गुरुवार, 7 जून 2018

👉 परमार्थ के निमित्त

इक संत कहे मे इक अनकहे मे, वो सदा लाभ मे ही रहेगा जो संत कहे मे रहेगा

🔷 बहुत समय पहले की बात है वत्स एक गाँव मे दो परिवार रहते थे एक का मुखिया रामप्रकाश और दुसरे का मुखिया जेठामल था! एक बार गाँव मे बाहर से कोई संत आये और गाँव मे प्रवचन हुआ तो एक दिन संत श्री कह रहे थे की सच्चा और अच्छा जीवन त्याग और तपस्या मे है! आप जो भी कमाओ अथवा तो आपको जो भी मिले उस मेसे परमार्थ के लिये कुछ न कुछ भाग जरूर निकालना!

🔶 यदि आप साधना भी करते हो तो उस साधना मेंसे भी अपनी श्रध्दानुसार परमार्थ के लिये कुछ न कुछ जरूर निकालना ताकि आपके आगे का मार्ग बने और आप धर्म-पथ पे सहजता से चल सको!

🔷 बहूत समय बीत गया और एक दिन रामप्रकाश और जेठामल की एक कार दुर्घटना मे एक साथ मृत्यु हो गई संयोगवश दोनो का ही बीमा था तो दोनो के ही परिवारों को पाँच पाँच लाख रुपये मिले दोनो के ही घर मे चार चार सन्तानें थी तो जेठामल के परिवार ने सवा सवा लाख रुपया आपस मे बाट लिया और रामप्रकाश के परिवार ने उस पाँच लाख में से एक लाख परमार्थ के निमित्त निकाला और एक एक लाख आपस मे बाट लिये!

🔶 रामप्रकाश के पुत्र बड़े संस्कारी थे और उन्होंने परमार्थ का एक अलग ही डिब्बा बना लिया और रोज अपनी श्रद्धानुसार उसमें कुछ न कुछ डालते थे! फिर भाग्य ने ऐसी करवट बदली की एक समय वो आया की वो दाने दाने को मोहताज हो गये अर्थ न था पर वो सभी रोज साधना का कुछ भाग अपनी श्रद्धानुसार परमार्थ के लिये जरूर निकालते थे!

🔷 फिर भाग्य ने करवट बदली और एक दिन जेठामल और रामप्रकाश के घर मे सफाई का कार्य चल रहा था तो वहाँ उन्हे पाँच पाँच सोने की ईंटें मिली! और कुछ सालो बाद रामप्रकाश का परिवार एक बहुत ऊँचे ओहदे पर पहुँच गया और उधर जेठामल का पुरा परिवार तबाही के सागर मे समा गया!

🔶 जब उन पाँच ईंटों का बँटवारा चल रहा था तो रामप्रकाश के परिवार वालों की बड़ी ईच्छा थी कई वर्ष हो गये परमार्थ के निमित्त कुछ निकला नही तो रामप्रकाश के परिवार ने एक ईंट परमार्थ के निमित्त निकाल दी और उधर जेठामल के परिवार वालों ने एक एक ईंट तो ले ली पर बची उस एक ईंट के चक्कर मे उनमें आपस मे विवाद हो गया और फिर चारों भाई आपस मे लड़ने लगे और विवाद इतना बड़ा की चारों कोर्ट कचहरियों के चक्कर मे उलझ गये और कई सालो तक वो आपस मे कोर्ट कचहरी मे लड़ते रहे और जो कुछ भी उनके पास था सब कुछ कोर्ट कचहरी के चक्कर मे चला गया!

🔷 यदि उन्होंने विवेक से काम लिया होता तो सबकुछ बर्बाद न होता! संत श्री ने तो दोनो को ही समझाया था की परमार्थ के निमित्त कुछ न कुछ निकालते रहना! पर एक संत के कहे मे रहा और दुसरा स्वार्थ के घेरे मे! आज यहाँ इंसान एक एक इंच जमीन के चक्कर मे अपनी अनमोल मानव देह को बर्बाद कर रहा है!

🔶 इसलिये नित्य प्रतिदिन अपनी श्रद्धानुसार चाहे धन चाहे तप चाहे जप अथवा तो कुछ भी परमार्थ के निमित्त कुछ न कुछ जरूर निकालते रहे ताकि तुम्हारा आगे का मार्ग प्रशस्त हो और ये बहुत जरूरी भी है क्योंकि इसी से भाग्य के पत्थर हटेंगे और आगे की राह खुलेगी!

🔷 परमार्थ के निमित्त निकाला हुआ कभी व्यर्थ नही जाता देर सवेर वो हमारे ही काम आता है!

