मंगलवार, 28 जून 2016

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 60):--- 👉 संवाद की पहली शर्त-वासना से मुक्ति


🔴 जो सुनना जानते हैं, उन्हें तो शान्तिकुञ्ज की धरती से साधना का संगीत उभरता नजर आता है। जहाँ गुरुदेव और वन्दनीया माता जी जैसे महायोगी रहे, चले और यहीं धूल में उन्होंने अपनी देह विलीन कर दी, वह धरती साधारण कैसे हो सकती है? बस जरूरत सुनने वालों की है। अगर ये हो तो फिर हवाओं में भी उन्हें महर्षियों के स्वर गुंजते सुनायी देंगे। ध्वनि हवाओं से ही तो बहती है और किसी भी हाल में यह मरती मिटती नहीं। यदि हमने अपनी श्रवण शक्ति को सूक्ष्म कर लिया है तो युगों पूर्व के स्वरों को भी सुना जा सकता है। इतना ही नहीं हवाओं की मरमर में दैवी वाणी भी सुनायी पड़ सकती है।

🔵 रही बात जल की तो इसकी महिमा तो धरती और वायु से भी ज्यादा है। जल की ग्रहणशीलता अति सूक्ष्म है। आध्यात्मि शक्ति के लिए, जल से बड़ा सुचालक और कोई नहीं। यही वजह है मंत्र से अभिमंत्रित जल चमत्कारी औषधि का काम करता है। यही कारण है कि प्राचीन महर्षियों ने नदियों के किनारे अपने आश्रम बनाये थे। उन्होंने ऐसा इसलिए किया था क्योंकि उनकी तप शक्ति नदियों के जल में चिरकाल तक संरक्षित रह सके। और युगों- युगों तक लोग उसमें स्नान करके धन्यभागी हो सके। तीर्थ जल आज भी साधक से संवाद करते हैं। गंगा- यमुना की सूक्ष्म चेतना का अस्तित्त्व अभी है। हां उनकी स्थूल कलेवर को इन्सान ने आज अवश्य बरबाद कर दिया है।
       
🔴 यदि अभी किसी में इतनी पात्रता नहीं है, तो उसको पवित्र पुरुषों के पास जाकर सत्य को सीखना चाहिए। पवित्र पुरुष सभी बन्धनों से मुक्त होते हैं। उनकी स्थूल देह केवल छाया भर होती है। इसलिए पूछने वालों को उनके दैहिक व्यापारों एवं व्यवहारों पर नजर नहीं रखनी चाहिए। अन्यथा अनेकों तरह के भ्रम व सन्देह की गुंजाइश बनी रहती है। जो इन पवित्र पुरुषों को देह के पार देख सकता है, उनकी परा चेतना की अनुभूति कर सकता है, वही उनसे संवाद कर सकता है। अगर ऐसा नहीं है तो उसे संसार भर के पवित्र पुरुष उसे अपनी ही भांति साधारण रोगी या वासनाओं से भरे नजर आएँगे। यही वजह है कि इनसे संवाद की पहली शर्त है कि हम स्वयं वासना मुक्त हों। वासना मुक्त होने पर इस संवाद के स्वर हमसे क्या कहेंगे- आइये इसे अगले सूत्र में जानें।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/savad


Boya Kata - Pt Shriram Sharma Acharya- Lecture 1984
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👉 आत्मिक प्रगति के तीन अवरोध (भाग 2)


🔴 बच्चे उत्पन्न करने से पहले तो हजार बार विचार किया जाना चाहिए कि अपनी शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और पारिवारिक स्थिति सुयोग्य और समर्थ नये नागरिक प्रस्तुत कर सकने की है या नहीं। यह एक बहुत बड़ा उत्तरदायित्व हैं जिसे पूरा करने का साहस मात्र समर्थ लोगों को ही करना चाहिए। प्रत्येक बच्चा अपनी माता पर शारीरिक दबाव डालता है, पिता पर आर्थिक बोझ लादता है, राष्ट्र से अपनी आवश्यकताओं के नये साधन जुटाने की माँग करता है। किसी जमाने में जनसंख्या कम थी और उत्पादन बढ़ाने के लिए नये नागरिकों की आवश्यकता अनुभव की जाती थी। आज तो स्थिति बिलकुल उलट गई। बढ़ी हुई जनसंख्या के लिए निर्वाह के साधन जुटाना अति कठिन हो रहा है।

🔵 हर समझदार व्यक्ति का कर्तव्य है कि भौतिक सुव्यवस्था एवं आत्मिक प्रगति के दोनों प्रसंगों का ध्यान रखते हुए वासना पर-संतानोत्पादन पर अधिकाधिक नियन्त्रण रखे और उस अपव्यय से सामर्थ्य को बचाकर ऐसे कार्यों में लगाये जिनसे आत्मिक प्रगति और लोक कल्याण का दुहरा प्रयोजन सिद्ध हो सके।

🔴 दूसरा अवरोध हैं-तृष्णा-वित्तेषणा। धन की उपयोगिता असंदिग्ध है। उसके उपार्जन का औचित्य सर्वत्र समझा जाता है और हर व्यक्ति अपने-अपने ढंग से उसकी पूर्ति भी करता है। उचित मार्ग से कमाया हुआ और उचित प्रयोजनों में खर्च किया गया धन सराहनीय ही माना जाता है। गड़बड़ी तब उत्पन्न होती है जब वह अनुचित तरीकों से कमाया जाता है और उसका उपयोग विलासिता में, दुर्व्यसनों में, उद्धत प्रदर्शनों में किया जाता है। अनीति उपार्जन की तरह अपव्यय भी निन्दनीय है। जिस समाज के हम अंग हैं उसी की स्थिति के अनुरूप औसत दर्जे का माप दण्ड अपनाते हुए सादगी की रीति-नीति अपनानी चाहिए।

🔵 ‘सादा जीवन उच्च विचार’ के सिद्धान्त को भली प्रकार समझा जाना चाहिए। अमीरी का रहन-सहन मनुष्य को उठाता नहीं गिराता है। इससे असमानता की खाई उत्पन्न होती है। दुर्व्यसन बढ़ते हैं और ईर्ष्या-द्वेष भरा कलह संघर्ष खड़ा होता है। अस्तु उचित यही है कि कठोर श्रम पूर्वक कमाएँ और उसमें सादगी से, औचित्य की मात्रा का ध्यान रखते हुए सादगी की निर्वाह नीति अपनाएँ। जो बचता हो उसका कृपणता पूर्वक संग्रह न करें वरन् संसार से पीड़ा और पतन कम करने के लिए उदारता पूर्वक उसका उपयोग मुक्त हस्त से करते रहें।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1977 पृष्ठ 17
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1977/October.17


Boya Kata - Pt Shriram Sharma Acharya- Lecture 1984
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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...