बुधवार, 29 सितंबर 2021

👉 अपना दीपक स्वयं बनें: -

एक गांव मे अंधे पति-पत्नी रहते थे । इनके यहाँ एक सुन्दर बेटा पैदा हुआ जो अंधा नही था।

एक बार पत्नी रोटी बना रही थी उस समय बिल्ली रसोई मे घूस कर बनाई रोटियां खा गई।

बिल्ली की रसोई मे आने की रोज की आदत बन गई इस कारण दोनों को कई दिनों तक भूखा सोना पङा।

एक दिन किसी प्रकार से मालूम पङा कि रोटियां बिल्ली खा जाती है।

अब पत्नी जब रोटी बनाती उस समय पति दरवाजे के पास बांस का फटका लेकर जमीन पर पटकता।
इससे बिल्ली का आना बंद हो गया।

जब लङका बङा हुआ ओर शादी हुई।  बहु जब पहली बार रोटी बना रही थी तो उसका पति बांस का फटका लेकर बैठ गया औऱ फट फट करने लगा।

कई  दिन बीत जाने के बाद पत्नी ने उससे पुछा की तुम रोज रसोई के दरवाजे पर बैठ कर बांस का फटका क्यों पीटते हो?

पति ने जवाब दिया कि
ये हमारे घर की परम्परा है इस मैं रोज ऐसा कर रहा हुँ।

माँ बाप अंधे थे बिल्ली को देख नही पाते उनकी मजबूरी थी इसलिये फटका लगाते थे। बेटा तो आँख का अंधा नही था पर अकल का अंधा था। इसलिये वह भी ऐसा करता जैसा माँ बाप करते थे।

ऐसी ही दशा आज के समाज की है। पहले शिक्षा का अभाव था इसलिए पाखंड वादी लोग जिनका स्वयं का भला हो रहा था उनके पाखंड वादी मूल्यों को माना औऱ अपनाया। जिनके पिछे किसी प्रकार का लौजिक  नही है। लेकिन आज के पढे लिखे हम वही पाखंडता भरी परम्पराओं व रूढी वादिता के वशीभूत हो कर जीवन जी रहे हैं।

इसलिये सबसे पहले समझौ,जानो ओर तब मानो तो समाज मे परिवर्तन होगा ।

"अपना दीपक स्वयं बनें"

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ६९)

बन्धन क्या? मुक्ति कैसे?

अधिकांश क्षमता तो भव बन्धनों में ही पड़ी जकड़ी रहती है। भ्ज्ञव बन्धन क्या है? व्यामोह ही भव बन्धन है। भव बन्धनों में पड़ा हुआ प्राणी कराहता रहता है और हाथ पैर बंधे होने के कारण प्रगति पथ पर बढ़ सकने में असमर्थ रहता है। व्यामोह का माया कहते हैं।माया का अर्थ है नशे जैसी खुमारी जिसमें एक विशेष प्रकार की मस्ती होती है। साथ ही अपनी मूल स्थिति की विस्मृति भी जुड़ी रहती है। संक्षेप में विस्मृति और मस्ती के समन्वय को नशे की पिनक कहा जा सकता है, चेतना की इसी विचित्र स्थिति को माया, मूढ़ता, अविद्या, भव बन्धन आदि नामों से पुकारा जाता है।

ऐसी विडम्बना में किस कारण प्राणी बंधता, फंसता है? इस प्रश्न पर प्रकाश डालते हुए आत्म दृष्टाओं ने विषयवती वृत्ति को इसका दोषी बताया है। विषयवती वृत्ति की प्रबलता को बन्धन का मूल कारण बताते हुये महर्षि पातंजलि ने योग दर्शन के कुछ सूत्रों में वस्तुस्थिति पर प्रकाश डाला है।

