शनिवार, 30 अक्तूबर 2021

👉 स्वाध्याय मंडल, प्रज्ञा संस्थान और प्रज्ञा केन्द्र (भाग ३)

अपने समय में विचार क्षेत्र की भ्रान्तियाँ और विकृतियाँ ही लोक चिन्तन को भ्रष्ट और आचरण प्रचलन को दुष्ट बनाने के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं। अन्यथा विज्ञान शिक्षा और उद्योग क्षेत्र की वर्तमान प्रगति के रहते मनुष्य हर दृष्टि से सुखी सम्पन्न रह सकता था। आस्था संकट ही अपने समय का सबसे बड़ा विग्रह है। उसी ने व्यक्ति और समाज के सम्मुख अगणित समस्याएँ, विपत्तियाँ और विभीषिकाएँ खड़ी की हैं। समाधान के लिए प्रचलित सुधार इसी से सफल नहीं हो पाते कि भावनाओं, मान्यताओं, विचारणाओं, आकांक्षाओं में सुधार परिष्कार का प्रयत्न नहीं हुआ। मात्र अनाचारों के दमन, सुधार की बात सोची जाती रही। सड़ी कीचड़ यथा स्थान बनी रहे तो मक्खी मच्छर पकड़ने, मारने, पीटने से क्या काम बने? रक्त में विषाक्तता भरी रहे तो फुन्सियों पर मरहम लगाने भर से क्या बात बने? एक सुधार पूरा होने से पूर्व ही सौ नये बिगाड़ उठे तो चिरस्थायी सुधार की संभावना नहीं रहेगी।
   
अपने समय की समस्त समस्याओं का एक ही हल है विचारक्रान्ति अभियान, लोक मानस का परिष्कार। इसके लिए स्वाध्याय और सत्संग की ढाल तलवार का प्रयोग करना होगा। युगान्तरीय चेतना का प्रतिनिधित्व प्रज्ञा साहित्य करता है। उसे पढ़ने- पढ़ाने की प्रक्रिया यदि द्रुतगामी बनाई जा सके, तो अब तक चल रही प्रगति में तूफानी उभार आ सकता है। नगण्य से साधनों पर पिछले दिनों २४ लाख व्यक्तियों का प्राणवान देव परिवार खड़ा किया जा सका है, तो कोई कारण नहीं कि उसी कार्य को व्यवस्थित प्रज्ञा संस्थान संभाल ले तो देखते- देखते जन जागरण की प्रक्रिया को सैकड़ों गुनी अधिक प्रचंड बनाया जा सकेगा। देखने में यह छोटा सा उपचार कितना महत्त्वपूर्ण है, उसका संदर्भ घने अंधकार से निपटने में छोटे से दीपक की भूमिका से समझा समझाया जा सकता है।
   
स्वाध्याय मंडल प्रज्ञा संस्थानों को भी बड़े प्रज्ञापीठों के लिए निर्धारित कार्य पद्धति अपनानी होगी। जन जागरण के लिए जन सम्पर्क, जन सम्पर्क से जन समर्थन और सहयोग मिलने, उस आधार पर युग परिवर्तन का ढाँचा खड़ा होने का सरंजाम जुटने की बात बार- बार कही जाती रही है। इस प्रयोजन के लिए प्रज्ञा साहित्य का पठन- पाठन और दीवारों पर आदर्श वाक्य लेखन की प्रक्रिया को स्वाध्याय कहा जा सकता है। प्रज्ञापीठों की पंच सूत्री योजना में सत्संग को व्यापक बनाने के लिए स्लाइड प्रोजेक्टर, टेपरिकार्डर, प्रदर्शनी और जन्म दिवसोत्सवों को प्रमुखता दी गई है। इनके माध्यम से एक व्यक्ति भी सैकड़ों को हर दिन युग चेतना से अवगत अनुप्राणित करते रहने की प्रक्रिया नियमित रूप से चलाता रह सकता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 भक्तिगाथा (भाग ८१)

👉 भक्ति के अपूर्व सोपान हैं- श्रवण और कीर्तन

इस भक्तिसूत्र ने सभी के भावसूत्रों को स्वयं में गूंथ लिया। सच यही है कि यदि भगवान की कथा को ठीक-ठीक सुना गया, हृदय के पट खोलकर सुना गया, केवल कानों से नहीं प्राणों से सुना गया तो निश्चित ही भगवान के गुणों को सुनते-सुनते, अन्तःकरण में उनके स्मरण का सातत्य बनने लगेगा। जो सुना जाता है, वही बोध बन जाता है और हृदय से सुना हुआ धीरे-धीरे जीवन में रमता जाता है। जो गहराइयों में सुना जाता है, वह रोएँ-रोएँ में व्याप्त हो जाता है। सतत सुना हुआ धीरे-धीरे घेर लेता है और फिर समूचा जीवन उसमें डूब जाता है।

श्रवण की जितनी महिमा है, उतनी ही कीर्तन की भी है। श्रवण के साथ कीर्तन भी जरूरी है। श्रवण एवं कीर्तन दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं। सुनना निष्क्रिय है तो कीर्तन सक्रिय है। निष्क्रियता में सुनें तो सक्रियता में अभिव्यक्त करें। व्यर्थ की चर्चा, व्यर्थ की बातों से भला क्या होगा। बातें हों, चर्चा हो तो अपने प्रिय प्रभु के सौन्दर्य की। चर्चा हो तो उनके विराट् अस्तित्त्व की। ऐसी चर्चा होती है तो कहने वाले को, सुनने वाले को, दोनो को ही भगवान का बरबस स्मरण हो आता है। यह स्मरण होता रहे तो धीरे-धीरे भगवान और भक्त कब एकात्म-एकाकार हो जाते हैं पता ही नहीं चलता।

देवर्षि के इस सूत्र के साथ अनेकों की भावनाओं के ये अनगिन धागे भी गुंथते चले गए। भावों में भक्ति का उफान उठा और उफनता ही चला गया। देवर्षि अपने साथ बैठे अन्य ऋषियों के साथ इसे अनुभव करते रहे। तभी उनके स्मृतिसरोवर में एक तरंग उठी। इस तरंग का बिम्ब उनके माथे की लकीरों में भी प्रकट हुआ। ये लकीरें किंचित गहरी हुईं। इस सूक्ष्म परिवर्तन को ऋषि धौम्य ने अनुभव किया और वे बोल उठे- ‘‘देवर्षि नारद निरन्तर भगवन्नाम का संकीर्तन करते रहते हैं। उन्हें सहज ही भगवान और उनके भक्तों का सहज सान्निध्य मिलता रहता है। इस सान्निध्य की स्मृतियाँ भी अनेकों होंगी। ऐसी ही किसी स्मृतिकथा का श्रवण कराकर देवर्षि हम सबको धन्य करें।’’ ऋषि धौम्य का यह विचार सभी को प्रीतिकर लगा। इसीलिए सभी ने उत्साहपूर्वक उसका अनुमोदन किया।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १५२

गुरुवार, 28 अक्तूबर 2021

👉 स्वाध्याय मंडल, प्रज्ञा संस्थान और प्रज्ञा केन्द्र (भाग २)

प्रमुख कार्यक्रम प्रज्ञा साहित्य का सम्पर्क क्षेत्र के लोगों को नियमित स्वाध्याय कराना है। संगठन का नामकरण इसी प्रमुख कार्यक्रम के आधार पर किया गया है। आयुर्वेद में औषधियों के नामकरण उनमें पड़ने वाले द्रव्यों में से जो प्रमुख होता है, उसके आधार पर किया जाता है। द्राक्षासव, अमृतारिष्ट, लवंगादिवटी, सितोपलादि चूर्ण, हींग आदि में पहले जिस प्रकार प्रमुख द्रव्य की चर्चा है, उसी प्रकार विचार क्रान्ति के लिए स्वाध्याय को सीधी और गहरा प्रभाव छोड़ने वाली प्रक्रिया माना गया है और इन संगठनों को इसी कार्यक्रम को सर्व प्रधान मानने के लिए कहा गया है।
   
संचालक मंडली के पाँच सदस्यों में से प्रत्येक को अपने परिवार सम्पर्क के पाँच- पाँच ऐसे व्यक्ति ढूँढ़ने चाहिए, जिनकी स्वाध्याय में विचारशीलता में रुचि है अथवा पैदा की जा सके। इस प्रकार पाँच सदस्यों की पाँच- पाँच की मंडली से तीस सदस्य हो जाते हैं। तीस फूलों का यह हार यदि युग देवता के गले में पड़ सके, तो अपनी गरिमा और देवता की शोभा बढ़ाने में पूरी तरह सफल हो सकता है। पाँचों संचालक अपनी- अपनी क्यारियों को ठीक तरह सँभालें संजोये। उन तक नियमित रूप से घर बैठे बिना मूल्य प्रज्ञा साहित्य पहुँचाने और वापिस लेने के व्रत निर्वाह का प्रथम चरण इतने भर से पूरा हो जाता है।
   
सर्व विदित है कि कार्लमार्क्स के विचारों ने एक शताब्दी के भीतर प्रायः आधी दुनियाँ को अपने विचारों में समेट लिया। रूसो के प्रतिपादन से प्रजातंत्र की जड़ जमी। ईसाई पादरियों ने विश्व के कोने- कोने में अपने धर्म की विशेषता समझाई। प्रायः दो तिहाई मनुष्य जाति को कुछ ही शताब्दियों के अन्दर ईसाई धर्मावलम्बी बना लिया। अमेरिका में से दास प्रथा समाप्त करने का बहुत कुछ श्रेय हैरियट स्टो को जाता है। बुद्ध और गाँधी ने अपने- अपने समय के विचारक्रान्ति प्रतिपादनों को जन- जन को परिचित करा सकने के कारण ही सफल बनाया था। इतिहास साक्षी है कि बन्दूक की तुलना में प्राणवान विचारों की सामर्थ्य कही अधिक समर्थ सिद्ध हुई है। जब सभी लोग बिना पढ़े थे, तब नारद की तरह वाणी ही प्रमुख सामर्थ्य थी, पर जब से शिक्षा का, प्रेस का साहित्य का विस्तार हुआ है तब से वाणी की तुलना में अधिक स्थायी, अधिक गंभीर, अधिक प्रभावी विचार देने में लेखनी की, साहित्य की शक्ति ही विश्व की सबसे बड़ी सामर्थ्य बन कर उभरी है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 भक्तिगाथा (भाग ८०)

👉 भक्ति के अपूर्व सोपान हैं-श्रवण और कीर्तन

कुन्ती की कथा सभी के दिलों को छू गयी। हिमालय के श्वेत शिखरों की छांव में बैठे ऋषियों, सिद्धों, सन्तों, ज्ञानियों एवं भक्तों के समुदाय की भावनाएँ भीग गयीं। वे सोचने लगे कि एकान्त में, वन में, पर्वतों की गुफाओं-कन्दराओं में रहकर भगवान के नाम का जाप करना सहज है परन्तु लोक में, संसार में, समाज के बीच रहकर भगवान का सतत स्मरण करते रहना कठिन है। घर-परिवार के कर्त्तव्यों एवं दायित्वों के बीच, पीड़ा और परेशानियों के बीच, दारूण शोक-सन्ताप से घिरे रहकर, भगवान का गुणानुवाद करना सहज नहीं है। जो अपमान, तिरस्कार के दंश को, जिन्दगी की हर विपदा को अपने प्यारे प्रभु का उपहार मानते हैं, उनसे श्रेष्ठ भक्त भला और कौन होगा? जो जीवन के कष्टों में भावविह्वल मन से भगवान का कीर्तन करते हैं, वही भगवान के सच्चे भक्त हैं क्योंकि वे जानते हैं कि भगवान अपने प्रिय भक्तों के हैं और भक्त अपने प्यारे भगवान के।

भक्त तो वह है जो जानता है कि भगवत्कृपा ही भगवद्विधान है। वह यह भी जानता है कि भगवान का विधान ही उनकी कृपा है, फिर शिकायत कैसी और किससे? वह जीता है इस अनुभूति में- कि चलते जाना है और शिकायत नहीं करनी है। चलते जाना है और अहोभाव से भरे रहना है। चलते जाना है और धन्यवाद देते जाना है। ओठ पर गीत रहे धन्यवाद का और पैर कभी रुके ही न। ऐसा हो सके तो भक्ति। कुन्ती की कथा में सभी को इस भक्ति का स्वाद लगा। दिल भींगे और आँखें छलकीं, गले रूंधे और वाणी मौन हुई। बस मन में विचारों के आरोह-अवरोह के स्वर उठते रहे। भावों में भक्तिकथा के कण बिखरते रहे। इसमें कब कितना समय बीता किसी को पता ही न चला। यह तो जैसे भावसमाधि की दशा थी जिसमें भक्ति-भक्त एवं भगवान मिल रहे थे। सप्तर्षियों सहित देवों-गन्धर्वोंे व सिद्धों का समूह विभोर होता रहा। देवर्षि नारद को भी जैसे अपनी सुधि न रही।

