शुक्रवार, 9 नवंबर 2018

👉 Sanyasi Kon...?? संन्यासी कौन..?

🔷 उन दिनों विवेकानन्द भारत भ्रमण के लिये निकले हुए थे! इसी क्रम में घुमते हए एक दिन हाथरस पहुँचे! भूख और थकान से उनकी विचित्र हालत हो रही थी! कुछ सस्ताने के लिये वे एक वृक्ष के नीचे निढाल हो गये!

🔶 अरुणोदय हो चुका था! उसकी सुनहरी किरणें स्वामी जी के तेजोद्दीप्त चेहरे पर पड़कर उसे और कान्तिवान बना रही थीं! इसी समय उधर से एक युवक निकला! स्वामी जी के आभावान चेहरे को देखकर ठिठका! अभी वह कुछ बोल पाता, इससे पूर्व ही उनकी आँखे खुलीं और एक मृदु हास्य बिखेर दिया! प्रत्युत्तर में युवक ने हाथ जोड़ लिये और आग्रह भरे स्वर में कहा -

🔷 "आप कुछ थके और भूखे लग रहे हैं! यदि आपत्ति न हो, तो चलकर मेरे यहाँ विश्राम करें!" बिना कुछ कहे स्वामी जी उठ पड़े और युवक के साथ चलने के लिये राजी हो गये!

🔶 चार दिन बीत गये! नरेन्द्र अन्यत्र प्रस्थान की तैयारी करने लगे! इसी समय वह युवक उनके समक्ष उपस्थित हुआ! चल पड़ने को तैयार देख उसने पूछ लिया - "क्या अभी इसी समय प्रस्थान करेंगे?" "हाँ , इसी वक्त! " उत्तर मिला! "तो फिर मुझे भी संन्यास दीक्षा देकर अपने साथ ले चलिये, मैं भी संन्यासी बनूँगा!"

🔷 स्वामी जी मुस्करा दिये! बोले - "संन्यास और संन्यासी का अर्थ जानते हो?" जी हाँ, भलीभाँति जानता हूँ! संन्यास वह है जो मोक्ष की ओर प्रेरित करे और संन्यासी वह जो मुक्ति की इच्छा करे! "किसकी मुक्ति?"

🔶 स्वयं की, साधक की! " तत्क्षण उत्तर मिला!

🔷 स्वामीजी खिलखिलाकर हँस पड़े! बोले - " तुम जिस संन्यास की चर्चा कर रहे हो, वह संन्यास नहीं पलायनवाद है! संन्यास न कभी ऐसा था, न आगे होने वाला है! तुम इस पवित्र आश्रम को इतना संकीर्ण न बनाओ! यह इतना महान् व शक्तिवान् है कि जब कभी इसकी आत्मा जागेगी, तो बम की तरह धमाका करेगा! तब भारत, भारत ( वर्तमान दयनीय भारत ) न रहकर, भारत ( आभायुक्त ) महाभारत, विशाल भारत बन जायेगा और एक बार पुनः समस्त विश्व इसके चरणों में गिरकर शान्ति के सन्देश की याचना करेगा! यही अटल निर्धारण है! ऐसा होने से कोई भी रोक नहीं सकता! अगले दिनों यह होकर रहेगा!

🔶 मैं स्पष्ट देख रहा हूँ की भारत के युवा संन्यासी इस मुहीम में पूर्ण निष्ठा के साथ जुट पड़े हैं और अपनी सम्पूर्ण क्षमता लगाकर इसे मूर्तिमान करने में कुछ भी कसर उठा नहीं रख रहे हैं! इनके प्रयासों से भारत की आत्मा को जगते, मैं देख रहा हूँ और देख रहा हूँ उस नवविहान को, जिसकी हम सबको लम्बे समय से प्रतीक्षा है! "