विषयवती वा प्रवृत्तित्पत्रा मनसः स्थिति निबंधिनि ।
—यो. द. 1-35
सत्व पुरुषायोरत्यन्ता संकीर्णयोः प्रत्यया विशेषो भोगः । परार्धात्स्वार्थ संयतात्पुरुषा ज्ञानम् ।
—यो. द. 3-35
ततः प्रतिम श्रावण वेदनादर्शी स्वाद वार्ता जायन्ते ।
—यो. द. 3-36
उपरोक्त सूत्रीं में यह बताने का प्रयत्न किया गया है कि शारीरिक विषय विकारों में आसक्ति बढ़ जाने से जीव अपनी मूल स्थिति को भूल जाता है और उन रसास्वादनों में निमग्न होकर भव बन्धनों में बंधता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ १०७
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ६८)

भगवान को भावनाएँ अर्पित करने वाला कहलाता है भक्त

प्रतीक्षा के क्षणों में क्रमिक वृद्धि होती गयी। ऋषियों, देवों, सिद्धों, गन्धर्वों का समुदाय अपने मन, अन्तःकरण को भक्ति के भावप्रवाह में भिगोता रहा। बड़ा रसमय अनुभव हो रहा था सभी को। भक्ति, भक्त एवं भगवान की भावचर्चा जहाँ कहीं भी, जिस रूप में भी, जिस किसी के द्वारा भी होती है, वहाँ स्वयं ही भावों का अमृत प्रवाह उमगने लगता है। वहाँ अपने आप ही मन, अन्तःकरण शान्ति सुधा रस का अनुभव करने लगते हैं। तृप्ति, तुष्टि और शान्ति का जैसा अनुभव यहाँ होता है, वैसा और कहीं भी, किसी को भी नहीं होता। भावों का सरोवर ही एक ऐसा सरोवर है, जहाँ पर सभी का जी करता है कि डूबते रहें और डूबे ही रहें। हिमालय के सुपावन सान्निध्य में कुछ ऐसा ही सब अनुभव कर रहे थे। नीरवता और निःस्तब्धता अपनी परिभाषा को परिभाषित कर रही थी। काल बीत तो रहा था, परन्तु उसका ज्ञान किसी को नहीं था। सभी उसके प्रति निरपेक्ष, तटस्थ थे, परन्तु स्वयं काल भला कब किसी की ओर से निरपेक्ष रहा करता है।

उस सदा सजग, सचेष्ट एवं सक्रिय रहने वाले काल ने ब्रह्मर्षि क्रतु की भावसमाधि को भंग किया। ऋषियों में श्रेष्ठ क्रतु, बाह्य जगत् की ओर उन्मुख हुए। तभी एक हिमपक्षी ने सुरीली ध्वनि से निस्तब्धता-नीरवता में अपना स्वर घोला। इस स्वर में कुछ ऐसा था जैसे कि वह हिमपक्षी भी अगले सूत्र की जिज्ञासा को उजागर कर रहा हो। महर्षि क्रतु का ध्यान उस ओर गया। वह कुछ पलों तक मौन रहे, फिर उन्होंने देवर्षि नारद की ओर देखा। देवर्षि ने महर्षि क्रतु के नेत्रों में उनके अभिप्राय को पढ़ लिया। वह समझ गए कि वीतराग महर्षि अगले सूत्र के उच्चारण का संकेत कर रहे हैं। वैसे भी अब तक सभी के मन, भावों के अगम प्रवाह से बाहर आ चुके हैं। उन सबको अगले सूत्र के प्रकट होने की त्वरा थी।

इन शुभ क्षणों को पहचान कर देवर्षि ने अपनी संगीतमयी स्वर लहरियों के साथ उच्चारित किया-  
‘स्वयं फलरूपतेति ब्रह्मकुमाराः’॥ ३०॥