पर महर्षि वशिष्ठ का अन्तर्मन जैसे कथासूत्र को थामे था। वे इसमें आगे की और कई कड़ियाँ पिरोना चाहते थे। उन्होंने बड़ी सहजता से भावभरे नेत्रों से नारद को देखा। ब्रह्मापुत्र नारद, वशिष्ठ के नेत्रों का संकेत समझ गए। उन्होंने नजर उठाकर सभी की ओर देखा। सभी के मुख पर उत्सुकता की आभा थी, जिज्ञासा का प्रकाश था। वे सुनना चाहते थे देवर्षि की देववाणी को। सब के अन्तस के सकारात्मक संवेदनों ने नारद को भी पुलकित किया और उन्होंने भक्तिसूत्र के नवीन सत्य का उच्चार किया-
‘लोकेऽपि भगवद्गुणश्रवणकीर्तनात्’॥ ३७॥
लोक समाज में भी भगवद्गुण ‘श्रवण’ और ‘कीर्तन’ से (भक्ति साधन) सम्पन्न होता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १५१

सोमवार, 25 अक्तूबर 2021

👉 स्वाध्याय मंडल, प्रज्ञा संस्थान और प्रज्ञा केन्द्र (भाग १)

भव्य भवन थोड़े से या झोंपड़े बहुत से, इन दोनों में से एक का चयन जन कल्याण की दृष्टि से करना है, तो बहुलता वाली बात को प्रधानता देनी पड़ेगी। राम के पीछे वानर, कृष्ण के पीछे ग्वाल-बाल, शिव के भूत- पलीत वाले चयन का उद्देश्य समझने पर तथ्य स्पष्ट होता है कि बहुजन सुखाय बहुजन हिताय की नीति ही वरिष्ठ है। विद्वानों को निष्णात बनाने में भी हर्ज नहीं, पर निरक्षरों को साक्षर बनाना ही लोक हित की दृष्टि से प्रमुखता पाने योग्य ठहरता है।

विशालकाय गायत्री शक्तिपीठों और बड़े प्रज्ञा पीठों को अब क्षेत्रीय गतिविधियों का मध्य केन्द्र बना कर चला जायेगा। वे अपने- अपने मंडलों के केन्द्रीय कार्यालय रहेंगे। हर गाँव मुहल्ले में सृजन और सुधार व्यवस्था के लिए बिना इमारत के स्वाध्याय मंडल, प्रज्ञा संस्थान ही प्रमुख भूमिका सम्पन्न करेंगे। विशालकाय समारोहों की व्यवस्था दूर- दूर से जन समुदाय एकत्रित करके उत्साह उत्पन्न करने की दृष्टि से आवश्यक है, पर जब जन- जन से सम्पर्क साधने और घर- घर का द्वार खटखटाने की आवश्यकता पड़े तो निजी परिवार जैसे छोटे विचार परिवार ही काम देते हैं। इस प्रयोजन की पूर्ति स्वाध्याय मंडल ही कर सकते हैं।
   
एक अध्यापक प्रायः तीस छात्रों तक को पढ़ाने में समर्थ हो पाता है। स्वाध्याय मंडली को एक अध्यापक माना गया है और संस्थापक को चार अन्य भागीदारों की सहायता से एक छोटे विचार परिवार का गठन करके युगान्तरीय चेतना से उस समुदाय को अवगत अनुप्राणित करने के लिए कहा गया है। यही है स्वाध्याय मंडलों का संगठन।

प्रज्ञा परिजनों में से जिनमें भी प्रतिभा, कर्मठता, साहसिकता हो उसे इसी स्वाध्याय संगठनों में तत्काल नियोजित करना चाहिए। इसमें उनकी सृजन शक्ति को प्रकट प्रखर होने का अवसर मिलेगा। बड़े संगठनों में आये दिन खींचतान और दोषारोपण के झंझट चलते हैं। निजी सम्पर्क और निजी प्रयत्न से एक प्रकार का निजी विचार परिवार बना लेने में किसी प्रकार के विग्रह की आशंका नहीं है। हर दम्पत्ति अपना नया परिवार बनाता और नया वंश चलाता है। प्रज्ञा परिजनों में से जो भी मानसिक बौनेपन से बढ़कर प्रौढ़ता परिपक्वता की स्थिति तक पहुँच चुके हैं, उन्हें अपने निजी पुरुषार्थ का विशिष्ट परिचय देना चाहिए। हर प्रौढ़ होने पर अपना एक नया घोंसला बनाता है।
   
स्वाध्याय मंडल के संस्थापन संचालन की प्रक्रिया बहुत ही सरल है। इस सृजन के लिए जिसकी भी श्रद्धा उमगे, उसे अपने प्रभाव क्षेत्र के और अपने जैसी प्रकृति के चार साथी ढूँढ़ निकालने चाहिए। पाँच की संचालक मंडली गठित करनी चाहिए। इन पाँच पाण्डवों में से प्रत्येक को बीस- बीस पैसा नित्य अंशदान और न्यूनतम एक घंटा समयदान करते रहने के लिए सहमत करना चाहिए इतनी भर पूँजी जुटाने पर स्वाध्याय मंडल की निर्धारित गतिविधियाँ निर्बाध रूप से चल पड़ेंगी।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 भक्तिगाथा (भाग ७९)

प्रभु के भजन का, स्मरण का क्रम अखण्ड बना रहे

अखण्ड भजन का यह सूत्र विलक्षण था क्योंकि भजन अखण्ड हो सके यह व्यवस्था जरा कठिन है। क्योंकि कोई कितना भी तप करे, कितना भी जप करे, कितनी देर भी ध्यान लगाए परन्तु कभी न कभी, कहीं न कहीं तो विराम लेगा ही। एक पल के लिए ही सही, रुकाव-ठहराव तो आएगा ही। यह ठहराव न आए, भजन की भक्तिधारा अविराम प्रवाहित रहे यह तो तभी सम्भव है, जब भक्त मिट जाए और रहे केवल भगवान ही। यह तभी सम्भव है, जब भगवान का स्मरण, भक्त के अन्य कृत्यों में से एक कृत्य न हो, नहीं तो व्याघात पड़ेगा ही। क्योंकि जब कभी भक्त अन्य कृत्यों में उलझेगा तो परमात्मा भूल जाएगा। देवस्थान पर जाओ तो भगवान की याद, कृषि कर्म में लगो तो भगवान की याद, नहीं तो फिर अखण्ड न रह सकेगा- भगवान का स्मरण। स्मरण तो ऐसा हो कि देव मन्दिर में रहें या फिर कृषि कर्म में, मित्र से मिलें या फिर शत्रु से, परमात्मा की याद में कोई फर्क न पड़े। उनकी याद सदा ही घेरे रहे। उनकी याद ही चारों तरफ का एक माहौल बन जाय। श्वास-श्वास में समा जाए। क्योंकि परमात्मा की याद विविध स्मृतियों में से एक स्मृति नहीं है, यह तो महास्मृति है।

देवर्षि का सूत्र सुनकर ऋषि धौम्य के अन्तःसरोवर में भाव-चिन्तन की ये उर्मियाँ उमगती रहीं। वे काफी समय तक स्वयं में खोए रहे। तभी हिमपक्षी के स्वरों ने उनकी स्मृति को कुरेदा और उनके स्मृतिपटल पर महारानी कुन्ती का भावप्रवण मुख दमक उठा। हालांकि उन्होंने कहा कुछ भी नहीं। बस मौन भाव से अपनी स्मृतियों मे मन को भक्तिसूत्र में पिरोते रहे। ऋषि धौम्य की इस भावदशा ने देवर्षि सहित अनेकों ऋषियों के मर्म को छुआ। इस छुअन ने उनके मनों में एक भक्तिपूर्ण सिहरन पैदा की और उनमें से एक महर्षि पुलह कह उठे- ‘‘महर्षि अपनी स्मृति कथा से हम सबको भी अनुगृहीत करें।’’

उत्तर में धौम्य मुस्कराए और कह उठे- ‘‘हमें तो बस महारानी कुन्ती का स्मरण हो आया। पाण्डवों की माता कुन्ती, महाराज पाण्डु की धर्मपरायणा पत्नी कुन्ती, श्रीकृष्ण की बुआ कुन्ती, और सर्वेश्वर लीलापुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की परमभक्त कुन्ती। कुन्ती के कितने ही रूप मैंने अनेक अवसरों पर देखे हैं परन्तु कभी भी मैंने उनके अन्तःसरोवर को भक्ति से रिक्त नहीं देखा। हमेशा ही विपद में, सम्पद में, उनका अन्तःसरोवर भावों से, भक्ति से उफनता-उमगता ही रहा है। इस समय मुझे जिस घटना का स्मरण हो रहा है, वह महाभारत युद्ध के पश्चात् की है। महाभारत का महासमर समाप्त हो चुका था। गंगापुत्र भीष्म, धर्मराज युधिष्ठिर को तत्त्वोपदेश देने के पश्चात्, राजधर्म-नीतिज्ञान की शिक्षा देने के पश्चात, महाप्रयाण कर चुके थे। महर्षि वेदव्यास सहित अन्य ऋषियों ने युधिष्ठिर को सम्राट के पद पर अभिषिक्त कर दिया था।

यह सम्राट युधिष्ठिर का द्वितीय अभिषेक था। पहले वह राजसूय यज्ञ करने के बाद इन्द्रप्रस्थ नगरी में सम्राट पद ग्रहण कर चुके थे। उस समय चारों ओर खुशियाँ ही खुशियाँ थीं। ऋषियों, भक्तों एवं ज्ञानियों, तपस्वियों का महासमुदाय भी आ जुटा था। उल्लास जैसे सब ओर बिखरा पड़ रहा था। इस महोल्लास के बीच धर्मराज युधिष्ठिर, महारानी द्रौपदी के साथ राजसिंहासन पर आसीन हुए थे। अवसर आज भी कुछ वैसा ही था, फिर से महाराज युधिष्ठिर एवं महारानी द्रौपदी राजसिंहासन पर आसीन थे। बन्दीजन सम्राट का जयघोष कर रहे थे। महावीरों, महाज्ञानियों, महातपस्वियों से सुदा सुशोभित रहने वाली हस्तिनापुर की राजसभा में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने राजामाता कुन्ती से पूछा- बुआ! अब तुम्हारे पुत्र विजेता हैं। आप राजमाता हैं। ऐसे में आपको और क्या चाहिए?

राजमाता कुन्ती ने श्रीकृष्ण की ओर देखा और मुस्कराई। फिर कुछ क्षण रुककर वह बोली- हे कृष्ण! यदि तुम मुझे देना ही चाहते हो, तो मुझे दुःखों का वरदान दो। श्रीकृष्ण ने पूछा- वह क्यों बुआ, आपने तो सारे जीवन दुःख ही उठाए हैं। दीर्घकाल के बाद ये सुख के क्षण आए हैं, तब ऐसा क्यों कह रही हैं? इसके उत्तर में कुन्ती बोलीं- वह इसलिए क्योंकि दुःखों में तुम्हारे भजन का क्रम अखण्ड बना रहता है। परिस्थितियों में भले ही दुःखों की काली छाया बनी रहे, परन्तु मनःस्थिति में भक्ति का उजाला निरन्तर बना रहता है। कुन्ती के इस कथन पर श्रीकृष्ण मौन रहे। परन्तु कुन्ती ने आगे बढ़ कर युधिष्ठिर से कहा- पुत्र! तुम अपने राजधर्म का पालन करो और ज्येष्ठश्री धृतराष्ट्र, जेठानीजी गान्धारी एवं देवर विदुर के साथ मैं वन को प्रस्थान करूँगी। कुन्ती के इस कथन में जो दृढ़ता थी, उसे सभी ने अनुभव किया। उन्होंने जो कहा, वही किया भी। उन्होंने धृतराष्ट्र, गान्धारी और विदुर के साथ वन को प्रस्थान किया। प्रस्थान करते समय उन्होंने बस एक नजर श्रीकृष्ण को निहारा और बोली, हे कृष्ण तुम्हारा भजन निरन्तर बना रहे, यही वर देना। उत्तर में परमात्मा श्रीकृष्ण ने अपनी प्रिय भक्त कुन्ती की ओर बस आँसू भरी आँखों से देखा।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १४८

शनिवार, 23 अक्तूबर 2021

👉 विशेष अनुदान विशेष दायित्व

भगवान् ने मनुष्य के साथ कोई पक्षपात नहीं किया है, बल्कि उसे अमानत के रूप में कुछ विभूतियाँ दी हैं। जिसको सोचना, विचारणा, बोलना, भावनाएँ, सिद्धियाँ-विभूतियाँ कहते हैं। ये सब अमानतें हैं। ये अमानतें मनुष्यों को इसलिए नहीं दी गई हैं कि उनके द्वारा वह सुख-सुविधाएँ कमाये और स्वयं के लिए अपनी ऐय्याशी या विलासिता के साधन इकट्ठे करे और अपना अहंकार पूरा करे। ये सारी की सारी चीजें सिर्फ इसलिए उसको दी गयी हैं कि इन चीजों के माध्यम से वो जो भगवान् का इतना बड़ा विश्व पड़ा हुआ है, उसकी दिक्कतें और कठिनाइयों का समाधान करे और उसे अधिक सुन्दर और सुव्यवस्थित बनाने के लिए प्रयत्न करे।
    
