मंगलवार, 22 सितंबर 2020

👉 ईश्वर की कृपा पाना चाहते हो तो

शहर में एक अमीर सेठ रहता था। उसके पास बहुत पैसा था। वह बहुत फैक्ट्रियों का मालिक था।

एक शाम अचानक उसे बहुत बैचेनी होने लगी। डॉक्टर को बुलाया गया सारी जाँच करवा  ली गयी। पर कुछ भी नहीं निकला। लेकिन उसकी बैचेनी बढ़ती गयी। उसके समझ में नहीं आ रहा था कि ये क्या हो रहा है। रात हुई, नींद की गोलियां भी खा ली पर न नींद आने को तैयार और ना ही बैचेनी कम होने का नाम ले।

वो रात को उठकर तीन बजे घर के बगीचे में घूमने लगा। घुमते-घुमते उसे लगा कि बाहर थोड़ा सा सुकून है तो वह बाहर सड़क पर पैदल निकल पड़ा।

चलते- चलते हजारों विचार मन में चल रहे थे। अब वो घर से बहुत दूर निकल आया था। और थकान की वजह से वो एक चबूतरे पर बैठ गया। उसे थोड़ी शान्ति मिली तो वह आराम से बैठ गया।

इतने में एक कुत्ता वहाँ आया और उसकी चप्पल उठाकर ले गया। सेठ ने देखा तो वह दूसरी चप्पल उठाकर उस कुत्ते के पीछे भागा। कुत्ता पास ही बनी जुग्गी-झोपड़ीयों में घुस गया। सेठ भी उसके पीछे था, सेठ को करीब आता देखकर कुत्ते ने चप्पल वहीं छोड़ दी और चला गया। सेठ ने राहत की सांस ली और अपनी चप्पल पहनने लगा। इतने में उसे किसी के रोने की आवाज सुनाई दी।

वह और करीब गया तो एक झोपड़ी में से आवाज आ रहीं थीं। उसने झोपड़ी के फटे हुए बोरे में झाँक कर देखा तो वहाँ एक औरत फटेहाल मैली सी चादर पर दीवार से सटकर रो रही हैं। और ये बोल रही है -- हे भगवान मेरी मदद कर ओर रोती जा रहीं है।

सेठ के मन में आया कि यहाँ से चले जाओ, कहीं कोई गलत ना सोच लें। वो थोड़ा आगे बढ़ा तो उसके दिल में ख़्याल आया कि आखिर वो औरत क्यों रो रहीं हैं, उसको तकलीफ क्या है? और उसने अपने दिल की सुनी और वहाँ जाकर दरवाजा खटखटाया।

उस औरत ने दरवाजा खोला और सेठ को देखकर घबरा गयी। तो सेठ ने हाथ जोड़कर कहा तुम घबराओं मत, मुझे तो बस इतना जानना है कि तुम रो क्यों रही हो।

वह औरत के आखों में से आँसू टपकने लगें। और उसने पास ही गीदड़ी में लिपटी हुई उसकी 7-8 साल की बच्ची की ओर इशारा किया। और रोते -रोते कहने लगी कि मेरी बच्ची बहुत बीमार है उसके इलाज में बहुत खर्चा आएगा। और में तो घरों में जाकर झाड़ू-पोछा करके जैसे-तैसे हमारा पेट पालती हूँ। में कैसे इलाज कराउ इसका?

सेठ ने कहा--- तो किसी से माँग लो। इसपर औरत बोली मैने सबसे माँग कर देख लिया खर्चा बहुत है कोई भी देने को तैयार नहीं। तो सेठ ने कहा तो ऐसे रात को रोने से मिल जायेगा क्या?

तो औरत ने कहा कल एक संत यहाँ से गुजर रहे थे तो मैने उनको मेरी समस्या बताई तो उन्होंने कहा बेटा-- तुम सुबह 4 बजे उठकर अपने ईश्वर से माँगो। बोरी बिछाकर बैठ जाओ और रो रो टर -गिड़गिगिड़ाके उससे मदद माँगो वो सबकी सुनता है तो तुम्हारी भी सुनेगा।

मेरे पास इसके अलावा कोई चारा नहीं था। इसलिए में उससे माँग रही थीं और वो बहुत जोर से रोने लगी।

ये सब सुनकर सेठ का दिल पिघल गया और उसने तुरन्त फोन लगाकर एम्बुलेंस बुलवायी और उस लड़की को एडमिट करवा दिया। डॉक्टर ने डेढ़ लाख का खर्चा बताया तो सेठ ने उसकी जवाबदारी अपने ऊपर ले ली, और उसका इलाज कराया। और उस औरत को अपने यहाँ नौकरी देकर अपने बंगले के सर्वेन्ट क्वाटर में जगह दी। और उस लड़की की पढ़ाई का जिम्मा भी ले लिया।