ब्रह्मकुमारों (सनत्कुमारादि) के मत से भक्ति स्वयं फलरूपा है। इस सूत्र का उच्चारण करके देवर्षि पुनः मौन हो गए। उन्हें इस तरह शान्त देखकर ब्रह्मर्षि क्रतु ने कहा- ‘‘निःसन्देह देवर्षि! ब्रह्मकुमारों का कथन सत्य है। भक्ति में साधना, साधन एवं सिद्धि तीनों ही अन्तर्लीन हैं। जो भक्ति करते हैं- उन्हें किसी अन्य तत्त्व एवं सत्य की आवश्यकता नहीं रहती। वह भक्ति में सब कुछ पा लेते हैं।’’ क्रतु के इस कथन पर सप्तर्षियों ने अपनी सहमति जतायी। अन्य ऋषियों एवं देवगणों ने भी प्रसन्नता जाहिर की। हालांकि, अब भी सबको इस सूत्र के सत्य को विस्तार से जानने का मन था। उत्सुकता थी कि ब्रह्मकुमारों के मत का और देवर्षि के कथन का रहस्यार्थ जानें। भक्ति का सत्य एवं भक्त की गाथा सुनें। सभी के इन मनोभावों को देवर्षि ने अपने मन में अनुभव किया।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १२३

मंगलवार, 28 सितंबर 2021

👉 😇स्वमूल्यांकन - अंतिम बार कब किया था?

अपनी कमजोरियों की लास्ट टाइम लिस्ट कब बनाई थी, और कमजोरी को अपनी ताकत बनाने की चेकलिस्ट लास्ट कब चेक की थी?

अपनी ताकतों (strength) की अंतिम बार लिस्ट कब बनाई थी? क्या वो ताकत अभी भी है या नहीं।

पढ़ने की आदत अभी है या अभ्यास छूट गया?

स्वयं पर कितना नियंत्रण कर पाते हैं? पहले ज्यादा कर पाते थे या अब?

अपनी पूरी दिनचर्या पर कड़ी नज़र कब रखी थी अंतिम बार?

अपने विचारों पर पूरे दिन अंतिम बार कब नज़र रखी थी, किस प्रकार के विचार मन मष्तिष्क में सबसे ज्यादा आते है? क्या ये हमें पता है? किस प्रकार की आदतें और संस्कार रोज बन रहे हैं? किस प्रकार हमारे चरित्र का निर्माण हो रहा है? क्या हमें पता है?

किसी अप्रिय विचार को दूर करने के लिए क्या शसक्त विचारों की फ़ौज, ज्ञान के हथियार प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है या नहीं।

स्वयं विचार करें और ईश्वर और स्वयं को जवाब दें।

शनिवार, 25 सितंबर 2021

👉 पीहर या ससुराल

तीज का त्यौहार आने वाला था। तुलसी जी की दोनों बहुओं के पीहर से तीज का सामान भर भर के उनके भाइयों द्वारा पहुंचा दिया गया था। छोटी बहू मीरा का यह शादी के बाद पहला त्यौहार था। चूँकि मीरा के माता पिता का बचपन में ही देहांत हो जाने के कारण, उसके चाचा चाची ने ही उसे पाला था इसलिए और हमेशा हॉस्टल में रहने के कारण उसे यह सब रीति-रिवाजों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी। पढ़ने में होशियार मीरा को कॉलेज के तुरंत बाद जॉब मिल गई। आकाश और वो दोनों एक ही कंपनी में थे। जहां दोनों ने एक दूसरे को पसंद किया और घरवालों ने भी बिना किसी आपत्ति के दोनों की शादी करवा दी। आज जब मीरा ने देखा कि उसकी जेठानियों के पीहर से शगुन में ढ़ेर सारा सुहाग का सामान, साड़ियां, मेहंदी, मिठाईयां इत्यादि आया है तो उसे अपना कद बहुत छोटा लगने लगा। पीहर के नाम पर उसके चाचा चाची का घर तो था, परंतु उन्होंने मीरा के पिता के पैसों से बचपन में ही हॉस्टल में एडमिशन करवा कर अपनी जिम्मेदारी निभा ली थी और अब शादी करवा कर उसकी इतिश्री कर ली थी। आखिर उसका शगुन का सामान कौन लाएगा, ये सोच सोचकर मीरा की परेशानी बढ़ती जा रही थी। जेठानियों को हंसी ठहाका करते देख उसे लगता शायद दोनों मिलकर उसका ही मजाक उड़ा रही हैं। आज उसे पहली बार मां बाप की सबसे ज्यादा कमी खल रही थी।
 
