सोमवार, 28 अक्तूबर 2019

दो सत्यानाशी कार्य | Do Satyanashi Karya



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दो सत्यानाशी कार्य | Do Satyanashi Karya



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👉 साकारात्मक हार

गोपालदास जी के एक पुत्र और एक पुत्री थे। उन्हे अपने पुत्र के विवाह के लिये संस्कारशील पुत्रवधु की तलाश थी। किसी मित्र ने सुझाया कि पास के गांव में ही स्वरूपदास जी के एक सुन्दर सुशील कन्या है।

गोपालदास जी किसी कार्य के बहाने स्वरूपदास जी के घर पहूंच गये, कन्या स्वरूपवान थी देखते ही उन्हे पुत्रवधु के रूप में पसन्द आ गई। गोपालदास जी ने रिश्ते की बात चलाई जिसे स्वरूपदास जी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। स्वरूपदास जी की पत्नी ने मिष्ठान भोजन आदि से आगत स्वागत की।

संयोगवश स्वरूपदास जी की पत्नी के लिये नवसहर का सोने का हार आज ही बनकर आया था। समधन ने बडे उत्साह से समधी को दिखाया, हार वास्तव में सुन्दर था। गोपालदास जी ने जी भरकर उस हार की तारीफ की। कुछ देर आपस में बातें चली और फ़िर गोपालदास जी ने लौटने के लिये विदा मांगी और घर के लिये चल दिये।

चार दिन बाद ही स्वरूपदास जी की पत्नी को किसी समारोह में जाने की योजना बनी, और उन्हे वही हार पहनना था। उन्होने ड्रॉअर का कोना कोना छान मारा पर हार नहीं मिला। सोचने लगी हार गया तो गया कहाँ? कुछ निश्चय किया और स्वरूपदास जी को बताया कि हार गोपालदास जी, चोरी कर गये है।

स्वरूपदास जी ने कहा भागवान! ठीक से देख, घर में ही कहीं होगा, समधी ऐसी हरक़त नहीं कर सकते। उसने कहा मैने सब जगह देख लिया है और मुझे पूरा यकीन है हार गोपाल जी ही ले गये है, हार देखते ही उनकी आंखे फ़ट गई थी। वे बडा घूर कर देख रहे थे, निश्चित ही हार तो समधी जी ही लेकर गये है।आप गोपाल जी के यहां जाईए और पूछिए, देखना! हार वहां से ही मिलेगा।

बडी ना-नुकर के बाद पत्नी की जिद्द के आगे स्वरूप जी को झुकना पडा और बडे भारी मन से वे गोपाल जी के घर पहूंचे। आचानक स्वरूप जी को घर आया देखकर गोपाल जी शंकित हो उठे कि क्या बात हो गई?

स्वरूपजी दुविधा में कि आखिर समधी से कैसे पूछा जाय। इधर उधर की बात करते हुए साहस जुटा कर बोले- आप जिस दिन हमारे घर आए थे, उसी दिन घर एक हार आया था, वह मिल नहीं रहा।

कुछ क्षण के लिये गोपाल जी विचार में पडे, और बोले अरे हां, ‘वह हार तो मैं लेकर आया था’, मुझे अपनी पुत्री के लिये ऐसा ही हार बनवाना था, अतः सुनार को सेम्पल दिखाने के लिये, मैं ही ले आया था। वह हार तो अब सुनार के यहां है। आप तीन दिन रुकिये और हार ले जाईए। किन्तु असलियत में तो हार के बारे में पूछते ही गोपाल जी को आभास हो गया कि हो न हो समधन ने चोरी का इल्जाम लगाया है।

उसी समय सुनार के यहां जाकर, देखे गये हार की डिज़ाइन के आधार पर सुनार को बिलकुल वैसा ही हार,मात्र दो दिन में तैयार करने का आदेश दे आए। तीसरे दिन सुनार के यहाँ से हार लाकर स्वरूप जी को सौप दिया। लिजिये सम्हालिये अपना हार।

