गुरुवार, 15 अक्तूबर 2020

👉 संसार और स्वप्न

एक किसान था। उसके एक लड़का था। और कोई सन्तान न थी। वह लड़के को बड़ा प्यार करता था और खूब लाड़ से पालन पोषण करता। एक दिन वह खेत पर काम कर रहा था तो उसे लोगों ने खबर दी कि तुम्हारा लड़का बड़ा बीमार है। उसकी हालत बहुत खराब है। किसान घर पर पहुँचा तो देखा लड़का मर चुका है। घर में स्त्रियाँ रोने लगी, पड़ोसिनें भी उस होनहार लड़के के लिए रोती हुई आईं। किन्तु किसान न रोया न दुःखी हुआ। वह शान्त चित्त से उसके अन्तिम संस्कार की व्यवस्था करने लगा। स्त्री कहने लगी “कैसा पत्थर का कलेजा है आपका, एकमात्र बच्चा था वह मर जाने से भी आपका दिल नहीं दुखा? थोड़ी देर बाद में किसान ने स्त्री को बुलाकर कहा देखो रात को मैंने एक स्वप्न देखा था। उसमें मैं राजा बन गया। मेरे सात राजकुमार थे जो बड़े ही सुन्दर और वीर थे। प्रचुर धन सम्पत्ति थी। सुबह आँखें खुलते ही देखा तो सब नष्ट। अब तुम ही बताओ कि उन सात पुत्रों के लिए रोऊं या इसके लिए। यह कहते हुए अपनी स्त्री को भी समझाया।

ज्ञानियों के लिए जैसा स्वप्न है वैसा ही यह दृश्य जगत। यह भी स्वप्नवत है, यह जानकर ज्ञानी लोग इसके हानि लाभ से प्रभावित नहीं होते और अपनी सदा एक रस, सत्य नित्य रहने वाली आत्म स्थिति में स्थिर रहते हैं।

📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1962  

👉 कुढ़न की असाध्य बीमारी

कुढ़न एक ऐसी बीमारी है जिसका कोई इलाज नहीं। आपकी स्थिति को दूसरों की तुलना से हीन मानकर कितने ही व्यक्ति असन्तोष में कुढ़ते रहते हैं। पुरुषार्थ के अभाव में प्रयत्नपूर्वक वे उस ऊँची स्थिति तक पहुँचने का साहस तो करते नहीं, उलटे जो आगे बढ़े हुए हैं उनमें ईर्ष्या करने लगते हैं। उन्हें लगता है कि यदि आगे बढ़े हुए की टाँग पकड़ कर पीछे घसीट लिया जाय या आगे बढ़ने से रोक दिया जाय तो विषमता की स्थिति दूर हो सकती है। ईर्ष्या में यही भाव छिपा रहता है। 

दूसरों की प्रशंसा या बढ़ती सहन न कर सकने में ईर्ष्यालु की महत्वाकाँक्षा छिपी रहती है। वह अपने से बड़े समझे जाने वालों की तुलना में अपने को हीन समझा जाना पसन्द नहीं करता। इस कमी को प्रयत्न और पुरुषार्थ द्वारा स्वयं उन्नति करके पूरा किया जा सकता है, पर इस कठिन मार्ग पर चलने की अपेक्षा लोग ठीक समझते हैं कि आगे बढ़े हुओं को घसीटा जाय, उनकी निन्दा की जाय या हानि पहुँचाई जाय। ईर्ष्यालु लोग ऐसा ही कुछ किया करते हैं। कुछ आगे बढ़े हुए लोग अपने से छोटों को बढ़ते नहीं देखना चाहते। वे सोचते हैं यह यदि बढ़कर मेरी बराबर आ जावेंगे तो फिर मेरी क्या विशेषता रहेगी? इसलिए बढ़ते हुओं को ऊपर उठने से पहले ही दबा देना चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जून 1962 

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ५१)

तीव्र प्रयासों से मिलेगी, समाधि में सफलता

समाधि की अवस्था को पाने के लिए पूर्व वर्णित तत्वों एवं सत्यों का जीवन में तीव्रतर होते जाना जरूरी है। सारा सुफल इस तीव्रता का ही है। महर्षि कहते हैं-
तीव्रसंवेगानामासन्नः॥ १/२१॥
शब्दार्थ- तीव्रसंवेगानाम् = जिनके साधन की गति तीव्र है, उनकी (समाधि); आसन्नः = शीघ्र (सिद्ध) होती है।
अर्थात् समाधि की सफलता उनके निकटतम होती है, जिनके प्रयास तीव्र, प्रगाढ़ और सच्चे होते हैं।
    
महर्षि के इस सूत्र में अनगिनत योग साधकों की सभी शंकाओं, समस्याओं, संदेहों एवं जिज्ञासाओं का समाधान है। इन पंक्तियों को पढ़ने वाले साधकों के मन में कभी न कभी यह बात अंकुरित हो जाती है कि इतने दिन हो गये साधना करते, बरस बीत गये गायत्री जपते, अथवा साल गुजर गये ध्यान करते, पर कोई परिणाम नहीं प्रकट हुआ। वह बात नहीं पैदा हुई जो सारे अस्तित्व को झकझोर कर कहें कि देखो यह है साधना का चमत्कार और जब ऐसा नहीं होता है, तो कई परमात्मा पर ही शक करने लगते हैं। मजे की बात यह है कि उन्हें अपने पर शक नहीं होता-मेरी साधना में कहीं कोई भूल तो नहीं? नाव ठीक नहीं चलती, तो मेरी पतवारें गलत तो नहीं है? दूसरा किनारा है या नहीं, इस पर संदेह होने लगता है। 
    
मगर ध्यान रहे, जिस नदी का एक किनारा है, दूसरा दिखाई पड़े या न पड़े, होगा ही, बल्कि है ही। कोई नदी एक किनारे की नहीं होती। उस दूसरे किनारे का नाम समाधि है, इस किनारे का नाम संसार है। संसार और समाधि के किनारों के बीच जीवन की यह अन्तःसलिला, यह गंगा बह रही है। अगर ठीक से नाव चलाई जाय, सही ढंग से साधना की जाय, तो समाधि निश्चित है।
    
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ९०
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...