अगले दिन मीरा की सास तुलसी जी ने उसे आवाज लगाते हुए कहा, "मीरा बहू, जल्दी से नीचे आ जाओ, देखो तुम्हारे पीहर से तीज का शगुन आया है।" यह सुनकर मीरा भागी भागी नीचे उतरकर आँगन में आई और बोली, "चाचा चाची आए हैं क्या मम्मी जी? कहां हैं? मुझे बताया भी नहीं कि वे लोग आने वाले हैं!"मीरा एक सांस में बोलती चली गई। उसे तो विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उसके चाचा चाची भी कभी आ सकते हैं। तभी तुलसी जी बोलींं, "अरे नहीं, तुम्हारे चाचा चाची नहीं आए बल्कि भाई और भाभियां सब कुछ लेकर आए हैं।"  मीरा चौंंककर बोली, "पर मम्मी जी मेरे तो कोई भाई नहीं हैं फिर...??"

"ड्रॉइंग रूम में जाकर देखो, वो लोग तुम्हारा ही इंतजार कर रहे हैं"। तुलसी जी ने फिर आँखे चमकाते हुए कहा। मीरा कशमकश में उलझी धीरे धीरे कदम बढ़ाती हुई, ड्रॉइंग रूम में घुसी तो देखा उसके दोनों जेठ जेठानी वहां पर सारे सामान के साथ बैठे हुए थे। पीछे-पीछे तुलसी जी भी आ गईंं और बोलींं, "भई तुम्हारे पीहर वाले आए हैं, खातिरदारी नहीं करोगी क्या?" मीरा को कुछ समझ नहीं आ रहा था। वो कभी सास को देखती तो कभी बाकी सभी लोगों को। उसके मासूम चेहरे को देख कर सबकी हंसी छूट पड़ी।
तुलसी जी बोलींं, "कल जब तुम्हारी जेठानियों के पीहर से शगुन आया था तो हम सबने ही तुम्हारी आंखों में वह नमी देख ली थी। जिसमें माता पिता के ना होने का गहरा दुःख समाया था। पीहर की महत्ता हम औरतों से ज्यादा कौन समझ सकता है भला! इसलिए हम सबने तभी तय कर लिया था कि आज हम सब एक नया रिश्ता कायम करेंगे और तुम्हें तुम्हारे पीहर का सुख जरूर देंगे। "मीरा को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। जिन रिश्तोंं से उसे कल तक मजाक बनने का डर सता रहा था। उन्हीं रिश्तों ने आज उसे एक नई सोच अपनाकर उसका पीहर लौटा दिया था। मीरा की आंखों से खुशी और कृतज्ञता के आंसू बह रहे थे।।

समाज में एक नई सोच को जन्म देने वाले उसके ससुराल वालों ने मीरा का कद बहुत ऊंचा कर दिया था। साथ ही साथ अपनी बहू के ससुराल को ही अपना पीहर बनाकर समाज में उनका कद बहुत ऊंचा उठ चूका था।

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ६८)

एक ही सत्ता ओत-प्रोत है

विकासवाद के सिद्धान्त के समर्थक यह कहते हैं कि अपने सुविधापूर्ण जीवन के लिए इच्छा ने उन जीवों के शरीर संस्थानों में अन्तर किया और यह अन्तर स्पष्ट होते-होते एक जीव से दूसरी किस्म का उसी से मिलता हुआ जीव विकसित होता गया। थोड़ी देर के लिये यह बात मान लें और मनुष्य शरीर को इस कसौटी पर कसें तो भी बात विकासवाद के विपरीत ही बैठेगी। मनुष्य कब से पक्षियों को देखकर आकाश में स्वतन्त्र उड़ने को लालायित है किन्तु उसके शरीर में कहीं कोई पंख उगा क्या, समुद्र में तैरते जहाज देखकर हर किसी का मन करने लगता है कि हम भी गोता लगायें और मछलियों की तरह कहीं से कहीं जाकर घूम आयें, पर वह डूबने से बच पायेगा क्या?

