शुक्रवार, 18 जून 2021

👉 !! जीभ का रस !!

एक बूढ़ा राहगीर थक कर कहीं टिकने का स्थान खोजने लगा। एक महिला ने उसे अपने बाड़े में ठहरने का स्थान बता दिया। बूढ़ा वहीं चैन से सो गया। सुबह उठने पर उसने आगे चलने से पूर्व सोचा कि यह अच्छी जगह है, यहीं पर खिचड़ी पका ली जाए और फिर उसे खाकर आगे का सफर किया जाए। बूढ़े ने वहीं पड़ी सूखी लकड़ियां इकठ्ठा कीं और ईंटों का चूल्हा बनाकर खिचड़ी पकाने लगा। बटलोई उसने उसी महिला से मांग ली।

बूढ़े राहगीर ने महिला का ध्यान बंटाते हुए कहा, 'एक बात कहूं.? बाड़े का दरवाजा कम चौड़ा है। अगर सामने वाली मोटी भैंस मर जाए तो फिर उसे उठाकर बाहर कैसे ले जाया जाएगा.?' महिला को इस व्यर्थ की कड़वी बात का बुरा तो लगा, पर वह यह सोचकर चुप रह गई कि बुजुर्ग है और फिर कुछ देर बाद जाने ही वाला है, इसके मुंह क्यों लगा जाए।

उधर चूल्हे पर चढ़ी खिचड़ी आधी ही पक पाई थी कि वह महिला किसी काम से बाड़े से होकर गुजरी। इस बार बूढ़ा फिर उससे बोला: 'तुम्हारे हाथों का चूड़ा बहुत कीमती लगता है। यदि तुम विधवा हो गईं तो इसे तोड़ना पड़ेगा। ऐसे तो बहुत नुकसान हो जाएगा.?'

इस बार महिला से सहा न गया। वह भागती हुई आई और उसने बुड्ढे के गमछे में अधपकी खिचड़ी उलट दी। चूल्हे की आग पर पानी डाल दिया। अपनी बटलोई छीन ली और बुड्ढे को धक्के देकर निकाल दिया।

तब बुड्ढे को अपनी भूल का एहसास हुआ। उसने माफी मांगी और आगे बढ़ गया। उसके गमछे से अधपकी खिचड़ी का पानी टपकता रहा और सारे कपड़े उससे खराब होते रहे। रास्ते में लोगों ने पूछा, 'यह सब क्या है.?' बूढ़े ने कहा, 'यह मेरी जीभ का रस टपका है, जिसने पहले तिरस्कार कराया और अब हंसी उड़वा रहा है।'

शिक्षा:-
तात्पर्य यह है के पहले तोलें फिर बोलें। चाहे कम बोलें मगर जितना भी बोलें, मधुर बोलें और सोच समझ कर बोलें।
 

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ३३)

सुख का केन्द्र और स्रोत आत्मा

वस्तुएं हमें इसलिये मिलती हैं कि उनका श्रेष्ठतम सदुपयोग करके उनसे स्व-पर कल्याण की व्यवस्था बनाई जाय। साधन जड़ जगत के अंग हैं और वे रंग रूप बदलते हुए इस जगत की शोभा बढ़ाते रहने के लिए हैं। उन्हें अपने गर्व-गौरव का, विलास वैभव का आधार बनाकर संग्रह करते चलें। अहंकार का पोषण, तृष्णा की तुष्टि अथवा विलासिता के अभिवर्धन में धन को—शारीरिक, मानसिक विभूतियों को नियोजित रखा जाय तो उत्कृष्ट जीवन जी सकने का द्वार अवरुद्ध ही बना रहेगा। संकीर्ण और स्वार्थी जिन्दगी ही जियी जा सकेगी और इस कुचक्र में यह सुर-दुर्लभ अक्सर निरर्थक ही चला जायेगा।

शरीर और मन को अपना आपा मान बैठना और उसकी वासनाओं, तृष्णाओं की पूर्ति में इतना निमग्न हो जाना कि आत्मा का स्वरूप और लक्ष्य पूरी तरह विस्मृत हो जाय, ये दूरदर्शितापूर्ण नहीं है। शारीरिक और मानसिक उपलब्धियों के लिये जितना श्रम किया जाता है और मनोयोग लगाया जाता है, जोखिम उठाया जाता है उतना ही विनियोग यदि आत्मोत्कर्ष के लिये—आत्मबल सम्पादन के लिये लगाया जा सके तो मनुष्य इसी जीवन में महामानव बन सकता है और उन विभूतियों को करतलगत कर सकता है जो देवदूतों में पाई जाती हैं। इतना उच्चकोटि का लाभ छोड़कर नगण्य-सी लिप्साओं में डूबे हुये न करने योग्य काम करना—उनके कटु-कर्म—परिपाक सहना, किसी विवेकवान के लिए उपयुक्त न होगा। किन्तु देखा जाता है कि अधिकांश व्यक्ति उचित छोड़कर अनुचित का, लाभ छोड़कर हानि का रास्ता अपनाते हैं इसे क्या कहा जाय? यह माया का खेल ही है। जिससे भ्रमित होकर मनुष्य जल में थल-थल में जल देखने की तरह हानि को लाभ और लाभ को हानि समझता है। अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारता है।

माया विमुग्ध होकर ही मनुष्य अपने उच्च स्तर से अपनी दुर्बलताओं के कारण अधः पतित होता है और दुःख क्लेश भरा नरक भोगता है अन्यथा मनुष्य को इस विश्व के साथ सम्पर्क बनाकर सुखानुभूति प्राप्त कराने वाले जो तीन उपकरण मिले हैं यदि उनका ठीक तरह उपयोग किया जा सके तो जीवन अति सुन्दर और मधुर बन सकता है। इन तीन उपकरणों के नाम हैं। (1) अन्तरात्मा (2) मन (3) इन्द्रिय समूह।