वो सेठ कर्म प्रधान तो था पर नास्तिक था। अब उसके मन में सैकड़ो सवाल चल रहे थे। क्योंकि उसकी बैचेनी तो उस वक्त ही खत्म हो गयी थी जब उसने एम्बुलेंस को बुलवाया था। वह यह सोच रहा था कि आखिर कौन सी ताकत है जो मुझे वहाँ तक खींच ले गयीं? क्या यहीं ईश्वर हैं? और यदि ये ईश्वर है तो सारा संसार आपस में धर्म, जात -पात के लिये क्यों लड़ रहा है। क्योंकि ना मैने उस औरत की जात पूछी और ना ही ईश्वर ने जात -पात देखी। बस ईश्वर ने तो उसका दर्द देखा और मुझे इतना घुमाकर उस तक पहुंचा दिया। अब सेठ समझ चुका था कि कर्म के साथ सेवा भी कितनी जरूरी है क्योंकि इतना सुकून उसे जीवन में कभी भी नहीं मिला था।

तो दोस्तों मानव और प्राणी सेवा का धर्म ही असली इबादत या भक्ति हैं। यदि ईश्वर की कृपा या रहमत पाना चाहते हो तो इंसानियत अपना लो और समय-समय पर उन सबकी मदद करो जो लाचार या बेबस है। क्योंकि ईश्वर इन्हीं के आस -पास रहता हैं।

👉 सविता का प्रचण्ड सामर्थ्य

मानव व सूर्य के आदि काल से ही महान् भावनात्मक संबंध रहे हैं। वैदिक वाङ्मय सूर्य के माहात्म्य, उनकी विश्व संचालन में चेतनात्मक भूमिका तथा सूर्योपासना के लाभों के विवरणों से भरा पड़ा है। सूर्य मानव के लिए प्राणदाता, जीवन रक्षक व सांस्कृतिक विकास का परिचायक है।

संसार के हर तत्त्व की तरह सूर्य तत्त्व भी त्रिआयामी है। आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक ये उनके तीन आयाम हैं। वैज्ञानिकों ंने सूर्य देव के भौतिक रूप से सम्पर्क कर प्रकाश, ऊर्जा एवं काल ज्ञान प्राप्त किया है। प्राचीन भारतीय विचारक मात्र पदार्थ विद्या के जानकार नहीं होते थे, अपितु देवतत्त्व तथा आत्म-तत्त्व के भी मर्मज्ञ होते थे। उनकी अभिव्यक्ति-प्रणाली एक साथ त्रिस्तरीय थी। स्वाभाविक है कि इसके लिए अनुपम मेधा की आवश्यकता है, जिसकी पूर्ति वे गायत्री मंत्र के द्वारा करते थे।
    
सूर्य का दैविक पक्ष कहीं, अधिक सशक्त और रहस्यमय है। इसकी उपासना से पवित्रता, प्रखरता, वर्चस्, तेजस् प्राप्त होता है। ब्रह्माण्ड के रहस्य जाने जा सकते हैं। लोक-लोकान्तरों के रहस्यों को प्रत्यक्ष किया जा सकता है। सिर्फ भौतिक विज्ञान द्वारा तीनों स्तरों का ज्ञान संभव नहीं होगा। आजकल का विज्ञान आधिभौतिक स्वरूप की ही खोजबीन में जुटा है। आधिदैविक रहस्य को समझने के लिए उपकरण भी आधिदैविक चाहिए। यह भौतिकी से संभव नहीं है। देवता किसी की प्रतिकृति नहीं, वरन् विशिष्ट गुणों या शक्तियों के रूप में सूक्ष्म जगत् में क्रियाशील हैं।
    
सूर्य व सविता के स्वरूप को वेद स्पष्ट करता है। सविता अर्थात् सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों के सूर्यों में समान विराजमान, प्रेरक दिव्य शक्ति रूप परब्रह्म परमात्मा। ऋषि के अनुसार ब्रह्माण्ड का प्रत्येक सूर्य सविता है। ऋग्वेद के ‘ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव, यद्भद्रं तन्न आसुव’ मन्त्र में श्रेष्ठ विचारों को सूर्य के माध्यम से आमंत्रित किया गया है। सविता अमृत तत्त्व का स्रोत है। आदित्य देवताओं का मधु है। आदित्य का आधिभौतिक रूप हैै परमाणु, आधिदैविक रूप है- ग्यारह प्रमुख देवगणों में से एक आदित्य देव तथा आध्यात्मिक रूप है चेतना। आदित्य-सविता सर्वव्यापी ब्रह्म है। सूर्य जगत् की आत्मा है। यहाँ सूर्य शब्द से विश्व को प्रकाशित करने का व आकाश में उगने वाले सूरज से किसी को अर्थ नहीं लगाना चाहिए और न यह भ्रम पालना चाहिए कि यही विश्वात्मा है। जिस प्रकार शरीर व आत्मा का संबंध है, कुछ इसी प्रकार का संबंध सूर्य और सविता में है।
    
