मंगलवार, 5 नवंबर 2019

गुरु मंत्र गायत्री | Guru Mantra Gayatri



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दानवीर राजा रंतिदेव | Daanveer Raja Rantidev | Dr Chinmay Pandya



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👉 लोभ और भय

मैंने सुना है, राजा भोज के दरबार में बड़े पंडित थे, बड़े ज्ञानी थे और कभी कभी वह उनकी परीक्षा भी लिया करता था। एक दिन वह अपना तोता राजमहल से ले आया दरबार में। तोता एक ही रट लगाता था, एक ही बात दोहराता था बार बार : 'बस एक ही भूल है, बस एक ही भूल है, बस एक ही भूल है।'

राजा ने अपने दरबारियों से पूछा, "यह कौन सी भूल की बात कर रहा है तोता?" पंडित बड़ी मुश्किल में पड़ गए। और राजा ने कहा, "अगर ठीक जवाब न दिया तो फांसी, ठीक जबाब दिया तो लाखों के पुरस्कार और सम्मान।"

अब अटकलबाजी नहीं चल सकती थी, खतरनाक मामला था। ठीक जवाब क्या हो? तोते से तो पूछा भी नहीं जा सकता। तोता कुछ और जानता भी नहीं। तोता इतना ही कहता है, तुम लाख पूछो, वह इतना ही कहता है : 'बस एक ही भूल है।'

सोच विचार में पड़ गए पंडित। उन्होंने मोहलत मांगी, खोजबीन में निकल गए। जो राजा का सब से बड़ा पंडित था दरबार में, वह भी घूमने लगा कि कहीं कोई ज्ञानी मिल जाए। अब तो ज्ञानी से पूछे बिना न चलेगा। शास्त्रों में देखने से अब कुछ अर्थ नहीं है। अनुमान से भी अब काम नहीं होगा। जहां जीवन खतरे में हो, वहां अनुमान से काम नहीं चलता। तर्क इत्यादि भी काम नहीं देते। तोते से कुछ राज़ निकलवाया नहीं जा सकता। वह अनेकों के पास गया लेकिन कहीं कोई जवाब न दे सका कि तोते के प्रश्न का उत्तर क्या होगा।

बड़ा उदास लौटता था राजमहल की तरफ कि एक चरवाहा मिल गया। उसने पूछा, "पंडित जी, बहुत उदास हैं? जैसे पहाड़ टूट पड़ा हो आप के ऊपर, कि मौत आनेवाली हो, इतने उदास! बात क्या है?" तो उसने अपनी अड़चन कही, दुविधा कही। उस चरवाहे ने कहा, "फिक्र न करें, मैं हल कर दूंगा। मुझे पता है। लेकिन एक ही उलझन है। मैं चल तो सकता हूँ लेकिन मैं बहुत दुर्बल हूँ और मेरा यह जो कुत्ता है इसको मैं अपने कंधे पर रखकर नहीं ले जा सकता। इसको पीछे भी नहीं छोड़ सकता। इससे मेरा बड़ा लगाव है।" पंडित ने कहा, "तुम फिक्र छोड़ो। मैं इसे कंधे पर रख लेता हूँ।"

उन ब्राह्मण महाराज ने कुत्ते को कंधे पर रख लिया। दोनों राजमहल में पहुंचे। तोते ने वही रट लगा रखी थी कि एक ही भूल है, बस एक ही भूल है। चरवाहा हंसा उसने कहा, "महाराज, देखें भूल यह खड़ी है।" वह पंडित कुत्ते को कंधे पर लिए खड़ा था। राजा ने कहा, "मैं समझा नहीं।" उसने कहा कि "शास्त्रों में लिखा है कि कुत्ते को पंडित न छुए और अगर छुए तो स्नान करे और आपका महापंडित कुत्ते को कंधे पर लिए खड़ा है। लोभ जो न करवाए सो थोड़ा है। बस, एक ही भूल है : लोभ और भय लोभ का ही दूसरा हिस्सा है, नकारात्मक हिस्सा। यह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक तरफ भय, एक तरफ लोभ।

ये दोनों बहुत अलग अलग नहीं हैं। जो भय से धार्मिक है वह डरा है दंड से, नर्क से, वह धार्मिक नहीं है। और जो लोभ से धार्मिक है, जो लोलुप हो रहा है वह वासनाग्रस्त है स्वर्ग से, वह धार्मिक नहीं है।

फिर धार्मिक कौन है? धार्मिक वही है जिसे न लोभ है, न भय। जिसे कोई चीज लुभाती नहीं और कोई चीज डराती भी नहीं। जो भय और प्रलोभन के पार उठा है वही सत्य को देखने में समर्थ हो पाता है।