बैंक के खजांची के पास धन रखा रहता है और इसलिए रखा रहता है कि सरकारी प्रयोजनों के लिए इस पैसे को खर्च करे। उसको उतना ही इस्तेमाल करने का हक है, जितना कि उसको वेतन मिलता है। खजाने में अगर लाखों रुपये रखे हों, तो खजांची उन्हें कैसे खर्च कर सकता है? पुलिस और फौज का कमाण्डर है, उसको अपना वेतन लेकर जितनी सुविधाएँ मिली हैं, उसी से काम चलाना चाहिए और बाकी जो उसके पास बहुत सारी सामर्थ्य और शक्ति बंदूक चलाने के लिए मिली है, उसको सिर्फ उसी काम में खर्च करना चाहिए, जिस काम के लिए सरकार ने उसको सौंपा है।
    
हमारी सरकार भगवान् है और मनुष्य के पास जो कुछ भी विभूतियाँ, अक्ल और विशेषताएँ हैं, वे अपनी व्यक्तिगत ऐय्याशी और व्यक्तिगत सुविधा और व्यक्तिगत शौक-मौज के लिए नहीं हैं और व्यक्तिगत अहंकार की तृप्ति के लिए नहीं है। इसलिए जो कुछ भी उसको विशेषता दी गई है। उसको उतना बड़ा जिम्मेदार आदमी समझा जाए और जिम्मेदारी उस रूप में निभाए कि सारे के सारे विश्व को सुंदर बनाने में, सुव्यवस्थित बनाने में, समुन्नत बनाने में उसका महान् योगदान संभव हो।
    
भगवान् का बस एक ही उद्देश्य है- निःस्वार्थ प्रेम। इसके आधार पर भगवान् ने मनुष्य को इतना ज्यादा प्यार किया। मनुष्य को उस तरह का मस्तिष्क दिया है, जितना कीमती कम्प्यूटर दुनिया में आज तक नहीं बना। करोड़ों रुपये की कीमत का है, मानवीय मस्तिष्क। मनुष्य की आँखें, मनुष्य के कान, नाक, आँख, वाणी एक से एक चीज ऐसी हैं, जिनकी रुपयों में कीमत नहीं आँकी जाती है। मनुष्य के सोचने का तरीका इतना बेहतरीन है, जिसके ऊपर सारी दुनिया की दौलत न्योछावर की जा सकती है।
    
ऐसा कीमती मनुष्य और ऐसा समर्थ मनुष्य- जिस भगवान् ने बनाया है, उस भगवान् की जरूर ये आकांक्षा रही है कि मेरी इस दुनिया को समुन्नत और सुखी बनाने में यह प्राणी मेरे सहायक के रूप में, और मेरे कर्मचारी के रूप में, मेरे असिस्टेण्ट के रूप में मेरे राजकुमार के रूप में काम करेगा और मेरी सृष्टि को समुन्नत रखेगा।
    
मानव जीवन की विशेषताओं का और भगवान् के द्वारा विशेष विभूतियाँ मनुष्य को देने का एक और भी उद्देश्य है। जब मनुष्य इस जिम्मेदारी को समझ ले और ये समझ ले कि ‘मैं क्यों पैदा हुआ हूँ, और यदि मैं पैदा हुआ हूँ? तो मुझे अब क्या करना चाहिए?’ यह बात अगर समझ में आ जाए, तो समझना चाहिए कि इस आदमी का नाम मनुष्य है और इसके भीतर मनुष्यता का उदय हुआ और इसके अंदर भगवान् का उदय हो गया और भगवान् की वाणी उदय हो गयी, भगवान् की विचारणाएँ उदय हो गयीं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 भक्तिगाथा (भाग ७८)

प्रभु के भजन का, स्मरण का क्रम अखण्ड बना रहे

सदा श्वेत वस्त्र धारण करने वाले गंगापुत्र-देवव्रत-भीष्म की भक्तिगाथा सुनकर हिमालय के श्वेत शिखर भी भावों में भीग गए। ऋषि धौम्य से भीष्म की भावकथा सुनकर ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के अन्तःकरण में भावों की तीव्र हिलोर उठी। वह सोचने लगे कि अष्टवसुओं का अपराध बड़ा था या कि उनका शाप? सात वसुओं को तो भगवती गंगा ने अपनी परम पावन जलधारा में प्रवाहित कर मुक्त कर दिया पर आठवें वसु को अपने मोक्ष का पुण्यक्षण पाने के लिए सुदीर्घ यात्रा करनी पड़ी। सहनी पड़ी उन्हें अनगिन यातनाएँ, भावों की मर्मान्तक व्यथाएँ, जीवन भर पल-पल रचे जाने वाले कुचक्रों के कुटिल कंटक उन्हें चुभते रहे। हाँ! इन कंटको के बीच श्रीकृष्ण उन्हें सदा याद रहे। अपने अतीत के पृष्ठ निहारते हुए ब्रह्मर्षि वशिष्ठ को यह स्मरण तो आया कि अपने ही शाप से वह कितने दुःखी हुए थे और तब उन्होंने पीड़ित-विकल मन से सर्वेश्वर परमात्मा को पुकारते हुए प्रार्थना की थी- ‘‘मेरे शाप को भी वरदान बना दो हे करूणासिन्धु!’’ और सचमुच ही प्रभु ने उनकी पुकार सुन ली। उन्होंने वशिष्ठ के शाप को वरदान में बदलते हुए आठवें वसु को महान शूरवीर और अपना परमभक्त बना दिया।

ब्रह्मर्षि वशिष्ठ अपनी इन चिन्तन कड़ियों में खोए हुए थे। सप्तर्षियों में उनके छः सहयोगियों ने उनके मुख की ओर देखा। उन ऋषिश्रेष्ठ की भावदशा उनसे छुपी न रही। वे सोचने लगे कि सचमुच ही ब्रह्मर्षि सच्चे भगवद्भक्त हैं। क्योंकि भक्त ही है जिसके भावपूर्ण अन्तःकरण में द्वेष, वैर और क्रोध आ ही नहीं सकते। असमय और विषमता में आया हुआ उसके मन का क्रोध भी सहज ही करूणा में रूपान्तरित हो जाता है। ऋषि धौम्य ने ब्रह्मर्षि वशिष्ठ सहित सप्तर्षिमण्डल के अन्य सदस्यों के अन्तःकरण में उठ रही भावतंरगों के आरोह-अवरोह को देखा। साथ ही उन्होंने अपने हृदय में एक अनूठी आध्यात्मिक भावदशा को अनुभव किया। कुछ पलों के मौन के बाद उन्होंने ब्रह्मर्षि वशिष्ठ की ओर देखते हुए कहा- ‘‘ब्रह्मर्षि! गंगापुत्र अपने जीवन के अन्तिम पल तक सदा ही आपके कृतज्ञ रहे। एक अवसर पर तो उन्होंने योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण से भी कहा था- हे लीलामय! आपकी मेरे ऊपर यह अहैतुकी कृपा ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के उस आशीष का सुफल है, जो उन्होंने अतीत में मुझे दिया था।’’

इन स्मृतियों के झरोखों से अतीत अपनी और झलकियाँ दिखा पाता, इसके पहले ही ब्रह्मर्षि वशिष्ठ स्वयं को संयत करते हुए देवर्षि नारद से बोले- ‘‘हे भक्तश्रेष्ठ! हम सभी को आपके नवीन भक्ति सूत्र की प्रतीक्षा है।’’ ऋषि वशिष्ठ के कथन पर देवर्षि ने अपनी मौन सहमति जताई। अन्य सभी ऋषियों, देवों, सिद्धों एवं तपस्वियों ने अपनी सम्मति दी। हिमालय के हिमशिखर भक्तिगंगा के नवीन प्रवाह के साक्षी बनने के लिए उत्सुक थे। देवर्षि ने सभी की इस उत्सुकता को शान्त करते हुए अपने नए सूत्र सत्य का उच्चारण किया-

‘अव्यावृतभजनात्’॥ ३६॥
अखण्ड भजन से (भक्ति का साधन) सम्पन्न होता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १४७

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2021

👉 भक्तिगाथा (भाग ७७)

भक्तवत्सल भगवान के प्रिय भीष्म

देवर्षि ने उन्हें सत्कारपूर्वक अपने पास बिठाया और इसी के साथ भक्तिसूत्र के अगले सत्य का उच्चारण किया-

‘तत्तु विषयत्यागात् सङ्गत्यागाच्च’॥३५॥
वह (भक्ति-साधन) विषय त्याग और सङ्गत्याग से सम्पन्न होता है।

इस सूत्र को सुनकर न जाने क्यों महर्षि धौम्य की आँखें भींग आयीं। महर्षि की आँखों में अचानक छलक आए इन आँसुओं को सभी ने देखा। सप्तऋषियों सहित सभी देवगण-सिद्धगण महर्षि के इन भावबिन्दुओं को निहारने लगे परन्तु किसी ने कहा कुछ नहीं। थोड़ी देर तक सब ओर मौन पसरा रहा। इसे बेधते हुए ब्रह्मर्षि विश्वामित्र और पुलह लगभग एक साथ कह उठे- ‘‘लगता है इन क्षणों में किन्हीं स्मृतियों ने आपको विकल किया है।’’ ‘हाँ’ कहते हुए ऋषि धौम्य ने अपना सिर उठाया और बोले, ‘‘देवर्षि के सूत्र से मुझे विषय और सङ्ग का सम्पूर्ण रूप से त्याग करने वाले भक्त भीष्म की याद आ गयी।’’ भीष्म का नाम सुनकर ब्रह्मर्षि वशिष्ठ से भी न रहा गया। आखिर उन्होंने ही तो अष्टवसुओं को श्राप दिया था। इन अष्टवसुओं में से सात को तो जगन्माता श्रीगंगा जी मुक्त कर पायीं परन्तु आठवें वसु ‘धौ’ को शान्तनु के आग्रहवश वह अपने जल प्रवाह में न प्रवाहित कर सकीं।
यही गंगापुत्र देवव्रत थे। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ को भीष्म के अतीत का यह प्रसंग भूला न था। वह भी उन्हें याद कर भावविह्वल हो उठे और कहने लगे, ‘‘निश्चय ही गंगापुत्र महान भक्त थे। सारे जीवन उन्होंने पीड़ाएँ सहीं, घात-प्रतिघात सहे, किन्तु सत्य से कभी न विचलित हुए। इन पीड़ाओं ने ही उनके अन्तःकरण को भक्ति-सरोवर बना दिया था। महर्षि धौम्य आपने तो उनका सान्निध्य-संग पाया है। उन परमभागवत भीष्म की भक्तिगाथा हम सबको अवश्य सुनाएँ।’’ ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के वचनों का सभी ने अनुमोदन किया। गायत्री के महाभर्ग को धारण करने वाले विश्वामित्र और पुलह भी कह उठे, ‘‘अवश्य ऋषि धौम्य! उन महान भक्त की गाथा सुनाकर हम सब को तृप्ति दें।’’ ऋषि धौम्य ने यह सब सुनकर उन सभी की ओर देखा, फिर देवर्षि की तरफ निहारा। उनकी इस दृष्टि को देवर्षि ने अपना अहोभाग्य समझा और कहने लगे, ‘‘गंगापुत्र भीष्म तो सदा ही माता गंगा की भाँति पवित्र हैं। उनके जीवन की भक्तिलहरों से हम सभी अभिसिंचित होना चाहेंगे ऋषिवर!’’