🔷 तनिक रुककर उन्होंने पुनः कहना आरम्भ लिया - " यह वही संन्यास है, जिसकी सामर्थ्य को हम विस्मृत कर चुके हैं, जिसके दायित्व को भला चुके हैं! इसका तात्पर्य आत्म-मुक्ति कदापि नहीं हो सकता! यह स्वयं में खो जाने की, अपने तक सीमित होने की प्रेरणा हमें नहीं देता, वरन् आत्मविस्तार का उपदेश करता है! यह व्यक्ति की मुक्ति का नाम नहीं, अपितु समाज की, विश्व की, समस्त मानव जाति की मुक्ति का पर्याय है! यह महान आश्रम अपने में दो महान परम्पराओं को साथ लेकर चलता है - साधु और ब्राह्मण की! साधु वह, जिसने स्वयं को साध लिया! ब्राह्मण वह, जो विराट् ब्रह्म की उपासना करता हो, उसी की स्वर्ग मुक्ति की बात सोचता हो! तुम्हारा संन्यास गुफा-कन्दराओं तक, एकान्तवास तक परिमित है किन्तु हमारा संन्यास जन-संकुलता का नाम है! "

🔶 वाणी कुछ समय के लिये रुकी, तत्पश्चात पुनः उभरी - " बोलो ! तुम्हें कौन-सा संन्यास चहिये? एकान्त वाला आत्म-मुक्ति का संन्यास या साधु-ब्राह्मणों वाला सर्व-मुक्ति का संन्यास? "

🔷 युवक स्वामीजी के चरणों में गिर पड़ा, बोला - " नहीं, नहीं मेरा आत्म-मुक्ति का मोह भंग हो चुका है! मुझे ऐसा संन्यास नहीं चहिये! मैं समाज की स्वर्ग मुक्ति के लिये काम करूँगा! देखा जाय तो समाज-मुक्ति के बिना व्यक्ति की अपनी मुक्ति सम्भव नहीं! "

🔶 युवक के इस कथन पर स्वामीजी ने सिर हिलाकर सहमति प्रकट की! एक क्षण के लिये दोनों के नेत्र मिले मानों प्राण-प्रत्यावर्तन की प्रक्रिया चल पड़ी हो! फिर उसे गुरु ने उठाकर गले से लगा लिया और कहा - " आज से शरत्चन्द्र गुप्त नहीं, स्वामी सदानन्द हुए! " गुरु-शिष्य दोनों उसी समय आगे की यात्रा पर प्रस्थान कर गये!!

🔷 मोक्ष अकेले हथियाने की वस्तु नहीं है! "मोक्ष हम सब को" यही वाक्य शुद्ध है! सब के मोक्ष का प्रयत्न करने में अपना मोक्ष भी सम्मिलित है।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 9 November 2018


👉 आज का सद्चिंतन 9 November 2018


👉 साधना- अपने आपे को साधना (भाग 5)

🔷 गायक और वादक एक दिन में अपने विषय में पारंगत नहीं हो जाते, उन्हें स्तर की, नाद की साधना नित्य निरन्तर करनी पड़ती है। ‘रियाज’ न किया जाय तो गायक का स्वर छितराने लगता है और वादक की उँगलियाँ जकड़−मकड़ दिखाने लगती हैं। संगीत सम्मेलन तो यदा−कदा ही होते हैं, पर वहाँ पहुँचने पर सफलता का श्रेय देने वाली स्वर साधना को नित्य ही अपनाये रहना पड़ता है। गीत सुनने वालों ने कितनी प्रशंसा की और कितनी धन राशि दी यह बात गौण रहती है। संगीत साधक, आत्म−तुष्टि की नित्य मिलने वाली प्रसन्नता को ही पर्याप्त मानता है और बाहर से कुछ भी न मिले तो भी वह एकान्त जंगल की किसी कुटिया में रहकर भी आजीवन बिना ऊबे संगीत साधना करता रह सकता है। आत्म−साधक की मनः−स्थिति इतनी तो होनी ही चाहिए।

