शनिवार, 8 जुलाई 2017

👉 Lose Not Your Heart Day 8

🌹 Introspect

🔵 Whatever happens, let it happen. Whatever is said about you, let it be said. You should consider these things as illusory as a mirage. If you have really detached yourself from the world, then why should such things affect you? Focus on inspecting yourself thoroughly for weaknesses. Only then can you begin the process of growth.

🔴 Take advantage of every moment and every opportunity. Your path is very long, and time is very short. Concentrate your inner strength on reaching your goal.

🔵 Do not despair in any situation. Have faith not in the capacity of man, but in the capacity of God. God will show you the right path.

🌹 ~Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 9 July 2017


👉 आज का सद्चिंतन 9 July 2017


👉 हमारा युग निर्माण सत्संकल्प (भाग 23)

🌹  मर्यादाओं को पालेंगे, वर्जनाओं से बचेंगे, नागरिक कर्तव्यों का पालन करेंगे और समाजनिष्ठ बने रहेंगे।

🔴 अनियंत्रित मनुष्य कितना घातक हो सकता है, इसकी कल्पना मात्र से सिहरन होती है। जिन असुरों, दानवों, दस्युओं, दुरात्माओं के कुकृत्यों से मानव सभ्यता कलंकित होती रहे है, वे शक्ल-सूरत से तो मनुष्य ही थे, पर उन्होंने स्वेच्छाचार अपनाया, मर्यादाओं को तोड़ा, न धर्म का विचार किया, न कर्तव्य का। शक्तियों के मद में जो कुछ उन्हें सूझा, जिसमें लाभ दिखाई दिया, वही करते रहे, फलस्वरूप उनका जीवन सब प्रकार घृणित और निकृष्ट बना रहा। उनके द्वारा असंख्यों का उत्पीड़न होता रहा। असुरता का अर्थ ही उच्छृंखलता है।

🔵 मर्यादाओं का उल्लंघन करने की घटनाएँ, दुर्घटनाएँ कहलाती हैं और उनके फलस्वरूप सर्वत्र विक्षोभ भी उत्पन्न होता है। सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र, पृथ्वी सभी अपनी नियत कक्षा और धुरी पर घूमते हैं, एक दूसरे के साथ आकर्षण शक्ति में बँधे रहते हैं और एक नियत व्यवस्था के अनुरूप अपना कार्यक्रम जारी रखते हैं। यदि वे नियत व्यवस्था के अनुरूप अपना कार्यक्रम जारी रखें, तो उसका परिणाम प्रलय ही हो सकता है। यदि ग्रह मार्ग में भटक जाएँगे तो एक दूसरे से टकराकर विनाश की प्रक्रिया उत्पन्न कर देंगे। मनुष्य भी जब अपने कर्तव्य मार्ग से भटकता है तो अपना ही नहीं, दूसरे अनेकों का नाश भी करता है।

🔴  परमात्मा ने हर मनुष्य की अंतरात्मा में एक मार्गदर्शन चेतना की प्रतिष्ठा की है, जो उसे हर उचित कर्म करने की प्रेरणा एवं अनुचित करने पर भर्त्सना करती रहती हैं। सदाचरण कर्तव्यपालन के कार्य, धर्म या पुण्य कहलाते हैं, उनके करते ही तत्क्षण करने वाले को प्रसन्नता एवं शांति का अनुभव होता है। इसके विपरीत यदि स्वेच्छाचार बरता गया है, धर्म मर्यादाओं को तोड़ा गया है, स्वार्थ के लिए अनीति का आचरण किया गया है, तो अंतरात्मा में लज्जा, संकोच, पश्चाताप, भय और ग्लानि का भाव उत्पन्न होगा। भीतर ही भीतर अशान्ति रहेगी और ऐसा लगेगा मानो अपना अंतरात्मा ही अपने को धिक्कार रहा है। इस आत्म प्रताडऩा की पीड़ा को भुलाने के लिए अपराधी प्रवृत्ति के लोग नशेबाजी का सहारा लेते हैं। फिर भी चैन कहाँ, पाप वृत्तियाँ जलती हुई अग्नि की तरह हैं। जो पहले वहीं जलन पैदा करती है जहाँ उसे स्थान मिलता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गुरुपूर्णिमा पर्व पर - मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं- मोक्षमूलं गुरुकृपा