सभी के आग्रह से महर्षि की भावनाएँ शब्द बन कर झरने लगीं। वे कहने लगे, ‘‘गंगापुत्र देवव्रत को उनकी सत्यनिष्ठा ने, उनकी अटल प्रतिज्ञा ने भीष्म बनाया। यूँ तो उनके सुदीर्घ जीवन के अनेको अविस्मरणीय प्रसंग हैं, जिन्हें महर्षि वेदव्यास ने ‘जय’ काव्य में कहा है परन्तु एक प्रसंग सबसे अनूठा है, जिसमें स्वयं भगवान श्रीकृष्ण अपने इस भक्त के वश में हो गए थे। उन दिनों महाभारत का महासमर चल रहा था।’’ ऋषि धौम्य की वाणी अपने स्मृति रस में भीगने लगी। ‘‘दुर्योधन प्रायः ही पितामह को पाण्डवों के वध के लिए उकसाता रहता था। एक दिन उसने कहा-पितामह! आपने तो अपने गुरू भार्गव परशुराम को भी युद्घ में पराजित किया है। आपके सामने मनुष्य तो क्या स्वयं देवगण भी नहीं टिक सकते। तब फिर पाण्डवों की क्या मजाल? कहीं हस्तिनापुर के प्रति आपकी निष्ठा तो नहीं डिग रही। कुटिल शकुनि की चालों में आकर दुर्योधन ने भीष्म के मर्म पर चोट की।

भीष्म व्यथित हो उठे। उन्होंने पाँच बाण अपने तूणीर से अलग करते हुए प्रतिज्ञा की-कल के युद्घ में इन पाँच बाणों से पाण्डवों का वध होगा। यदि ऐसा न हो सका तो?- दुर्योधन की जिह्वा को काल ने कीलित करते हुए नया प्रश्न किया। दुर्योधन के प्रश्न का भीष्म ने उत्तर दिया- तो फिर स्वयं श्रीकृष्ण को शस्त्र उठाना पड़ेगा। दुर्योधन को वचन देने के उपरान्त भीष्म और भी व्यथित हो उठे। वह अपने शिविर में बैठे हुए श्रीकृष्ण को पुकारने लगे- हे जनार्दन! हे माधव!! अपने भक्त की लाज रखो गोविन्द, भक्त की पुकार भगवान ने सुनी। उन लीलापुरुषोत्तम ने अपनी लीला रची। इस प्रतिज्ञा की चर्चा सुनकर महारानी द्रोपदी व्यथित हो उठी। वह उन्हें लेकर भीष्म के शिविर में पहुँची। भीष्म आँख मूँदे श्रीकृष्ण का ध्यान कर रहे थे। द्रोपदी के प्रणाम करने पर उन्होंने आँख मूँदे ही उसे सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद दे डाला। इस आशीर्वाद को सुनकर द्रोपदी बिलख उठी और बोली, यह कैसा आशीर्वाद? द्रोपदी की वाणी को सुनकर भीष्म चौंके, उन्होंने आँखें खोलीं और बोले, पुत्री! तुम्हें जो यहाँ तक लाए हैं, वे स्वयं कहाँ हैं? भक्त की विकल पुकार सुनकर योगेश्वर श्रीकृष्ण उनके सम्मुख आए और बोले-पितामह! आप सम्पूर्ण जीवन सांसारिक भोग विषयों से, उनके कुत्सित संग से दूर रहे हैं। दुर्योधन और शकुनि जैसे दुराचारी और कुटिल जनों के बीच भी आपने भक्ति की सच्ची साधना की है। विश्वास रखिए, मेरा मान भले ही भंग हो, मेरे भक्त का मान कभी भंग नहीं हो सकता।

अगले दिन प्रातः जब रणभेरियाँ बजीं, युद्घ का प्रारम्भ हुआ तब महाभक्त और परमशूरवीर भीष्म ने महासंग्राम किया। पाण्डव सेना के पाँव उखड़ने लगे। अर्जुन का रथ भी स्थिर न रह सका। भीष्म के सम्मुख अर्जुन की सारी धनुर्विद्या विफल होने लगी। ऐसे में स्वयं श्रीकृष्ण ने हुंकार भरी और अपनी प्रतिज्ञा भंग करते हुए वह हाथ में चक्र लेकर दौड़ पड़े। सेना में हाहाकार मच गया। भक्त भीष्म अपने भक्तवत्सल भगवान को भक्तिपूर्वक निहारने लगे-
वा धीतपट की कहरान।

कर धरि चक्र चरन की धावनि,नहि विसरति वह बान॥
रथ ते उतरि अवनि आतुर ह्वै, कच रज की लपटान।
मानों सिंह सैल तें निकस्यों, महामत्त गज जान॥
हे प्रभु तुम मेरो पन राख्यो, मेटि वेद की वान।

भीष्म के मन मन्दिर में भगवान की मूर्ति सदा के लिए बस गयी। अर्जुन के आग्रह पर भगवान तो अपने रथ पर वापस लौट गए, परन्तु भीष्म का मन पुनः वापस नहीं लौटा। अन्त क्षण में वे प्रभु का यही रूप निहारते रहे। शरशय्या पर पड़े हुए भीष्म भगवान के इसी रूप का ध्यान करते रहे। जीवन में उन्हें अनगिनत और असहनीय पीड़ाएँ मिलीं पर इन पीड़ाओं से उनकी भक्ति निखरती गयी। भगवान की कृपा वर्षा उन पर और भी सघन होती गयी। अन्तिम क्षणों में भी पितामह भीष्म चक्रधारी के उसी स्वरूप का चिन्तन करते हुए उन्हीं के दिव्य स्वरूप में विलीन हो गए।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १४४

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2021

👉 भक्तिगाथा (भाग ७६)

भक्तवत्सल भगवान के प्रिय भीष्म

भक्तिरस में भीगी देवर्षि नारद की वाणी सभी को भगवद्रस में भिगोती गयी। शरद पूर्णिमा के चन्द्रमा की किरणों से भक्ति चन्द्रिका की उजास सभी के अन्तःकरण में उतरती रही। भगवान का ‘रसो वै सः’ स्वरूप उस भक्ति समागम में उपस्थित जनों की अन्तर्चेतना में प्रकट होता गया। चन्द्रदेव अपने अमृतरस के पूर्ण कलश हिमालय के हिमशिखरों पर बिखेरते हुए तारकगणों के साथ विहार करते रहे। हिमवान के आंगन में बैठे भक्तिरस में भीगे हुए ऋषि-महर्षि, सिद्घ देवगण अपनी आध्यात्मिक रात्रिचर्या में लग गए। सदा ही इनके दिवस भगवान का गुणगान करने में, भगवद्भक्तों की कथावार्ता में व्यतीत होते थे। इनकी रात्रियाँ सदा ही भक्ति की भावसमाधि की निमग्नता में डूबी होती थीं। यह लोकोत्तरजनों का समागम था। इसकी विशिष्टताएँ, अलौकिकताएँ तो केवल समाधि में ही जानी जा सकती थीं।

रात्रि के साथ ही भक्ति-समाधि के क्षण भी बीते। गगन में भगवान सूर्यदेव का सात रश्मि अश्वों का रथ हांकते हुए सूर्य सारथी अरुण ने पदार्पण किया। गगन में उनके पहला पग धरते ही निशा का सम्पूर्ण साम्राज्य तिरोहित होने लगा। अरुण आभा से श्वेत हिमशिखर रक्तिम-स्वर्णिम होने लगे। इसी के साथ सभी प्रातकृत्य, सन्ध्यावन्दन, सूर्यार्घ्यदान से निवृत्त हुए। समूचे वातावरण की सूक्ष्मता में गायत्री महामंत्र के चौबीस मन्त्राक्षरों की अनुगूँज फैल गयी। साथ ही महाभर्ग सूर्य का तेजस और भी सघन होता गया। सप्तऋषियों की भक्तिसभा देवर्षि नारद के भक्तिसूत्र में गुँथती गयी, जुड़ती गयी। जुड़ने के इस क्रम में इस भक्ति समागम में एक अन्य महिमामय और पधारे। अरुण देव के पदार्पण के साथ ही हिमवान के आंगन में इनका भी आगमन हो गया था। प्रायः सभी इनकी तपसाधना और भक्तिभावना से परिचित थे।

ये महर्षि धौम्य थे, जो इस धराधाम पर महाभारत काल में विचरण किया करते थे, जिन्होंने पाण्डुपुत्रों को वनवास काल में अनेकों आध्यात्मिक शिक्षाएँ और सहायताएँ दी थीं। महारानी द्रोपदी को अक्षयपात्र इनकी ही सहायता-कृपा से प्राप्त हुआ था। देवर्षि इन्हें परम प्रिय थे। इनके सुखद, भावपूर्ण भक्तिरस में भीगे सान्निध्य का आकर्षण ही सम्भवतः इन्हें यहाँ ले आया था। अन्यथा इनका स्वाभाविक निवास तो इन दिनों तपोलोक में था। यह तपस्वी महर्षियों का दिव्यलोक है। इस उच्चतर प्रकाशलोक में भी हिमवान के आँगन में बह रही भक्तिगंगा की लहरें पहुँचने लगी थीं। तभी तो वहाँ के महर्षि आज यहाँ इस भक्तिसभा में पधारे थे। देवर्षि ने उन्हें सत्कारपूर्वक अपने पास बिठाया और इसी के साथ भक्तिसूत्र के अगले सत्य का उच्चारण किया-

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १४

शनिवार, 16 अक्तूबर 2021

👉 भक्तिगाथा (भाग ७५)

महारास की रसमयता से प्रकट हुआ है भक्तिशास्त्र

देवर्षि का यह सूत्र सभी को भक्तिकाव्य की मधुर-सम्मोहक पंक्ति की तरह लगा। यह सच सभी अनुभव कर रहे थे कि अन्य शास्त्रों की तो चर्चा होती है, विचार किया जाता है, विमर्श होता है, उनके उपदेश होते हैं, पर भक्ति की तो बात ही अनूठी है। इसमें भला चर्चा और विमर्श क्या? तर्कों के गणितीय समीकरणों का भला भक्ति में क्या काम? बात भक्ति की चले तो स्वयं ही गीत गूंजने लगते हैं। बात भक्ति की हो तो साधना की पथरीली राहों पर स्वयं ही सुमन सज जाते हैं। कदम भक्ति की डगर पर बढ़े तो ग्रीष्म का आतप, शिशिर की ठिठुरन, वर्षा का प्रचण्ड वेग, सबके सब ऋतुराज वसन्त में रूपान्तरित हो जाते हैं। सत्य यही है कि भक्ति बोलती नहीं, गाती है। भक्ति बोलती नहीं, नाचती है।

भक्ति की यह अनुभूति समष्टि में तरंगित होती रही। जल-थल और नभ में यह भक्तिधुन तैरती रही। हिमवान के शैलशिखरों में भी आज भक्ति का अन्तःस्रोत प्रकाशित हो उठा। अपनी किरणों से अमृतवृष्टि कर रहे चन्द्रदेव का अस्तित्त्व भी भावों में भीग गया। और ऐसा स्वाभाविक भी था- ‘चन्द्रमा मनसो जातः’ इस वेदवाणी के अनुसार चन्द्रमा प्रभु के मन का बिम्ब ही तो है। भक्ति की इस भावचर्चा में जब भक्तों के मन भीगे हुए हैं तो भला भगवान का मन क्यों न भीगे। देवर्षि नारद ने भक्तिरस में सिक्त चन्द्रमा की ओर देखा, फिर मुस्करा कर मौन हो गए।

उनकी यह मुस्कराहट और फिर उनका मौन होना, इसे सभी ने देखा। जहाँ अन्यों ने कुछ नहीं कहा, वहीं ब्रह्मर्षि वसिष्ठ तनिक मुखर होकर किन्तु मृदु स्वर में बोले- ‘‘कुछ कहें देवर्षि! आखिर आप भी तो भक्ति के आचार्य हैं। आपकी अनुभूतियों में तो भक्ति के साधन के गीत सदा ही गूंजते होंगे।’’ वसिष्ठ के इस कथन को शिरोधार्य करते हुए देवर्षि ने विनम्र भाव से कहा, ‘‘आप सदृश ब्रह्मर्षियों का आशीष अवश्य भगवत्कृपा बनकर मेरे अन्तर्भावों में गूँजता है। परन्तु जहाँ तक भक्ति के साधन गीतों के गायन की बात है, तो आज तो वह समस्त सृष्टि में गूँज रहे हैं।’’ ऐसा कहते हुए देवर्षि ने आकाश में तारागणों के साथ मुक्त विहार करते हुए चन्द्रमा की ओर निहारा।

देवर्षि की इस दृष्टि और उनके मन के अन्तर्भावों को ब्रह्मर्षि वसिष्ठ सहित सभी महर्षि एवं देवगण समझ गए, उन्हें भान हुआ कि आज शरद पूर्णिमा है। उसी की ओर इंगित कर रहे हैं। शरद पूर्णिमा तो सदा ही भक्ति का महारास बनकर सृष्टि में अवतरित होती है। इन पावन क्षणों में प्रकृति अनगिन रूप धर कर विराट पुरुष को अपनी भक्ति अर्पित करती है। इस महारास में प्रकृति स्वयं भक्त बनकर भक्ति के अनन्त-अनन्त रूपों को प्रस्तुत करती है और उसके सभी रूपों को स्वयं भगवान स्वीकारते हैं। भक्ति और भक्त उन भगवान में समाते हैं, उनसे एकात्म होते हैं। जिनके पास आध्यात्मिक दृष्टि है, सृष्टि की सूक्ष्मता का ज्ञान है, जो प्रकृति और पुरुष के अन्तर्मिलन को निहारने में समर्थ हैं, केवल वे ही उनके बाह्य मिलन को अनुभव कर सकते हैं। भक्ति के सभी आचार्यों ने इन सूक्ष्मताओं को देख परख कर ही तो भक्ति के साधनों का गान किया है।