सविता वह चेतन सत्ता है, जिससे सूर्य प्रकाशित होता है, जो स्वयं चेतना है। वही प्राण चेतना के रूप में अन्यत्र प्रगट हो सकता है। सविता में ही यह गुण है। यजुर्वेद में कहा गया है ‘ब्रह्म सूर्य समं ज्योतिः’ अर्थात् ब्रह्म सूर्य ज्योति के समतुल्य है। जिस प्रकार भौतिक दिनमान संसार को प्रकाशित करता  रहता है, उसी प्रकार चैतन्य सविता उसकी ज्योति से जगत् का समस्त जड़ चेतन, कण-कण, अणु-अणु समान रूप से प्रकाशित हो रहा है। यह सविता प्रकाश ही ब्रह्म है।
    
मानवीय मन इतना चलायमान है कि उसे ईश्वर व एकाग्र करने के लिए दृश्य माध्यमों का सहारा लेना पड़ता है। जिसने निराकार ब्रह्म को देखा नहीं, उसे साकार साधनों से काम चलाना पड़ता है। अतः जड़ सूर्य को ब्रह्म का मूर्तिमान् प्रकाश मानकर सूर्य की ध्यान साधना का विधान किया गया है। इतने पर भी अंतिम लक्ष्य वह सर्वव्यापी तेजोमय ब्रह्म की उपलब्धि ही होता है।
    
सूर्य को त्रयी विद्या कहा गया है तथा पापनाशक माना गया है। उसका भर्ग ब्रह्मतेज व पापनाशिनी शक्ति वाला है। इसलिए पापों से मुक्ति व सद्बुद्धि की याचना वाला गायत्री मंत्र सविता के ध्यान के साथ जपा जाता है। आद्य शंकराचार्य ने संध्या भाष्य में सूर्य माहात्म्य का वर्णन करते हुए कहा है कि चराचर जगत् के उत्पादक सूर्य की आराधना पापों का नाश करती है। वे हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करते हैं। प्राचीनकाल में सर्वत्र सूर्योपासना के प्रमाण मिलते हैं। प्राचीनकाल की तरह वर्तमान में भी सूर्य की उपासना करके उनके त्रिस्तरीय आयामों से लाभ प्राप्त किया जा सकता है। इसीलिए कहा गया है कि नित्य सूर्य का ध्यान करेंगे, अपनी प्रतिभा प्रखर करेंगे।  

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ३२)

कहीं पाँव रोक न लें सिद्घियाँ
    
योगकथा की प्रत्येक पंक्ति अनुभूति रस में सनी-लिपटी एवं रची-बसी है। यह आमंत्रण  है उनके लिए, जो अन्तर्यात्रा विज्ञान को समझना चाहते हैं। साथ ही स्वयं भी अन्तर्यात्रा करने की चाहत रखते हैं। जिनकी चाहत सच्ची है, जिनमें मात्र कौतुक-कौतुहल नहीं आन्तरिक जिज्ञासा है, उनसे कहा जा रहा है कि अब यूँ ही सिकुड़े-सहमे-ठिठके खड़े न रहें, आगे बढ़ें, अपने कदमों में गति लायें। जो बताया जा रहा है, उसे समझें ही नहीं, करें भी और योग विभूतियों के अधिकारी बनें।
    
योग साधना के मार्ग पर कदम बाधाएँ रोकें, यह जरूरी नहीं। बाहरी बाधाएँ तो अक्सर साधक के आगे बेबस हो जाती हैं, पर इस मार्ग पर मिलने वाली शक्तियाँ, सिद्धियाँ और विभूतियाँ जरूर साधक को चुनौतियाँ देती हैं। ध्यान रखना होगा कि इनका मिलना छोटा-मोटा तमाशा भर है। महर्षि पतञ्जलि चेतावनी देते हैं कि इन शक्तियों को अर्जित करना, सिद्धियों को पाना और विभूतियों के अधिकारी बनना सच्चे साधक का उद्देश्य नहीं है। साधक तो इन्हें उपेक्षा भरी दृष्टि से देखकर आगे अपनी मञ्जिल की ओर बढ़ जाता है।
    