🔵 संत कबीर कहते है कि गुरु गोविन्द दोनों खड़े है। मैं पहले किसके चरण स्पर्श करूं? अंततः गुरु की बलिहारी लेते है कि है गुरुवर! यदि आप न होते तो मुझे गोविन्द की परमतत्त्व की ईश्वरत्व की प्राप्ति न हुई होती गुरु का महत्व इतना अधिक बताया गया है हमारे साँस्कृतिक वाङ्मय में बिना उसका स्मरण किये हमारा कोई कार्य सफल नहीं होता। गुरुतत्त्व को जानने मानने उस पर अपनी श्रद्धा और अधिक गहरी जमाते हुए अपना अंतरंग न्यौछावर करने का पर्व है गुरुपूर्णिमा व्यास पूर्णिमा।

🔴 गुरु वस्तुतः शिष्य को गढ़ता है एक कुम्भकार की तरह। इस कार्य में उसे कहीं चोट भी लगानी पड़ती है कुसंस्कारों का निष्कासन भी करना पड़ता है तथा कहीं अपने हाथों की थपथपाहट से उसे प्यारा का पोषण देकर उसमें सुसंस्कारों का प्रवेश भी वह कराता है। यह वस्तुतः एक नये व्यक्तित्व को गढ़ने की प्रक्रिया का नाम है। संत कबीर ने इसलिए गुरु को कुम्हार कहते हुये शिष्य को कुम्भ बताया है। मटका बनाने के लिये कुम्भकार को अंदर हाथ लगाकर बाहर से चोट लगानी पड़ती है कि कहीं कोई कमी तो रह नहीं गयी। छोटी-सी कमी मटके में कमजोरी उसके टूटने का कारण बन सकती है।

🔵 गुरु ही एक ऐसी प्राणी है जिससे शिष्य के आत्मिक सम्बन्धी की सम्भावनायें बनती है प्रगाढ़ होती चली जाती है। शेष पारिवारिक सामाजिक प्राणियों से शारीरिक मानसिक-भावनात्मक सम्बन्ध तो होते है आध्यात्मिक स्तर का उच्चस्तरीय प्रेम तो मात्र गुरु से ही होता है। गुरु अर्थात् मानवीय चेतना का मर्मज्ञ मनुष्य में उलट फेर कर सकने में उसका प्रारब्ध तक बदल सकने में समर्थ एक सर्वज्ञ। सभी साधक गुरु नहीं बन सकते। कुछ ही बन पाते व जिन्हें वे मिल जाते है, वे निहाल हो जाते है।

🔴 रामकृष्ण कहते थे सामान्य गुरु कान फूँकते है जब कि अवतारों पुरुष श्रेष्ठ महापुरुष सतगुरु-प्राण फूँकते है। उनका स्पर्श, दृष्टि व कृपा ही पर्याप्त हैं। ऐसे गुरु जब आते है तब अनेकों विवेकानन्द, महर्षि दयानन्द, गुरु विरजानन्द, संत एकनाथ, गुरु जनार्दन नाथ, पंत निवृत्ति नाथ, गुरु गहिनी नाथ, योगी अनिर्वाण, गुरु स्वामी निगमानन्द, आद्य शंकराचार्य, गुरु गोविन्दपाद कीनाराम, गुरु कालूराम तैलंग स्वामी, गुरु भगीरथ स्वामी, महाप्रभु चैतन्य, गुरु ईश्वरपुरी जैसी महानात्माएं विनिर्मित हो जाती है। अंदर से गुरु का हृदय प्रेम से लबालब होता है बाहर से उसका व्यवहार कैसा भी हों। बाहर से उसका व्यवहार कैसा भी हो। उसके हाथ में तो हथौड़ा है जो अहंकार को चकनाचूर कर डालता है ताकि एक नया व्यक्ति विनिर्मित हो।