घर आकर स्वरूप जी ने हार श्रीमति को सौपते हुए हक़िक़त बता दी। पत्नी ने कहा- मैं न कहती थी,बाकि सब पकडे जाने पर बहाना है, भला कोई बिना बताए सोने का हार लेकर जाता है ? समधी सही व्यक्ति नहीं है, आप आज ही समाचार कर दिजिये कि यह रिश्ता नहीं हो सकता। स्वरूप जी नें फ़ोन पर गोपाल जी को सूचना दे दी, गोपाल जी कुछ न बोले।उन्हे आभास था ऐसा ही होना है।

सप्ताह बाद स्वरूप जी की पत्नी साफ सफ़ाई कर रही थी, उन्होने पूरा ड्रॉअर ही बाहर निकाला तो पिछे के भाग में से हार मिला, निश्चित करने के लिये दूसरा हार ढूढा तो वह भी था। दो हार थे। वह सोचने लगी, अरे यह तो भारी हुआ, समधी जी नें इल्जाम से बचने के लिये ऐसा ही दूसरा हार बनवा कर दिया है।

तत्काल उसने स्वरूप जी को वस्तुस्थिति बताई, और कहा समधी जी तो बहुत उंचे खानदानी है। ऐसे समधी खोना तो रत्न खोने के समान है। आप पुनः जाईए, उन्हें हार वापस लौटा कर  और समझा कर रिश्ता पुनः जोड कर आईए। ऐसा रिश्ता बार बार नहीं मिलता।

स्वरूप जी पुनः दुविधा में फंस गये, पर ऐसे विवेकवान समधी से पुनः सम्बंध जोडने का प्रयास उन्हे भी उचित लग रहा था। सफलता में उन्हें भी संदेह था पर सोचा एक कोशीश तो करनी ही चाहिए।

स्वरूप जी, गोपाल जी के यहां पहूँचे, गोपाल जी समझ गये कि शायद पुराना हार मिल चुका होगा।

स्वरूप जी ने क्षमायाचना करते हुए हार सौपा और अनुनय करने लगे कि जल्दबाजी में हमारा सोचना गलत था। आप हमारी भूलों को क्षमा कर दिजिए, और उसी सम्बंध को पुनः कायम किजिए।

गोपाल जी नें कहा देखो स्वरूप जी यह रिश्ता तो अब हो नहीं सकता, आपके घर में शक्की और जल्दबाजी के संस्कार है जो कभी भी मेरे घर के संस्कारो को प्रभावित कर सकते है।

लेकिन मैं आपको निराश नहीं करूंगा। मैं अपनी बेटी का रिश्ता आपके बेटे के लिये देता हूँ, मेरी बेटी में वो संस्कार है जो आपके परिवार को भी सुधार देने में सक्षम है। मुझे अपने संस्कारो पर पूरा भरोसा है। पहले रिश्ते में जहां दो घर बिगडने की सम्भावनाएं थी, वहां यह नया रिश्ता दोनो घर सुधारने में सक्षम होगा। स्वरूप जी की आंखे ऐसा हितैषी पाकर छल छला आई।

👉 कर्ज से छुटकारा पाना ही ठीक है। (अंतिम भाग)

अपने रुके हुये काम को आगे बढ़ाने के या कोई आर्थिक धन्धा चलाने के लिये थोड़े समय के लिए किसी आत्मीय जन से सहायता लेकर थोड़े ही दिनों में उसे लौटा देना अनुचित भले ही न कहा जाय, पर जिन्होंने कर्ज को एक तरह का पेशा ही समझ लिया हो, उनको चाहिए कि वे समाज में वैमनस्यता उत्पन्न करने के अपराध से बचें। कर्ज से चिन्ता बढ़ती है और कार्य क्षमता घटती है। इससे राष्ट्रीय संपत्ति का नाश होता है इस लिये ऋणी होना अनागरिक कर्म की कहा जायगा। इससे बचने में ही मनुष्य का कल्याण है।

आध्यात्मिक दृष्टि से तो ऋणी होना और भी अपराध है। धर्म-ग्रन्थों में तो यहाँ तक कहा जाता है कि जो इस जीवन में ऋण नहीं चुका पाते उन्हें निम्न-योनियों में जन्म लेकर इसका भुगतान करना पड़ता है। इस पर भले ही लोग विश्वास न करें पर यह बात सभी समझ सकते हैं चरित्र और नैतिक साहस को गिराने में ऋण बहुत बड़ा सहायक है। इससे अकर्मण्यता और फिजूलखर्ची को पोषण मिलता है, कटुता बढ़ती है और सामाजिक सन्तुलन बिगड़ता है।

