गुरुवार, 6 सितंबर 2018

👉 परिवर्तन के महान् क्षण (भाग 4)

👉 विज्ञान और प्रत्यक्षवाद ने क्या सचमुच हमें सुखी बनाया है?  

🔷 समय का बदलाव, वैज्ञानिक उपलब्धियों तक, तर्क के आधार पर, प्रदर्शन करने के रूप में जब लाभदायक प्रतीत होता है तो उसके स्थान पर तप, संयम, परमार्थ जैसी उन मान्यताओं को क्यों स्वीकार कर लिया जाए, जो आस्तिकता, आध्यात्मिकता एवं धार्मिकता की दृष्टि से कितनी ही सराही क्यों न जाती हो, पर तात्कालिक लाभ की कसौटी पर उनके कारण घाटे में ही रहना पड़ता है।
  
🔶 नए समय के नए तर्क, अपराधियों-स्वेच्छाचारियों से लेकर हवा के साथ बहने वाले मनीषियों तक को समान रूप से अनुकूल पड़ते हैं और मान्यता के रूप में अंगीकार करने में भी सुविधाजनक प्रतीत होते हैं, तो हर कोई उसी को स्वीकार क्यों न करे? उसी दिशा में क्यों न चलें? मनीषी नीत्से ने दृढ़तापूर्वक घोषणा की है कि ‘‘तर्क के इस युग में पुरानी मान्यताओं पर आधारित ईश्वर मर चुका। अब उसे इतना गहरा दफना दिया गया है कि भविष्य में कभी उसके जीवित होने की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए।’’ धर्म के सम्बन्ध में भी प्रत्यक्षवादी बौद्धिक बहुमत ने यही कहा है कि वह अफीम की गोली भर है, जो पिछड़ों को त्रास सहते रहने और विपन्नता के विरुद्ध मुँह न खोलने के लिए बाधित करता है, साथ ही वह अनाचारियों को निर्भय बनाता है ताकि लोक में अपनी चतुरता और समर्थता के बल पर वे उन कार्यों को करते रहें, जिन्हें अन्याय कहा जाता है।

🔷 परलोक का प्रश्न यदि आड़े आता हो तो वहाँ से बच निकलना और भी सरल है। किसी देवी-देवता की पूजा-पत्री कर देने या धार्मिक कर्मकाण्ड का सस्ता-सा आडम्बर बना देने भर से पाप-कर्मों के दण्ड से सहज छुटकारा मिल जाता है। जब इतने सस्ते में तथाकथित पापों की प्रतिक्रिया से बचा जा सकता है तो रास्ता बिल्कुल साफ है। मौज से मनमानी करते रहा जा सकता है और उससे कोई कठोर प्रतिफल की आशंका हो तो पूजा-पाठ के सस्ते से खेल-खिलवाड़ करने से वह आशंका भी निरस्त हो सकती है।
  
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 5

👉 आध्यात्मिक लाभ ही सर्वोपरि लाभ है (भाग 3)

🔶 मनुष्य साँसारिक उपलब्धियों को प्राप्त करे किन्तु आध्यात्मिक उपलब्धि का बलिदान देकर नहीं। यदि वह ऐसी भूल करता है तो निश्चय ही अपने को प्रवंचित एवं प्रताड़ित करता है। जीवन को आध्यात्मिक मार्ग पर नियुक्त कर देने से साँसारिक लाभ तो होता ही है साथ ही मनुष्य अपने परम लक्ष्य अक्षय आनन्द की ओर भी अग्रसर होता जाता है। अध्यात्मवाद में दोनों लाभ अपनी क्षमता भर प्राप्त ही करना चाहिए। यही उसके लिये लिये प्रेय भी है और श्रेष्ठ भी।

🔷 आध्यात्मिक जीवन कोई अप्राकृतिक अथवा आरोपित जीवन नहीं है। आध्यात्मिक जीवन ही वास्तविक एवं स्वाभाविक जीवन है। इससे भिन्न जीवन ही अस्वाभाविक एवं आरोपित जीवन है। दुःख, क्लेश, चिन्ता एवं विक्षोभ के बीच से बहते हुए जीवन प्रवाह को स्वाभाविक नहीं कहा जा सकता है। जीवन का प्रसन्न प्रवाह ही वास्तव में स्वाभाविक जीवन है। अध्यात्मवाद का त्याग करके अपनाया हुआ जीवन प्रवाह किसी प्रकार भी निर्मल स्निग्ध धारा के रूप में नहीं बन सकता। एक मात्र साँसारिक जीवन में लोभ, मोह, काम-क्रोध आदि विकारों के आवर्त बनते ही रहेंगे जो कि मनुष्य को अशान्त एवं असंतुलित बनायेंगे ही। जब कि आध्यात्मिक जीवन सुख एवं शाँति के क्षणों में प्रसन्नता पूर्वक बहता हुआ मनुष्य को सुख शान्ति की शीतलता प्रदान करता रहेगा।

🔶 आध्यात्मिक जीवन अपनाने का अर्थ है असत् से सत् की ओर जाना। सत्य, प्रेम और न्याय का आदर करना, निकृष्ट जीवन से उत्कृष्ट जीवन की ओर बढ़ना। इस प्रकार का आध्यात्मिक जीवन अपनाये बिना मनुष्य वास्तविक सुख शान्ति नहीं पा सकता। धनवान, यशवान होकर भी यदि मनुष्य आत्मा की उच्च भूमिका में न पहुँचा सका तो क्या वह किसी प्रकार भी महान कहा जायेगा। सत्य की उपेक्षा और प्रेम की अवहेलना करके, छल-कपट और दम्भ के बल पर कोई कितना ही बड़ा क्यों न बन जाये, किन्तु उसका वह बड़प्पन एक विडंबना के अतिरिक्त और कुछ भी न होगा। महानता की वह अनुभूति जो आत्मा को पुलकित अथवा देवत्व की ओर प्रेरित करती है कदापि प्राप्त नहीं हो सकती। यह दिव्य अनुभूति केवल आध्यात्मिक जीवन अपनाने से ही प्राप्त हो सकती।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति 1967 जनवरी पृष्ठ 3

👉 आज का सद्चिंतन 6 September 2018

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 6 September 2018


👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...