परम पूज्य गुरुदेव ने ऐसे तमाशों से योग साधकों को सावधान करते हुए गायत्री महाविज्ञान में लिखा है - ‘कोई ऐसा अद्भुत कार्य करके दिखाना, जिससे लोग यह समझ लें कि यह सिद्धपुरुष है, गायत्री उपासकों के लिए कड़ाई से वर्जित  है। यदि वे इस चक्कर में पडें़, तो निश्चित रूप से कुछ ही दिनों में उनकी शक्ति का स्रोत सूख जायेगा और छूँछ बनकर अपनी कष्ट साध्य आध्यात्मिक कमाई से हाथ धो बैठेंगे। उनके लिए संसार को सद्ज्ञान दान कार्य ही इतना महत्त्वपूर्ण है कि उसी के द्वारा वे जनसाधारण के आन्तरिक, बाह्य और सामाजिक कष्टों को भलीभाँति दूर कर सकते हैं और स्वल्प साधनों से ही स्वर्गीय सुखों का आस्वादन कराते हुए लोगों के जीवन को सफल बना सकते हैं। इस दिशा में कार्य करने से उनकी आध्यात्मिक शक्ति भी बढ़ेगी। इसके प्रतिकूल यदि वे चमत्कार के प्रदर्शन के चक्कर में पड़ेंगे, तो लोगों का क्षणिक कौतूहल, अपने प्रति उनका आकर्षण थोड़े समय के लिए भले ही बढ़ा लें, पर वस्तुतः अपनी और दूसरों की इस प्रकार भारी कुसेवा होनी सम्भव है।

इन सब बातों का ध्यान रखते हुए हम कड़े शब्दों में आदेश देते हैं कि योग साधक अपनी सिद्धियों को गुप्त रखें, किसी के सामने प्रकट न करें। जो दैवी चमत्कार अपने को दिखाई दें, उन्हें किसी से न कहें। गायत्री साधकों की यह जिम्मेदारी है कि वे प्राप्त शक्ति का रत्ती भर भी दुरुपयोग न करें। हम सावधान करते हैं कि कोई भी साधक इस मर्यादा का उल्लंघन न करे।’ परम पूज्य गुरुदेव के इस आदेश में सद्गुरु का अपने शिष्यों के लिए मार्गदर्शन एवं पथप्रदर्शन निहित है। महायोगी महर्षि पतञ्जलि हों या महान् योगसिद्ध परम पूज्य गुरुदेव दोनों ने ही योग साधकों को मन और उसकी वृत्तियों के खतरे से सावधान किया है। साधक को भटकाने  वाला दूसरा कोई नहीं, उसका अपना मन और मन की वृत्तियाँ हैं। इनके  निग्रह और निरोध से ही योग सधता है। पर यह सम्भव कैसे हो? योग सूत्रकार महर्षि पतञ्जलि अगले सूत्र में इसका समाधान करते हैं।

अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः॥ १/१२॥

शब्दार्थ-अभ्यास-वैराग्याभ्यां=अभ्यास और वैराग्य से; तन्-निरोधः=उनका (वृत्तियों का) निरोध होता है। यानि कि अभ्यास और वैराग्य से इन वृत्तियों का निरोध हो जाता है।    

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ६०
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 One who has conquered the Self, can conquer the World

The essence of Sadhana is ‘self-discipline’. One who has conquered the ego-centered self is the true warrior. It is easy to subdue others with brute force; it involves no virtuous valor.

Our real enemies are our evil impressions and animal tendencies deeply entrenched in our psyche. They keep suppressed the inner virtues and prove to be heavy obstacles in the path of inner growth. Rooting them out is real bravery.

The woodlouse eats the wood and the virus seriously disturbs the natural harmonies of the psychosomatic organism. Likewise the vices and addictions of a person relentlessly push him downwards; and none of his efforts to rise up gets successful.

If we can identify our real enemies – the evil impressions - and resolutely eradicate them, then will we be successful in achieving the Supreme goal of life. That is why seers and thinkers have been stressing again and again that – true seekers must do the inner Inquiry – Who am I? Who can know us better than ourselves? It is really simple to point to other’s faults, but being continuously aware of our own faults and sweep them out of our minds is indeed a tough task. However, one who accomplishes such a self-refinement is a conqueror of the lower self; and such a person indeed possesses the power to conquer the world. Self-conquest is the greatest conquest.
 
 ✍🏻 Pt Shriram Sharma Acharya

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...