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 8 June 2018


👉 आज का सद्चिंतन 8 June 2018


👉 विचारों को पवित्र रखो

🔷 “अपने विचारों को पवित्र रखो” धर्म का समस्त तत्व इसी एक वाक्य में छिपा हुआ है। अन्याय विधान तो धर्म की भूमिका और शब्दाडम्बर मात्र है। क्रोध, कटु भाषण, ईर्ष्या और लोभ से बचना यही तो धर्म प्राप्ति का मार्ग है। सदैव शुभ कर्म करने में प्रवृत्त रहो परोपकार को कार्यों में पूरी शक्ति और पूरा उत्साह लगाना यही तो कर्तव्य है। नेकी से बढ़कर न तो काई धर्म है और न बदी से बढ़कर कोई पाप। यह मत पूछो कि धर्म से क्या लाभ है? जिज्ञासुओं!

🔶 धर्म से उत्पन्न होने वाला सुख ही सच्चा सुख है। अन्य सुख तो विडम्बना मात्र हैं। यदि तुम एक क्षण भी व्यर्थ खोए बिना जीवन भर नेक काम करते रहो तो निश्चय ही एक दिन जन्म मरण की फंसी से छूट जाओगे। धर्म के पथ पर आरुढ़ होने में एक पल का भी विलम्ब मत लगाओ। आज से ही सेवा मार्ग को अपनालो, ऐसा न हो कि ‘कल करूंगा’ सोचते सोचते मृत्यु तुम्हारा गला दबाले और जनम जन्मान्तरों तक साथ रहने वाले धर्म रूपी अमर मित्र को प्राप्त करने से वंचित रह जाओ।

.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति, नवम्बर 1955 पृष्ठ 1

👉 Maharshi Kanad

🔷 Maharshi Kanad, the founder of the Vaishashik School of Indian Philosophy was a renowned thinker and teacher of his times. He got the name ‘Kanad’ because of the ascetic practice of eating only the kanas (grains) of food. He used to collect the  small quantities of food grains left scattered in the fields after the farmers had reaped the ripe crop. This was the source of nourishment for him for the entire season. When the king of the land heard about this severe austerity of Maharshi’s life, he sent substantial gifts of wealth and food for the latter. Maharshi Kanad warmly welcomed the bearers of the gifts but politely refused to accept the royal gifts. He said-“I am very happy with my present mode of living.

🔶 I do not need anything more. You may kindly distribute all these gifts among the needy”. The king vainly tried twice again to arrange for some material help for this great seer-sage. Finally he himself went to the Maharshi with abundant material wealth and provisions and requested him to accept at least a part of the bounty. Kanad then explained to him with due respect- “I am an Acharya, the sole motive of whose life is the acquiring and sharing of knowledge. I need abundance of sadhana (devout endeavor towards spiritual enlightenment) rather than abundance of sadhans (materialistic resources) to fulfil my duties and achieve the goal of my life. So please do not bring any well or other materialistic bounties to me. Give a to those who really need it.”
  
🔷 The king returned, himself enriched with wisdom. He had now comprehended that true meaning of the word “Acharya” and understood that the glory of the title life lies in the sadhana and not in the accumulation of sadhans.

📖 From Pragya Puran 

👉 ईर्ष्या नहीं, स्पर्द्धा करो

🔷 दूसरों के दुःख से तो बहुत से लोग दुःखी होते हैं पर कुछ दुष्ट स्वभाव के ऐसे लोग भी हैं जो दूसरों को सुखी देख कर भी दुःखी होते हैं। ऐसे लोगों को ईर्ष्यालु कहते हैं। स्वभाव का यह दुर्गुण विचारों को भी नष्ट करता है और शरीर को भी। ईर्ष्यालु व्यक्ति दूसरों को सुखी, सम्पन्न या सफल मनोरथ देखकर मन ही मन जलते हैं और उनकी सम्पन्नता नष्ट करने का प्रयत्न करते हैं। ऐसे मनुष्य व्यर्थ में शत्रुता मोल ले बैठते हैं और शरीर से रोग भी लगा लेते हैं। एक कहानी है कि एक बार कुछ लोग एक बहुत ही दुबले-पतले आदमी को पकड़ कर राजा भोज के पास लाये। राजा ने उससे उसकी इस दशा का कारण पूछा, तो उसने उत्तर दिया कि बाल्यावस्था में, मैं आपका सहपाठी था।