शरद पूर्णिमा की इस अनुपम छटा ने देवर्षि को अपने आत्मभावों में निमज्जित कर दिया है। वे जैसे स्वयं से ही कह रहे थे- ‘‘द्वापर युग में ब्रजमण्डल में एक परमदिव्य शरद पूर्णिमा की निशावेला में विराट पुरुष एवं प्रकृति का यह सम्मिलन साकार हुआ था। इस विरल मुहूर्त में भक्ति के अनोखे गीत गूँजे थे और भक्ति के सभी साधनों ने नृत्य किया था। कालिन्दी की लहरों के सान्निध्य में, कदम्ब के वृक्षों की छांव में, यह महारास हुआ था। विराट पुरुष स्वयं योगेश्वर कृष्ण का रूप लेकर आए थे। प्रकृति ने ब्रजबालाओं का बाना पहना था। चन्द्रदेव उस घड़ी में सर्वथा मुक्त भाव से अमृतवृष्टि कर रहे थे।

उन पलों में भक्ति-भक्त एवं भगवान तीनों ही सम्पूर्ण रूप से एकाकार हो रहे थे। जीवन चेतना का हर पहलू जुड़ रहा था, मिल रहा था, समा रहा था। वहाँ हास्य था, उल्लास था, उछाह था, मुक्त मिलन था। महारास था, परन्तु आसक्ति का लेश भी न था, विषय वासना तनिक भी न थी। चन्द्रदेव की धवल चन्द्रिका की भाँति अन्तः-बाह्य सभी आयामों में सम्पूर्ण निर्मलता थी। गोपिकाएँ अपने गोपेश्वर के प्रति अर्पित हो रही थीं। जैसे समस्त सरिताएँ एक साथ ही सागर में समा जाती हैं, ठीक वैसे ही गोपबालाएँ योगेश्वर कृष्ण में समा रही थीं। प्रकृति का कण-कण, रसमय-प्रभुमय हो रहा था। यह रसमयता, यह प्रभुमयता ही तो भक्ति है। जहाँ यह है, वहाँ भक्ति के समस्त साधन स्वयं ही प्रकट हो जाते हैं। वहाँ सहज ही भक्ति के गीत गूँजते हैं।’’ धाराप्रवाह बोलते-बोलते देवर्षि अचानक रुके, फिर मुस्कराए और अपने प्रिय नारायण का स्मरण करते हुए बोले- ‘‘मेरा सम्पूर्ण भक्तिशास्त्र उस महारास की रसमयता से ही तो प्रकट हुआ है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १४०

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2021

👉 इस तप-साधना में संलग्न होना ही चाहिये

आज तो विचार-क्रान्ति का प्रथम चरण उठाया जाना आवश्यक है! अभी तो गहरी खुमारी में अवांछनीय रूप से देखने वालों को जगाया जाना ही प्रथम कार्य है जिसके बाद और कुछ सोचा और किया जाना सम्भव है। इसलिए लोक- शिक्षण को अनिवार्य आवश्यकता की पूर्ति के लिए अभी अपना प्रथम अभियान चल रहा है। इसके अन्तर्गत हमें अशुद्ध विचारों के दुष्परिणाम और सद्विचारों की उपयोगिता तथा स्वतन्त्र चिन्तन को पद्धति मात्र सिखानी बतानी है। इसी का क्षेत्र व्यापक बनाना है। जो सचमुच हमें प्यार करते हों- जो सचमुच हमारे निकट हों- जिन्हें सचमुच हमसे दिलचस्पी हो- उन्हें इसके लिए योजना को कार्यान्वित करने के लिए इस तप-साधना में संलग्न होना ही चाहिये।

विचार-क्रान्ति के प्रथम चरण की प्रस्तुत योजना के दो आधार हैं। प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा अथवा छुट्टी के दिन पूरा समय देना। दूसरी अपनी आजीविका का एक अंश इस पुण्य प्रयोजन में नियमित रूप से लगाना। महीने में एक दिन उपवास ही क्यों न करना पड़े-चाहे किसी आवश्यकता में कटौती ही क्यों न करनी पड़े पर इतना त्याग बलिदान तो किया ही जाना चाहिये। नियमितता से स्वभाव एवं अभ्यास का निर्माण होता है इसलिए एक बार थोड़ा समय या थोड़ा पैसा दे देने से काम न चलेगा इसमें नियमितता जुड़ी रहनी चाहिये। लगातार की नियमितता को ही साधना कहते हैं। जो कम ज्यादा समय या धन खर्च करना चाहें वे वैसा कर सकते हैं। पर होना सब कुछ नियमित हो चाहिये। लगातार चलने से मंजिल पार होती है। एक क्षण की उछाल चमत्कृत तो करती है पर उससे लम्बी मंजिल का पार होना सम्भव नहीं। इसलिए किसी से बड़ी धन राशि की याचना नहीं की है भले ही थोड़ा-थोड़ा हो पर नियमित रूप से कुछ करते रहने के लिए कहा गया है।

अपने क्षेत्र के ऐसे शिक्षित जिनमें थोड़ी विचारशीलता की सम्भावना हो अपने सम्पर्क क्षेत्र में ढूंढे जा सकते हैं और उनकी लिस्ट बनाई जा सकती है। आरम्भ में यह लिस्ट छोटी भी बनाई जा सकती है पर पीछे एक दूसरे से पूछने परामर्श करने पर उस लिस्ट का विस्तार होता रह सकता है। प्रतिदिन यथा अवसर कुछ लोगों से मिलना और उन्हें एक विज्ञप्ति पढ़ने का अनुरोध करना बिना झिझक-संकोच एवं समय खर्च किये बड़ी आसानी से हो सकता है। किसी बड़े दफ्तर या कारखाने में काम करने वाले, बड़ी कक्षाओं के अध्यापक लोग, चिकित्सक, व्यापारी, घूमने वाले ऐजेन्ट, दलाल, पोस्टमैन जैसे व्यक्ति तो बड़ो आसानी से यह काम कर सकते हैं। हर स्थिति का व्यक्ति कहीं न कहीं लोगों से मिलता- जुलता ही है। उसको परिवार, सम्पर्क, रिश्तेदार, मित्र, परिजन कुछ तो होते ही हैं। यहाँ से आरम्भ करके उसकी श्रृंखला परिचितों से परिचय प्राप्त करने से बढ़ाई जा सकती है। इस प्रकार अपना प्रचार क्षेत्र हर किसी के लिए १०० तक हो सकता है। गाँवों में समीपवर्ती दो- चार गांवों का मिलकर भी यह क्षेत्र हो सकता है। यह सौ व्यक्ति चलते- फिरते नहीं वरन् ऐसे होना चाहिये जिसके पास बार-बार पहुंचा जा सके और जो लगातार उस साहित्य सीरीज को पढ़ाकर अपना मन मस्तिष्क परिपक्व करने के उपयुक्त कुछ ठोस सामग्री लगातार प्राप्त करते रह सकें।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1969

👉 भक्तिगाथा (भाग ७५)

महारास की रसमयता से प्रकट हुआ है भक्तिशास्त्र

महर्षि दुर्वासा के मुख से भक्ति की अनुभवकथा को सुनकर सभी के हृदयसरोवर में भगवत्प्रेम की अनेकों उॄमया उठीं। प्रायः सभी के नेत्र ऋषि दुर्वासा के मुख को निहारने लगे। इस समय उनके मुख पर बड़ी सहज और सात्त्विक कोमलता थी। इस अनूठी कोमलता को देखकर कईयों को अचरज भी हुआ क्योंकि ऋषि दुर्वासा तो सदा ही अपने रौद्रभाव के लिए विख्यात थे। उनके मुखमण्डल पर तो सदा ही दुर्धर्ष रौद्रभाव की छाया रहती थी। कठिन तप की कठोरता का तेजस उनके मुख को आवृत्त किए रहता था। परन्तु आज तो स्थिति परिवर्तित थी। इन क्षणों में कोमलता ने कठोरता का स्थान ले लिया था। महर्षि की आँखें भीगी हुई थीं। हृदय विगलित था और कण्ठ रुद्ध हो रहा था। बस भक्तिपूर्ण मन से आकाश को निहारे जा रहे थे। मुख से निकलते अस्फुट स्वरों- हे भक्तवत्सल नारायण! हे करूणासिन्धु नारायण!! हे कृपासागर नारायण!!! के रूप में भक्ति की निर्झरणी बह रही थी।

प्रखर तपस्वी महर्षि दुर्वासा का यह रूप सभी के अन्तस को छू गया। इन क्षणों में हिमवान के शिखरों की शुभ्रता शत-सहस्र-लक्षगुणित होती जा रही थी। ऐसा हो भी क्यों न? आखिर निशिपति चन्द्रदेव तारकों का पुष्पहार पहनकर गगन-विहार करने जो आ चुके थे। वह अपने सहस्र-सहस्र रश्मिकरों से रूपहली चाँदनी सब ओर बिखेर रहे थे। इस उज्ज्वल-धवल चाँदनी के संस्पर्श से शुभ्र हिमशिखरों की शुभ्रता और भी सम्मोहक हो रही थी। जितनी तीव्रता से हिमालय के शिखरों पर चन्द्रमा की चाँदनी व्याप्त हो रही थी, उतनी ही तीव्रता से उपस्थित जनों के मनों में महर्षि दुर्वासा के प्रति अपनापन व्याप्त हो रहा था। ऋषियों-महर्षियों, देवों, सिद्धों की सुकोमल भावनाएँ महर्षि के भक्तिपूर्ण मन से एकात्म हो रही थीं।

इस गहन आध्यात्मिक अनुभूति से देवर्षि नारद भी पुलकित थे। वह मौन हो आनन्दित हो रहे थे। आनन्द की यह छटा उनकी मुखछवि पर भी छिटक रही थी। वह इस समय बस भक्ति की भाव तरंगों में भीग रहे थे। महर्षि वसिष्ठ अपने सप्तर्षिमण्डल के साथ इस दृश्य की मनोरमता निहार रहे थे। महाराज अम्बरीश की स्मृतियों ने उन्हें भी बहुत कुछ अतीत की झलकियाँ दिखा दी थीं। वह अनुभव कर रहे थे कि भक्ति की चर्चा और भक्त के सहचर्य-सत्संग से श्रेष्ठ अन्य कुछ भी नहीं। पर कहीं उनके मन में यह भी था कि देवर्षि अपने सूत्र का उच्चारण करें और इस भक्ति के भावप्रवाह की मनोरमता में एक नवीन आयाम जुड़े।

ब्रह्मर्षि वसिष्ठ के इन अन्तर्भावों ने देवर्षि की अन्तश्चेतना को हौले से छुआ और उसमें एक नवीन सूत्र का अंकुरण हुआ। वे वीणा की झंकृति के साथ मधुर स्वर में बोले-
‘तस्याः साधनानि गायन्त्याचार्याः’॥ ३४॥
आचार्यगण उस (भक्ति) के साधन (के गीत गाते हैं) बतलाते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १३८

सोमवार, 11 अक्तूबर 2021

👉 सच्ची सरकार

कन्धे पर कपड़े का थान लादे और हाट-बाजार जाने की तैयारी करते हुए नामदेव जी से पत्नि ने कहा- भगत जी! आज घर में खाने को कुछ भी नहीं है। आटा, नमक, दाल, चावल, गुड़ और शक्कर सब खत्म हो गए हैं। शाम को बाजार से आते हुए घर के लिए राशन का सामान लेते आइएगा।

भक्त नामदेव जी ने उत्तर दिया- देखता हूँ जैसी विठ्ठल जीकी कृपा। अगर कोई अच्छा मूल्य मिला, तो निश्चय ही घर में आज धन-धान्य आ जायेगा।

पत्नि बोली संत जी! अगर अच्छी कीमत ना भी मिले, तब भी इस बुने हुए थान को बेचकर कुछ राशन तो ले आना। घर के बड़े-बूढ़े तो भूख बर्दाश्त कर लेंगे। पर बच्चे अभी छोटे हैं, उनके लिए तो कुछ ले ही आना।

जैसी मेरे विठ्ठल की इच्छा।
ऐसा कहकर भक्त नामदेव जी हाट-बाजार को चले गए।

बाजार में उन्हें किसी ने पुकारा- वाह सांई! कपड़ा तो बड़ा अच्छा बुना है और ठोक भी अच्छी लगाई है। तेरा परिवार बसता रहे। ये फकीर ठंड में कांप-कांप कर मर जाएगा।
दया के घर में आ और रब के नाम पर दो चादरे का कपड़ा इस फकीर की झोली में डाल दे।

भक्त नामदेव जी- दो चादरे में कितना कपड़ा लगेगा फकीर जी?

