मंगलवार, 25 मई 2021

👉 बेटी

दिव्या विदा होकर चली गई, सुषमा को अभी भी विश्वास नही हो रहा था। दिन भर मानो घर मे रौनक ही दिव्या से ही थी।

कभी लड़ना, कभी बाहें गले मे डाल कर लटक जाना, कभी बाजार साथ, उनकी बेस्ट फ्रेंड थी दिव्या----
पूरा घर सांय सांय कर रहा था। यूं तो घर मे बेटा मोहित, बहू शिल्पा, नन्हा पोता सब थे, पर दिव्या-----

फिर से उनकी आंखें भरने लगी थीं। करवट बदल कर लेटी ही थीं, की एक तेज आवाज सुनाई दी, ओफ्फो मम्मी! कितनी देर सोती रहेंगी? मुझे कॉलेज निकलने में देर हो रही है।

इतनी तेज आवाज!!! शिल्पा तो नही हो सकती। दिव्या!!! वो हड़बड़ा कर उठीं---

संभल कर!, अरे ये क्या उनके सामने शिल्पा थी।

अचानक उनके मुँह से निकला, "कैसे बोल रही हो शिल्पा? क्या बिल्कुल ही भूल गई कि किससे बात कर रही हो? थोड़ा तमीज----"

 पर शिल्पा ने बीच मे ही बात काट कर कहा,
"किससे कर रही हूँ पता है---, मम्मी से---"
क्या एक कप चाय भी मुझे निकलने से पहले खुद ही बनानी होगी?

शिल्पा की आवाज में पहले वाली तेजी बरकरार थी।

अब तक सुषमा बिस्तर छोड़ चुकीं थीं, गुस्से में कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था, कि शिल्पा के चेहरे पर नज़र पड़ी,
होंठों पर मंद स्मित और आंखों में नमी---

सुषमा को अब सब समझ आ चुका था। आगे बढ़कर उन्होंने शिल्पा को गले लगा लिया---
मेरी बेटी---

अब दोनो मां बेटी की आंखें भीग चुकी थीं।

लाती हूँ चाय, पर शाम को सब्जी तू ही बनाएगी कहे देती हूँ।

कह कर सुषमा हल्के मन से किचन की तरफ बढ़ गई।

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग २२)

👉 अपनी अपनी दुनिया

संसार के स्वरूप निर्धारण में—उन्हें जानने समझने में पांच ज्ञानेन्द्रियों की भांति ही यह मनः संस्थान के चार चेतना केन्द्र भी काम करते हैं। अतएव उन्हें भी अनुभूति उपकरणों में ही गिना गया है। हमारा समस्त ज्ञान इन्हीं उपकरणों के आधार पर टिका हुआ है।

मनुष्यों की भिन्न मनःस्थिति के कारण एक ही तथ्य के सम्बन्ध में परस्पर विरोधी मान्यतायें एवं रुचियां होती हैं। यदि यथार्थता एक ही होती तो सबको एक ही तरह के अनुभव होते। एक व्यक्ति अपराधों में संलग्न होता है दूसरा परमार्थ परोपकार में। एक को भोग प्रिय है दूसरे को त्याग। एक को प्रदर्शन में रुचि है दूसरे को सादगी में। एक विलास के साधन जुटा रहा है दूसरा त्याग पथ पर बढ़ रहा है। इन भिन्नताओं से यही सिद्ध होता है कि वास्तविक सुख-दुख, हानि-लाभ कहां है किसमें है इसका निर्णय किसी सार्वभौम कसौटी पर नहीं मनःसंस्थान की स्थिति के आधार पर दृष्टिकोण के अनुरूप ही किया जाता है। यह सार्वभौम सत्य यदि प्राप्त हो गया होता तो संसार में मत-भेदों की कोई गुंजाइश न रहती। मनःसंस्थान जो अनुभव कराता है उसमें भी इन्द्रिय ज्ञान से कम नहीं वरन् अधिक ही भ्रांति भरी पड़ी है।

सुख और दुख की अनुभूति सापेक्ष है। दूसरे की तुलना करके ही स्थिति के भले-बुरे का अनुभव किया जाता है। कोई मध्य स्थिति का व्यक्ति अमीर की तुलना में गरीब है। किन्तु महादरिद्र की तुलना में वह भी अमीर है। ज्वर पीड़ित व्यक्ति स्वस्थ मनुष्य की तुलना में दुखी है पर केन्सर ग्रस्त की तुलना में सुखी। शरीर पीड़ा की कुछ अनुभूतियों को छोड़कर शेष 90 प्रतिशत दुख और सुख सापेक्ष होते हैं। उसी स्थिति में एक व्यक्ति अपने को सुखी अनुभव कर सकता है। और दूसरा दुखी। इन विभिन्न निष्कर्षों के आधार पर सत्य को पहचानना कठिन है।

संसार पदार्थों से बना है। पदार्थ अणुओं से बने हैं। अणु परमाणुओं से—परमाणु इलेक्ट्रोन, प्रोटोन आदि विखण्डों से—और वे विखण्ड तरंगों के घनीभूत रूप हैं। विज्ञान बताता है कि यह जगत तरंगों का परिणाम है, तरंग मय है, तरंग ही है। शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श की तन्मात्रायें और विचार विवेचना, अभिव्यक्ति, अनुभूति अभिव्यंजना आदि के पीछे केवल तरंगें काम करती हैं। यहां तरंगों के अतिरिक्त और कहीं कुछ नहीं है।

