सोमवार, 4 अक्तूबर 2021

👉 भक्तिगाथा (भाग ७०)

भक्तश्रेष्ठ अम्बरीश की गाथा

भक्त और भगवान् के सान्निध्य की बात महर्षि वसिष्ठ को बहुत भायी और वे प्रसन्न मन से अयोध्या के राजकुल के पुरोहित हो गए। इसी कुल में भक्त श्रेष्ठ अम्बरीश का जन्म हुआ और वे अयोध्या के अधिपति हुए। विशाल साम्राज्य के चक्रवर्ती सम्राट होने के बाद भी उनकी भक्ति में तनिक सी भी न्यूनता नहीं आयी। सम्राट अम्बरीश नियमित एकादशी का व्रत करते थे, भगवन्नाम जप में उनकी अटूट निष्ठा थी। वह हमेशा ही विराट् यज्ञों का आयोजन कर यज्ञपति भगवान् विष्णु का यजन-पूजन करते थे। महर्षि वसिष्ठ ने बहुत ही पुलकित मन से आज अपने यजमान एवं प्रिय शिष्य महाराज अम्बरीश का स्मरण किया और कहने लगे- अयोध्या के साम्राज्य में एकादशी सदा ही अद्भुत रही है। परन्तु जब अम्बरीश अयोध्या के अधिपति थे, तब एकादशी की विशिष्टता कुछ अधिक ही विशिष्ट थी। महाराज बड़े ही दिव्य एंव भव्य ढंग से एकादशी का परायण करते थे।

उनके इस परायण में वह और उनका राजपरिवार ही नहीं, बल्कि अयोध्या का प्रत्येक परिवार भागीदार होता था। जहाँ तक कि एकादशी व्रत की बात है तो यह व्रत तो उन दिनों महाराज के विशाल साम्राज्य का प्रत्येक नागरिक करता था, भले ही उसके ईष्ट आराध्य देव कोई भी क्यों न हो। यह एकादशी का व्रत तो अयोध्या के साम्राज्यवासियों का अपने महाराज की भक्ति के प्रति सजल श्रद्धा थी। और इस श्रद्धा से अयोध्या के जन-जन का मन अभिभूत था। उस दिन भी महाराज एकादशी के व्रत का पारायण कर रहे थे। सदा ही की भांति अयोध्यावासी इसमें भागीदार थे। आमंत्रित ऋषिगण भी विपुल संख्या में थे। राजकर्मचारी आगन्तुक साधु-तपस्वियों का भावपूर्ण सत्कार कर रहे थे।

इन आगन्तुक तपस्वियों में ऋषि विदू्रम भी थे। इनके तप की चर्चा उन दिनों सम्पूर्ण अयोध्या राज्य में होती रहती थी। विद्रूम का कठोर तप आश्चर्यजनक था। उनके इस अलौकिक तप की कथा धरती के मानव ही नहीं देवलोक के देवी-देवता भी करते थे। सामान्यतया तपस्वी श्रेष्ठ कहीं भी न आने-जाने के लिए विख्यात् थे। आज उनका यहाँ आना सर्वथा विस्मयकारी था। जो अपने सम्पूर्ण जीवन राजगृह एवं भोजन आदि से दूर रहा हो, उसका इस तरह राजगृह में आना एवं भोजन की पंक्ति में बैठना सर्वथा विस्मयकारी था। चकित तो स्वयं सम्राट अम्बरीश थी थे। उन्हें भी विद्रूम का आना कुछ समझ में नहीं आ रहा था। इसके पहले कितने ही अवसरों पर सम्राट विद्रूम की कुटिया में गए थे। परन्तु उन्होंने तो उनसे मिलने से ही इन्कार कर दिया था। उन्हें आमंत्रित करके राजभवन बुलाने की बात सोची भी नहीं जा सकती थी।

कई बार सम्राट अम्बरीश ने इस की चर्चा ब्रह्मर्षि वसिष्ठ से की थी। कई बार तो इस चर्चा को करते हुए सम्राट व्यथित हो जाते थे। वह कहते- गुरुदेव! मुझे इस धरती के सभी महर्षियों, साधु-तपस्वियों का आशीर्वाद मिल चुका है। परन्तु न जाने क्यों मैं महातपस्वी विद्रूम की कृपा से अभी तक वंचित हूँ। अवश्य ही मेरी भगवद्भक्ति में कहीं कोई खोट है, तभी अपने तप से सर्वलोकों को प्रकाशित करने वाले महर्षि विद्रूम मुझसे मिलना तक नहीं पसन्द करते। जब-जब महाराज अम्बरीश ने विद्रूम की चर्चा की, उनसे न मिल पाने की अपनी व्यथा कही, वसिष्ठ ने उन्हें सान्त्वना प्रदान की, उनको समझाया और कहा- पुत्र! विद्रूम तपस्वी हैं पर निष्करूण नहीं। एक न एक दिन किसी न किसी अवसर पर वह तुम्हारे पास अवश्य आएँगे। तुम इस सत्य को सुनिश्चित रूप से जान लो कि वे कहीं भी हों, अपने तप की किन्हीं भी प्रक्रियाओं में क्यों न लीन हों, पर तुम्हारे हृदय से वह देर तक अपरिचित नहीं रह सकते। तुम्हें उनकी कृपा अवश्य मिलेगी। पर कब और किस अवसर पर? इसका उत्तर तो या तो वह स्वयं दे सकते हैं, अथवा उनकी रचना करने वाला विधाता। वही तपस्वी विद्रूम आज महाराज के राजभवन में एकादशी परायण के भोजन के अवसर पर पधारे थे। हालांकि उनके इस आगमन का प्रयोजन अभी तक रहस्यमय था।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १२९

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