🔵 गुरु का अर्थ है सोयों में जगा हुआ व्यक्ति, अंधों में आँख वाला व्यक्ति अंधों में आँख वाला व्यक्ति। गुरु का अर्थ है वहाँ अब सब कुछ मिट गया है मात्र परमात्मा ही परमात्मा है वहाँ बस! ऐसे क्षणों में जब हमें परमात्मा बहुत दूर मालूम पड़ता है, सद्गुरु ही उपयोगी हो सकता है क्योंकि वह हमारे जैसा है

🔴 मनुष्य जैसा है हाड़ माँस मज्जा का है फिर भी हमसे कुछ ज्यादा ही है। जो हमने नहीं जाना उसने जाना है। हम कल क्या होने वाले है, उसकी उसे खबर है। वह हमारा भविष्य है, हमारी समस्त सम्भावनाओं का द्वार है। गुरु एक झरोखा है, जिससे दूरस्थ परमात्मा रूपी आकाश को हम देख सकते है।

🔵 वे अत्यन्त सौभाग्यशाली कहे जाते है जिन्हें सद्गुरु के दर्शन हुए। जो दर्शन नहीं कर पाए पर उनके शक्ति प्रवाह से जुड़ गये व अपने व्यक्तित्व में अध्यात्म चेतना के अवतरित होने की पृष्ठभूमि बनाते रहे, वे भी सौभाग्यशाली तो है ही जो गुरु की विचार चेतना से जुड़े गया वह उनके अनुदानों का अधिकारी बन गया। शर्त केवल एक ही है पात्रता का सतत् अभिवर्धन तथा गहनतम श्रद्धा का गुरु के आदर्शों पर आरोपण। जो इतना कुछ अंशों में भी कर लेता है वह उनका उतने ही अंशों में उत्तराधिकारी बनता चला जाता है। परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य एवं माता भगवती देवी दोनों ही आज हमारे बीच स्थूल शरीर से नहीं है किन्तु ऋषियुग्म रूपी गुरुसत्ता की सूक्ष्म व कारण शक्ति का प्रवाह यथावत् और भी प्रखर रूप में हम सबके बीच विद्यमान है। आवश्यकता है सही रूप में उनसे जुड़ने की। यों दीक्षित तो ढेरों उनसे जुड़ने की। ये दीक्षित तो ढेरों उनसे हो सकते हैं किन्तु दीक्षा का मूल अर्थ अपनी इच्छा उन्हें दी अपना अहं समर्पित कर स्वयं को खाली किया ऐसा जीवन में उतारने वाले कुछ सौ या हजार ही हो सकते हैं। ये ही सच्चे अर्थों में उनके शिष्य कहे जा सकते हैं। अनुदान के पात्र भी ये ही हो सकते हैं।

🔴 जिसने परमपूज्य गुरुदेव के अस्सी वर्ष के तथा परमवंदनीय माताजी के सत्तर वर्ष के जीवन के थोड़े से भी हिस्से को देखा है तो उन्हें वहाँ अगाध स्नेह की गंगोत्री बहती मिली है। इतना प्यार इस सीमा तक स्नेह जितना कि सगी माँ भी पुत्र को नहीं दे सकती, गुरुवर ने व मातृ सत्ता ने अपनी पापी से पापी संतान से भी किया। जिसने उनकी इस प्रेम धार में बहकर उनके ज्ञानरूपी नौका में बैठने भर की हिम्मत कर ली, वह तर गया। जो डर गया। जो नहीं देख पाये उस दिव्य गुरुसत्ता को वह उनकी वसीयत और विरासत और धरोहर से उस प्राण ऊर्जा को पाते है। पूज्यवर ने जो कुछ भी लिखकर रख दिया एवं प्रवचनों में कह गये वह एक प्रकार से शक्तिपात का एक माध्यम बन गया। ऋतम्भरा प्रज्ञा का दूरदर्शी विवेकशीलता का जागरण जो परिजनों के मन में उनके सत्साहित्य के पठन मनन उनकी चर्चा से लीला प्रसंगों के श्रवण से हुआ वह शक्तिपात नहीं तो और क्या हैं।

