शुक्रवार, 16 जुलाई 2021

👉 यात्रा बहुत छोटी है

एक बुजुर्ग महिला बस में यात्रा कर रही थी। अगले पड़ाव पर, एक मजबूत, क्रोधी युवती चढ़ गई और बूढ़ी औरत के बगल में बैठ गई। उस क्रोधी युवती ने अपने  बैग से कई  बुजुर्ग महिला को चोट पहुंचाई।

जब उसने देखा कि बुजुर्ग महिला चुप है, तो आखिरकार युवती ने उससे पूछा कि जब उसने उसे अपने बैग से मारा तो उसने शिकायत क्यों नहीं की?

बुज़ुर्ग महिला ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया: "असभ्य होने की या इतनी तुच्छ बात पर चर्चा करने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि आपके बगल में मेरी यात्रा बहुत छोटी है, क्योंकि मैं अगले पड़ाव पर उतरने जा रही हूं।"

यह उत्तर सोने के अक्षरों में लिखे जाने के योग्य है: "इतनी तुच्छ बात पर चर्चा करने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि हमारी यात्रा एक साथ बहुत छोटी है।"

हम में से प्रत्येक को यह समझना चाहिए कि इस दुनिया में हमारा समय इतना कम है कि इसे बेकार तर्कों, ईर्ष्या, दूसरों को क्षमा न करने, असंतोष और बुरे व्यवहार के साथ जाया करना मतलब समय और ऊर्जा की एक हास्यास्पद बर्बादी है।

क्या किसी ने आपका दिल तोड़ा? शांत रहें।
यात्रा बहुत छोटी है।

क्या किसी ने आपको धोखा दिया, धमकाया, धोखा दिया या अपमानित किया? आराम करें - तनावग्रस्त न हों
यात्रा बहुत छोटी है।

क्या किसी ने बिना वजह आपका अपमान किया?  शांत रहें। इसे नजरअंदाज करो।
यात्रा बहुत छोटी है।

क्या किसी पड़ोसी ने ऐसी टिप्पणी की जो आपको पसंद नहीं आई?  शांत रहें।  उसकी ओर ध्यान मत दो। इसे माफ कर दो।
यात्रा बहुत छोटी है।

किसी ने हमें जो भी समस्या दी है, याद रखें कि हमारी यात्रा एक साथ बहुत छोटी है।

हमारी यात्रा की लंबाई कोई नहीं जानता। कोई नहीं जानता कि यह अपने पड़ाव पर कब पहुंचेगा।
हमारी एक साथ यात्रा बहुत छोटी है।

आइए हम दोस्तों और परिवार की सराहना करें।
आइए हम आदरणीय, दयालु और क्षमाशील बनें।

आखिरकार हम कृतज्ञता और आनंद से भर जाएंगे।

अपनी मुस्कान सबके साथ बाँटिये....

क्योंकि हमारी यात्रा बहुत छोटी है!

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ४१)

सिद्ध न होने पर भी

नास्तिक दर्शन की मूल मान्यता भी यही है कि ईश्वर सिद्ध नहीं किया जा सकता और जो सिद्ध नहीं होता उसका अस्तित्व कैसे हो सकता है यह मान्यता अपने आप में एकांगी और अधूरी है। मान्यता विज्ञान से सिद्ध नहीं होती उसका अस्तित्व ही नहीं है—यह अब से सौ वर्ष पूर्व तक तो अपने स्थान पर सही थी क्योंकि तब विज्ञान अपने शैशव में था। परन्तु जब विज्ञान ने अविज्ञात के क्षेत्र में प्रवेश किया और एक से एक रहस्य सामने आते गये तो यह माना जाने लगा कि ऐसी बहुत-सी वस्तुओं का, सत्ताओं का अस्तित्व है जो अभी विज्ञान द्वारा सिद्ध नहीं हो सका है अथवा जिन तक विज्ञान नहीं पहुंच सका है।

कुछ दशाब्दियों से पूर्व तक यह माना जाता था कि पदार्थ का सबसे सूक्ष्म कण अणु है और वह अविभाज्य है। पदार्थ के सूक्ष्मतम विभाजन के बाद अवशिष्ट स्वरूप को अणु कहा गया और माना जाने लगा कि यही अन्तिम है। परन्तु इसके कुछ वर्षों बाद ही वैज्ञानिकों को अणु से भी सूक्ष्म कण परमाणु का पता चला। परमाणु को अविभाज्य समझा जाने लगा। लेकिन परमाणु का विखण्डन भी सम्भव हो गया। पदार्थ के इस सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्वरूप के विखण्डन से बहुत बड़ी ऊर्जा का विस्फोट दिखाई दिया, जिसके ध्वंस या सृजन में चाहे जिस प्रयोजन के लिए उपयोग सम्भव दिखाई देने लगा।

