सोमवार, 8 नवंबर 2021

👉 जीवन साधना के त्रिविध पंचशील (भाग २)

व्यक्तित्व का विकास
    
(१) प्रातः उठने से लेकर सोने तक की व्यस्त दिनचर्या निर्धारित करें। उसमें उपार्जन, विश्राम, नित्य कर्म, अन्यान्य कामकाजों के अतिरिक्त आदर्शवादी परमार्थ प्रयोजनों के लिए एक भाग निश्चित करें। साधारणतया आठ घण्टा कमाने, सात घण्टा सोने, पाँच घण्टा नित्य कर्म एवं लोक व्यवहार के लिए निर्धारित रखने के उपरान्त चार घण्टे परमार्थ प्रयोजनों के लिए निकालना चाहिए। इसमें भी कटौती करनी हो, तो न्यूनतम दो घण्टे तो होने ही चाहिये। इससे कम में पुण्य परमार्थ के, सेवा साधना के सहारे बिना न सुसंस्कारिता स्वभाव का अंग बनती है और न व्यक्तित्व का उच्चस्तरीय विकास सम्भव होता है।
    
(२) आजीविका बढ़ानी हो तो अधिक योग्यता बढ़ायें। परिश्रम में तत्पर रहें और उसमें गहरा मनोयोग लगायें। साथ ही अपव्यय में कठोरता पूर्वक कटौती करें। सादा जीवन उच्च विचार का सिद्धान्त समझें। अपव्यय के कारण अहंकार, दुर्व्यसन, प्रमाद बढ़ने और निन्दा, ईर्ष्या, शत्रुता पल्ले बाँधने जैसी भयावह प्रतिक्रियाओं का अनुमान लगायें। सादगी प्रकारान्तर से सज्जनता का ही दूसरा नाम है। औसत भारतीय स्तर का निर्वाह ही अभीष्ट है। अधिक कमाने वाले भी ऐसी सादगी अपनायें जो सभी के लिए अनुकरणीय हो। ठाट- बाट प्रदर्शन का खर्चीला ढकोसला समाप्त करें।
    
(३) अहर्निश पशु प्रवृत्तियों को भड़काने वाले विचार ही अन्तराल पर छाये रहते है। अभ्यास और समीपवर्ती प्रचलन मनुष्य को वासना, तृष्णा और अहंकार की पूर्ति में निरत रहने का ही दबाव डालता है। सम्बन्धी मित्र परिजनों के परामर्श प्रोत्साहन भी इसी स्तर के होते हैं। लोभ, मोह और विलास के कुसंस्कार निकृष्टता अपनाये रहने में ही लाभ तथा कौशल समझते हैं। ऐसी ही सफलताओं को सफलता मानते हैं। इसे एक चक्रव्यूह समझना चाहिये। भव- बन्धन के इसी घेरे से बाहर निकलने के लिए प्रबल पुरुषार्थ करना चाहिये। कुविचारों को परास्त करने का एक ही उपाय है- प्रज्ञा साहित्य का न्यूनतम एक घण्टा अध्ययन अध्यवसाय। इतना समय एक बार न निकले तो उसे जब भी अवकाश मिले, थोड़ा- थोड़ा करके पूरा करते रहना चाहिये।
    
(४) प्रतिदिन प्रज्ञायोग की साधना नियमित रूप से की जाय। उठते समय आत्मबोध, सोते समय तत्त्वबोध। नित्य कर्म से निवृत्त होकर जप, ध्यान। एकान्त सुविधा का चिन्तन- मनन में उपयोग। यही है त्रिविध सोपानों वाला प्रज्ञायोग। यह संक्षिप्त होते हुए भी अति प्रभावशाली एवं समग्र है। अपने अस्त- व्यस्त बिखराव वाले साधना क्रम को समेटकर इसी केन्द्र बिन्दु पर एकत्रित करना चाहिये। महान के साथ अपने क्षुद्र को जोड़ने के लिए योगाभ्यास का विधान है। प्रज्ञा परिजनों के लिए सर्वसुलभ एवं सर्वोत्तम योगाभ्यास ‘प्रज्ञा योग’ की साधना है। उसे भावनापूर्वक अपनाया और निष्ठा पूर्वक निभाया जाय।
    
(५) दृष्टिकोण को निषेधात्मक न रहने देकर विधेयात्मक बनाया जाय। अभावों की सूची फाड़ फेंकनी चाहिये और जो उपलब्धियाँ हस्तगत है, उन्हें असंख्य प्राणियों की अपेक्षा उच्चस्तरीय मानकर सन्तुष्ट भी रहना चाहिये और प्रसन्न भी। इसी मनःस्थिति में अधिक उन्नतिशील बनना और प्रस्तुत कठिनाइयों से निकलने वाला निर्धारण भी बन पड़ता है। असन्तुष्ट, खिन्न, उद्विग्न रहना तो प्रकारान्तर से एक उन्माद है, जिसके कारण समाधान और उत्थान के सारे द्वार ही बन्द हो जाते है।
   