फकीर ने जितना कपड़ा मांगा,
इतेफाक से भक्त नामदेव जी के थान में कुल कपड़ा उतना ही था।
और भक्त नामदेव जी ने पूरा थान उस फकीर को दान कर दिया।

दान करने के बाद जब भक्त नामदेव जी घर लौटने लगे तो उनके सामने परिजनो के भूखे चेहरे नजर आने लगे। फिर पत्नि की कही बात, कि घर में खाने की सब सामग्री खत्म है। दाम कम भी मिले तो भी बच्चो के लिए तो कुछ ले ही आना।

अब दाम तो क्या, थान भी दान जा चुका था। भक्त नामदेव जी एकांत मे पीपल की छाँव मे बैठ गए।

जैसी मेरे विठ्ठल की इच्छा।
जब सारी सृष्टि की सार पूर्ती वो खुद करता है, तो अब मेरे परिवार की सार भी वो ही करेगा। और फिर भक्त नामदेव जी अपने हरिविठ्ठल के भजन में लीन गए।

अब भगवान कहां रुकने वाले थे।
भक्त नामदेव जी ने सारे परिवार की जिम्मेवारी अब उनके सुपुर्द जो कर दी थी।

अब भगवान जी ने भक्त जी की झोंपड़ी का दरवाजा खटखटाया।
नामदेव जी की पत्नी ने पूछा- कौन है?
नामदेव का घर यही है ना?
भगवान जी ने पूछा।

अंदर से आवाज हां जी यही आपको कुछ चाहिये
भगवान सोचने लगे कि धन्य है नामदेव जी का परिवार घर मे कुछ भी नही है फिर ह्र्दय मे देने की सहायता की जिज्ञयासा हैl

भगवान बोले दरवाजा खोलिये
लेकिन आप कौन?

भगवान जी ने कहा- सेवक की क्या पहचान होती है भगतानी? जैसे नामदेव जी विठ्ठल के सेवक, वैसे ही मैं नामदेव जी का सेवक हूl

ये राशन का सामान रखवा लो। पत्नि ने दरवाजा पूरा खोल दिया। फिर इतना राशन घर में उतरना शुरू हुआ, कि घर के जीवों की घर में रहने की जगह ही कम पड़ गई।
इतना सामान! नामदेव जी ने भेजा है? मुझे नहीं लगता। पत्नी ने पूछा।

भगवान जी ने कहा- हाँ भगतानी! आज नामदेव का थान सच्ची सरकार ने खरीदा है।
जो नामदेव का सामर्थ्य था उसने भुगता दिया।
और अब जो मेरी सरकार का सामर्थ्य है वो चुकता कर रही है।
जगह और बताओ।
सब कुछ आने वाला है भगत जी के घर में।

शाम ढलने लगी थी और रात का अंधेरा अपने पांव पसारने लगा था।

समान रखवाते-रखवाते पत्नि थक चुकी थीं। बच्चे घर में अमीरी आते देख खुश थे। वो कभी बोरे से शक्कर निकाल कर खाते और कभी गुड़। कभी मेवे देख कर मन ललचाते और झोली भर-भर कर मेवे लेकर बैठ जाते। उनके बालमन अभी तक तृप्त नहीं हुए थे।

भक्त नामदेव जी अभी तक घर नहीं आये थे, पर सामान आना लगातार जारी था।

आखिर पत्नी ने हाथ जोड़ कर कहा- सेवक जी! अब बाकी का सामान संत जी के आने के बाद ही आप ले आना।
हमें उन्हें ढूंढ़ने जाना है क्योंकी वो अभी तक घर नहीं आए हैं।

भगवान जी बोले- वो तो गाँव के बाहर पीपल के नीचे बैठकर विठ्ठल सरकार का भजन-सिमरन कर रहे हैं।
अब परिजन नामदेव जी को देखने गये

सब परिवार वालों को सामने देखकर नामदेव जी सोचने लगे, जरूर ये भूख से बेहाल होकर मुझे ढूंढ़ रहे हैं।

इससे पहले की संत नामदेव जी कुछ कहते उनकी पत्नी बोल पड़ीं- कुछ पैसे बचा लेने थे। अगर थान अच्छे भाव बिक गया था, तो सारा सामान संत जी आज ही खरीद कर घर भेजना था क्या?

भक्त नामदेव जी कुछ पल के लिए विस्मित हुए। फिर बच्चों के खिलते चेहरे देखकर उन्हें एहसास हो गया, कि जरूर मेरे प्रभु ने कोई खेल कर दिया है।

पत्नि ने कहा सच्ची सरकार को आपने थान बेचा और वो तो समान घर मे भैजने से रुकता ही नहीं था। पता नही कितने वर्षों तक का राशन दे गया। उससे मिन्नत कर के रुकवाया- बस कर! बाकी संत जी के आने के बाद उनसे पूछ कर कहीं रखवाएँगे।

भक्त नामदेव जी हँसने लगे और बोले-! वो सरकार है ही ऐसी। जब देना शुरू करती है तो सब लेने वाले थक जाते हैं। उसकी देना कभी भी खत्म नहीं होता।

👉 अपनी श्रद्धा को उर्वर एवं सार्थक बनने दें

कभी हमने पूर्व जन्मों के सत् संस्कार वालों और अपने साथी सहचरों को बड़े प्रयत्नपूर्वक ढूंढा है और 'अखण्ड- ज्योति परिवार की शृद्खला में गूंथकर एक सुन्दर गुलदस्ता तैयार किया था। मंशा थी इन्हें देवता के चरणों में चढ़ा येंगे। पर अब जब जब कि बारीकी से नजर डालते हैं कि कभी के अति सुरम्य पुष्प अब परिस्थितियों ने बुरी तरह विकृत कर दिये है। वे अपनो कोमलता, शोभा और सुगंध तोनों ही खोकर बुरी तरह इतनी मुरझा गये कि हिलाते- दुलाते हैं तो भी सजीवता नहीं आती उलटी पंखड़ियाँ भर जाती हैं। ऐसे पुष्पों को फेंकना तो नहीं है क्योंकि मूल संस्कार जब तक विद्यमान हैं तब तक यह आशा भी है कि कभी समय आने पर इनका भी कुछ सदुपयोग सम्भव होगा, किसी औषधि में यह मुरझाये फूल भी कभी काम आयेंगे। पर आज तो देव देवो पर चढ़ाये जाने योग्य सुरभित पुष्पों की आवश्यकता है सो उन्हीं की छांट करनी पड़ रही है। अभी आज तो सजीवता ही अभीष्ट है और वस्तुस्थिति की परख तो कहने- सुनने- देखने- मानने से नहीं वरन् कसौटी पर कसने से ही होता है। सो परिवार को सजोवता- निर्जीवता- आत्मीयता, विडम्बना के अंश परखने के लिए यह वर्तमान प्रक्रिया प्रस्तुत की है। बेकार की घचापच छट जाने से अपने अन्तरिम परिवार को एक छोटी सीमा अपने लिए भी हलकी पड़ेगी बौर अधिक ध्यान से सींचे- पोसे जाने के कारण वे पौधे भी अधिक लाभान्वित होंगे

नव- निर्माण के लिए अभी बहुत काम करना बाकी है। विचार- प्रसार तो उसका बीजारोपण है। इसके बिना कोई गति नहीं। अक्षर ज्ञान की शिक्षा पाये बिना ऊंची पढ़ाई की न तो आशा है न सम्भावना है। इसलिए प्रारम्भ में हर किसी को अक्षर ज्ञान कराना अनिवार्य है। पीछे जिसकी जैमी अभिरुचि हो शिक्षा के विषय चुनना रह सकता है पर अनिवार्य में छूट किसी को नहीं मिल सकती। प्रारम्भिक अक्षर सबको समान रूप में  पढ़ने पड़ेगे। विचारों की उप-योगिता, महत्ता, शक्ति और प्रमुखता का रहस्य हर किसी के मस्तिष्क में कूट- कूट कर भरा जाना है और बताया जाना है कि व्यक्ति की महानता और समाज की प्रखरता उसमें सक्षिप्त विचार पद्धति पर ही सन्निहित है। परिस्थितियों के बिगड़ने- बनने का एकमात्र आधार विचारणा ही है। विवेक के प्रकाश में यह परखा जाना चाहिये कि हमने अपने ऊपर कितने अवांछनीय और अनुपयुक्त  विचार अंट रखे है और उनने हमारी कितनी लोमहर्षक दुर्गति की है। हमें तत्त्वदर्शी की तरह वस्तुस्थिति का विश्लेषण करना होगा और निर्णय करना होगा कि किन आदर्शों और उत्कृष्टताओं को अपनाने के लिए कठिबद्ध हों ताकि वर्तमान के नरक को हटाकर उज्ज्वल भविष्य की स्वर्गीय सम्भावनाओं को मूर्तिमान् बना सकना सम्भव हो सके। विचार- क्रान्ति का मूल यही रत्रतन्त्र चिन्तन है। जन- मानस को उसी की प्राथमिक शिक्षा दी जानी है। अभी हमारी योजना का प्रथम चरण यही है। अगले चरणों में तो अनेक रचनात्मक और अनेक संघर्षात्मक काम करने को पड़े हैं। युग परिवर्तन और घरती पर स्वर्ग का अवतरण अगणित प्रयासों की अपेक्षा रखता है। वह बहुत व्यापक और बहुमुखी योजना हमारे मस्तिष्क में है। उसकी एक हलकी- सी झाकी गत दिनों योजना में करा भी चुके हैं। वह हमारा रचनात्मक प्रयास होगा। संघर्षात्मक पथ एक और ही जिसके अनुसार अवांछनीयता, अनैतिकता एवं अरामाजिकता के विरुद्ध प्रचलित 'घिराव' जैसे भाध्यमों से लेकर समग्र बहिष्कार तक और उतनी अधिक दबाव देने की प्रक्रियाएं सम्मिलित हैं जिससे दुष्टुता भी बोल जाय और उच्छ्खनता का कचू-मर निकल जाय। सजग, समर्थ लोगों की एक सक्रिय  स्वय- सेवक सेना प्राण हथेली पर रखकर खड़ी हो जाय तो आज जिन अनैतिकताओं का चारों और बोलबाला है और जो न हटने वालो न टलने वाली दीखती हैं। आंधी में उड़ते तिनकों की तरह तिरोहित हो जाँयगी।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1969

👉 भक्तिगाथा (भाग ७४)

जहाँ भक्ति है, वहाँ भगवान हैं

ये क्षण बड़े शीतल व सुखद थे। ये अनुभूतियाँ कई क्षणों तक सभी को घेरे रहीं, तभी उस सघन आध्यात्मिक वातावरण में एक प्रखर तेजस्विता ने आकार ग्रहण किया। यह आकृति परम तेजस्वी व प्रखर तपस्वी ऋषि दुर्वासा की थी। ऋषि दुर्वासा अपने प्रचण्ड तप व असाध्य साधन के लिए विख्यात थे। उन्होंने योग एवं तंत्र की अनगिनत दुष्कर साधनाएँ सम्पन्न की थीं। विविध विद्याएँ अपने सभी सुफल के साथ उनके सामने करबद्ध खड़ी रहती थीं। इन महान ऋषि ने केवल दुर्व खाकर हजारों वर्ष तप किया था। दीर्घ अवधि तक इस दुर्व (दूब)+असन (भोजन) के कारण ही उनका नाम दुर्वासा हो गया था। उनकी चमत्कारिक शक्तियों व विकट तप की ही भाँति उनका क्रोध भी लोकविख्यात था परन्तु उनका क्रोध सदा ही किसी न किसी भाँति लोककल्याणकारी था।

ऐसे ऋषि दुर्वासा का आगमन, सुखद किन्तु आश्चर्यजनक था। वे महारूद्र के रौद्रतेज की साकार रौद्र मूर्ति थे। उनके आगमन से कुछ को प्रसन्नता हुई तो कुछ को आश्चर्य। परन्तु सुखी सभी थे क्योंकि सभी को यह लग रहा था कि महर्षि के आगमन से भक्तिगाथा में एक नयी कथा पिरोयी जाएगी। ऋषियों ने महर्षि का स्वागत किया। देवों, गन्धर्वों, सिद्धों व चारणों ने उन्हें भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया। महर्षि दुर्वासा ने विहंसते हुए सभी का अभिवादन स्वीकार किया। उन्हें इस तरह हंसते हुए देखकर सभी को आश्वस्ति मिली। सभी को आश्वस्ति पाते देखकर महर्षि भी पुलकित हुए। उन्होंने सभी से कहा कि ‘‘मैंने अपने जीवन में अनगिनत साधनाएँ की हैं। इनकी संख्या इतनी अधिक है कि अब तो मैंने साधनाओं एवं सिद्धियों की गणना करना ही छोड़ दिया है। विद्याओं के विविध प्रकार और उनके सुफल मेरे लिए अर्थहीन हो गए हैं। इन सबसे मुझे किंचित मात्र भी शान्ति नहीं मिली।

