सोमवार, 30 दिसंबर 2019

👉 ज्ञान की प्राप्ति

ज्ञान की चाहत बहुतों को होती है, पर ज्ञान की प्राप्ति विरले करते हैं। दरअसल ज्ञान और ज्ञान में भारी भेद है। एक ज्ञान है-केवल जानकारी इकट्ठी करना, यह बौद्धिक समझ तक सीमित है और एक ज्ञान है-अनुभूति, जीवन्त प्रतीति। एक मृत तथ्यों का संग्रह है, जबकि दूसरा जीवन्त सत्य का बोध है। इन दोनों में बड़ा अन्तर है-पाताल और आकाश जितना, अंधकार और प्रकाश जितना। सच तो यह है कि बौद्धिक ज्ञान कोई ज्ञान ही नहीं है, यह तो बस ज्ञान का झूठा अहसास भर है। भला अंधे व्यक्ति को प्रकाश का ज्ञान कैसे हो सकता है? बौद्धिक ज्ञान कुछ ऐसा ही है।
  
ज्ञान के इस झूठे अहसास से अज्ञान ढँक जाता है। इसके शब्द जाल एवं विचारों के धुएँ में अज्ञान विस्मृत हो जाता है। यह तथाकथित ज्ञान अज्ञान से भी घातक है, क्योंकि अज्ञान दिखता हो तो उससे ऊपर उठने की चाहत पैदा होती है। पर वह न दिखे तो उससे छुटकारा पाना सम्भव नहीं रहता। ऐसे तथाकथित ज्ञानी अज्ञान में ही मर-खप जाते हैं।
  
सच्चा ज्ञान कहीं बाहर से नहीं आता, यह भीतर से जागता है। इसे सीखना नहीं उघाड़ना होता है। सीखा हुआ ज्ञान जानकारी है, जबकि उघाड़ा हुआ ज्ञान अनुभूति है। जिस ज्ञान को सीखा जाय, उसके अनुसार जीवन को जबरदस्ती ढालना पड़ता है। फिर भी वह कभी सम्पूर्णतया उसके अनुकूल नहीं बन पाता। उस ज्ञान और जीवन में हमेशा एक अंतर्द्वन्द्व बना ही रहता है। पर जो ज्ञान उघाड़ा जाता है उसके आगमन से ही आचरण सहज उसके अनुकूल हो जाता है। सच्चे ज्ञान के विपरीत जीवन का होना एक असम्भावना है। ऐसा कभी हो ही नहीं सकता।
  
श्री रामकृष्ण परमहंस अपने शिष्यों को एक कथा सुनाते थे। एक घने बीहड़ वन में दो मुनि जा रहे थे। सांसारिक सम्बन्धों की दृष्टि से वे पिता-पुत्र थे। पुत्र आगे चल रहा था, पिता पीछे था। तभी वन में सिंह का गर्जन सुनाई दिया। ब्रह्मज्ञान की बातें करने वाले पिता को घबराहट हुई, उसने पुत्र को सचेत किया- चलो! कहीं पेड़ पर चढ़ जाएँ, आगे खतरा है। पुत्र पिता की इन बातों पर हँसा। हँसते हुए वह बोला-आप तो हमेशा यही कहते रहे हैं कि शरीर नश्वर है और आत्मा अमर, साक्षी और द्रष्टा है। फिर भला खतरा किसे है, जो नश्वर है वह तो मरेगा ही और जो अमर है उसे कोई मार नहीं सकता। पर पिता के मुख में भय की छाया गहरा चुकी थी। अब तक वह पेड़ पर जा चढ़ा था। इधर पुत्र पर सिंह का हमला भी हो गया, पर वह हँसता रहा। अपनी मृत्यु में भी वह द्रष्टा था। उसे न दुःख था और न पीड़ा, क्योंकि उसे ज्ञान की प्राप्ति हो चुकी थी, जबकि उसके पिता के पास ब्रह्मज्ञान ज्ञान का झूठा अहसास भर था। इसीलिए कहा जाता है कि ज्ञान की प्राप्ति विरल है।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १४८

👉 अन्तराल के परिशोधन की प्रायश्चित प्रक्रिया (भाग ३)

आत्मा को कितना ही कुचला जाय वह न मरने वाली है और न हार मानती है। अनसुनी, उपेक्षित पड़ी रहने पर भी अन्तरात्मा की विरोधी आवाज उठती ही रहती है। दुष्कर्म करते समय जी धड़कता और पैर काँपते हैं। यह स्थिति कितनी ही दुर्बल क्यों न कर दी जाय, उसका अस्तित्व बना ही रहेगा और झंझट तब तक चलता ही रहेगा, जब तक दुष्प्रवृत्तियाँ उस घुसपैठ से अपना पैर वापस न लौटा लें।

