सोमवार, 21 दिसंबर 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ८९)

अभिरुचि के ही अनुरूप हो ध्यान 
    
महर्षि पतंजलि का यह सूत्र पहले के सभी सूत्रों से कहीं अधिक गहन एवं व्यापक है। साथ ही इस सूत्र में उनकी वैज्ञानिकता के गहरे रहस्य भी निहित हैं। ध्यान के प्रयोग के लिए विषय वस्तु के चुनाव में अभिमत का, आकर्षण का, गहन रुचि का भारी महत्त्व है। किसी के व्यक्तित्व पर ध्येय को आरोपित नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा हुआ अथवा किया गया, तो ध्यान बोझ बन जाएगा। ध्यान के क्षण विश्रान्ति न बनकर व्यायाम बन जाएँगे। दुर्भाग्यवश होता ऐसा ही है। अपनी मान्यताओं, आग्रहों, प्रतीकों को सभी के ध्यान का विषय बनाने के लिए भारी प्रयत्न किए जाते हैं। यही वजह है कि ध्यान के ज्यादातर प्रयोग अपने सार्थक परिणाम नहीं प्रस्तुत कर पाते।
    
ध्यान अपने यथार्थ में सम्प्रदाय, मजहब, देश, काल की सीमाओं में बँधा हुआ नहीं है। इसकी असीमता व्यापक है, इसके उद्देश्य उच्चतम है। यह तो व्यक्तित्व को रूपान्तरित करने वाली औषधि है। इस अर्थ में ध्यान की प्रक्रिया एवं विषय वस्तु का चुनाव प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसी तरह से किया जाना चाहिए, जिस तरह से कोई चिकित्सक अपने मरीज के लिए औषधि चुनता है। समाधान के पहले निदान की प्रक्रिया अनिवार्य है। और निदान तभी सम्भव है, जब व्यक्तित्व की सभी विशेषताओं एवं उसके गुण-दोषों की सम्यक् जानकारी ली गयी हो।
    
ध्यान की प्रक्रिया का सच यह है कि ध्यान की विषय वस्तु के प्रति साधक के मन में गहरी आस्था हो। उसके भाव एवं विचार सहज ही उस ओर बहने लगे। ध्यान की विषय वस्तु के चिन्तन एवं स्फुरण मात्र से उसके अन्तस् में उल्लास एवं श्रद्धा तरंगित हो। अपने आप ही उसका विचार प्रवाह ध्यान की विषय वस्तु में विलीन होने के लिए आतुर हो उठे। और ऐसा तभी हो सकता है, जब ध्यान की विषय वस्तु व्यक्ति के अन्तस् की विशेषताओं के अनुरूप हो। उदारण के लिए एक प्रकृति प्रेमी व्यक्ति के लिए प्राकृतिक सौन्दर्य ध्यान की विषय वस्तु बन सकता है। जबकि एक विचारवान् व्यक्ति  किसी दार्शनिक विचार पर ध्यान करना अधिक पसन्द करेगा।
    
नीलगगन में आते हुए सूरज का ध्यान किसी एक के लिए सहज है। जबकि दूसरे की श्रद्धा गोपाल कृष्ण में टिकती है। किसी को भगवान् बुद्ध की ध्यानस्थ मूर्ति संवेदित करती है, तो कोई महापराक्रमी हनुमान् को अपने ध्यान का केन्द्र बनाना चाहता है। इन सबसे अलग किसी की आस्था साकार सीमाओं से अलग व्यापक विराट् निराकार में टिकती है। असीमता का भाव उसमें संवेदनों की सृष्टि करता है। किसी का मन उपनिषदों के  तत्त्वमसि आदि महावाक्यों के चिन्तन में रमता है। यदि प्रश्न यह उठे कि इसमें से श्रेष्ठ क्या है? तो उत्तर यह होगा कि व्यक्तित्व की विशेषताओं के अनुरूप वह सभी ध्यान श्रेष्ठ है।
    
इस सम्बन्ध में एक सत्य और है कि ध्यान की विषय वस्तु का चयन उचित है या नहीं? इसका मापन इस बात से भी होता है कि ध्यान करने वाले की चेतना निरन्तर परिमार्जित, पवित्र एवं रूपान्तरित हो रही  है या नहीं। पवित्रता एवं रूपान्तरण को ध्यान के प्रभाव की अनिवार्य शर्त एवं परिणति के रूप में परखा जाना चाहिए। ऐसा होने पर ही साधक की ध्यान साधना की सफलता खरी साबित होती है। फिर स्वाभाविक ही उसके जीवन में योग विभूतियाँ अंकुरित-पल्लवित होने लगती हैं। 

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १५५
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

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