🔶 नर्तक, अभिनेता अपना अभ्यास जारी रखते हैं। शिल्पी और कलाकार जानते हैं कि उन्हें अपने प्रयोजन के लिए नित्य नियमित अभ्यास करना चाहिए। फौजी सैनिकों को अनिवार्य रूप से ‘परेड’ करनी पड़ती है। अभ्यास छूट जाने पर न तो गोली का निशाना ठीक बैठता है और न मोर्चे पर लड़ने के लिए जिस कौशल की आवश्यकता पड़ती है वह हाथ रहता है। किसी विशेष प्रयोजन के लिए नियत संख्या तथा नियत अवधि की साधना से किसी पूजा प्रयोजन का संकल्प लेने वाला समाधान हो सकता है पर आत्म−साधक को इतने भर से सन्तोष नहीं मिलता। वह जानता है कि प्यास बुझाने के लिए रोज ही कुँए से पानी खींचना पड़ता है और सफाई रखने के लिए रोज ही कमरे को बुहारना पड़ता है।

🔷 मानवी सत्ता की स्थिति भी ऐसी ही है, उसकी हीरों भरी खदान को हर दिन खोदना, कुरेदना चाहिए। तभी नित्य नये उपहार मिलने सम्भव होंगे। शरीर को स्नान कराना , दाँत माँजना , कपड़े धोना नित्य कर्म है। उसकी उपेक्षा नहीं हो सकती। संसार का विक्षोभ भरा वातावरण हर किसी की अन्तःचेतना को प्रभावित करता है। उसकी नित्य सफाई न की जाय तो क्रमशः गन्दगी बढ़ती ही चली जायगी और अन्ततः कोई बड़ी विपत्ति खड़ी करेगी।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1976 पृष्ठ 14

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1976/January/v1.14

👉 Now Study is the Only Option

🔷 Human mind is like a blank paper or an unexposed photographic film, which records the effect of surrounding situations, events and thoughts, accordingly shaping the mentality. A person is basically neither wise nor a fool, neither good nor bad, but very sensitive, and hence, is deeply influenced by the surrounding and molded in the same pattern. This can lead him to great heights or it can throw him into hell, based on the environment around him.The most important thing needed for raising our personality to greater heights is a thought process associated with not only idealism, but also with our faith and favor.

🔶 This can be fulfilled in two ways: One, long enough association with a Guru, idealist person with high moral and sound character; and Second, reading, study and absorption of thoughts of such great personalities. Under the prevailing circumstances, the first option seems very difficult, as such great people have become so rare now, and gradually they are being replaced by the cheaters and fraudsters who themselves are confused and mislead the followers who blindly confide in them. The really deserving spiritual leaders are so busy in refining the current situation that they hardly can devote any time to accompany and lead the anxious mass. Therefore, if one is fortunate enough to be around a really honest wise man, he should get the chance to satisfy the thirst of knowledge, because, long association with such personalities is rarely possible.

🔷 The second option is readily available – and that is the reading and deep study of thoughts of great spiritual leaders, expressed and written in books. Only through such study, a prolonged atmosphere can be created in our mind which can lead us to a glorious, divine life. Our efforts to satisfy this spiritual hunger must be far stronger than working for our physical needs of bread, butter and shelter. The study of such pious literature must become a part of our daily routine. Then only our mind can be protected from ill-effects of the polluted environment, which otherwise encourages us to involve into deteriorated, shameful activities. If not curtailed, this environment can provoke common mass to look for benefits in such activities.So, self study of great thoughts and pious books is the only solution to protect our mind from contaminated environment.

🔶 The great spiritual personalities - living or dead, have created the literature containing immortal thoughts, and this is permanently available in the form of books for our study. Such books are inexpensive, they do not cost much, but the benefit derived from them is precious like gold and invaluable.It hardly needs to mention that Yug Nirman Yojana combines the old wisdom with the new knowledge and imbibes the principles of our ancient “Sanatan” religion along with the modern intellectual and scientific thought process. The learned class admires it as a marvelous and unique combination. It is a wise step to study the Yug Nirman Literature instead of reading many diversified books leading to confusion.Let us make a good habit of reading Yug Nirman Literature a part of our routine daily life.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Yug Nirman Yojana – The Vision, Structure and the Program – Vangmay 66 Page 6.28