यह प्रश्न अब उन लोगों को भी विपरीत दिशा में सोचने और परमात्म-सत्ता के अस्तित्व में होने की बात मानने को विवश करते हैं जो कभी इस सिद्धान्त के समर्थक रहे हैं। राबर्ट ए मिल्लीकान का कथन है—विकासवाद के सिद्धान्त से पता चलता है कि जिस तरह प्रकृति अपने गुणों और नियमों के अनुसार पदार्थ पैदा करती है, उससे विपरीत परमात्मा में ही वह शक्ति है कि वह अपनी इच्छा से सृष्टि का निर्माण करता है। प्रकृति बीज से सजातीय पौधा पैदा करती है आम के बीज से इमली पैदा करने की शक्ति प्रकृति में नहीं है। इस तरह के बीज और ऊपर वर्णित विलक्षण रचनायें पैदा करने वाली सत्ता एकमात्र परमात्मा ही हो सकता है। वही अपने आप में एक परिपूर्ण सत्ता है और वही विभिन्न इच्छाओं, अनुभूतियों, गुण तथा धर्म वाली परिपूर्ण रचनायें सृजन करता है।

क्रमिक विकास को नहीं भारतीय दर्शन पूर्णता-पूर्णता की उत्पत्ति मानता है। श्रुति कहती है।
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्ण मुच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्ण मेवावशिष्यते ।।

अर्थात्—पूर्ण परम ब्रह्म परमात्मा से पूर्ण जगत—पूर्ण मानव की उत्पत्ति हुई। पूर्ण से पूर्ण निकाल देने से पूर्ण ही शेष रहता है।

नदी का एक किनारा समुद्र से जुड़ा रहता है और दूसरा किनारा उससे दूर होता है। दूर होते हुए भी नदी समुद्र से अलग नहीं। नदी को जल समुद्र द्वारा प्राप्त होता है और पुनः समुद्र में मिल जाता है। जगत उस पूर्ण ब्रह्म से अलग नहीं। मनुष्य उसी पूर्ण ब्रह्म से उत्पन्न हुआ इसलिये अपने में स्वयं पूर्ण है यदि इस पूर्णता का भान नहीं होता, यदि मनुष्य कष्ट और दुःखों से त्राण नहीं पाता तो इसका एकमात्र कारण उसका अज्ञान और अहंकार में पड़े रहना ही हो सकता है। इतने पर भी पूर्णता हर मनुष्य की आन्तरिक अभिलाषा है और वह नैसर्गिक रूप से हर किसी में विद्यमान रहती है।

क्षुद्रता की परिधि को तोड़कर पूर्णता प्राप्त कर लेना हर किस के लिये सम्भव है। मनुष्य की चेतन सत्ता में वह क्षमता मौजूद है, जिसके सहारे वह अपने स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों का उपयोग कर देवोपम जीवन जी सकता है। यह क्षमता उसने खो दी है। मात्र जीवन निर्वाह क्रम पूरा होते रहने भर का लाभ उस क्षमता से उठा सकना सम्भव होता है। यह उस प्रचण्ड क्षमता का एक स्वरूप अंश मात्र है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ १०६
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ६८)

भक्ति और ज्ञान में विरोध कैसा?
    
महान भक्त एवं परम ज्ञानी ऋषि श्वेताक्ष के साधना जीवन की एक और भी विशेषता थी- उन्होंने ज्ञान और भक्ति में परस्पर अभेद का अनुभव किया था। वह कहते थे कि सभी विचारधाराएँ, विविध सरिताओं की भांति हैं, जो कहीं न कहीं परस्पर मिलती हैं। भले ही यह मिलन, सरिता का सरिता में हो अथवा फिर सरिता का सागर में। ज्ञान हो या भक्ति, इसके विविध पथों या मतों में परस्पर विरोध सम्भव नहीं। विरोध वही करते हैं जो अनुभव से रीते हैं, जो केवल तर्कों एवं विचारों तक सीमित हैं। यही वजह थी कि ऋषि श्वेताक्ष जब मुखर होते थे, तो सभी मतों एवं पथों का, ज्ञान एवं भक्ति की विविध धाराओं का स्वाभाविक संगम हो जाता था। उनका यह अनूठापन सभी को बहुत भाता था।
    
