शनिवार, 15 अप्रैल 2023

👉 क्रोध हमारा आन्तरिक शत्रु है (भाग 3)

वैर पुरानी जीर्ण मानसिक बीमारी है, क्रोध तत्कालीन और क्षणिक प्रमाद है। क्रोध में पागल होकर हम सोचने का समय नहीं देखते, वैर उसके लिए बहुत समय लेता है। क्रोध में अस्थिरता, क्षणिकता, तत्कालीनता, बुद्धि का कुँठित हो जाना, उद्विग्नता, आत्म रक्षा, अहं की पुष्टि असहिष्णुता, दूसरे को दंडित करने की भावनाएं संयुक्त हैं। वैर में सोचने समझने प्रतिशोध लेने का समय होता है। हम अच्छी तरह सोचते हैं, कुछ समय लेते है और तब बदला लेते हैं। पं. रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में, “दुःख पहुँचने के साथ ही दुःखदाता को पीड़ित करने की प्रेरणा करने वाला मनोविचार क्रोध और कुछ काल बीत जाने पर प्रेरणा करने वाला भाव वैर है, किसी ने आपको गाली दी यदि आपने उसी समय उसे मार दिया तो आपने क्रोध किया। मान लीजिए कि वह गाली देकर भाग गया और दो महीने बाद आपको मिला। अब यदि आपने उससे बिना फिर गाली सुने, मिलने के साथ ही उसे मार दिया तो यह आपका वैर निकालना हुआ।”

वैर में धारणा शक्ति अर्थात् भावों को संचित कर मन में रोक रखने की शक्ति की आवश्यकता होती है। जिन प्राणियों में पुराने क्रोध का संचित रखने की शक्ति विद्यमान हैं, वे ही वैर कर सकते हैं। क्रोध तो पशु, पक्षी, मनुष्य, अर्थात् सभी प्राणियों को अस्थिर और पागल करने में पूर्ण समर्थ है किन्तु वैर यह कार्य नहीं कर सकता। वैर में स्थायित्व है।
क्रोध की मात्रा कम या अधिक, तेज या हलकी हो सकती है। चिड़चिड़ाहट क्रोध का हलका रूप है। साधारण भूलों या मामूली खराबियों, कमजोरियों या भद्दी बातों पर हम उद्विग्न तो होते हैं पर यह उग्रता उतनी तेज नहीं होती। थोड़ी देर रह कर शान्त हो जाती है। कभी हम अन्य किन्हीं कारणों से परेशान रहते हैं, कुछ अप्रिय हो जाने से दुःखी होते हैं, ऐसी मनोदशा में साधारण सी बात होते ही हम चिड़चिड़ा उठते हैं।

चिड़चिड़ाहट में सामान्य कारण ही उद्विग्नता उत्पन्न करने में समर्थ हैं। वह एक मानसिक दुर्बलता है जो अनेक कारणों से उत्पन्न हो सकती हैं। जिस व्यक्ति को पुनः पुनः डराया, धमकाया, या अधिक कार्य लिया जाय, क्रोध के अधिक अवसर प्राप्त हों और मन शान्त दशा में न आ सके, तो क्रोध स्वभाव का एक अंग बन जाता हैं। यह फिर जरा जरा सी असुविधा या कठिनाई में हलके रूप में प्रकाशित हुआ करता है।

.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति मई 1950 पृष्ठ 16

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👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 15 April 2023

‘पूजा करना-मंशा पूरी कराना’ यह बात प्रलोभन भर है, तथ्यपूर्ण नहीं। ईश्वर को हमें अपनी मर्जी पर चलाने में तभी सफलता मिल सकती है, जब हम पहले उसकी मर्जी पर चलना सीखें। प्रलोभन और प्रशंसा की कीमत पर भगवान् जैसी दिव्य चेतना को फुसलाकर अपना उल्लू सीधा करने में न आज तक किसी को सफलता मिली है और न भविष्य में किसी को मिलेगी।

समाज की हर अच्छाई-बुराई, उत्थान-पतन को भगवान् की इच्छा मानने वालों को या तो इस ज्ञान का अभाव रहा करता है कि परमात्मा की इच्छा में विकृति नहीं होती। वह सदा शुद्ध एवं प्रबुद्ध है, अस्तु उसकी इच्छाएँ भी शुद्ध, प्रबुद्ध ही होती हैं। निर्विकार परमात्मा की इच्छा में विकार का क्या प्रयोजन? अथवा वे वाक् चतुर ऐसे व्यक्ति होते हैं जो अपनी अकर्मण्यता अथवा उदासीनता की आलोचना का विषय बनने से बचने के लिए आत्यन्तिक आस्तिकता का अनुचित सहारा लिया करते हैं।

जिस दिन संसार से धर्म को सर्वथा मिटा दिया जाएगा, जिस दिन लोग आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक को मानना सर्वथा छोड़ देंगे, जिस दिन कर्मफल सिद्धान्त में लोगों की आस्था न रहेगी, जिस दिन परमात्मा की भक्ति द्वारा परमात्मा के गुणों को अपने भीतर धारण करने वाले धर्मात्मा लोग सर्वथा उत्पन्न होने बंद हो जाएँगे, उस दिन संसार से सच्चरित्रता उठ जाएगी।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...