👉 अब स्वाध्याय ही एकमात्र विकल्प

🔷 मनुष्य का मन कोरे कागज या फोटोग्राफी की प्लेट की तरह है जो परिस्थितियॉं, घटनाएँ एवं विचारणाएँ सामने आती रहती हैं उन्हीं का प्रभाव अंकित होता चला जाता है और मनोभूमि वैसी ही बन जाती है। व्यक्ति स्वभावत: न तो बुद्धिमान है और न मूर्ख, न भला है, न बुरा। वस्तुत: वह बहुत ही संवेदनशील प्राणी है। समीपवर्ती प्रभाव को ग्रहण करता है और जैसा कुछ वातावरण मस्तिष्क के सामने छाया रहता है उसी ढाँचे में ढलने लगता है। उसकी यह विशेषता परिस्थितियों की चपेट में आकर कभी अध:पतन का कारण बनती है। कभी उत्थान का। व्यक्तित्व की उत्कृष्टता के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता उस विचारणा की है जो आदर्शवादिता से ओत-प्रोत होने के साथ-साथ हमारी रुचि और श्रद्धा के साथ जुड़ जाये। यह प्रयोजन दो प्रकार से पूरा हो सकता है। एक तो आदर्शवादी उच्च चरित्र महामानवों का दीर्घकालिन सान्निघ्य, दूसरा उनके विचारों का आवगाहन व स्वाध्याय।

🔶 वर्तमान परिस्थितियों में पहला तरीका कठिन है। एक तो तत्वदर्शी महामानवों का एक प्रकार से सर्वनाश हो चला है। श्रेष्ठता का लबादा ओढ़े कुटिल, दिग्भ्रान्त, उलझे हुए लोग ही श्रद्धा की वेदी हथियाये बैठे हैं। उनके सानिघ्य में व्यक्ति कोई दिशा पाना तो दूर, उल्टा भटक जाता है। जो उपयुक्त हैं वे समाज की वर्तमान परिस्थितियों को सुधारने के लिए इतनी तत्परता एवं व्यस्तता के साथ लगे हुए हैं कि सुविधापूर्वक लम्बा सत्संग दे सकना उनके लिए भी संभव नहीं, फिर जो सुनना चाहता है वही कहाँ खाली बैठा है। इसलिए जिन सौभाग्यशालियों को प्रमाणिक महापुरूषों का सान्निघ्य जब कभी मिल जाये तब उतने में ही संतोष कर लेना पड़ेगा। दीर्घकालिन सत्संग की संभावनाएँ आज की स्थिति में कम ही हैं।

🔷 दूसरा मार्ग ही इन दिनों सुलभ है। स्वाध्याय के माघ्यम से मस्तिष्क के सम्मुख वह वातावरण देर तक आच्छादित रखा जा सकता है जो हमें प्रखर और उत्कृष्ट जीवन जी सकने के लिए उपयुक्त प्रकाश दे सके। स्वाध्याय में बौद्धिक भूख और आध्यात्मिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए हमें पेट को रोटी और तन को कपड़ा जुटाने से भी अधिक तत्परता के साथ प्रयत्नशील होना चाहिए। स्वाध्याय दैनिक नित्य कर्मों में शामिल रखा जाये। क्योंकि चारों ओर की परिस्थितियॉं जो निष्कर्ष निकालती हैं उनमें हमें निकृष्ट मान्यताएँ और गतिविधियॉं अपनाने का ही प्रोत्साहन मिलता है। यदि इस दुष्प्रभाव की काट न की गई तो सामान्य मनोबल का व्यक्ति दुर्बुद्धि अपनाने और दुष्कर्म करने में ही लाभ देखने लगेगा। इसी प्रकार मन के चारों ओर के गर्हित वातावरण का प्रभाव पड़ते रहने से जो मलीनता जमती है उसके परिष्कार का एकमात्र उपाय स्वाध्याय ही रह जाता है।