कर्तृत्व पालन को सब कुछ मानें। असीम महत्त्वाकाँक्षाओं के रंगीले महल न रचें। ईमानदारी से किये गये पराक्रम से ही परिपूर्ण सफलता मानें और उतने भर से सन्तुष्ट रहना सीखें। कुरूपता नहीं, सौन्दर्य निहारें। आशंकाग्रस्त, भयभीत, निराश न रहें। उज्ज्वल भविष्य के सपने देखें। याचक नहीं दानी बने। आत्मावलम्बन सीखें। अहंकार तो हटाएँ पर स्वाभिमान जीवित रखें। अपना समय, श्रम, मन और धन से दूसरों को ऊँचा उठायें। सहायता करे पर बदले की अपेक्षा न रखें। बड़प्पन की तृष्णाओं को छोड़े और उनके स्थान पर महानता अर्जित करने की महत्त्वाकांक्षा सँजोये। स्मरण रखें, हँसते- हँसाते रहना और हल्की- फुल्की जिन्दगी जीना ही सबसे बड़ी कलाकारिता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 भक्तिगाथा (भाग ८४)

भगवत्कृपा के स्रोत हैं- भक्ति और भक्त

देवर्षि के ये कुछ वाक्य सभी के भावों में प्रकाश रेखाओं की भांति उतर गए। काफी देर तक कोई कुछ नहीं बोला। फिर महर्षि अंगिरा ने इस मौन को अपने शब्दों से बेधा एवं बींधा। वे बोले- ‘‘मैं अपने युग में ऐसे ही एक भगवद्भक्त महापुरुष की अलौकिक कृपा का साक्षी रहा हूँ। यदि आप सब अनुमति दें तो मैं वह कथा सुनाऊँ।’’ ब्रह्मर्षि अंगिरा, सभी उनके तप के महासामर्थ्य से सुपरिचित थे। मंत्रविद्या के तो जैसे वह परमाचार्य थे। ऋषियों, देवों एवं सिद्धों के समुदाय में से सभी को पता था कि महर्षि अंगिरा अपने अमोघ मन्त्रों के प्रभाव से विधि के अकाट्य विधान को भी काटने में समर्थ हैं। उनका ज्ञान अश्रुतपूर्व है। ऐसे परमादरणीय महर्षि को सुनने के लिए सभी उत्सुक थे बल्कि अब तो सभी में यह जिज्ञासा भी जाग उठी थी कि भला ऐसे कौन से महामानव हुए हैं, जिन्होंने अग्नि की भांति महातेजस्वी एवं परम तपस्वी सभी पराविद्याओं के ज्ञाता इन महर्षि अंगिरा को भी प्रभावित किया था।

इधर महर्षि कह रहे थे कि ‘‘यह घटना त्रेतायुग की है। उस समय मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के पूर्वज महाराज दिलीप का शासन था। ब्रह्मर्षि अंगिरा के इस कथन ने ऋषिश्रेष्ठ वशिष्ठ को भी सचेत एवं सचेष्ट किया। महाराज दिलीप के सुशासन में सभी सुखी थे परन्तु उन दिनों सुदूर ग्रामीण अंचल में एक दस्यु ने भारी उपद्रव मचा रखा था। उसका नाम था दुर्दम्य। जैसा नाम, वैसा ही गुण। वह सचमुच ही दुर्दमनीय था। उसके आतंक-अत्याचार एवं क्रूरता ने सभी को पीड़ित कर रखा था। उस ग्रामीण अंचल के लोक उससे किसी भी तरह पीछा छुड़ाना चाहते थे पर यह सम्भव नहीं दिख रहा था। उन्हीं दिनों उस ग्रामीण क्षेत्र में महर्षि शिरीष नाम के सन्त पधारे। सरल, सौम्य, भगवद्भावों से सर्वथा परिपूर्ण इन महर्षि को अपने सान्निध्य में पाकर गांवों के सरल भोले लोग आह्लादित हो गए। उन्होंने महर्षि से निवेदन किया कि वे उन्हीं के गांव में रह जाएँ। वहाँ की प्राकृतिक सुरम्यता, ग्रामीण जनों का यह निश्छल आचरण देखकर सन्त शिरीष ने भी उनकी बात मान ली। परन्तु उन्होंने यह अवश्य कहा कि गांव से बाहर रहेंगे। भला गांव के लोगों को इसमें क्या आपत्ति हो सकती थी?