देवर्षि के वह परम प्रिय थे। उन्हें सर्वप्रथम मार्गदर्शन उन्हीं से मिला था। उन दिनों वह विन्ध्याचल में तप कर रहे थे। विन्ध्याचल के वनप्रान्त में एकाकी-निराहार रहकर भगवती की आराधना कर रहे इस बालक के प्रेम ने माँ को द्रवित कर दिया। उन्होंने ही देवर्षि से कहा- विन्ध्य के भीषण महाअरण्य में निराहार रहकर तप कर रहे इस पाँच साल के बालक को तुम्हारी आवश्यकता है। जगदम्बा के आदेश को शिरोधार्य करके वह उनसे मिले थे। इस प्रथम भेंट में देवर्षि को बीते युगों की याद ताजा हो आयी। जब वह कभी धु्रव-प्रह्लाद से मिले थे, श्वेताक्ष भी उन्हें उन्हीं का प्रतिरूप एवं समरूप मिले। देवर्षि के मार्गदर्शन ने उन्हें भावमय अन्तर्विवेक दिया। फिर क्या था श्वेताक्ष की प्रगाढ़ पुकार से जगन्माता ने उन्हें अपने आंचल की छांव में ले लिया। भगवान् दक्षिणामूर्ति महेश्वर के मुख से उन्हें शास्त्रों का अनुभव पूर्णज्ञान हुआ। आज वही श्वेताक्ष भक्ति की इस महासभा में थे और देवर्षि को निहारे जा रहे थे। सम्भवतः कुछ कहने को उत्सुक थे।
    
उनकी विचार उर्मियों ने देवर्षि के अन्तस को स्पर्श किया। उनकी चेतना किंचित बहिर्मुख हुई। अन्तरिक्ष को निहारती उनकी आँखों ने श्वेताक्ष की ओर देखा और वह थोड़े मुस्कराए, फिर बोले, ‘‘कुछ कहना चाहते हो पुत्र?’’ उत्तर में श्वेताक्ष कुछ बोल न सके, बस विनम्र भाव से सप्तर्षिमण्डल के परमर्षियों की ओर देखते रहे। इन महिमामय महर्षियों ने उनकी भावमुद्रा परख ली। वह समझ गए कि श्वेताक्ष को अपनी बात कहने में संकोच हो रहा है, सम्भवतः यह उनकी विनम्रता के कारण था। ऐसे में ब्रह्मर्षि वसिष्ठ, ब्रह्मर्षि विश्वामित्र सहित सभी सप्तर्षियों ने कहा- ‘‘पुत्र! देवर्षि नारद की ही भांति हम सभी को तुम प्रिय हो। अतः जो कहना चाहते हो, निःसंकोच कहो।’’
    
देवर्षि सहित सभी सप्तर्षियों व महर्षियों से आश्वस्ति पाकर श्वेताक्ष विनम्र स्वर में बोले- ‘‘आप सभी के समक्ष मैं बालक हूँ, मेरा अनुभव भी थोड़ा है। फिर भी जो भी अनुभव है, वह यही कहता है कि भक्ति और ज्ञान विलग नहीं रह सकते। वह अन्तःकरण में साथ ही साथ प्रकट होते हैं और इनका विकास भी साथ-साथ ही होता है।’’ श्वेताक्ष के इस कथन ने ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के ध्यान को आकर्षित किया। वह बोले- ‘‘पुत्र! तुम अपने कथन का विस्तार करो।’’ उत्तर में श्वेताक्ष ने कहा- ‘‘भगवन! हृदय में प्राथमिक आध्यात्मिक जिज्ञासा के साथ भाव एवं विवेक का उदय प्रायः एक साथ ही होता है। फिर साधक की साधना के अनुसार जब उसका चित्त शुद्ध होता है, तब उसी के अनुरूप भक्ति एवं ज्ञान भी परिपक्व होते जाते हैं।
    