🔶 जीवित या मृत महामानवों के विचारों, चरित्रों का प्रभाव जब चाहे तब, जितनी देर तक चाहें उतनी देर तक उनके साथ सामीप्य-सान्निघ्य का लाभ ले सकते हैं। उनका साहित्य हमें हर समय उपलब्ध रह सकता है और अपनी सुविधानुसार चाहे जितना सम्बन्ध उसके साथ जोड़ा रखा जा सकता है। पुस्तकों का मूल्य स्वल्प होता है पर उनके द्वारा जो प्रभाव उपलब्ध किया जा सकता है उसे बहुमूल्य या अमूल्य ही मानना पड़ेगा। कहना न होगा कि युग-निर्माण योजना ने प्राचीनतम और नवीनतम का अनुपम सम्मिश्रण किया है। सृष्टि के आदिकाल से लेकर चले आ रहे सनातन धर्म सिद्धांतों के आधुनिक बुद्धिवाद और विज्ञानवाद के साथ जोडक़र वर्तमान परिस्थितियों के उपयुक्त ऐसे समाधान प्रस्तुत किये हैं, जिन्हें विवेकवानों ने अद्भुत और अनुपम कहा है। उचित यही होगा कि हर दिग्भ्रान्त करने वाली विभिन्न पुस्तकें पढऩे की अपेक्षा स्वाघ्याय के लिए युग-निर्माण साहित्य चुनें और उसे पढऩे का क्रम नित्यकर्म की तरह अपने दिनचर्या में सम्मिलित कर लें।

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-वांग्मय 66 पृष्ठ 6.28

👉 जीवन में किसी भी क्षण आप कमज़ोर पड़ें तो कैंसर को हराने वाली 'आनंदा' की कहानी ज़रूर पढ़ें।

🔷 कहते हैं कि जिंदगी का हर मोड़ एक नई सीख देकर जाता है. अपने ऊपर भरोसा रखने वाला ही जिंदगी के तमाम मुश्किलों को सफलतापूर्वक दूर कर देता है और अपनी इच्छाशक्ति से जीवन में सबसे सफल इंसान बनता है....

🔶 वह एक ऐसी जिंदादिल ज्योति है जो किसी तूफानी रात में एक पल के लिए भी नहीं फड़फड़ाती और न ही फीकी पड़ती है. जिंदगी में हार मानने वालों की भीड़ और पराजित हो चुके लोगों के बीच वह अकेली सैनिक है जिसके पास अभी भी चमकता कवच है. सपनों और उम्मीदों के क्रिया क्रम पर वह खिलखिलाकर हंसती है. इनमें से कुछ सपने और उम्मीद उनके भी थे. जीवन में सबसे अच्छा और बुरा होने के बाद भी कुछ ही महिलाओं में ऐसा साहस होता है जिसको आनंदा शंकर जयंत ने हासिल किया है. नृत्य से उनके दिल को आनंद मिलता है, शंकर और दुर्गा का मिथक उनके अस्तित्व का मतलब है और उनके जीवन साथी जयंत उनकी जिंदगी में शक्ति प्रदान करते हैं. वे हासिल करने और चमकते रहने की यात्रा में सफल रही हैं. उनकी दुनिया एक बार उनसे छीनने की कोशिश की गई लेकिन वे कभी हार नहीं मानी और जिंदगी की डोर पकड़ी रहीं, वक्त के साथ जिंदगी के काले बादल भी छंट गए और वह सूरज की तरह दोबारा चमकने लगीं. उनकी जिंदगी के तीन दशक नृत्य को समर्पित रहे और वहीं से आनंद प्राप्त हुआ और नृत्य के बदले उन्हें बेताशा खुशी मिली. इसके बाद उनकी और पाने की प्यास बढ़ गई. उन्होंने चार साल की उम्र में नृत्य सीखना शुरू किया. वे अपनी मां के घुटनों पर थी और उनकी मां ने आनंदा को नृत्य सीखने के लिए राजी किया. आज भी उनकी यादों में वह पल जिंदा है. उनके अस्तित्व की पूरी योजना पर उसका असर पड़ा. मशहूर नृत्यांगना आनंदा शंकर जयंत के मुताबिक, ‘मेरी मां और कला के उस रूप ने मुझे युवास्था में जकड़ लिया. उस मंदिर में, उस पल, मैं कम ही जानती थी कि नृत्य मेरा अनंतकाल को छूने का जरिया था.’ आनंदा ने चेन्नई के सबसे प्रमुख और मांग में रहने वाले इंस्टिट्यूट कलाक्षेत्र से नृत्य की ट्रेनिंग पाई है. उन्होंने छह साल का कोर्स पूरा किया है जिसे लोग एक, तीन या फिर चार साल में छोड़कर चले जाते हैं.