यह परम शान्ति तो भक्ति में है। जिसकी वजह से वत्स अम्बरीश का इतने युगों बाद नामश्रवण भी भावों को भिगो देता है। जहाँ भक्ति है, वहाँ स्वयं भगवान हैं, और जहाँ भगवान हैं, वहाँ पराजय और अशुभ टिक ही नहीं सकते। इसलिए भक्ति ही श्रेष्ठतम साधन मार्ग है।’’ महर्षि दुर्वासा के ये अनुभूतिवाक्य सभी को प्रीतिपूर्ण लगे। उन सबने देवर्षि की ओर देखा। देवर्षि ने पुलकित मन से महर्षि दुर्वासा की ओर देखते हुए अपने नए सूत्र का उच्चारण किया-

‘तस्मात्सैव ग्राह्या मुमुक्षुभिः’॥ ३३॥
इसलिए संसार बन्धन से मुक्त होने की इच्छा रखने वालों को भक्ति ही ग्रहण करनी चाहिए।

देवर्षि के इन वचनों को सुनकर ऋषिश्रेष्ठ दुर्वासा कह उठे- ‘‘नारद के ये वचन त्रिकालसत्य हैं, त्रिवारसत्य हैं, और सच यही है कि यही सर्वकालिक सत्य है। मेरी स्वयं की अनुभूति भी यही कहती है।’’ फिर थोड़ा रुककर वह बोले- ‘‘सम्भव है कि आपने यह कथा सुन रखी हो परन्तु फिर भी मैं इसे कहना चाहता हूँ।’’ ‘‘अवश्य कहें-महर्षि!’’ सभी ने लगभग एक स्वर से कहा। केवल ऋषि अत्रि मुस्करा दिए। ऋषि दुर्वासा ने पिता की इस मुस्कान पर दोनो हाथ जोड़ लिए और कहना प्रारम्भ किया- ‘‘अभी आपने ब्रह्मर्षि वसिष्ठ के मुख से भक्त अम्बरीश का भक्तिप्रसंग सुना है। मैं भी आज उनकी भक्ति की सराहना करना चाहता हूँ। इस कथा को घटित हुए युगों बीत गए परन्तु मेरे अन्तःकरण में वे सभी दृश्य अभी भी जीवन्त हैं।

उस दिन भी एकादशी व्रत के परायण का उत्सव था। ठीक वैसा ही आयोजन, वैसा ही समारोह-सम्भार, जिसकी कथा आप सभी ने थोड़ी ही देर पहले सुनी है। बस अन्तर था तो इतना, कि वत्स अम्बरीश ने एक दिन पूर्व मुझे आमंत्रित किया था परन्तु मैं परायण उत्सव पर निश्चित मुहूर्त्त से काफी विलम्ब से पहुँचा। अम्बरीश जब तक प्रतीक्षा कर सकते थे, उन्होंने की। परन्तु बाद में ऋषियों के निर्देश से उन्होंने परायण कर लिया। हालांकि, इसके लिए उन्होंने मुझसे क्षमायाचना भी की। परन्तु मैं उस दिन अहंता से ग्रसित था। सो मैंने क्रोधवश क्रूर करालकृत्या का प्रयोग अम्बरीश पर कर दिया। वहाँ उपस्थित ऋषियों के पास इसकी कोई काट न थी। सभी असहाय से खड़े इसे देखते रहे। और क्रूर करालकृत्या अम्बरीश को जलाने लगी।

उन्होंने ब्रह्मर्षि वसिष्ठ की ओर देखा और इन महान ऋषि के संकेत को समझकर आर्त स्वर से पुकारा- रक्षा करो नारायण! करूणा करो हे भक्तवत्सल!! अम्बरीश की इस आर्त पुकार ने जैसे सप्तलोक और चौदह भुवनों को बेध दिया और फिर पलक झपकते ही जैसे सहस्रों-सहस्र सूर्य आकाश में उदित हो गए। यह नारायण के सुदर्शन चक्र का प्राकट्य था, जिसने क्षणार्ध में उस कृत्या को भस्मीभूत कर दिया। फिर वह सुदर्शन वेगपूर्ण हो मुझे दण्डित करने के लिए दौड़ा। मैं भी भयभीत होकर भागा- पहले पिताश्री अत्रि एवं माताश्री अनुसूइया के पास गया। इन्होंने मुझे परामर्श दिया कि पुत्र तुम अम्बरीश की शरण में जाओ। अन्यत्र तुम्हें कहीं भी शरण न मिलेगी। पर मुझ अभिमानी को यह बात समझ में न आयी। सो ऋषियों के पास से त्रिदेवों के पास गया। ब्रह्मा, शिव और अन्त में नारायण के पास। परन्तु वहाँ भी वही कहा गया- कि तुम अम्बरीश के अपराधी हो उन्हीं की शरण में जाओ। आखिर थक हार कर मैं अम्बरीश के पास आया। परन्तु यह क्या, उन्होंने तो मेरे पाँव पकड़ लिए, और कहा आप पर नारायण की अवश्य कृपा होगी। उनके इस स्वरों के साथ ही सुदर्शन तिरोहित हो गया। परन्तु उस दिन मुझे यह बोध अवश्य हो गया कि भक्ति से श्रेष्ठ अन्य कोई साधन नहीं है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १३६

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2021

👉 सुविधा सम्पन्न होने पर भी थकान-ग्रस्त क्यों? (अन्तिम भाग)

खुली, धूप, ताजी हवा और अंग संचालन के आवश्यक शारीरिक परिश्रम का अभाव साधन सम्पन्न लोगों की थकान का मुख्य कारण है। इसके लिये बाहर से बहुत आकर्षक लगने वाले दफ्तर वास्तव में बहुत ही खतरनाक हैं। वातानुकूलित करने जरा-सी गर्मी में पंखों की तेज चाल- कूलर- खश के पर्दे, बर्फ मिला पानी- जाड़े में हीटर- गरम चाय- ऊनी कपड़ों का कसाव देखने में बड़े आदमी होने का चिह्न लगाते हैं और तात्कालिक सुविधा भी देते हैं पर इनका परिणाम अन्ततः बहुत बुरा होता है। त्वचा अपनी सहन शक्ति खो बैठती है। अवयवों में प्रतिकूलता से लड़ने की क्षमता घट जाती है। फलस्वरूप ऋतु प्रभाव को सहन न कर पाने से आये दिन जुकाम, खाँसी, लू लगना, ताप, सिर दर्द, अनिद्रा, अपच जैसी शिकायतें समाने खड़ी रहती हैं। सूर्य की किरणें और स्वच्छ हवा में जो प्रचुर परिमाण में जीवन तत्व भरे पड़े हैं उनसे वञ्चित रहा जाय तो उसकी पूर्ति ‘विटामिन, मिनिरल और प्रोटीन’ भरे खाद्य पदार्थों की प्रचुर मात्रा भी नहीं कर सकती। साधन सम्पन्न लोग ही तात्कालिक सुविधा देखते हैं और दूरगामी क्षति को भूल जाते हैं। फलतः वह आरामतलबी का रवैया बहुत भारी पड़ता है और थकान तथा उससे उत्पन्न अनेक विग्रहों का सामना करना पड़ता है।

म्यूनिख (जर्मनी) की वावेरियन एकेडमी आफ लेवर एण्ड सोशल येडीशन संस्था की शोधों का निष्कर्ष यह है कि कठोर शारीरिक श्रम करने वाले मजदूरों की अपेक्षा दफ्तरों की बाबूगीरी स्वास्थ्य की दृष्टि से अधिक खतरनाक है।

स्वास्थ्य परीक्षण- तुलनात्मक अध्ययन आँकड़ों के निष्कर्ष और शरीर रचना तथ्यों को सामने रखकर शोध कार्य करने वाली इस संस्था के प्रमुख अधिकारी श्री एरिफ हाफमैन का कथन है कि कुर्सियों पर बैठे रहकर दिन गुजारना अन्य दृष्टियों से उपयोगी हो सकता है पर स्वास्थ्य की दृष्टि से सर्वथा हानिकारक है। इससे माँस पेशियों के ऊतकों एवं रक्त वाहिनियों को मिली हुई स्थिति में रहना पड़ता है, वे समुचित श्रम के अभाव में शिथिल होती चली जाती है फलतः उनमें थकान और दर्द की शिकायत उत्पन्न होती है। रक्त के नये उभार में, उठती उम्र में यह हानि उतनी अधिक प्रतीत नहीं होती पर जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है वैसे वैसे आन्तरिक थकान के लक्षण बाहर प्रकट होने लगते हैं और उन्हें कई बुरी बिमारियों के रूप में देखा जा सकता है। कमर का दर्द (लेवैगो), कूल्हे का दर्द (साइटिका) गर्दन मुड़ने में कंधा उचकाने में दर्द, शिरा स्फीति (वेरी कजोवेन्स), बवासीर, स्थायी कब्ज, आँतों के जख्म, दमा जैसी बीमारियों के मूल में माँस पेशियों और रक्त वाहिनियों की निर्बलता ही होती है, जो अंग सञ्चालन, खुली धूप और स्वच्छ हवा के अभाव में पैदा होती है। इन उभारों को पूर्व रूप की थकान समझा जा सकता है।

बिजली की तेज रोशनी में लगातार रहना, आँखों पर ही नहीं आन्तरिक अवयवों पर भी परोक्ष रूप से बुरा प्रभाव डालता है। आँखें एक सीमा तक ही प्रकाश की मात्रा को ग्रहण करने के हिसाब से बनी हैं। प्रकृति ने रात्रि के अन्धकार को आँखों की सुविधा के हिसाब से ही बनाया है। प्रातः सायं भी मन्द प्रकाश रहता है। उसमें तेजी सिर्फ मध्याह्न काल को ही आती है। सो भी लोग उससे टोप, छाया, छाता, मकान आदि के सहारे बचाव कर लेते हैं। आंखें सिर्फ देखने के ही काम नहीं आतीं वे प्रकाश की अति प्रबल शक्ति को भी उचित मात्रा में शरीर में भेजने की अनुचित मात्रा को रोकने का काम करती हैं। यह तभी सम्भव है जब उन पर प्रकाश का उचित दबाव रहे पर यदि दिन रात उन्हें तेज रोशनी में काम करना पड़े तो देखने की शक्ति में विकार उत्पन्न होना तो छोटी बात है। बड़ी हानि यह है कि प्रकाश की अनुचित मात्रा देह में भीतर जाकर ऐसी दुर्बलता पैदा करती है जिससे थकान ही नहीं कई अन्य प्रकार की तत्सम्बन्धित बीमारियाँ भी पैदा होती हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1972

👉 भक्तिगाथा (भाग ७३)

जहाँ भक्ति है, वहाँ भगवान हैं

देवर्षि के सूत्र सत्य में अपने शब्दप्रसूनों को पिरोते हुए ब्रह्मर्षि वसिष्ठ बोले- ‘‘सचमुच ही राजपरितोष तो राजा के सानिध्य में रहकर ही जाना जा सकता है। यह तब और भी सुखकर एवं प्रीतिकर होता है, जब राजा हमारे वत्स अम्बरीश की भाँति, तपस्वी, ब्राह्मणों एवं साधुओं को साक्षात साकार नारायण के रूप में पूज्य मानता हो। और रही बात भोजन की तो इसका स्वाद एवं सुख, चर्चा-चिन्तन में नहीं, इसे ग्रहण करने में है।’’ ब्रह्मर्षि वसिष्ठ का यह कथन कुछ इतना मधुर व लयपूर्ण था कि उनकी शब्दावली, एक नवीन दृश्यावली को साकार कर रही थी। एकबारगी सभी के अन्तर्भावों में भुवनमोहिनी अयोध्या, सरयू का तट, उस पावन नदी का नीर, उसमें मचलती लहरें और उन लहरों में अठखेलियाँ करती सूर्य रश्मियाँ और अवधवासियों पर, समस्त भक्तों और सन्तों पर अपनी स्वर्णिम कृपा बरसाते सूर्यदेव प्रकट हो उठे थे।

ये बड़े ही गहन समाधि के क्षण-पल थे। इन क्षणों में, इन पलों में हिमवान के आंगन में बैठे हुए सभी ने अयोध्या का सुखद अतीत निहारा। उन्होंने देखा कि राजर्षि अम्बरीश किस तरह तपोधन महर्षि विद्रुम एवं उनके शिष्य शील व सुभूति का सत्कार-सम्मान कर रहे हैं। किस तरह वह उन्हें बार-बार आग्रहपूर्वक भोजन ग्रहण करा रहे हैं। सबने यह भी देखा कि राजपरितोष एवं क्षुधाशान्ति के ये सुखद पल सरयू के तीर पर ही समाप्त न हुए बल्कि महाराज उन्हें आग्रहपूर्वक राजभवन में ले गए। भव्य राजप्रासाद में महारानी सहित सभी राजसेवकों व राजसेविकाओं ने इनका सम्मोहक सम्मान किया। आरती के थाल सजे, वन्दनवार टंगे, मंगलगीतों का गायन हुआ। इतने पर भी महाराज ने विराम न लिया, वह इन्हें आग्रहपूर्वक राजसभा में ले गए। जहाँ स्वागत-सम्मान के इस समारोह ने अपना चरम देखा।