उन सबने मिलकर गांव के बाहर शिव मन्दिर में उनकी व्यवस्था कर दी। महात्मा शिरीष वेदमाता गायत्री के अनुरक्त भक्त थे। वह ब्रह्ममुहूर्त से लेकर मध्याह्न बेला तक गायत्री साधना करते थे। दिन में एक समय थोड़ा कुछ फल-फूल खाकर, सायं प्रदोष बेला में भगवान शिव का नित्यार्चन, अभिषेक आदि करते। रात्रि महानिशा में पुनः भगवती गायत्री की साधना चतुष्पाद सहित करते। दिन में थोड़े समय के लिए आगन्तुक जनों से मुलाकात करते। महर्षि के इस तपस्वी जीवन को देखकर सभी आनन्दित थे, ग्रामीणजन सन्त शिरीष के सत्संग से एक ओर जहाँ आनन्दित थे, वहीं दस्यु दुर्दम्य की धमकियों से भयभीत। जब भी वे इसकी चर्चा उनसे करते, तो वह उन्हें यह कहकर चुप करा देते कि आदिशक्ति जगन्माता की कृपा पर भरोसा रखो। यह सन्तवाणी उन्हें आश्वस्ति तो देती, फिर भी चिन्ता तो थी ही।

इन्हीं दिनों पता नहीं कैसे दैवसंयोगवश दस्यु दुर्दम्य बुरी तरह से अस्वस्थ हो गया। गांव के लोगों ने समझा कि यह सब उसके बुरे कर्मों का कुफल है। किसी ने उससे मिलना भी उचित नहीं समझा परन्तु सन्त शिरीष उसे अपने पास शिवमन्दिर ले आए। उनकी अहर्निश चलने वाली साधना में यह सेवासाधना भी जुड़ गयी। अपने आयुर्वेद ज्ञान से वह उसकी चिकित्सा करते, साथ ही स्वयं उसके लिए भोजन पकाते। गांववालों में से कोई भी उनके पास भी नहीं जाना चाहता था। उन सब ने ऋषि शिरीष को मना भी किया। परन्तु जब वे किसी भी तरह से न माने तो उन सबने सोचा महात्मा शिरीष तपस्वी सन्त हैं, उनसे हठ करना ठीक नहीं है। परन्तु दुर्दम्य के लिए उनके मन में भारी आक्रोश था। परन्तु इस सबसे अछूते महात्मा शिरीष उसकी दिन-रात सेवा किये जा रहे थे। उनकी चिकित्सा एवं सेवा के परिणाम से वह कुछ महीनों में स्वस्थ हो गया। महर्षि के सान्निध्य एवं सेवा से उसके अन्तःकरण में प्रायश्चित्त के स्वर फूटने लगे। हालांकि महर्षि ने उससे इस बारे में कुछ नहीं कहा था। हाँ, जब वह पूर्णतया स्वस्थ हो गया तो उन्होंने यह अवश्य कहा- अब तुम चाहो तो यहाँ से जा सकते हो। दुर्दम्य ने पूछा- परन्तु यदि मैं आपके पास रहना चाहूँ तो? उत्तर में सन्त शिरीष ने मातृवत स्नेह से कहा- अवश्य रह सकते हो पुत्र।

महर्षि की भक्तिभावना ने उसमें आश्चर्यजनक बदलाव किया। अब तो वह भी गायत्री साधना सीख गया, सेवा में उसकी अभिरुचि होने लगी। जब उसके बदलाव की खबरें गांव के लोगों को मिलतीं, तो वे समझते कि यह उसका ढोंग है। परन्तु थोड़े समय के बाद उसके बदलाव ने उन्हें भी आश्चर्य में डाल दिया। इधर कभी दस्यु रहे दुर्दम्य ने जब उनसे पूछा कि मेरे विगत कर्मों का क्या प्रायश्चित्त है? तो सन्त शिरीष ने बड़े प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- पुत्र! यदि तुम कुछ कर सकते हो तो बस अपनी निन्दा, अपमान एवं तिरस्कार को धैर्यपूर्वक सहन करो, साथ ही अपने विरोधियों की सेवा करने का प्रयत्न करो। यही तुम्हारा तप है, तुम्हारा प्रायश्चित्त है।

दुर्दम्य ने उनकी बातों को श्रद्धापूर्वक स्वीकार किया। वह ग्रामीणजनों का तिरस्कार, दुत्कार सहकर भी उनकी सेवा करने का प्रयत्न करने लगा। कुछ सालों के प्रयास से उनका तिरस्कार, विश्वास में बदलने लगा। उन सबने महसूस किया कि दस्यु दुर्दम्य सचमुच ही अब भक्त दुर्दम्य बन गया है। महर्षि अंगिरा के इस कथाक्रम से पुलकित होते हुए ब्रह्मर्षि वशिष्ठ उत्साह से बोले- ‘‘महाराज दिलीप से यह चर्चा मैंने भी सुनी थी। हाँ ब्रह्मर्षि! मैंने स्वयं उन आदिशक्ति जगन्माता गायत्री के भक्त शिरीष के सान्निध्य को, चमत्कार को देखा है। सचमुच भक्त का स्पर्श स्वयं भगवान के स्पर्श से किंचित न्यून नहीं।’’ ब्रह्मर्षि अंगिरा की इस भक्तिकथा ने सभी को एक अनूठे भावलोक में पहुँचा दिया।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १५६

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...