मनुष्य को परमात्मा ने बड़ी शक्ति असीम साधन और अतुलित पौरुष प्रदान किया है। इन्हीं के सहारे वह अपनी प्रगति कर सकता है। ऋणी होना न तो विकास ही दृष्टि से उचित है और न आध्यात्मिक दृष्टि से ही। इससे तो छुटकारा पाना ही ठीक है। कोई अकस्मात दुर्घटना जीवन संकट जैसे अवसर उपस्थित हों, और अपने साधन उस स्थिति का मुकाबला करने में असमर्थ हो रहे हों तो कर्ज लेना दूसरी बात है, पर आलस से दिन काटते हुये शरीर मौज के लिए तो कदापि कर्ज नहीं लिया जाना चाहिये। और न ऐसे लोगों को कर्ज देना ही चाहिये। इस्लाम धर्म में ब्याज को हराम, इसलिये कहा गया है कि ऋण का व्यवसाय अन्तः जगत के लिये हर समय ही हानिकारक सिद्ध होता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1966 पृष्ठ 45


http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1965/April/v1.45

👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ८६)

👉 पंचशीलों को अपनाएँ, आध्यात्मिक चिकित्सा की ओर कदम बढ़ाएँ

इन्हें आध्यात्मिक चिकित्सा के पंचशील की संज्ञा दी जा सकती है। इन्हें मां गायत्री के पंचमुख और उनकी पूजा में प्रयुक्त होने वाला पंचोपचार भी कहा जा सकता है। जिन्हें आध्यात्मिक चिकित्सा में अभिरूचि है उन्हें इस बात की शपथ लेनी चाहिए कि इनका पालन अपने व्यक्तिगत जीवन में संकल्पपूर्वक होता रहे। आध्यात्मिक चिकित्सा के विशेषज्ञों ने इन्हें अपने स्तर पर आजीवन अपनाया है। यही उनकी दिव्य विभूतियों व आध्यात्मिक शक्तियों का स्रोत साबित होता रहा है। अब बारी उनकी है, जो आध्यात्मिक स्वास्थ्य व इसकी प्रयोग विधि से परिचित होना चाहते हैं। इच्छा यही है कि उनमें इन पंचशीलों के पालन का उत्साह उमड़े और वे इसके लिए इसी शारदीय नवरात्रि से साधना स्तर का प्रयत्न प्रारम्भ कर दें।

१. बनें अपने आध्यात्मिक विश्व के विश्वामित्र- जिस दुनिया में हम जीते हैं, उसका चिन्तन व व्यवहार ही यदि अपने को प्रेरित प्रभावित करता रहे तो फिर आध्यात्मिक जीवन दृष्टि अपनाने की आशा नहीं के बराबर रहेगी। लोग तो वासना, तृष्णा और अहंता का पेट भरने के अलावा और किसी श्रेष्ठ मकसद के लिए न तो सोचते हैं और न करते हैं। उनका प्रभाव और परामर्श अपने ही दायरे में घसीटता है। यदि जीवन में आध्यात्मिक चिकित्सा करनी है तो सबसे पहले अपना प्रेरणा स्रोत बदलना पड़ेगा। परामर्श के नए आधार अपनाने पड़ेंगे। अनुकरण के नए आदर्श ढूँढने पड़ेंगे।

