापों का ही क्षय नहीं होता, बल्कि उनका आत्मबल भी बढ़ता है जो उनको जीवन संग्राम में सहायक होगा और नये-नये पाप करने से बचायेगा। मन की दुर्बलता ही मनुष्य को पाप कर्मों की ओर खीच ले जाती है।
◇ पिछले सौ-डेढ़ सौ वर्षों से संसार में स्वार्थपरता की वृद्धि के साथ ही ईश्वर से विमुखता का भाव भी जोर पकड रहा था। अब कई बार ठोकरें खाने के बाद संसार को विशेष रुप से सबसे धनी और ऐश्वर्यशाली देशों को फिर से ईश्वर की याद आ रही है। केवल धन से ही सुख तथा शान्ति नहीं मिलती। इसके लिए चित्त की शुद्धता बिना विवेक के संभव नहीं और विवेक धर्म तथा ईश्वर के ज्ञान से ही उत्पन्न हो सकता है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 महिमा गुणों की ही है
🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...