प्रकृति में परम सत्ता का निरन्तर संयोग मिलन, संस्फुरण, आदान-प्रदान, आकर्षण-विकर्षण ही तरंगें बनकर गतिशील रहता है और वह गति ही पदार्थ बनकर सामने आती रहती है। जो दीखता है उसके मूल में केवल तरंग स्फुरणा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जो प्रिय अप्रिय है उसमें आत्मानुभूति की मात्रा की घट-बढ़ की उथल-पुथल के अतिरिक्त और कहीं कुछ भी नहीं है। जड़ चेतन के समस्त परमाणु एक क्रमबद्ध प्रक्रिया के अनुरूप एक दिशा में चलते जा रहे हैं। उस प्रवाह का कोई चाहे तो समुद्र तट पर बैठकर उसकी हिलोरों का आनन्द ले सकता है। भ्रमग्रस्त हर नई लहर के आने का लाभ और जाने की हानि समझता हुआ हंसने रोने का प्रलाप कर सकता है। नियति का क्रम अपने ढंग से चलेगा, किसी के सोचने का तरीका क्या है, इसकी उसे परवा नहीं। हाथी अपनी राह चलेगा ही कुत्ते उसका स्वागत करें या रोष दिखायें यह उनकी मर्जी। प्रकृति की स्वसंचालित व्याख्या हाथी की तरह ही चलेगी यहां हर वस्तु का रूप बदलेगा। आज का सृजन, संयोग कल विनाश एवं वियोग का रूप धारण करेगा। अपरिवर्तनवादी आकांक्षा अधूरी ही रहेगी। यहां स्थिरता के लिये कोई स्थान नहीं। जो संग्रह एवं स्थायित्व के अभिलाषी हैं उन्हें निराशा भरे पश्चात्ताप के अतिरिक्त और क्या हाथ लगेगा?

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ३४
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग २२)

अनन्यता के पथ पर बढ़ चलें हम

देवर्षि के उपदेश के अनुसार मैंने भक्ति प्रारम्भ की, परन्तु मेरे लिए यह करना आसान न था। अन्दर-बाहर अनेकों उपद्रव उठ खड़े हुए। इन्द्रियाँ और मन मुझे बार-बार दुष्प्रवृत्तियों की ओर खींचते थे। पिछले संचित कर्म जो अब प्रारब्ध बन चुके थे। इनके प्रहार दारुण थे। लोकलाँछन, कटुक्तियाँ, व्यंग्य सब कुछ असहनीय था। बाहर शत्रु संहारक हो रहे थे तो देह में रोग संघातक थे। इतनी जटिलताओं में मेरे पास केवल माँ का नाम था। जिस पर मुझे ठीक-ठीक भरोसा नहीं हो रहा था। तभी मेरे पास देवर्षि का दुबारा आगमन हुआ, ये कहने लगे-व्याकुल न हो देवल! बस माँ का नाम मंत्र रटे जाओ। दोषों की न तो चिंता करो और न चिंतन। ये जैसे हैं बने रहने दो। बस माँ के मंत्र में अपनी अनन्यता बढ़ाते जाओ।
    
देवर्षि के वचनों ने मुझे हिम्मत दी। मेरी भक्ति अनन्यता के पथ पर बढ़ चली। ध्यान तो मेरा लगता नहीं था, बस मंत्र रटन थी। इस रटन को मैं प्रगाढ़ करता गया। कुसंस्कारों की कठोर ठोकरें मुझे जितनी चोटें पहुँचातीं, उतनी ही व्याकुलता से मैं माँ को पुकारता। कष्ट जितने बढ़ते मेरी पुकार उतनी ही बढ़ती। धीरे-धीरे मुझमें भरोसा आया कि माँ मेरा, मुझ पाप-पंक में पड़े अपने इस अधम संतान का अवश्य उद्धार करेगी। मैं तो बस बार-बार यही रटता था-

आपत्सु मग्नः स्मरणं त्वदीयं,
करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि।
नैतच्छठत्वं मम भावयेथाः,
क्षुधा तृषार्ता जननीं स्मरन्ति॥
    
हे माता दुर्गे! करुणासिंधु महेश्वरी! मैं विपत्तियों में फँसकर आज जो तुम्हारा स्मरण करता हूँ, इसे मेरी विनती मानना; भूख-प्यास से पीड़ित बालक माता का ही स्मरण करते हैं।
    
और सच में ही माता ने मेरी पुकार सुन ली। वृत्तियों की चपलता कब शान्त हुई, कब चित्त निरुद्ध हुआ, पता ही नहीं चला। अब तो समस्त भुवनों में वही भुवनेश्वरी झलकती हैं।’’ महर्षि देवल ने अपनी भक्तिकथा समाप्त करते हुए सभी की ओर देखा। सबकी आँखों में आँसू थे, ये प्रेमाश्रु थे। इन भावबिन्दुओं में सभी की भक्ति छलक रही थी।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ४६

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...