इसके लिए हमें आध्यात्मिक चिकित्सा के मर्मज्ञों व विशेषज्ञों को अपना प्रेरणा स्रोत बनाना होगा। हां, यह सच है कि ऐसे लोग विरल होते हैं। हर गली- कूचे में इन्हें नहीं ढूँढा जा सकता। ऐसी स्थिति में हमें उन महान् आध्यात्मिक चिकित्सकों के विचारों के संसर्ग में रहना चाहिए, जिनका जीवन हमें बार- बार आकॢषत करता है। हमारे प्रेरणा स्रोत युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव, महर्षि श्री अरविन्द, स्वामी विवेकानन्द स्तर के कोई महामानव हो सकते हैं। इनमें से किसी से और इनमें से सभी से अपना भाव भरा नाता जोड़ा जा सकता है। अपने जीवन की महत्त्वपूर्ण समस्याओं के समाधान के लिए इनके व्यक्तित्व व विचारों से परामर्श किया जाना चाहिए। इन सबकी हैसियत हमारे जीवन में परिवार के सदस्यों की तरह होनी चाहिए। महर्षि विश्वामित्र की भाँति हमें संकल्पपूर्वक अभी इन्हीं क्षणों में अपना यह नया आध्यात्मिक विश्व बसा लेना चाहिए। दैनिक क्रिया कलापों को करते हुए हमें अपना अधिकतम समय अपने इसी आध्यात्मिक विश्व में बिताना चाहिए। ऐसा हो सके तो समझना चाहिए कि अपनी आध्यात्मिक चिकित्सा का एक अति महत्त्वपूर्ण आधार मिल गया।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ १२०

👉 गुरुवर की वाणी

★ प्रखर प्रतिभा संकीर्ण स्वार्थपरता से ऊंची उठी होती है। उसे मानवी गरिमा का ध्यान रहता है। उसमें आदर्शों के प्रति अनन्य निष्ठा का समावेश रहता है। लोकमंगल और सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन से उसे गहरी रुचि रहती है। ऐसे लोग असफल रहने पर शहीदों में गिने और देवताओं की तरह पूजे जाते हैं। यदि वे सफल होते हैं, तो इतिहास बदल देते हैं। प्रवाहों को उलटना इन्हीं का काम होता है।
(21 वीं सदी बनाव उज्ज्वल भविष्य-29)

◆ अवांछनीयताओं के विरुद्ध मोर्चा लेने के लिए अपनी नीति और कार्यपद्धति स्पष्ट है। ज्ञानयज्ञ का- विचार क्रान्ति का प्रचार अभियान इसीलिए खड़ा किया गया है। अवांछनीयताएं वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन में बेतरह घुस पड़ी हैं। यह सब चल इस लिए रहा है कि उसे सहन कर लिया गया है। इसके लिए लोकमानस ने समझौता कर लिया है और बहुत हद तक उसे अपना लिया है। जन साधारण को प्रचार अभियान द्वारा प्रकाश का लाभ और अंधकार की हानि को गहराई तक अनुभव करा दिया, तो निश्चय ही दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध विद्रोह भड़क सकता है। अवांछनीयता एवं दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष व्यापक रूप से खड़ा किया जाना चाहिए। इसके लिए भर्त्सना अभियान चलाएं।
(हमारी युग निर्माण योजना-2, पेज-203)

■  दुर्योधन जैसे अनीति का चयन करने वाले एवं अर्जुन जैसे ईश्वरीय कृपा को वरण करने वाले तत्त्व हर मनुष्य के भीतर विद्यमान है। एक को विवेक या सुबुद्धि एवं दूसरे को अविवेक या दुर्बुद्धि कह सकते हैं। किसका चयन व्यक्ति करता है, यह उसकी स्वतंत्रता है।
(प्रज्ञापुराण-1, पेज-51)

★ समस्त मनुष्य समाज एक शरीर की तरह है और उसके घटकों को सुख-दुःख में सहयोगी रहना पड़ता है। एक नाव में बैठने वाले साथ-साथ डूबते पार होते हैं। मानवी चिन्तन और चरित्र यदि निकृष्टता के प्रवाह में बहेगा तो उसकी अवांछनीय प्रतिक्रिया सूक्ष्म जगत् में विषाक्त विक्षोभ उत्पन्न करेगी और प्राकृतिक विपत्तियों के रूप में प्रकृति प्रताड़ना बरसेगी। चित्र-विचित्र स्तर के दैवी प्रकोप, संकटों और त्रासों से जनजीवन को अस्त-व्यस्त करके रख देंगे। हर व्यक्ति का कर्तव्य है कि अपनी सज्जनता तक ही न सीमित रहे, वरन् आगे बढ़कर संपर्क क्षेत्रों की अवांछनीयता से जूझें। जो इस समूह धर्म की अवहेलना करता है, वह भी विश्व व्यवस्था की अदालत में अपराधी माना जाता है।
(प्रज्ञा अभियान का दर्शन, स्वरूप-8)

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...