अन्तर्द्वन्द्व जीवन की शान्ति और सुव्यवस्था को नष्ट करते हैं। प्रगतिपथ अवरुद्ध करते हैं और भविष्य को अन्धकारमय बनाते हैं। पापों की परिणति से किसी भी बहाने बचा नहीं जा सकता। यह शारीरिक संविधान की सामान्य क्रिया पद्धति हुई। इसके अतिरिक्त समाजगत, प्रकृतिगत एवं ईश्वरीय व्यवस्था के और भी ऐसे कितने ही आधार हैं, जिनके कारण कुमार्गगामी को अपने दुष्कृत्यों के दण्ड अनेक प्रकार से भुगतने के लिए विवश होना पड़ता है।

राजदण्ड की व्यवस्था इसीलिए है कि दुष्कर्मों की आवश्यक रोकथाम की जा सके और अनीति बरतने वालों को उनकी करतूतों का मजा चखाया जा सके। पुलिस, कचहरी, जेल, फाँसी आदि की शासकीय दण्ड व्यवस्था का अस्तित्व मौजूद है। चतुरता बरतने पर भी लोग अक्सर उसकी पकड़ में आ जाते हैं और आर्थिक, शारीरिक, मानसिक दण्ड भुगतते हैं, बदनामी सहते और नागरिक अधिकारों से वंचित होते हैं।

इतने पर भी पीछा नहीं छूटता। शारीरिक व्याधि और मानसिक आधि उन्हें घेरती है और तिल-तिल करके रेतने, काटने जैसा कष्ट देती है। शरीर पर मन का अधिकार है। अचेतन मन के नियन्त्रण में आकुंचन-प्रकुंचन, निमेष-उन्मेष, श्वास-प्रश्वास, रक्त-संचार, ग्रहण-विसर्जन आदि अनेकों स्वचालित समझी जाने वाली गतिविधियाँ चलती हैं। चेतन मन की शक्ति से ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ काम करती हैं। शरीर तभी तक जीवित है जब तक उसमें चेतना का अस्तित्व है। प्राण निकलते ही शरीर सड़ने और नष्ट होने लगता है। चेतना का केन्द्र स्थान मस्तिष्क है। मन के रूप में ही हम चेतना का अस्तित्व देखते एवं क्रिया-कलापों का अनुभव करते हैं। यह संस्थान मनोविकारों से पाप-ताप एवं कषाय-कल्मषों से विकृत होता है तो उसका प्रभाव शारीरिक आरोग्य पर भी पड़ता है और मानसिक सन्तुलन पर भी। नवीनतम वैज्ञानिक शोधों का निष्कर्ष यह है कि बीमारियों का केन्द्र पेट या रक्त में न होकर मस्तिष्क में रहता है। मन गड़बड़ाता है तो शरीर का ढाँचा भी लड़खड़ाने लगता है। बीमारियों में नित नई शोध होती है और आये दिन एक से एक प्रभावशाली उपचार ढूँढ़े जाने की घोषणाएँ होती हैं। अस्पताल तेजी से बढ़ रहे हैं और चिकित्सकों की बाढ़ आ रही है। आधुनिकतम उपचार भी खोजे जा रहे हैं, इतने पर भी स्वास्थ्य समस्या का समाधान निकल नहीं रहा है। तात्कालिक चमत्कार की तरह दवाएँ अपना जादू दिखाती तो हैं, पर दूसरे ही क्षण रोग अपना रूप बदलकर नई आकृति में फिर सामने आ खड़े होते हैं। यह स्थिति तब तक बनी रहेगी जब तक कि मानसिक विकृतियों के फलस्वरूप नष्ट होने और अगणित रोग उत्पन्न होने के तथ्य को स्वीकार नहीं कर लिया जाता।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 जीवन-सार्थकता की साधना—चरित्र (भाग ३)

काम-विषयक सदाचार चरित्र की सर्वश्रेष्ठ विशेषता और कसौटी मानी गई है। कुछ अर्थों में ‘‘चरित्र’’ शब्द से मर्यादित कामोपभोग का ही अर्थ लगाया जाता है। जिन देशों में स्त्री-पुरुषों के बीच की शील मर्यादाएं निश्चित नहीं, वहां भारी विश्रृंखल पैदा हुआ देखा जाता है। पाश्चात्य देश इस कुटिल प्रवंचना में ग्रसित होने के कारण अपना श्रेय खो चुके हैं। पाश्चात्य सिद्धान्तों पर आधारित इस घृणित दुष्प्रवृत्ति के कारण भारतीय संस्कृति और समाज कम अस्त-व्यस्त नहीं हुआ। इस विषैली कामुकता की दुर्भाग्यपूर्ण स्वच्छन्दता ने आज सारे सामाजिक ढांचे को ही खोखला कर दिया है। इसके दुष्परिणाम भी बुरी तरह से लोगों को आहत बनाने में लगे हैं। स्वास्थ्य की दुर्दशा, अशक्तता, अपहरण, हत्या और आत्म-हत्याओं के आज जितने दृश्य दिखाई दे रहे हैं उन सबका अधिकांश कारण मनुष्य का चारित्रिक पतन ही है। सदाचार की सीमायें जब तक निर्धारित न होंगी और दुराचार पर जब-तक प्रतिबन्ध न लगेगा तब-तक समाज में सुख शान्ति और व्यवस्था का स्थापित होना प्रायः असम्भव ही है।