🔶 आपकी बुद्धिमत्ता और योग्यता आदि के कारण उस समय मैं आपसे ईर्ष्या करता था। आपके राजा होने के उपरान्त मेरी ईर्ष्या और भी बढ़ गई है, आपका वैभव, यश देखकर मेरे शरीर में आग लग जाती है। आपका दान, यश और वैभव आदि को देखकर मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। यही मेरी दुर्दशा का कारण है। तब राजा ने बढ़िया मकान, सेवा के लिए सेवक और धन देकर कहा कि तुम किसी प्रकार की चिन्ता न करना और जिस चीज की आवश्यकता हो माँग लेना। कुछ दिनों के उपरान्त राजा ने उसे फिर से देखना चाहा तो उस समय भी उसकी दशा पहले जैसी थी। कारण पूछने पर उसने कहा, सब सुख सामग्री मेरे पास है केवल अधिकार नहीं है। राजा ने उसे एक उच्च पद पर नियुक्त करके उसकी यह कामना भी पूरी करदी। पर इससे भी उसकी संतुष्टि नहीं हुई। अन्त में जागीरें तक दी गईं पर वह ज्यों का त्यों रोगी और दुर्बल बना रहा। अन्त में उसने कहा कि मैं आपके सिंहासन पर बैठूँगा। राजा ने समझ लिया कि इस ईर्ष्या के कारण यह अवश्य मर जायेगा, और अन्त में हुआ भी यही वह ईर्ष्या के कारण कुढ़-कुढ़ कर मर गया!

🔷 ईर्ष्यालु मनुष्य सदा दूसरों की प्रतिष्ठा या वैभव आदि को नष्ट करने में लगा रहता है। वह दूसरों की बातचीत का गलत अर्थ निकाला करता है और दूसरे के कार्यों का अभिप्राय उसकी समझ में बुरा और दुष्ट होता है। वह दूसरों का अपकार करने का अवसर ढूंढ़ा करता है। ऐसा व्यक्ति कितना भयानक घातक और बुरा होता है बतलाने की आवश्यकता नहीं है। इससे सदा बचना चाहिये। हाँ, ईर्ष्या का एक सात्विक रूप भी होता है उसे स्पर्द्धा कहते हैं और जो बहुत ही श्रेष्ठ और लाभदायक होती है। अपने गुणों के साथ अपने से श्रेष्ठ किसी गुणी के गुणों का मिलान करने और अपने आपको उसके समान गुणी बनाने की इच्छा का नाम स्पर्द्धा है।

🔶 ईर्ष्या की भाँति इसमें दूसरों के गुणों या वैभव आदि के ह्रास का दुष्टभाव, मन पर नहीं पड़ता, बल्कि साधु उपायों से उनके समकक्ष बनने की सात्विक और प्रशंसनीय कामना होती है। इससे मनुष्य की आत्मा अविकारमय होकर उन्नत होती है। उसके गुणी ओर यशस्वी होने में उत्तेजना मिलती है। ऐसे मनुष्यों का लक्ष्य सदा महान पुरुषों पर ही रहता है और स्वयं उसके महान बनने में अधिक विलम्ब नहीं लगता। उसके उद्देश्य साफ और महत्वपूर्ण होते हैं और संसार में उसके यश, वैभव और प्रतिष्ठा का अच्छा विस्तार होता है।

📖 अखण्ड-ज्योति फरवरी 1956 पृष्ठ 11

👉 मृतक भोज के सम्बन्ध में इस प्रकार भी सोचें (भाग 2)

🔷 इस मान्यता में कोई तथ्य नहीं कि घर में बहुत लोगों के भोजन करने से सूतक दूर होता और घर पवित्र होता है। कई बार इसी मान्यता के कारण बहुत से भाई किसी एक भाई के घर जाकर और खाकर पवित्र करते हैं। यदि ऐसा ही हो तो एक बड़े भोज का दण्ड देने के बजाय किसी ऐसी वस्तु की व्यवस्था की जा सकती है जिसमें किसी गरीब आदमी का बहुत कुछ खर्च न हो। ऐसी वस्तुओं से शक्कर या गुड़, शरबत जैसी वस्तुओं तक सीमित रहा जा सकता है।

🔶 पुण्य पर प्रभाव पड़ने के कारण ही अच्छे और सच्चे सन्त महात्मा किसी का दान लेने अथवा अन्न खाने से यथासम्भव बचा करते हैं दान लेना और दान रूप अन्न को खाना पचाना सबके वश की बात नहीं है। इन दोनों चीजों का प्रभाव मनुष्य की आत्मा पर अवश्य पड़ता है वह सुनिश्चित तथ्य एवं सत्य है। किन्तु इसका प्रभाव इतने परोक्ष एवं सूक्ष्म रूप से पड़ता है कि साधारण विवेक का व्यक्ति उसे देख जान नहीं पाता। उसका पता तब चल पाता है जब सारे संस्कार विकृत हो जाते हैं और मनुष्य अपने आचरण में एक बड़ा और विपरीत परिवर्तन पाता है। किन्तु तब तक प्रभाव इतना गहरा हो चुका होता है कि उसको मिटा सकना टेढ़ी खीर बन जाता है। यही कारण है कि बुद्धिमान लोग दान रूप अन्न को समझ बूझकर ही खाते हैं।