सत्य को देखने के लिए लोभ और भय से मुक्ति चाहिए। सत्य की पहली शर्त है अभय क्योंकि जब तक भय तुम्हें डांवाडोल कर रहा है तब तक तुम्हारा चित्त ठहरेगा ही नहीं। भय कंपाता है, भय के कारण कंपन होता है। तुम्हारी भीतर की ज्योति कंपती रहती है। तुम्हारे भीतर हजार तरंगें उठती हैं लोभ की, भय की।

👉 आज का सद्चिन्तन Today Thought 5 Nov 2019




👉 मन को स्वच्छ और सन्तुलित रखें (भाग १)

समुद्र में जब तक बड़े ज्वार-भाटे उठते रहते हैं तब तक उस पर जलयानों का ठीक तरह चल सकना सम्भव नहीं होता। रास्ता चलने में खाइयाँ भी बाधक होती हैं और टीले भी। समतल भूमि पर ही यात्रा ठीक प्रकार चल पाती है। शरीर न आलसी, अवसाद ग्रस्त होना चाहिए और न उस पर चंचलता, उत्तेजना चढ़ी रहनी चाहिए। मनःक्षेत्र के सम्बन्ध में भी यही बात है, न उसे निराशा में डूबा रहना चाहिए और न उन्मत्त, विक्षिप्तों की तरह उद्वेग से ग्रसित होना चाहिये। सौम्य सन्तुलन ही श्रेयस्कर है। दूरदर्शी विवेकशीलता के पैर उसी स्थिति में टिकते हैं। उच्चस्तरीय निर्धारण इसी स्तर की मनोभूमि में उगते-बढ़ते और फलते फूलते है। पटरी औंधी तिरछी हो तो रेलगाड़ी गिर पड़ेगी। वह गति तभी पकड़ती है, जब पटरी की चौड़ाई-ऊँचाई का नाप सही रहे।

जीवन-क्रम में सन्तुलन भी आवश्यक है। उसकी महत्ता पुरुषार्थ, अनुभव, कौशल आदि से किसी भी प्रकार कम नहीं है। आतुर, अस्त-व्यस्त, चंचल, उद्धत प्रकृति के लोग सामर्थ्य गँवाते रहते हैं। वे उस लाभ से लाभान्वित नहीं हो पाते जो स्थिर चित्त, संकल्पवान्, परिश्रमी, दूरदर्शी और सही दिशाधारा अपना कर उपलब्ध करते हैं। स्थिरता एक बड़ी विभूति है। दृढ़ निश्चयी धीर-वीर कहलाते हैं। वे हर अनुकूल प्रतिकूल परिस्थिति में अपना संतुलन बनाये रहते है। महत्त्वपूर्ण निर्धारणों के कार्यान्वित करने और सफलता के स्तर तक पहुँचने के लिए मनःक्षेत्र को ऐसा ही सुसन्तुलित होना चाहिए।

निराशा स्तर के अवसाद और क्रोध जैसे उन्माद आवेशों से यदि बचा जा सके तो उस बुद्धिमानी का उदय हो सकता है, जिसे अध्यात्म की भाषा में प्रज्ञा कहते और जिसे भाग्योदय का सुनिश्चित आधार माना जाता है। ऐसे लोगों का प्रिय विषय होता है उत्कृष्ट आदर्शवादिता। उन्हें ऐसे कामों में रस आता है, जिनमें मानवी गरिमा को चरितार्थ एवं गौरवान्वित होने का अवसर मिलता हो। भविष्य उज्ज्वल होता हो और महामानवों की पंक्ति में बैठने का सुयोग बनता हो। इस स्तर के विभूतिवान बनने का एक ही उपाय है कि चिन्तन को उत्कृष्ट और चरित्र, कर्तृत्व से आदर्श बनाया जाय। इसके लिए दो प्रयास करने होते है, एक संचित कुसंस्कारिता का परिशोधन उन्मूलन। दूसरा अनुकरणीय अभिनन्दनीय दिशाधारा का वरण, चयन। व्यक्तित्वों में उन सत्प्रवृत्तियों का समावेश करना होता हैं जिनके आधार पर ऊँचा उठने और आगे बढ़ने का अवसर मिलता है। कहना न होगा कि गुण, कर्म, स्वभाव की विशिष्टता ही किसी को सामान्य परिस्थितियों के बीच रहने पर भी असामान्य स्तर का वरिष्ठ अभिनन्दनीय बनाती है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ८९)