भीतर-बाहर से पवित्र रहने, शुद्ध आचरण करने, श्रेष्ठ पुस्तकों के स्वाध्याय, सत्संग, शक्ति पुरुषार्थ, आत्मिक-प्रसन्नता के आधार पर ही मनुष्य की उन्नति सम्भव है। आत्म-नियन्त्रण, संयम और सम्भाषण से न केवल अपने को वरन् अपने पास-पड़ोस और सम्पर्क में आने वालों को भी सुख मिलता है। मानवता का विकास भी इसी से सम्भव है कि दूसरों को भी अपने ही समान समझें और सबके साथ सद्व्यवहार करें। यह सब चरित्रवान् व्यक्ति के लक्षण हैं। जिनके द्वारा दूसरों को भी आत्म-कल्याण की प्रेरणा मिले वही चरित्र के सच्चे धनी कहे जा सकते हैं।

पर-निन्दा, छिद्रान्वेषण, झूठ, छल, कपट, व्यभिचार, लोलुपता ये सब आसुरी प्रवृत्तियां हैं। इनसे विनाशकारी परिणाम ही उपस्थित होते हैं। पर आत्म-संयम और स्वत्वाभिमान के द्वारा वैयक्तिक व सामाजिक सभी प्रकार की श्रेष्ठताओं का उदय होता है। चरित्र-साधना का मूलाधार मानसिक पवित्रता है। जीवन के प्रत्येक छोटे-मोटे व्यवसाय व क्रिया-कलापों में मानसिक स्थिति का प्रभाव पड़ता ही है। आत्मिक पवित्रता का परिणाम सदाचरण है जिससे सुख मिलता है। कुविचारों से कुकर्म उठ खड़े होते हैं, जिससे कष्ट, क्लेश और मुसीबतें आ उपस्थित होती हैं। इसलिए छोटे-से-छोटे कार्य में भी पवित्रता का भाव बनाये रखने से चारित्रिक-विकास होता है। प्रातःकाल सोकर उठने से दिन भर कार्यरत रहने और सायंकाल निद्रा-माता की गोद में जाने तक जितने कर्म हमें करने पड़ें उनमें पवित्रता का भाव बना रहे तो ही किसी को चरित्रवान् कहलाने का सौभाग्य प्राप्त होता है। यह एक साधना है जिसकी सिद्धियां अनन्त हैं।

चरित्र का आधार धर्म है। मन, वचन और कर्म के धार्मिक कृत्यों के निर्वाह को सदाचार कहा जाता है। इससे चरित्र बनता है। मानवता से ओत-प्रोत भावनाओं से चरित्र की रक्षा सम्भव है। अतएव अपने जीवन में उदारतापूर्वक धार्मिक भावनाओं को धारण किए रहने से चारित्रिक-बल प्रगाढ़ बना रहता है। बुद्धि, धन या शरीर बल तब तक सुख नहीं दे सकते जब तक चरित्र में मानवता, बुद्धि में धर्मभाव और शरीर से सत्कर्म नहीं बन पड़ते।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1964 पृष्ठ 10

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1964/August/v1.10

http://literature.awgp.org/book/sukh_shanti_ki_sadhana/v1.12

👉 QUERIES ABOUT THE MANTRA (Part 6)

Q.6. How many “Onkars” are included in the Gayatri Mantra?

Ans.  Gayatri Mantra is complete in itself. It is not at all necessary to supplement it by assigning three or five ‘Oms’ by way of  beej Mantra or samput. This is done only in the Tantrik system. The common man should not  bother about some odd references in scriptures which justify prefixing, inter-fixing or suffixing more than one Onkars (Om) with the  Gayatri Mantra The practice of using more than one  Onkar was probably adopted by different sects as a mark of distinction (as followers of various sects use uniform, Tilak chhap marking on forehead etc. to identify themselves).  

The standard Guru-Mantra, Gayatri comprises of three Vyahritis and three phrases of eight letters each pre-fixed by Om. Om is in fact, a symbol of reverence preceding all Ved Mantras, as Mr., Mrs., Miss, etc. are prefixed to the names of persons. However, there is no restriction in using more than one  Onkars though the standard practice of pre-fixing one Onkar (Om) is recommended for maintaining uniformity.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 41

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...