राजर्षि अम्बरीश की भावनाओं में भीगे ऋषि विद्रुम इसे तितीक्षा के रूप में सहन करते रहे। परन्तु एक पल ऐसा भी आया जब उन्होंने ब्रह्मर्षि वसिष्ठ की ओर सांकेतिक दृष्टि से देखा। अन्तर्ज्ञानी ब्रह्मर्षि परम तपस्वी का संकेत समझ गए। उन्होंने अम्बरीश को सम्बोधित करते हुए कहा- ‘‘पुत्र! अब ऋषिश्रेष्ठ को तपोवन जाने की अनुमति दो क्योंकि ऋषिवर इस समय तुम्हारे भावों के वश में हैं। इसी वजह से वह तुम्हारे प्रत्येक आग्रह एवं अनुरोध को स्वीकार करते जा रहे हैं। परन्तु यह उनकी और उनके शिष्यों की प्रकृति के विपरीत है। उनकी प्रकृति के लिए तो तपोवन की कठोरता व दुष्कर-दुधर्ष साधनाएँ ही सहज हैं। इसलिए उन्हें अब तपोवन जाने दो वत्स!’’ ब्रह्मर्षि वसिष्ठ महाराज अम्बरीश के  लिए ही नहीं बल्कि उनके समस्त कुल के आराध्य थे। उनका प्रत्येक वचन उन्हें सर्वथा शिरोधार्य था। इसलिए उन्होंने भीगे नयनों से, विगलित मन से ऋषि विद्रुम व शील एवं सुभूति को विदा दी। अतीत के इस अनूठे दृश्य को सभी ने अपने अन्तर्भावों में निहारा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १३५

बुधवार, 6 अक्तूबर 2021

👉 ऐसा यज्ञ करो

महाभारत की समाप्ति के उपरान्त पांडवों ने एक महान यज्ञ किया। कहते हैं कि वैसा यज्ञ उस जमाने में और किसी ने नहीं किया था। गरीब लोगों को उदारतापूर्वक इतना दान उस यज्ञ में दिया गया था कि उनके घर सोने से भर गये। वैसी दानवीरता को देख कर सबने दांतों तले उंगली दबाई।

इस यज्ञ की चर्चा देश-देशान्तरों में फैली हुई थी। यहां तक कि पशु-पक्षी भी उसे सुने बिना न रहे। एक नेवले ने जब इस प्रकार के यज्ञ का समाचार सुना तो वह बहुत प्रसन्न हुआ। क्योंकि एक छोटे से यज्ञ के उच्छिष्ट अन्न से छू जाने के कारण उसका आधा शरीर सोने का हो गया था। इस छोटे यज्ञ में जूठन के जरा से कण ही मिले थे जिनसे वह आधा ही शरीर स्पर्श कर सका था। तब से उसकी बड़ी अभिलाषा थी कि किसी प्रकार उसका शेष आधा शरीर भी सोने का हो जावे। वह जहां यज्ञ की खबर सुनता वहीं दौड़ा जाता और यज्ञ की जो वस्तुएं इधर-उधर पड़ी मिलतीं उनमें लोटता, किन्तु उसका कुछ भी प्रभाव न होता। इस बार इतने बड़े यज्ञ की चर्चा सुनकर नेवले को बड़ी प्रसन्नता हुई और वह अविलम्ब उसकी जूठन में लोटने के लिये उत्साहपूर्वक चल दिया।

कई दिन की कठिन यात्रा तय करके नेवला यज्ञस्थल पर पहुंचा और वहां की कीच, जूठन, यज्ञस्थली आदि में बड़ी व्याकुलता के साथ लोटता फिरा। एक बार नहीं कई-कई बार वह उन स्थानों पर लोटा और बार-बार आंखें फाड़ कर शरीर की परीक्षा की कि देखें मैं सोने का हुआ या नहीं। परन्तु बहुत करने पर भी कुछ फल न हुआ। तब वह एक स्थान पर बैठ कर सिर धुनधुन कर पछताने लगा।

नेवले के इस आचरण को देखकर लोग उसके पास इकट्ठे हो गये और इसका कारण पूछने लगे। उसने बड़े दुःख के साथ उत्तर दिया कि इस यज्ञ की प्रशंसा सुनकर मैं दूर देश से बड़ा कष्ट उठा कर यहां तक आया था, पर मालूम होता है कि यहां यज्ञ हुआ ही नहीं। यदि यज्ञ हुआ होता तो मेरा आधा अंग भी सोने का क्यों न हो जाता? लोगों की उत्सुकता बढ़ी, उन्होंने नेवले से कहा आपका शरीर सोने का होने और यज्ञ से उसका संबंध होने का क्या रहस्य है कृपया विस्तारपूर्वक बताइये।

नेवले ने कहा—सुनिए! एक छोटे से ग्राम में एक गरीब ब्राह्मण अपने परिवार सहित रहता था। परिवार में कुल चार व्यक्ति थे। (1) ब्राह्मण (2) उसकी स्त्री (3) बेटा (4) बेटे की स्त्री। ब्राह्मण अध्यापन कार्य करता था। बालकों को पढ़ाने से उसे जो कुछ थोड़ी-बहुत आमदनी हो जाती थी, उसी से परिवार का पेट पालन करता था। एक बार लगातार तीन वर्ष तक मेह न बरसा जिससे बड़ा भारी अकाल पड़ गया। लोग भूख के मारे प्राण त्यागने लगे। ऐसी दशा में वह ब्राह्मण परिवार भी बड़ा कष्ट सहन करने लगा। कई दिन बाद आधे पेट भोजन की व्यवस्था बड़ी कठिनाई से हो पाती। वे बेचारे सब के सब सूखकर कांटा होने लगे। एक बार कई दिन उपवास करने के बाद कहीं से थोड़ा-सा जौ का आटा मिला। उसकी चार रोटी बनीं। चारों प्राणी एक-एक रोटी बांट कर अपनी थालियों में रख कर खाने को बैठने ही जाते थे कि इतने में दरवाजे पर एक अतिथि आकर खड़ा हो गया।

गृहस्थ का धर्म हैं कि अतिथि का उचित सत्कार करे। ब्राह्मण ने अतिथि से कहा—पधारिए भगवन्! भोजन कीजिये। ऐसा कहते हुए उसने अपनी थाली अतिथि के आगे रख दी। अतिथि ने उसे दो-चार ग्रास में खा लिया और कहा—भले आदमी, मैं दस दिन का भूखा हूं, इस एक रोटी से तो कुछ नहीं हुआ उलटी भूख और अधिक बढ़ गई। अतिथि के वचन सुनकर ब्राह्मण पत्नी ने अपनी थाली उसके आगे रखदी और भोजन करने का निवेदन किया। अतिथि ने वह भोजन भी खा लिया, पर उसकी भूख न बुझी। तब ब्राह्मण पुत्र ने अपना भाग उसे दिया। इस पर भी उसे संतोष न हुआ तो पुत्र वधू ने अपनी रोटी उसे दे दी। चारों की रोटी खाकर अतिथि की भूख बुझी और वह प्रसन्न होता हुआ चलता बना।
उसी रात को भूख की पीड़ा से व्यथित होकर वह परिवार मर गया। मैं उसी परिवार की झोंपड़ी के निकट रहता था। नित्य की भांति बिल से बाहर निकला तो उस अतिथि सत्कार से बची हुई कुछ जूठन के कण उधर पड़े हुए थे। वे मेरे जितने शरीर से छुए उतना ही सोने का हो गया। मेरी माता ने बताया कि किसी महान् यज्ञ के कण लग जाने से शरीर सोने का हो जाता है। इसी आशा से मैं यहां आया था कि पाण्डवों का यह यज्ञ उस ब्राह्मण के यज्ञ के समान तो हुआ होगा, पर यहां के यज्ञ का वैसा प्रभाव देखा तो अपने परिश्रम के व्यर्थ जाने का मुझे दुख हो रहा है।

कथा बतलाती है कि दान, धर्म या यज्ञ का महत्व उसके बड़े परिमाण पर नहीं, वरन् करने वाले की भावना पर निर्भर है। एक धनी का अहंकारपूर्वक लाखों रुपया दान करना एक गरीब के त्यागपूर्वक एक मुट्ठी भर अन्न देने की समता नहीं कर सकता। प्रभु के दरबार में चांदी सोने के टुकड़ों का नहीं, वरन् पवित्र भावनाओं का मूल्य है।

✍🏻 पं श्री राम शर्मा आचार्य
📖 धर्मपुराणों की सत्कथाएं

👉 सुविधा सम्पन्न होने पर भी थकान-ग्रस्त क्यों? (भाग १)

लोग समझते हैं कि थकान अधिक काम करने से आती है अथवा कम पौष्टिक भोजन मिलने से। यह दो बातें भी ठीक हो सकती हैं पर यह नहीं समझना चाहिए कि शक्ति की कमी- शिथिलता- थकान और उदासी के यही दो कारण हैं।

अनेक साधन सम्पन्न व्यक्ति-अमीर अफसर- या ऐसी स्थिति में होते हैं जिनके पास काम भी उतना नहीं होता और अच्छी खुराक प्राप्त करने में भी कोई असुविधा नहीं होती। फिर भी वे बुरी तरह थके रहते हैं। अपने अन्दर जीवनी शक्ति अथवा क्रिया शक्ति की कमी अनुभव करते हैं और जो करना चाहते हैं- कर सकते हैं- उसमें अपने को असमर्थ अनुभव करते हैं।

दूसरी ओर सामान्य स्तर के अथवा गरीब लोग-गई गुजरी स्थिति में रहने के कारण सुविधा सम्पन्न जीवन नहीं जी पाते। गुजारे के लिये कठोर काम करने पड़ते हैं। अधिक समय तब भी और अधिक दबाव डालने वाले भी । साथ ही गरीबी के कारण उन्हें बहुमूल्य पौष्टिक खाद्य पदार्थ भी नहीं मिल पाते। इतने पर भी वे बिना थके हँसी-खुशी का जीवन जीते हैं- तरोताजा रहते हैं और अपनी स्फूर्ति में कमी पड़ती नहीं देखते।

इससे स्पष्ट है कि काम की अधिकता या खुराक के स्तर की कमी ही थकान का मात्र कारण नहीं है वरन् कुछ दूसरी बातें भी हैं जो आराम और पुष्टि की प्रचुरता रहते हुए भी थकान उत्पन्न करती हैं और दुर्बलता बनाये रहती हैं।

अमेरिका इन दिनों संसार का सबसे अधिक साधन सम्पन्न देश है। वहाँ के लोग कंजूस भी नहीं होते। जो कमाते हैं उसे खर्च करने और हंसी खुशी का जीवन जीने के आदी हैं। ऐश आराम के साधन वहाँ बहुत हैं। सवारी के लिये कार, वातानुकूलित कमरे, शरीर का श्रम घटाने के लिए कारखाने में तथा घर में हर प्रयोजन के लिए बिजली से चलने वाले यन्त्रों की वहाँ भरमार है। श्रम और समय को बचाने के लिए आर्थिक उन्नति और वैज्ञानिक प्रगति का पूरा-पूरा उपयोग किया जाता है। आहार की भी वहाँ क्या कमी है।

विटामिन, मिनिरल, प्रोटीन और दूसरे पौष्टिक तत्वों को भोजन में मिलाने का वहाँ आम रिवाज है। फलों के रस की बोतलें लोग पानी की तरह पीते रहते हैं। थकान से बचने और स्फूर्ति बनाये रहने पर ही विलासी जीवन जिया जा सकता है सो इसके लिये प्रख्यात दोनों कारणों पर वहाँ बहुत ध्यान दिया जाता है। श्रम सुविधा और खाद्य पौष्टिकता में कोई कुछ कमी नहीं रहने देता।

फिर भी वहाँ बुरा हाल है डाक्टरों के पास आधे मरीज ‘थकान’ रोग का इलाज कराने वाले होते हैं। इसके लिए प्रख्यात दवा “एम्फेटैमीन स्टीमुलैन्टस्” प्रयोग की जाती है। यह औषधि स्वल्प मात्रा में ली जाती है तो भी डाक्टरों के परिषद ने चिकित्सा प्रयोजन में हर साल काम ली जाने वाली इस दवा की मात्रा साड़े तीन हजार टन घोषित की है। एक टन-सत्ताईस मन के बराबर होता है। हिन्दुस्तानी हिसाब से यह 3500&27=94500 मन अर्थात् लगभग 1260000 किलो हुई। उस औषधि के निर्माताओं का रिपोर्ट अलग है। उत्पादकों और विक्रेताओं को हिसाब देखने से प्रतीत होता है कि डाक्टरों के परामर्श से इसका जितना सेवन होता है उसकी अपेक्षा तीन गुनी मात्रा लोग खुद ही बिना किसी की सलाह से अपने अनुभव के आधार पर स्वयं ही खरीदते खाते रहते हैं। इस प्रकार इसकी असली खपत चार गुनी मानी जानी चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1972

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...