शुक्रवार, 18 जनवरी 2019

👉 नियम कैसे टूट जाते है?

एक टेलर था। दर्जी था। यह बीमार पडा।  करीब-करीब मरने के करीब पहुंच गया था। आखिरी घड़िया गिनता था। अब मर की तब मरा। रात उसने एक सपना देखा कि वह मर गया। और कब्र में दफनाया जा रहा है। बड़ा हैरान हुआ, क्रब में रंग-बिरंगी बहुत सी झंडियां लगी हुई है।  उसने पास खड़े एक फ़रिश्ते से पूछा कि ये झंडियां यहाँ क्‍यों लगी है? दर्जी था, कपड़े में उत्‍सुकता भी स्‍वभाविक थी।

उसे फ़रिश्ते ने कहा, जिन-जिन के तुमने कपड़े चुराए है। जितने-जितने कपड़े चुराए है। उनके प्रतीक के रूप में ये झंडियां लगी है।  परमात्‍मा इस से तुम्‍हारा हिसाब करेगा। कि ये तुम्‍हारी चोरी का रहस्‍य खोल देंगी, ये झंडियां तुम्‍हारे जीवन का बही खाता है।

वह घबरा गया। उसने कहा, हे अल्‍लाह, रहम कर, झंडियों को कोई अंत ही न था।  दूर तक झंडियां ही झंडियां लगी थी। जहां तक आंखें देख पा रही थी। और अल्‍लाह की आवाज से घबराहट में उसकी नींद खुल गई। बहुत घबरा गया। पर न जाने किस अंजान कारण के वह एक दम से ठीक हो गया। फिर वह दुकान पर आया तो उसके दो शागिर्द थे जो उसके साथ काम करते थे। वह उन्‍हें काम सिखाता भी था। उसने उन दोनों को बुलाया और कहा सुनो, अब एक बात का ध्‍यान रखना।

मुझे अपने पर भरोसा नहीं है। अगर कपड़ा कीमती आ जाये तो मैं चुराऊंगा जरूर। पुरानी आदत है समझो। और अब इस बुढ़ापे में बदलना बड़ी कठिन है। तुम एक काम करना, तुम जब भी देखो कि मैं कोई कपड़ा चुरा रहा हूं। तुम इतना ही कह देना, उस्‍ताद जी झंन-झंडी, जोर से कहा देना, दोबारा भी गुरु जी झंन-झंडी। ताकि में सम्‍हल जाऊँ।

शिष्‍यों ने बहुत पूछा कि इसका क्‍या मतलब है गुरु जी। उसने कहा, वह तुम ना समझ सकोगे। और इस बात में ना ही उलझों तो अच्छा हे। तुम बस इतना भर मुझे याद दिला देना, गुरु जी झंन-झंडी। बस मेरा काम हो जाएगा।

ऐसे तीन दिन बीते। दिन में कई बार शिष्‍यों को चिल्‍लाना पड़ता, उस्‍ताद जी झंडी। वह रूक जाता। चौथे दिन लेकिन मुश्‍किल हो गई। एक जज महोदय की अचकन बनने आई। बड़ा कीमती कपड़ा था। विलायती था। उस्‍ताद घबड़ाया कि अब ये चिल्‍लाते ही हैं। झंन-झंडी। तो उसने जरा पीठ कर ली शिष्‍यों की तरफ से। और कपड़ा मारने ही जा रहा था। कि शिष्‍य चिल्‍लाया, उस्‍ताद जी, झंन-झंडी।

दर्जी ने इसे अनसुना कर दिया पर शिष्‍य फिर चिल्‍लाया, उस्‍ताद जी, झंन-झंडी। उसने कहा बंद करो नालायको, इस रंग के कपड़े की झंडी वहां पर थी ही नहीं। क्‍या झंन-झंडी लगा रखी है। और फिर हो भी तो क्‍या फर्क पड़ता है जहां पर इतनी झंडी लगी है वहां एक और सही।

ऊपर-ऊपर के नियम बहुत गहरे नहीं जाते। सपनों में सीखी बातें जीवन का सत्‍य नहीं बन सकती। भय के कारण कितनी देर सम्‍हलकर चलोगे। और लोभ कैसे पुण्‍य बन सकता है?

Subscribe Us On YouTube:-
👇👇👇
https://bit.ly/2KISkiz

👉 अपने दोषों को भी देखा कीजिए! (भाग 1)

आपके प्रति यदि किसी का व्यवहार अनुचित प्रतीत होता है तो यह मानने के पहले कि सारा दोष उसी का है, आप अपने पर भी विचार कर लिया करें। दूसरों पर दोषारोपण करने का आधा कारण तो स्वयमेव समाप्त हो जाता है। कई बार ऐसा भी होता है कि किसी की छोटी-सी भूल या अस्त-व्यस्तता पर आप मुस्करा देते हैं या व्यंगपूर्वक कुछ उपहास कर देते हैं। आपकी इस क्रिया से सामने वाले व्यक्ति के स्वाभिमान पर चोट लगना स्वाभाविक है।

अपनी प्रशंसा सभी को प्यारी लगती है पर व्यंग या आलोचना हर किसी को अप्रिय है। कोई नहीं चाहता कि अकारण लोग उसका उपहास करें, मजाक उड़ायें। फिर आपके अप्रिय व्यवहार के कारण यदि औरों से अपशब्द, कटुता या तिरस्कार मिलता है तो उस अकेले का ही दोष नहीं। इसमें अपराधी आप भी हैं। आपने ही प्रारम्भ में इस स्थिति को जन्म दिया है। इसलिये दूसरों से प्रतिकार की भावना बनाने के पूर्व यदि अपना भी दोष-दर्शन कर लिया करें तो अकारण उत्पन्न होने वाले झगड़े जो कि प्रायः इसी से अधिक होते हैं, क्यों हों?