🔷 कलाक्षेत्र में ट्रेनिंग के दौरान और उसके बाद वे न सिर्फ भरतनाट्यम से परिचित हुईं बल्कि वीणा, कोरियोग्राफी, नट्टुवंगम और दर्शन शास्त्र से रूबरू हुईं. उन्होंने पासुमार्थी रामालिंगा शास्त्री से कुचिपुड़ी नृत्य सीखने का सम्मान हासिल किया. वे कहती हैं, ‘मैं 18 साल की थी और उभरती हुई नर्तकी थी और भरतनाट्यम पढ़ने के लिए मुझे भारत सरकार की तरफ से स्कॉलरशिप मिला. वहां तक मेरी योजना में कोई परिवर्तन नहीं था.’ कलाक्षेत्र कार्यक्रम पूरा करने के बाद उन्होंने छह लड़कियों को डांस सिखाने का काम शुरू किया. उन्हें पक्का विश्वास था कि औपचारिक शिक्षा उनके करियर को और मजबूत करेगा. वे कहती हैं, ‘लोग कहते हैं कि जुनून का पीछा करो ना कि पेंशन का लेकिन मेरा मानना है कि आप अपनी पेंशन पक्की करिए और फिर अपने जुनून का आनंद लीजिए.’ इसलिए आऩंदा ने कॉमर्स में डिग्री हासिल की और आर्ट्स, इतिहास और संस्कृति में मास्टर्स की पढ़ाई की. इस दौरान वे यूपीएससी के बारे में जाना. उन्होंने देखा कि उनके साथी किस तरह से प्रतियोगिता परीक्षा के लिए भागदौड़ कर रहे हैं. आनंदा ने न सिर्फ अपने विश्वविद्यालय में टॉप किया बल्कि उन्होंने यूपीएसी की परीक्षा भी पास की. उन्हें पहली महिला अधिकारी के तौर पर दक्षिण मध्य रेलवे के ट्रैफिक सर्विस में नौकरी मिली. वे कहती हैं, ‘हर कोई खुशी से आनंदित था लेकिन मेरी मां बहुत भयभीत थी. वे इस तरह से बताती हैं, ‘‘तुम अपने साथ ऐसा क्यों कर रही हो? तुम्हारा नृत्य खराब हो जाएगा. मैंने अपनी जिंदगी में बहुत से बलिदान इसलिए नहीं दिए हैं कि तुम्हें नृत्य को छोड़ता देखूं.’’’ उन्होंने अपनी मां को विश्वास दिलाया कि नृत्य उनकी जिंदगी में कभी पीछे नहीं रहेगा. और इस तरह से उनकी जिंदगी में जद्दोजहद शुरू हुआ. दिन में वह पुरुषों से भरे दफ्तर में महिला अधिकारी होती जहां लोग सर कहकर या फिर ‘बेबी’ कहकर पुकारते. लोग यह समझ नहीं पाते कि पुरुषों के लिए जो काम है वह एक महिला क्यों कर रही है. उनका काम ऐसा था जो अमूमन पुरुषों द्वारा ही अंजाम दिया जाता था जैसे ट्रेनों का मुआयना, दुर्घटना साइटों का आकलन, कंट्रोल रूम में ड्यूटी जहां पर उन्हें दुर्घटना के बारे में जानकारी मिलती है. कंट्रोल रूम में फोन करने वाले को लगता था कि उन्होंने गलती से किसी के घर पर फोन लगा दिया है और काम वाली जगह पर लोग यह सोचते कि वह किसी अफसर की बेटी है. वे कहती हैं, ‘मैं इस दृष्टिकोण के साथ नहीं चलती थी कि मैं पुरुषों की दुनिया में औरत हूं. मैंने अपने जेंडर को घर पर ही छोड़ दिया.’ नौकरी के बावजूद वह एक चमकदार नर्तकी का काम करती रही. राग के साथ मिलकर उनकी आत्मा जिंदा होती, ‘और उसके बाद समझौता शुरू हुआ, समझौता काम के साथ, समझौता परिवार और दोस्तों के साथ और खुद के साथ. जीवन में आगे बढ़ते हुए दोनों प्रयासों के साथ न्याय करना सीख लिया. इसके बाद सभी चीजें अपनी अपनी जगह आ गई.