🔷 यह व्यवस्था तो उस अन्न की है जिसमें देने अथवा खिलाने वाले की आत्मिक श्रद्धा तथा प्रसन्नता रहा करती है। इसके विपरीत जिन अन्य भोजन अथवा अन्न दान में देने वाले की श्रद्धा भक्ति तो दूर उल्टे पीड़ा पूर्ण आहें जुड़ी रहती हैं उसके भयंकर प्रभाव का तो अनुमान ही नहीं लगाया जा सकता और निश्चय ही मृतक भोज का दण्ड भुगतने वाले की आत्मा के आंसू उसमें सम्मिलित रहते हैं। भले ही मजबूरन कोई प्रथा-पालन की विवशता में मृतक भोज दें और कितनी ही प्रसन्नता क्यों न दिखाये और खाने वालों को धन्यवाद देकर आभार प्रकट करे, पर वास्तविकता यही होती है कि यह सारा शिष्टाचार ऊपरी होता है भोज देने वाला मन ही मन रोया करता होगा। एक तो जिसका कोई स्वजन मर गया हो दूसरे उसे ऊपर से अपनी सामर्थ्य के बाहर मृतक भोज जैसे आर्थिक दण्ड को भुगतना पड़े और तब जब किसी की मृत्यु में उसका कोई अपराध नहीं, कोई हाथ नहीं, तो वह रोयेगा नहीं क्या हंसेगा, खुश होगा? वह न सही उसकी मूक आत्मा अवश्य ही इसके लिये समाज को कोसेगी। इसलिये, इस प्रकार मृत्यु-भोज का अन्न किसी भी खाने वाले के लिये हितकर नहीं है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 भारतीय संस्कृति की रक्षा कीजिए पृष्ठ 83

👉 गुरुगीता (भाग 126)

👉 सर्वसंकटहारिणी गुरूगीता की मंत्र साधना
🔷 गुरूगीता की मंत्र साधना सर्वसंकट हारिणी है। जिसने भी गुरूगीता का पाठ अनुष्ठान किया, उन सभी के अनुभव आश्चर्यकारी रहे हैं। गुरूगीता की मंत्र माला, गुरूतत्त्व का बोध, शिष्य प्रबोध एवं तत्त्व चर्चा के साथ अनेकों मांत्रिक रहस्य भी हैं। जो इन रहस्यों को जानकर उनका प्रयोग करना सीख जाता है, वह कभी भी दुस्तर संकट के जाल में नहीं उलझता, कु्रर ग्रहों की पीड़ाएँ उसे कभी नहीं सतातीं। दुःख और दुर्भाग्य उसे छू तक नहीं पाते। गुरू चेतना है ही सारे आश्चर्यों ,चमत्कारों व अलौकिक शक्तियों का घनीभूत पुञ्ज। बात बस केवल अनुभव की है। अब तक ये अनुभव अनेकों ने किए हैं और अनगिनत अभी कर सकते हैं। अनुभवी साधकों के मध्य यह बहुत ही सुप्रचलित वाक्य है कि जब गुरूगीता है, तब भला अन्य शास्त्रों व साधनाओं के विस्तार से क्या लाभ?

🔶 गुरूगीता के पिछले क्रम में इस साधना रहस्य के कई गूढ़ संकेत किए गए हैं। इसमें बताया गया है कि समुद्र में जिस तरह से जल, दुग्ध में दुग्ध ,घृत में घृत, घड़े का आकाश घड़े के फूट जाने से घड़े में मिल जाता है, उसी तरह से आत्मा परमात्मा में लीन हो जाता है। गुरूगीता की साधना से जीवात्माएँ जिस एकता का अनुभव करती हैं, वह उन्हें दिन- रात आनन्द में विभोर रखती है और वह जीवन मुक्ति का आनन्द उठाता है। ऐसी महनीय विभूतियों की जो भाव- भक्ति करता है, वह सन्देह रहित होकर सभी आध्यात्मिक -लौकिक सुख प्राप्त करता है, वह सन्देह रहित होकर सभी आध्यात्मिक -लौकिक सुख प्राप्त करता है, उसे भोग एवं मोक्ष मिलते हैं, उसकी जिह्वा पर सरस्वती निवास करती है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 190

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...