शुक्रवार, 24 सितंबर 2021

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ६७)

एक ही सत्ता ओत-प्रोत है

जीवन की सार्थकता पूर्णता प्राप्ति में है, इसका तात्पर्य यह हुआ कि अभी हम अपूर्ण हैं, असत्य हैं, अन्धकार में हैं। हमारे सामने मृत्यु मुंह बांये खड़ी है। अन्धकार, असत्य और मृत्यु पर विजय प्राप्त करने के लिये हम प्रकाश, सत्य और अमरता की ओर अग्रसर होना चाहते हैं। पर हो कोई नहीं पाता। हर कोई अपने आपको अशक्त और असहाय पाता है, अज्ञान के अन्धकार में हाथ-पैर पटकता रहता है।

इस अपूर्णता पर जब कभी विचार जाता है तब एक ही तथ्य सामने आता है और वह है ‘‘परमात्मा’’ अर्थात् एक ऐसी सर्वोपरि सर्वशक्तिमान सत्ता जिसके लिए कुछ भी अपूर्ण नहीं है। वह सर्वज्ञ है, सर्वव्यापी, सर्वदृष्टा, नियामक और एकमात्र अपनी इच्छा से सम्पूर्ण सृष्टि में संचरण कर सकने की क्षमता से ओत-प्रोत है।

विकासवाद के जनक डार्विन ने यह सिद्धान्त तो प्रतिपादित कर दिया कि प्रारम्भ में एक कोशीय जीव-अमीबा की उत्पत्ति हुई यही अमीबा फिर ‘‘हाइड्रो’’ में विकसित हुआ, हाइड्रा मछली, मण्डूक, समर्पणशील पक्षी, स्तनधारी जीवों आदि की श्रेणियों में विकसित होता हुआ वह बन्दर की शक्ल तक पहुंचा, आज का विकसित मनुष्य शरीर इसी बन्दर की सन्तान है। इसके लिए शरीर रचना के कुछ खांचे भी मिलाये गये। जहां नहीं मिले वहां यह मान लिया गया कि वह कड़ियां लुप्त हैं और कभी समय पर उसकी भी जानकारी हो सकती है।

इस प्रतिपादन में डार्विन और इस सिद्धान्त के अध्येता यह भूल गये कि अमीबा से ही नर-मादा दो श्रेणियां कैसे विकसित हुईं। अमीबा एक कोशीय था उससे दो कोशीय हाइड्रा पैदा हुआ क्या अन्य सभी जीव इसी गुणोत्तर श्रेणी में आ सकते हैं यदि सर्पणशील जीवों से परधारी जीव विकसित हुये तो वह कृमि जैसे चींटे, पतिंगे, मच्छर आदि कृमि जो उड़ लेते हैं वे किस विकास प्रक्रिया में रखे जायेंगे? पक्षी, जल-जन्तु और कीड़े सभी मांस खाते हैं। स्तनधारी उन्हीं से विकसित हुए तो गाय, भैंस, बकरी, हाथी आदि मांस क्यों नहीं खाते। हाथी के दांत होते हैं हथनियों के नहीं, मुर्गे में कलंगी होती है मुर्गी में नहीं। मोर के रंग-बिरंगे पंख और मोरनियां बिना पंख वाली, विकास प्रक्रिया में एक ही जीव श्रेणी में यह अन्तर क्यों? प्राणियों में दांतों की संख्या, आकृति, प्रकृति में अन्तर पाया जाता है। घोड़े के स्तन नहीं होते बैल के अण्डकोश के पास स्तन होते हैं। पक्षियों की अपेक्षा सर्प और कछुये हजारों वर्ष की आयु वाले होते हैं, यह सभी असमानतायें इस बात का प्रमाण हैं कि सृष्टि रचना किसी विकास का परिणाम नहीं अपितु किसी स्वयम्भू सत्ता द्वारा विधिवत् रची गई कलाकृति है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ १०५
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ६७)

भक्ति और ज्ञान में विरोध कैसा?

इन मौन के क्षणों में देवर्षि मुखर हुए। उन्होंने बड़े ही मधुर स्वरों में अपना नया सूत्रोच्चार किया-
‘अन्योन्याश्रयत्वमित्यन्ये’॥२९॥

किन्हीं दूसरे आचार्यों का मत है कि भक्ति और ज्ञान परस्पर एक दूसरे के आश्रित हैं। देवर्षि के इस सूत्र ने सभी को चिन्तन के एक नए आयाम की झलक दिखाई। ऋषिगण-देवगण, गन्धर्व, सिद्ध सभी विचार करने लगे। उनकी चिन्तन चेतना विचार वीथियों में भ्रमण करने लगी। भक्ति का क्षेत्र भाव है, जबकि ज्ञान विचारों की प्रखरता से सम्बन्धित है। कैसे सम्बन्धित हैं ये दोनों? यह सत्य और तत्त्व कहीं स्पष्ट नहीं हो रहा था। प्रायः सभी को देवर्षि के वचनों की प्रतीक्षा थी, परन्तु वह अभी कहीं खोए थे। उनका मुख शान्त था, अधरों पर मधुर स्मित रेखा थी, परन्तु नेत्रों से अपूर्व ज्योत्सना बिखर रही थी। न तो वह कुछ कह रहे थे और न दूसरा कोई उन्हें टोक रहा था।
    
तभी ऋषियों की पंक्ति में बैठे अपेक्षाकृत युवा ऋषि श्वेताक्ष ने देवर्षि की ओर देखा। उनके मुख पर प्रकाश का वलय था। तरूण होते हुए भी वह अपनी तप साधना, योग विभूतियों, विचारों की प्रखरता व भावप्रवण भक्ति के लिए ऋषियों-महर्षियों के बीच सुपरिचित एवं सुचर्चित थे। हिमालय उनका अपना घर था। कभी-कभी वे विनोद के स्वर में कहा करते थे कि हिमवान का आंगन मेरा ननिहाल है। आखिर यह मेरी माँ का मायका जो है। पर्वतसुता पार्वती- माता जगदम्बा के प्रति उनकी भक्ति अवर्णनीय थी। माँ का स्मरण उनकी प्रत्येक आती-जाती श्वास में रमा था। उनके रोम-रोम में भगवती की भावचेतना विराजती थी।
    
इस अनूठी भक्ति के साथ उनकी ज्ञाननिष्ठा भी अद्भुत थी। भगवती के भाव भरे आग्रह के कारण भगवान भोलेनाथ ने उन्हें शिष्य के रूप में स्वीकारा था। जिसके सद्गुरु स्वयं जगदीश्वर हों, उसके ज्ञान की प्रखरता का वर्णन भला कौन कर सकता है। उनके ज्ञान के इस अक्षयकोष में शब्द नहीं, अनुभव संचित थे। वह कहा करते थे कि कोरे विचारों के विश्लेषण एवं तर्कों के संजाल से ज्ञान को अभिव्यक्त तो किया जा सकता है पर इनके आधार पर ज्ञान का अर्जन सम्भव नहीं। ज्ञान तो समाधिजा प्रज्ञा का परिणाम है। समाधि के इन विभिन्न स्तरों पर जो प्रज्ञा विकसित होती है, उसी की प्रदीप्ति में ज्ञान का प्राकट्य होता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ११९

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...