शुक्रवार, 20 अक्तूबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 20 Oct 2023

जीवन के उद्देश्यों को समझने का प्रयत्न कीजिए और किसी भी भांति उस लक्ष्य, इष्ट से इसकी उपासना कीजिए। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जब हम कोई बुरा काम करते हैं जिससे किसी को दुख होता है, हम अशांत हो उठते हैं क्योंकि हमारी आत्मा हमें कोसती है। इसी प्रकार जब हम सच्चाई के मार्ग पर चलते हैं, किसी की भलाई करते हैं तो मन प्रसन्न शांत रहता है, उसी समय हम देवत्व का अनुभव करते हैं क्योंकि अशांत मन में शैतान रहा करता है। वेदांत के अनुसार इसी धरती पर स्वर्ग नर्क दोनों हैं। वेदांत की आधारशिला कर्म सिद्धांत है। कर्मयोग का जितना सुंदर विवेचन वेदांत में है, वह कहीं और देखने को नहीं मिलता।

ईसा, मंसूर, शंकराचार्य, रामकृष्ण, दयानन्द तथा अरविन्द आदि अनेकों ईश्वर परायण देवदूत हैं। ईश्वर की कृपा के फलस्वरूप उन्होंने सामान्य व्यक्तियों से उच्चतर सिद्धियाँ प्राप्त कीं। यह ईश्वर उपासना का अर्थ एकाँगी लाभ उठाना रहा होता तो इन महापुरुषों ने भी या तो किसी एक स्थान में बैठकर समाधि से ली होती या भौतिक सुखों के लिये बड़े से बड़े साधन एकत्र कर शेष जीवन सुखोपभोग में बिताते। पर उनमें से किसी ने भी ऐसा नहीं किया। उन्होंने अन्त में मानव मात्र की ही उपासना की। सिद्धि से उन्हें सन्तोष नहीं हुआ तो लौटकर वे फिर समाज में आये और प्राणियों की सेवा को अपनी उपासना का आधार बनाया।

अध्यात्म का मूल मन्त्र प्रेम ही बताया गया है। भक्ति साधना से मुक्ति का मिलना निश्चित है। जिस भक्त को परमात्मा से सच्चा प्यार होता है, वह भक्त भी परमात्मा को प्यारा होता है। उपनिषद् का यह वाक्य ‘रसो वै सः’ इसी एक बात की पुष्टि करता है− परमात्मा प्रेम रूप है, इसका स्पष्ट तात्पर्य यही है कि जिसने प्रेम की सिद्धि कर ली है, उसने मानो परमात्मा की प्राप्ति कर ली है अथवा जहाँ प्रेमपूर्ण परिस्थितियाँ होंगी वहाँ परमात्मा का बास माना जायेगा। परमात्मा की प्राप्ति ही आनन्द का हेतु होता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 जप में ध्यान द्वारा प्राणप्रतिष्ठा (भाग 1)

आमतौर से उपासना करने वालों को यह शिकायत रहती है कि भजन करते समय उनका मन स्थिर नहीं रहता, अनेक जगह भागता रहता है। साधना में मन न लगे, चित्त कहीं का मारा कहीं भागा फिरे तो उसमें वह आनंद नहीं आता, जो आना चाहिए।

इस कठिनाई का उपाय सोचने से पूर्व यह विचार करना होगा कि मन क्यों भागता है? और भागकर कहाँ जाता है? हमें जानना चाहिए कि मन प्रेम का गुलाम है। जहाँ भी जिस वस्तु में भी प्रेम मिलेगा, वहीं मन उसी प्रकार दौड़ जाएगा, जैसे फूल पर भौंरा जा पहुँचता है। साधारणतया लोगों का प्रेम अपनी स्त्री-पुत्र, मित्र-धन-व्यवसाय, यश-मनोरंजन आदि में होता है। इन्हीं प्रिय वस्तुओं में मन दौड़-दौड़कर जाता है।

भजन को हम एक चिन्हपूजा की तरह पूरा तो करते हैं, पर उसमें सच्चा प्रेम नहीं होता। इष्टदेव को भी हम कोई बहुत दूर का अपने से सर्वथा भिन्न तत्व मानते हैं, उससे कुछ चाहते तो हैं, पर अपने तथा उसके बीच में कोई प्रेम और आत्मीयता का संबंध-सूत्र नहीं देखते। राजा और भिखारी के बीच जो अंतर होता है, वही हमें अपने और इष्टदेव के भीतर लगता है। ऐसी दशा में मन यदि भजन में न लगे और अपने प्रिय विषयों में भागे तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। यह स्वाभाविक ही है।

भजन में मन लगे इसके लिए बलपूर्वक मन को रोकने का प्रयत्न निष्फल ही रहता है। यह एक तथ्य है कि मन प्रेम का गुलाम है। वह वहीं टिकेगा, जहाँ प्रेम होगा। यदि भजन के साथ प्रेमभावना का समावेश कर लिया जाए तो निश्चित रूप से मन उसमें उसी प्रकार लगा रहेगा जैसा संसारी मनुष्यों का अपने स्त्री-पुत्र धन आदि में लगा रहता है।

📖 अखण्ड ज्योति – मई 2005 पृष्ठ 19

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...