अगर किसी को अपनी बात मनवानी ही है अथवा यह पूर्ण रूप से जान लिया गया है कि अमुक कार्य में इस व्यक्ति का अहित है, आप उसे छुड़ाना चाहते हैं तो भी अशिष्ट या कटु-व्यवहार का आश्रय लेना ठीक नहीं। यदि वह व्यक्ति आपके तर्क या सिद्धान्त को नहीं मानता तो आप उसे अयोग्य, मूर्ख या दुष्ट समझने लगते हैं और अनजाने ही ऐसा कुछ कह या कर बैठते हैं जो उसे बुरा लगे। इससे दूसरे के आत्माभिमान को चोट लगती है, जिसकी प्रतिक्रिया भी कटु होती है। उससे कलह बढ़ने की ही सम्भावना अधिक रहेगी।

.....क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जुलाई 1964 पृष्ठ 40

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1964/July/v1.40

Subscribe Us On YouTube:-
👇👇👇
https://bit.ly/2KISkiz

👉 आज का सद्चिंतन 18 Jan 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 18 Jan 2019


👉 Acquisition of knowledge

Sagacious (truly learned) people are like soothing fragrance of flowers. They carry an aura of serene joy with them wherever they go and spread it unconditionally. Their benevolence is for everyone; every place is home to them. Vidya (pure knowledge) is the real wealth. Everything else is negligible against it. This treasure is immortal. It remains with the individual self even in the later lives… The intelligence enlightened by vidya continues to evolve and gradually transmutes to the omniscient level; the individual self eventually sees the light of the soul and attains ultimate realization.

The deeper you dig a well, the more water you would find in it. Similar is the case with acquisition of knowledge. The more you learn, the deeper you question and attempt to know… the greater will be your knowledge. What is the reality of the world? What are the sources of peace and happiness? Only those who have attained vidya would know the answers. Vidya alone can accomplish the eternal quest of the individual self. Then why are we so idle and indifferent towards earning this invaluable wealth? Age is never a bar in learning. No matter if you are old or even lying on death bed, so long as your mind is alive, your consciousness is present, you should have the will and zeal to acquire higher, greater knowledge, because this is a sublime treasure that you can carry along with your subtle and astral bodies in the lives after death…

They are indeed pitiable, fortune-less, who escape from learning. Remember! Knowledge is the key to strength and success in the ascent of life. Even if you have to beg before a noble teacher to learn it, you should do it because acquisition of knowledge and inner enlightenment is your dignified duty (as a human being)…

Akhand Jyoti, Dec. 1942

Subscribe Us On YouTube:-
👇👇👇
https://bit.ly/2KISkiz

👉 ज्ञान का संचय

विद्वान पुरुष सुगंधित पुष्पों के समान हैं। वे जहाँ जाते हैं, वहीं आनंद साथ ले जाते हैं। उनका सभी जगह घर है और सभी जगह स्वदेश है। विद्या धन है। अन्य वस्तुएँ तो उसकी समता में बहुत ही तुच्छ हैं। यह धन ऐसा है जो अगले जन्मों तक भी साथ रहता है। विद्या द्वारा संस्कारित की हुई बुद्धि आगामी जन्मों में क्रमश: उन्नति ही करती जाती है और उससे जीवन उच्चतम बनते हुए पूर्णता तक पहुँच जाता है।

कुएँ को जितना गहरा खोदा जाए, उसमें से उतना ही अधिक जल प्राप्त हो जाता है। जितना अधिक अध्ययन किया जाए उतना ही ज्ञानवान् बना जा सकता है। विश्व क्या है और इसमें कितनी आनंदमयी शक्ति भरी हुई है, इसे वही जान सकता है, जिसने विद्या पढ़ी है। ऐसी अनुभव संपत्ति का उपार्जन करने में न जाने क्यों लोग आलस्य करते हैं? आयु का कोई प्रश्न नहीं है, चाहे मनुष्य वृद्ध हो जाए या मरने के लिए चारपाई पर पड़ा हो तो भी विद्या प्राप्त करने में उसे उत्साहित होना चाहिए क्योंकि ज्ञान तो जन्म-जन्मांतरों तक साथ जाने वाली वस्तु है।

वे मनुष्य अभागे हैं, तो विद्या पढ़ने में जी चुराते हैं। भिखारी को दाता के सामने जैसे तुच्छ बनना पड़ता है, ऐसे ही यदि तुम्हें शिक्षकों के सामने तुच्छ बनना पड़े तो भी शिक्षा प्राप्त करना ही कर्त्तव्य है।

अखण्ड ज्योति -दिसंबर 1942

Subscribe Us On YouTube:-
👇👇👇
https://bit.ly/2KISkiz

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...