जब तक चित्त अशुद्ध है, तब तक न तो यथार्थ ज्ञान का उदय होता है और न यथार्थ भक्ति का। ज्ञान के नाम पर केवल शब्द, विचार एवं तर्कों का केवल आडम्बर होता है और भाव के नाम पर केवल आवेग उभरते हैं। अनुभवहीनजन इन्हें ही ज्ञान एवं भक्ति मानकर सन्तोष कर लेते हैं। यही नहीं, वे अपनी अज्ञानता के कारण भक्ति एवं ज्ञान में भेद भी करते हैं। जबकि यथार्थ स्थिति में भेद तो विचार, तर्क एवं आवेगपूर्ण भावों में होता है। ऐसी स्थिति में इनमें परस्पर का सम्बन्ध होता भी नहीं।
    
परन्तु जब साधक अपनी साधना की डगर में चलते हुए चित्तशुद्धि की दिशा में बढ़ता है, तो उसमें स्वाभाविक ही शुद्ध भाव अंकुरित होते हैं और साथ ही उदय होती है समाधिजा प्रज्ञा। ये दोनों ही साधक को चित्तशुद्धि के प्रसाद के रूप में मिलती हैं। जैसे-जैसे चित्तशुद्धि परिपक्व एवं प्रगाढ़ होती है, वैसे-वैसे इनका विकास भी होता है- शिवज्ञान बनकर। जिस तरह शिव एवं शक्ति, भव एवं भवानी अभेद हैं, ठीक उसी तरह से भक्ति एवं ज्ञान में भी भेद नहीं है। क्योंकि दोनों ही एक साथ शुद्ध चित्त से प्रकट होते हैं।’’
    
ऋषि श्वेताक्ष की बातें सभी को प्रिय लगी। सभी को उनके व्यक्तित्व की विशिष्टता का अनुभव हुआ। देवर्षि ने पुलकित होकर उन्हें गले से लगाया और सिर पर हाथ फेरा। श्वेताक्ष भी देवर्षि का यह स्नेह पाकर धन्य हो गए। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने कहा- ‘‘पुत्र! तुम्हारे बारे में सुना तो बहुत था, परन्तु आज देखा भी। सचमुच ही तुम सब अवस्थाओं में, भेद में अभेद को अनुभव करते हो। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति एवं तुरीय में अभेद का एक जैसा अनुभव होने से ही ये बातें कही जा सकती हैं।’’ ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के इस कथन के उत्तर में श्वेताक्ष केवल इतना कह सके, ‘‘आपके आशीष से मैं अनुग्रहीत हुआ भगवन्!’’ इसके बाद उन्होंने चुप्पी साध ली। सम्भवतः उन्हें एक नये सूत्र सत्य की प्रतीक्षा थी।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १२१

शुक्रवार, 24 सितंबर 2021

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ६७)

एक ही सत्ता ओत-प्रोत है

जीवन की सार्थकता पूर्णता प्राप्ति में है, इसका तात्पर्य यह हुआ कि अभी हम अपूर्ण हैं, असत्य हैं, अन्धकार में हैं। हमारे सामने मृत्यु मुंह बांये खड़ी है। अन्धकार, असत्य और मृत्यु पर विजय प्राप्त करने के लिये हम प्रकाश, सत्य और अमरता की ओर अग्रसर होना चाहते हैं। पर हो कोई नहीं पाता। हर कोई अपने आपको अशक्त और असहाय पाता है, अज्ञान के अन्धकार में हाथ-पैर पटकता रहता है।

इस अपूर्णता पर जब कभी विचार जाता है तब एक ही तथ्य सामने आता है और वह है ‘‘परमात्मा’’ अर्थात् एक ऐसी सर्वोपरि सर्वशक्तिमान सत्ता जिसके लिए कुछ भी अपूर्ण नहीं है। वह सर्वज्ञ है, सर्वव्यापी, सर्वदृष्टा, नियामक और एकमात्र अपनी इच्छा से सम्पूर्ण सृष्टि में संचरण कर सकने की क्षमता से ओत-प्रोत है।