परन्तु अब भी यह नहीं मान लिया गया है कि परमाणु ही अन्तिम सत्य है। यह समझा जा रहा है कि परमाणु से भी सूक्ष्म पदार्थ का कोई अस्तित्व हो सकता है। इसी आधार पर प्रो. रिचर्ड ने अपनी पुस्तक ‘‘थर्टीईयर आफ साइकिक रिसर्च’’ में लिखा है—पचास वर्ष पूर्व यह माना जाता था कि जो बात भौतिक विज्ञान से सिद्ध न हो उसका अस्तित्व ही नहीं है। किन्तु भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में ही अब ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि वह अभी भौतिक वस्तुओं को ही ठीक से समझ नहीं पाया है। फिर उसे सत्ता के अस्तित्व को इस आधार पर कैसे चुनौती दी जा सकती है जिसे भौतिक विज्ञान की पहुंच के बाहर कहा जाता है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ६५
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ४१)

अविनाशी चैतन्य के प्रति समर्पण है भक्ति

परम भागवत शुकदेव की वाणी का रस देवर्षि की वीणा की झंकृति में घुलकर सभी के अंतस् में गहरे उतर गया। स्थिति कुछ ऐसी बनी कि भगवद्भक्तों की कौन कहे, परमज्ञानी एवं महाविरागी भी भावमय हो उठे। तत्त्वविचारकों के अंतःकरण में भी भक्ति की सरिता उफनने लगी। देर तक भावसमाधि का अपूर्व वातावरण बना रहा। इस वातावरण की पवित्रता एवं दिव्यता में कोई व्याघात न करने पाये-इसके लिए हिमवान के महाशिखर शुभ्र-धवल परिधान पहने प्रहरियों की भाँति सन्नद्ध खड़े थे। वायु भी निस्पन्द हो चली थी। हिम पक्षियों का कलरव थम चला था। इस निस्पन्द एवं अविचल शान्ति की स्थिति में भी एक अपूर्व भक्ति चैतन्य प्रवाहित हो रहा था।
    
न जाने यह कालातीत, तुरीय स्थिति कब तक रही। हाँ! इतना अवश्य है कि उस वातावरण में गायत्री महामंत्र के द्रष्टा ब्रह्मर्षि विश्वामित्र का स्वर सबसे पहले मुखरित हुआ। उन्होंने ही उदीयमान सूर्य के महाभर्ग को धारण करते हुए कहा-‘‘ऐसी अनुभूति हो रही है जैसी कि भक्त को चैतन्य का चिंतन करते हुए होती है तब वह स्वयं ही तद्रूप हो जाता है। जब तक विवेक नहीं जागता, तब तक जड़ता से मोह नहीं छूटता, तब तक किसी भी तरह भौतिकवादी-पदार्थवादी दृष्टि का परिष्कार नहीं होता। इसके बिना न तो आध्यात्मिक सोच बन पड़ती है और न ही परमात्म तत्त्व के प्रति समर्पण एवं प्रेम प्रस्फुटित होता है।’’
    
ब्रह्मर्षि विश्वामित्र का कथन उनकी चिंतन चेतना की कुछ ऐसी गहराई से प्रकट हुआ था कि सभी की सहमति एक साथ मुखर हो उठी। यहाँ तक कि हिमपक्षियों ने भी चहकते हुए अपनी सम्मति जतायी। महर्षि पुलह, क्रतु, वशिष्ठ आदि विशिष्ट जनों ने इस सत्य का समर्थन करते हुए कहा कि ‘‘दरअसल मनुष्य की समस्या ही यही है कि वह जड़ता से अतिशय मोहग्रस्त होकर स्वयं जड़ हो चला है। अब तो दशा यह बनी है कि वह चेतना के समाधान भी जड़ पदार्थों में ढूँढ़ता और खोजता है। इसी वजह से उसकी स्व-चेतना लुप्त और सुप्त हो चली है। यदि स्थिति से उबरना है तो उसे पुनः सभी जड़ पदार्थों व पाशों की व्यूहरचना से निकलकर पुनः चेतना के चैतन्य की ओर उन्मुख होना होगा। यही प्रक्रिया उसमें फिर से परम चेतना का प्रकाश उड़ेल सकती है।’’
    
महर्षि जनों के इस सम्पूर्ण वार्तालाप को देवर्षि बड़े ही धैर्य एवं स्थिरता से सुन रहे थे। उनकी दिव्य वीणा भी इस समय मौन थी। जबकि सबकी  अभिलाषा यही थी कि वह इस समय कुछ कहें, अपने नये सूत्र का मंत्रोच्चार करें। पर उन्हें इस तरह मौन देखकर ऋषियों में श्रेष्ठ क्रतु ने कहा-‘‘हे ब्रह्मपुत्र! इस समय आप मौन क्यों हैं? आपकी वाणी एवं वीणा ही आज के सत्र का प्रारम्भ करेगी।’’ उत्तर में देवर्षि के होंठों पर हल्का सा स्मित झलका। कुछ पलों के बाद उन्होंने कहा-‘‘मैं आप सबके विचारों पर चिंतन करते हुए सोच रहा था कि अरे! यही तो महर्षि शाण्डिल्य के मत में भक्ति है। ऐसा कहते हुए उन्होंने बड़े मधुर स्वरों में उच्चारित किया-
‘आत्मरत्यविरोधेनेति शाण्डिल्यः’॥ १८॥
अद्भुत और अभूतपूर्व है महर्षि शाण्डिल्य का मत। वे कहते हैं- ‘भक्ति है आत्मरति के अविरोधी विषय में अनुराग।’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ७८

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...