🔵 लाखों नहीं, करोड़ों व्यक्तियों के जीवन की दिशाधारा को आमूलचूल बदल देने का कार्य कभी -कभी इस धरती पर सम्भवामि युगे-युगे कहकर आने वाली सत्ता ही करती है। वह कार्य इस युग में भी ऋषि युग्म की कारण सत्ता द्वारा सम्पन्न हो रहा है यह देखा व अनुभव किया जा सकता है। असंभव को भी संभव कर दिखाना महाकाल के स्तर की सत्ता की ही बात है। समय को पहचानना व सद्गुरु की पहचान कर उनसे अनन्य भाव से जुड़ जाना ही इस समय की सबसे बड़ी समझदारी है यह तथ्य भली-भाँति हृदयंगम कर लिया जाना चाहिये।

🔴 गायत्री परिवार-युगनिर्माण अनेकों को जलाता रहा है तो उसका भी एक ही कारण है वह है उसकी निष्ठा प्रामाणिकता तथा अविरल बहती स्नेह की धार। गुरुपर्व इसी गुरुता को स्मरण रखने का पर्व है। यदि गुरुसत्ता के जीवन में आ जाय तो हमारा जीवन धन्य बन जाय। शिष्यत्व सार्थक हो जाय।

🔵 श्रद्धा की परिपक्वता समर्पण की पूर्णता शिष्य में अनन्त सम्भावनाओं के द्वार खोल देती है। शास्त्र पुस्तकें तो जानकारी भर देते है किन्तु पूज्यवर जैसी गुरुसत्ता स्वयं में जीवन्त शास्त्र होते है। उनकी एक झलक भर देख कर अपने जीवन में उतारने जीवन में उतारने का प्रयास ही शिष्य का सही अर्थों में गुरुवरण है। गुरुवरण का गुरु से एकत्व की अनुभूति का अर्थ है परमात्मा से एकात्मता। गुरु देह नहीं है सत्ता है शक्ति का पुँज है। देह जाने पर भी क्रियाशीलता यथावत् बरकरार रहती है, वस्तुतः वह बहुगुणित हो सक्रियता के परिणाम में और अधिक व्यापक हो जाती है।

🔴 हमें विश्वास रखना चाहिये कि गुरुसत्ता देह से हमारे बीच न हो हमारा वह सूक्ष्म कारण रूप में सतत् मार्गदर्शन करेगी। हम गुरुतत्त्व को नित्य जीवन में धारण करते रहने का अपना कर्तव्य पूरा करते रहें तो शेष कार्य वह स्वतः कर लेगी।

🌹 अखण्ड ज्योति- जुलाई 1995

👉 गुरु वन्दना

एक तुम्हीं आधार सद्गुरु।
एक तुम्हीं आधार॥

   
जब तक मिलो न तुम जीवन में।
शान्ति कहाँ मिल सकती मन में॥
खोज फिरा संसार सद्गुरु।
एक तुम्हीं आधार सद्गुरु॥१॥

    कैसा भी हो तैरन हारा।
    मिले न जब तक शरण-सहारा॥
    हो न सका उस पार सद्गुरु॥
    एक तुम्हीं आधार  सद्गुरु॥२॥

हे प्रभु तुम्हीं विविध रूपों में।
हमें बचाते भव कूपों से॥
ऐसे परम उदार सद्गुरु।
एक तुम्हीं आधार सद्गुरु॥३॥

    हम आये हैं द्वार तुम्हारे।
    अब उद्धार करो दुःखहारे॥
    सुन लो दास पुकार सद्गुरु॥
    एक तुम्हीं आधार सद्गुरु॥४॥

छा जाता जग में अंधियारा।
तब पाने प्रकाश की धारा॥
आते तेरे द्वार सद्गुरु।
एक तुम्हीं आधार सद्गुरु॥५॥

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 8 July 2017


👉 आज का सद्चिंतन 8 July 2017


👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...