वैर पुरानी जीर्ण मानसिक बीमारी है, क्रोध तत्कालीन और क्षणिक प्रमाद है। क्रोध में पागल होकर हम सोचने का समय नहीं देखते, वैर उसके लिए बहुत समय लेता है। क्रोध में अस्थिरता, क्षणिकता, तत्कालीनता, बुद्धि का कुँठित हो जाना, उद्विग्नता, आत्म रक्षा, अहं की पुष्टि असहिष्णुता, दूसरे को दंडित करने की भावनाएं संयुक्त हैं। वैर में सोचने समझने प्रतिशोध लेने का समय होता है। हम अच्छी तरह सोचते हैं, कुछ समय लेते है और तब बदला लेते हैं। पं. रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में, “दुःख पहुँचने के साथ ही दुःखदाता को पीड़ित करने की प्रेरणा करने वाला मनोविचार क्रोध और कुछ काल बीत जाने पर प्रेरणा करने वाला भाव वैर है, किसी ने आपको गाली दी यदि आपने उसी समय उसे मार दिया तो आपने क्रोध किया। मान लीजिए कि वह गाली देकर भाग गया और दो महीने बाद आपको मिला। अब यदि आपने उससे बिना फिर गाली सुने, मिलने के साथ ही उसे मार दिया तो यह आपका वैर निकालना हुआ।”
वैर में धारणा शक्ति अर्थात् भावों को संचित कर मन में रोक रखने की शक्ति की आवश्यकता होती है। जिन प्राणियों में पुराने क्रोध का संचित रखने की शक्ति विद्यमान हैं, वे ही वैर कर सकते हैं। क्रोध तो पशु, पक्षी, मनुष्य, अर्थात् सभी प्राणियों को अस्थिर और पागल करने में पूर्ण समर्थ है किन्तु वैर यह कार्य नहीं कर सकता। वैर में स्थायित्व है।
क्रोध की मात्रा कम या अधिक, तेज या हलकी हो सकती है। चिड़चिड़ाहट क्रोध का हलका रूप है। साधारण भूलों या मामूली खराबियों, कमजोरियों या भद्दी बातों पर हम उद्विग्न तो होते हैं पर यह उग्रता उतनी तेज नहीं होती। थोड़ी देर रह कर शान्त हो जाती है। कभी हम अन्य किन्हीं कारणों से परेशान रहते हैं, कुछ अप्रिय हो जाने से दुःखी होते हैं, ऐसी मनोदशा में साधारण सी बात होते ही हम चिड़चिड़ा उठते हैं।
चिड़चिड़ाहट में सामान्य कारण ही उद्विग्नता उत्पन्न करने में समर्थ हैं। वह एक मानसिक दुर्बलता है जो अनेक कारणों से उत्पन्न हो सकती हैं। जिस व्यक्ति को पुनः पुनः डराया, धमकाया, या अधिक कार्य लिया जाय, क्रोध के अधिक अवसर प्राप्त हों और मन शान्त दशा में न आ सके, तो क्रोध स्वभाव का एक अंग बन जाता हैं। यह फिर जरा जरा सी असुविधा या कठिनाई में हलके रूप में प्रकाशित हुआ करता है।
.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति मई 1950 पृष्ठ 16
वैर में धारणा शक्ति अर्थात् भावों को संचित कर मन में रोक रखने की शक्ति की आवश्यकता होती है। जिन प्राणियों में पुराने क्रोध का संचित रखने की शक्ति विद्यमान हैं, वे ही वैर कर सकते हैं। क्रोध तो पशु, पक्षी, मनुष्य, अर्थात् सभी प्राणियों को अस्थिर और पागल करने में पूर्ण समर्थ है किन्तु वैर यह कार्य नहीं कर सकता। वैर में स्थायित्व है।
क्रोध की मात्रा कम या अधिक, तेज या हलकी हो सकती है। चिड़चिड़ाहट क्रोध का हलका रूप है। साधारण भूलों या मामूली खराबियों, कमजोरियों या भद्दी बातों पर हम उद्विग्न तो होते हैं पर यह उग्रता उतनी तेज नहीं होती। थोड़ी देर रह कर शान्त हो जाती है। कभी हम अन्य किन्हीं कारणों से परेशान रहते हैं, कुछ अप्रिय हो जाने से दुःखी होते हैं, ऐसी मनोदशा में साधारण सी बात होते ही हम चिड़चिड़ा उठते हैं।
चिड़चिड़ाहट में सामान्य कारण ही उद्विग्नता उत्पन्न करने में समर्थ हैं। वह एक मानसिक दुर्बलता है जो अनेक कारणों से उत्पन्न हो सकती हैं। जिस व्यक्ति को पुनः पुनः डराया, धमकाया, या अधिक कार्य लिया जाय, क्रोध के अधिक अवसर प्राप्त हों और मन शान्त दशा में न आ सके, तो क्रोध स्वभाव का एक अंग बन जाता हैं। यह फिर जरा जरा सी असुविधा या कठिनाई में हलके रूप में प्रकाशित हुआ करता है।
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