गुरुवार, 18 अगस्त 2016

👉 समाधि के सोपान (भाग 20) (In The Hours Of Meditation)


🔴 ध्यान के क्षणों में गुरुदेव की वाणी ने कहा- देखो, जैसा बाह्यजगत है वैसा ही -एक अन्तर्जगत भी है। एक आत्मा का संसार है, एक नाम-रूप का संसार है। और वत्स, यदि बाह्य जगत में आश्चर्य है, रहस्य है, विशालता है, सौंदर्य है, महान् गौरव है तो अन्तर्जगत में भी अमेय महानता और शक्ति, अवर्णनीय आनंद तथा शांति और सत्य का अचल आधार है । हे वत्स ! बाह्यजगत अन्तर्जगत का आभास मात्र है; और इस अन्तर्जगत में तुम्हारा सत्यस्वरूप स्थित है। वहाँ तुम शाश्वतता में जीते हो जब कि बाह्यजगत समय की सीमा में ही आबद्ध है। वहाँ अनन्त और अपरिमेय आनन्द है, जबकि बाह्यजगत में संवेदनायें, सुख तथा दु:ख से जुड़ी हुई हैं। वहाँ भी वेदना है किन्तु अहो, कितनी आनंददायी वेदना है। सत्य का पूर्णत: साक्षात्कार न कर पाने के विरह की अलौकिक वेदना! और ऐसी विपुल आनंद का पथ है।

🔵 आओ, अपनी वृत्ति को इस अन्तर्जगत की ओर प्रस्तुत करो। आओ, मेरे प्रति उत्कट प्रेम के पंखों से उड़कर आओ। गुरु और शिष्य के संबंध से अधिक घनिष्ठ और भी कोई संबंध है क्या? हे वत्स, मौन! अनिर्वचनीयता!! यही प्रेम का लक्षण है। तथा मौन की गहन गहराइयों में भगवान विराजमान हैं। सभी बाहरी झंझटों को छोड़ो। जहाँ भी मैं जाऊँ, तुम आओ। मैं जो बनूँ तुम भी वही बनो। भगवत् पवित्रता के लिए भक्तों के हूदय विभिन्न मदिर हैं, जहाँ सुगंधित धूप की तरह विचार ईश्वर की ओर उठते हैं। तुम जो कुछ भी करते हो उसका अध्यात्मीकरण करलो। रूप अरूप सभी में ब्रह्म का, देवत्व का दर्शन करो । ईश्वर से श्रेष्ठ और कुछ झुक भी नहीं है।

🔴 अन्तर्जगत् की अन्तरतम गुहा में जिसमें व्यक्ति उत्कट प्रेम या कातर प्रार्थना द्वारा प्रविष्ट होता है, वहाँ अनुभूति में आध्यात्मिक जगत के ब्रह्माण्ड के बाद ब्रह्माण्ड भरे हुये हैं तथा ईश्वर सर्वदा सन्निकट हैं। वह भौतिक अर्थ में निकट नहीं किन्तु आध्यात्मिक अर्थ में हमारी आत्मा के भी आत्मा के रूप में। वे हमारी आत्मा के सार तत्व हैं। वे हमारे सभी विचारों तथा अंतरतम में छिपे अति गोपन आकांक्षाओं के भी ज्ञाता हैं। स्वयं को समर्पित करदो। प्रेम के लिए प्रेम ! जितना अधिक तुम अन्तर में प्रविष्ट करते हो उतना ही तुम मेरे निकट आते हो क्योंकि मैं अन्तरतम का निवासी हूँ। क्योंकि मैं ही वह चुम्बक हूँ जो तुम्हारी अनुभूति तथा आत्मा की महिमा को प्रगट करता है। मैं आत्मा हूँ, विचार या रूप से अछूती आत्मा! मैं अभेद्य, अविनश्वर आत्मा हूँ। मैं परमात्मा हूँ। ब्रह्म हूँ।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...