👉 पंचशीलों को अपनाएँ, आध्यात्मिक चिकित्सा की ओर कदम बढ़ाएँ

४. बर्बादी से बचें- गलत कामों में अपनी सामर्थ्य को बरबाद करने के दुष्परिणाम सभी जानते हैं। ऐसे लोगों को कुकर्मी, दुष्ट, दुराचारी कहा जाता है। इन्हें बदनामी मिलती है, घृणित, तिरस्कृत बनते हैं, आत्म प्रताड़ना सहते हुए सहयोग से वंचित होते हैं और पतन के गर्त में जा गिरते हैं। यह सब केवल अपनी सामर्थ्य के गलत नियोजन से होता है। इस महापाप से थोड़े कम दर्जे का पाप है- व्यर्थ में अपनी शक्तियों को गंवाते रहने की मूर्खता। यूं देखने में यह कोई बड़ी बुराई नहीं लगती पर इसके परिणाम लगभग उसी स्तर के होते हैं। आमतौर पर बर्बादी के चार तरीके देखने को मिलते हैं- १. शारीरिक श्रम शक्ति को व्यर्थ में गंवाना- आलस्य, २. मन को अभीष्ट प्रयोजनों में न लगाकर उसे इधर- उधर भटकने देना- प्रमाद, ३. समय का, धन का, वस्तुओं का, क्षमता का बेसिलसिले उपयोग करना, उन्हें बर्बाद करना- अपव्यय, ४. तत्परता, जागरूकता, साहसिकता, उत्साह का अभाव, अन्यमनस्क मन से बेगार भुगतने की तरह कुछ उलटा- सुलटा करते रहना- अवसाद।

इन चार दुर्गुणों की चतुरंगिणी से हम हर समय सजग सैन्य प्रहरी की तरह मुकाबला करें। कभी किन्हीं क्षणों में इन्हें स्वयं पर हावी न होने दें। आलस्य, प्रमाद, अपव्यय व अवसाद के असुरों से हमें पूरी क्षमता से निबटना चाहिए। श्रम निष्ठा, कर्म परायणता, उत्साह, स्फूर्ति, सजगता, विनम्रता, व्यवस्था, स्वच्छता, अपने स्वभाव के अंग होने चाहिए। भीरूता, आत्महीनता, दीनता, निराशा, चिन्ता जैसे किसी दुष्प्रवृत्ति को अपनी सामर्थ्य को बरबाद करने की इजाजत हमें नहीं देनी चाहिए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ १२३

👉 पाप का सौदा

एक बार घूमते-घूमते कालिदास बाजार गये। वहाँ एक महिला बैठी मिली। उसके पास एक मटका था और कुछ प्यालियाँ पड़ी थी। कालिदास ने उस महिला से पूछा: ” क्या बेच रही हो?

“महिला ने जवाब दिया: ” महाराज! मैं पाप बेचती हूँ। “ कालिदास ने आश्चर्यचकित होकर पूछा: ” पाप और मटके में? “महिला बोली: ” हाँ , महाराज! मटके में पाप है।
“ कालिदास : ” कौन-सा पाप है?

“ महिला : ” आठ पाप इस मटके में है। मैं चिल्लाकर कहती हूँ की मैं पाप बेचती हूँ पाप… और लोग पैसे देकर पाप ले जाते है।” अब महाकवि कालिदास को और आश्चर्य हुआ: ” पैसे देकर लोग पाप ले जाते है? “ महिला : ”हाँ, महाराज! पैसे से खरीदकर लोग पाप ले जाते है। “ कालिदास: ” इस मटके में आठ पाप कौन-कौन से है?

“महिला: ” क्रोध, बुद्धिनाश, यश का नाश, स्त्री एवं बच्चों के साथ अत्याचार और अन्याय, चोरी, असत्य आदि दुराचार, पुण्य का नाश, और स्वास्थ्य का नाश … ऐसे आठ प्रकार के पाप इस घड़े में है।

“कालिदास को कौतुहल हुआ की यह तो बड़ी विचित्र बात है। किसी भी शास्त्र में नहीं आया है की मटके में आठ प्रकार के पाप होते है।

वे बोले: ”आखिरकार इसमें क्या है?”

महिला : ”महाराज! इसमें शराब है शराब! “कालिदास महिला की कुशलता पर प्रसन्न होकर बोले:” तुझे धन्यवाद है! शराब में आठ प्रकार के पाप है यह तू जानती है और ‘मैं पाप बेचती हूँ ‘ ऐसा कहकर बेचती है फिर भी लोग ले जाते है। धिक्कार है ऐसे लोगों के जीवन पर।

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...