🔶 उनकी जिंदगी उस वक्त शिखर पर थी और जब उन्हें सबसे बुरी खबर मिली. वे बताती हैं, ‘अमेरिकी दौरे से ठीक पहले, स्तन पर मामूली गांठ महसूस हुआ, इसके बाद मैं मैमोग्राम के लिए गई. पिछले काफी समय से मेरा वजन बढ़ रहा था.’ अपने पति को रिपोर्ट पढ़ने को देकर वे दो हफ्ते की यात्रा के लिए निकल गईं. जब वह वापस लौंटी तो उनके पति हैदराबाद के बजाय मुंबई एयरपोर्ट पर उनका इंतजार कर रहे थे. उन्होंने अपने पति से पूछा कि शादी के 17 साल बाद दोबारा प्यार कहां से उमड़ रहा है? लेकिन उनके दिल में कहीं न कहीं धड़कन भी बढ़ चुकी थी. उन्हें इस बात का एहसास हो चला था कि जरूर कुछ बात है.’ रिपोर्ट में कहा गया था कि उनके मैमोग्राम को और ध्यान देने की जरूरत है. जिसका सरल मतलब होता है कि वह कैंसर हो सकता और घातक साबित हो सकता है.’ अपने पति को उन्होंने गले लगाकर पूछा कि क्या यही हो सकता है, उनके पति ने कहा, ‘यह नहीं हो सकता है, अगर वह नहीं चाहती हैं तो.’

🔷 मैंने अपने आपसे तीन चीजें कहीं और तेज आवाज के साथ. इसलिए कि मैं इससे वापस लौट नहीं सकती.

‘पहली: कैंसर मेरी जिंदगी का सिर्फ एक पन्ना है. मैं इसे पूरी किताब बनने नहीं दूंगी.’

‘दूसरी: मैं इसे अपनी जिंदगी से बाहर कर दूंगी, ना कि इसे अपनी जिंदगी में दाखिल होने दूंगी.’

‘तीसरी: मैं कभी यह सवाल नहीं करूंगी, ‘मैं ही क्यूं?’’


🔶 इसके बाद जमीनी कार्रवाई शुरू हुई. कैंसर से लड़ने के लिए वह हर तरह से तैयार थीं. लेकिन वह डॉक्टर के उस सुझाव को मानने को कतई तैयार नहीं थी जिसमें उन्हें नृत्य न करने की सलाह दी गई थी. उन्हें कहा गया था कि इलाज के दौरान नृत्य न करें क्योंकि कीमो और रेडियोलॉजी न सिर्फ खराब सेल को खत्म करते हैं बल्कि अच्छे सेल भी खराब हो जाते हैं. इस वजह से सीढ़ी चढ़ने पर भी सांसें उखड़ने लगती हैं. तीन घंटे के लिए नृत्य और रियाज अज्ञेय लग रहा था. लेकिन आनंदा अटल थी. वे उस दौर को याद करते हुए कहती हैं, ‘अगर आप कला से ब्रेक ले लेते हैं तो आप खत्म हो जाते हैं और मैं यही तो नहीं करना चाहती थी. मैं कला को छोड़ना नहीं चाहती थी.’ मैं अपने ऑन्कोलॉजिस्ट से समझौता करने लगी, ‘मेरा कार्यक्रम है, क्या हम कीमो अगले दिन कर सकते हैं? डॉक्टर को लगा कि मैं अपना विवेक खो चुकी हूं क्योंकि मैं नृत्य को इलाज से पहले तवज्जो दे रही थी.’