इन्द्रियों की बनावट ऐसी अद्भुत है कि दैनिक जीवन की सामान्य प्रक्रिया में ही उन्हें पग-पग पर असाधारण सरसता अनुभव होती है। पेट भरने के लिए भोजन करना स्वाभाविक है। भगवान की कैसी महिमा है कि उसने दैनिक जीवन की शरीर यात्रा भर की नितान्त स्वाभाविक प्रक्रिया को कितना सरस बना दिया है। उपयुक्त भोजन करते हुये जीव को कितना रस मिलता है और चित्त को उस अनुभूति से कैसे प्रसन्नता होती है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ५३
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ३३)

भक्त का जीवन निर्द्वंद्व व सहज होता है
    
उनकी चर्चा सुनकर मैं स्वयं उनसे मिलने गया। तेजपुञ्ज, तपोनिष्ठ परमभक्त आरण्यक मुनि। होंठों पर भगवती का नाम, हृदय में उन करुणामयी माता की छवि। रोम-रोम भगवती के प्रेम से पुलकित। बड़े निशिं्चत, निर्द्वन्द्व लगे मुनि आरण्यक। उनके मन में न तो किसी के प्रति कोई द्वेष था और न रोष। भय जैसे किसी तत्त्व का तो उनके अस्तित्त्व में कोई नामो-निशान भी न था। ऐसे अद्भुत उन मुनिवर को देखकर मैंने उनका अभिवादन किया। पर वह तो इतने विनम्र थे कि मुझे देखते ही मेरा परिचय पाकर वह मेरे पाँवों में गिर पड़े और कहने लगे, हे ब्रह्मर्षि! मैं तो बस अपनी माँ का नन्हा अबोध बालक हूँ। मेरा अहोभाग्य कि उन करुणामयी ने मुझे आपके दर्शन करा दिए।
    
आरण्यक मुनि के छोटे से कुटीर को मैंने ध्यान से देखा। वहाँ कुछ भी  सामान नहीं था। सम्भवतः कोई भी संग्रह उन मुनिवर को रुचिकर न था। वस्त्रों के नाम पर भी कौपीन के अतिरिक्त एक-आध लघु वस्त्र खण्ड ही थे। वस्तुस्थिति को परखकर मैंने उनसे आग्रह किया कि हे मुनिवर! आप यहाँ पर एकाकी हैं। वन में निशाचरी माया का आतंक है, क्यों न आप हमारे साथ सिद्धाश्रम चलें। वह स्थान सुरक्षित है और सब प्रकार से साधना के अनुकूल भी। आप वहाँ रहकर सुखपूर्वक साधना कर सकेंगे। किसी भी तरह का व्यवधान न होगा?
    
मेरी इन बातों के उत्तर में आरण्यक मुनि मुस्कराए और बोले- हे महान ब्रह्मर्षि! आप तो परम ज्ञानी हैं। कहीं सुखपूर्वक भी साधना की जाती है? सुख और साधना इन दोनों का कभी कोई मेल होता है क्या? रही बात निशाचर, राक्षस एवं दैत्यों की माया का-तो क्या वे सब भगवती महामाया से भी ज्यादा मायावी हैं। अरे जिनकी माया के छोटे से अंश से यह सृष्टि रची गयी है, जिनकी चेतना का एक कण पाकर सभी चेतन हैं। उन परम करुणामयी माँ का बालक भयभीत हो, यह लज्जा की बात है। फिर वह कहने लगे- ब्रह्मर्षि! मैंने जीवन में न तो तप अर्जित किया है, न ही विद्याएँ अन्वेषित की हैं, बस माँ का नाम लिया है। यही मेरा धन है और जीवन है। मैं किसी भी आतंक के भय से अथवा किसी सुविधा के लोभ से अपनी भक्ति एवं निष्ठा को कलंकित या कलुषित नहीं करना चाहता।
    
बड़ी तेजोद्दीप्त थी उन महान भक्त की वाणी। सौम्य होते हुए भी वे परम दुधर्ष थे। वह इस उन्नत अवस्था में भी आचारनिष्ठ थे। सभी नित्य-नैमित्तिक कार्यों को वह बड़ी श्रद्धा एवं आस्थापूर्वक करते थे। फिर भी जब कभी वह महीनों की भावसमाधि में खो जाते तो यह सभी आचार-नियम शिथिल पड़ जाते थे। शरीर रक्षा के लिए भोजन आदि का क्रम थोड़ा बहुत ही हो जाता है। उनसे जब मैंने यह जानना चाहा कि शरीर की रक्षा के लिए भोजन आदि की व्यवस्था कैसे निभती है? तो बरबस वह हँस पड़े और कहने लगे जो इस अखिल विश्व की व्यवस्थापिका है, वही मेरी भी उचित व्यवस्था कर देती है। उन परमभक्त की एक बात मुझे आज भी महामंत्र की तरह स्मरण है, उन्होंने कहा था कि जो दुर्दान्त दुष्टों, षड्यंत्रकारियों एवं शत्रुओं के बीच सम्पूर्णतया निशिं्चत होकर निर्द्वन्द्व भाव से अपना सहज जीवन जीता है, वही सच्चा भक्त है।’’ ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की यह अपूर्व वाणी सभी को भक्ति के परम गोपनीय मंत्रोच्चार की भाँति लगी और प्रायः सभी इस पर मनन करने लगे।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ६४

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...