🔷 7 जुलाई 2009 को उनका ऑपरेशन हुआ. आनंदा कहती हैं, ‘मैं ऑपरेशन में इस तरह से गई जैसे मैं किसी नृत्य कार्यक्रम के लिए जाती थी. मैं पार्लर गई, मैंने मैनीक्योर, पेडीक्योर कराया और अपने बाल बनवाए. वह दूसरा थिएटर था जहां मैं अपना नृत्य करने जा रही थी. मैं खुद की परीक्षा लेने जा रही थी. ऑपरेशन पूरा हो जाने के बाद मैंने बिंदी लगाई, लिपस्टिक लगाया और डॉक्टर से पूछा कि मैंने कैसा किया. क्या मैंने सही से किया?’’’ ऑपरेशन के दो दिन बाद ही वे जिंदगी के आम कामों में व्यस्त हो गई. कार्यक्रमों का आयोजन, अकादमी में बच्चों को ट्रेनिंग और दुनिया भर में शो के लिए तैयारी करने में जुट गईं. नृत्य ने उन्हें न सिर्फ परेशान होने से बचाया बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि कैंसर उनके जीवन को घेर कर न रखे. आनंदा अपने बुरे दिनों को भूल चुकी हैं लेकिन कुछ अच्छे पल आज भी उन्हें याद हैं. वे कहती हैं, ‘मैं बुरे दिन देखे हैं. मैं तीन दिन तक आराम करती लेकिन चौथे दिन मेरे पति मुझे घर से बाहर ड्राइव पर ले जाते और मुझे अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए कहते.’ उनके पति के पास कीमो के लिए बहुत ही सुंदर उपनाम था. वे इस तरह से कहती हैं, ‘मेरे पति कहते, कीमो को अमृत की तरह देखो. क्या तुम्हें नहीं लगता कि अमृत का साइड इफेक्ट होता है. वह मीठा हो जाएगा?’ उन्होंने एक और उपनाम खोज निकाला. जिसे वह लंबे अर्से से जानते थी. लेकिन आत्मा के इस परीक्षण में नया मतलब जाना. वे कहती हैं, ‘मैं कीमो के लिए गई तो मेरे दिमाग में एक तस्वीर थी-दुर्गा. इतनी आक्रामक, इतनी भुजाएं. हम हमेशा उनकी प्रशंसा में नृत्य करते हैं. मैंने दुर्गा को एक भगवान के रूप में नहीं देखा बल्कि ऐसे प्रतीक के तौर पर देखा जो हर कोई हो सकता है. मैंने अपने 18 हाथ अपने शुभचिंतकों द्वारा पकड़े देखे. मेरे डॉक्टर, रेडियोलॉजिस्ट, कीमोथेरापिस्ट, ऑनकोलॉजिस्ट, मेरा परिवार, मेरे पति, मेरा कुत्ता, मेरा नृत्य... और शेर? अरे यह तो आप है, आपकी शक्ति, नहीं? आपके भीतर का लचीलापन, मूल शक्ति ही आपका शेर है.’’

🔶 सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वह अपने मिजाज को बरकरार रख पाई. ‘मैं हंसती! मैंने अपने हास्यास्पद स्थिति का मजाक बनाया. आप जितना ज्यादा शर्मिंदा महसूस करेंगे लोग उतना ही आपको शर्मिंदा करेंगे. इसका उपाय यह है कि आप इस बारे में बात करें. एक बार मैं बाहर विग के साथ गई. एक अफसर मिल गया और पूछा तिरुपति? मैंने जवाब दिया ‘नहीं, कीमोथेरेपी.’


🔷 सामान्य रहते उन्होंने अपनी समस्या के बारे में बात करने को एक मुद्दा बना लिया. कैंसर पर दिया गया उनका TED लेक्चर अब तक का सबसे बेहतरीन TED टॉक किसी भी भारतीय द्वारा दिया गया बताया जाता है. जल्द ही लोगों को यह एहसास हो गया कि वे कोई पीड़ित या सर्वाइवर नहीं बल्कि विजेता हैं, आज वह कैंसर मुक्त हैं. रेलवे में वह आज भी सर वालों के समंदर में साहसी महोदया हैं और वह नृत्य भी करती हैं, उनके नृत्य के लय उनके प्रफुल्लित कहानी हमेशा सुनाते हैं.

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...