विकासवाद के जनक डार्विन ने यह सिद्धान्त तो प्रतिपादित कर दिया कि प्रारम्भ में एक कोशीय जीव-अमीबा की उत्पत्ति हुई यही अमीबा फिर ‘‘हाइड्रो’’ में विकसित हुआ, हाइड्रा मछली, मण्डूक, समर्पणशील पक्षी, स्तनधारी जीवों आदि की श्रेणियों में विकसित होता हुआ वह बन्दर की शक्ल तक पहुंचा, आज का विकसित मनुष्य शरीर इसी बन्दर की सन्तान है। इसके लिए शरीर रचना के कुछ खांचे भी मिलाये गये। जहां नहीं मिले वहां यह मान लिया गया कि वह कड़ियां लुप्त हैं और कभी समय पर उसकी भी जानकारी हो सकती है।

इस प्रतिपादन में डार्विन और इस सिद्धान्त के अध्येता यह भूल गये कि अमीबा से ही नर-मादा दो श्रेणियां कैसे विकसित हुईं। अमीबा एक कोशीय था उससे दो कोशीय हाइड्रा पैदा हुआ क्या अन्य सभी जीव इसी गुणोत्तर श्रेणी में आ सकते हैं यदि सर्पणशील जीवों से परधारी जीव विकसित हुये तो वह कृमि जैसे चींटे, पतिंगे, मच्छर आदि कृमि जो उड़ लेते हैं वे किस विकास प्रक्रिया में रखे जायेंगे? पक्षी, जल-जन्तु और कीड़े सभी मांस खाते हैं। स्तनधारी उन्हीं से विकसित हुए तो गाय, भैंस, बकरी, हाथी आदि मांस क्यों नहीं खाते। हाथी के दांत होते हैं हथनियों के नहीं, मुर्गे में कलंगी होती है मुर्गी में नहीं। मोर के रंग-बिरंगे पंख और मोरनियां बिना पंख वाली, विकास प्रक्रिया में एक ही जीव श्रेणी में यह अन्तर क्यों? प्राणियों में दांतों की संख्या, आकृति, प्रकृति में अन्तर पाया जाता है। घोड़े के स्तन नहीं होते बैल के अण्डकोश के पास स्तन होते हैं। पक्षियों की अपेक्षा सर्प और कछुये हजारों वर्ष की आयु वाले होते हैं, यह सभी असमानतायें इस बात का प्रमाण हैं कि सृष्टि रचना किसी विकास का परिणाम नहीं अपितु किसी स्वयम्भू सत्ता द्वारा विधिवत् रची गई कलाकृति है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ १०५
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ६७)

भक्ति और ज्ञान में विरोध कैसा?

इन मौन के क्षणों में देवर्षि मुखर हुए। उन्होंने बड़े ही मधुर स्वरों में अपना नया सूत्रोच्चार किया-
‘अन्योन्याश्रयत्वमित्यन्ये’॥२९॥

किन्हीं दूसरे आचार्यों का मत है कि भक्ति और ज्ञान परस्पर एक दूसरे के आश्रित हैं। देवर्षि के इस सूत्र ने सभी को चिन्तन के एक नए आयाम की झलक दिखाई। ऋषिगण-देवगण, गन्धर्व, सिद्ध सभी विचार करने लगे। उनकी चिन्तन चेतना विचार वीथियों में भ्रमण करने लगी। भक्ति का क्षेत्र भाव है, जबकि ज्ञान विचारों की प्रखरता से सम्बन्धित है। कैसे सम्बन्धित हैं ये दोनों? यह सत्य और तत्त्व कहीं स्पष्ट नहीं हो रहा था। प्रायः सभी को देवर्षि के वचनों की प्रतीक्षा थी, परन्तु वह अभी कहीं खोए थे। उनका मुख शान्त था, अधरों पर मधुर स्मित रेखा थी, परन्तु नेत्रों से अपूर्व ज्योत्सना बिखर रही थी। न तो वह कुछ कह रहे थे और न दूसरा कोई उन्हें टोक रहा था।
    
तभी ऋषियों की पंक्ति में बैठे अपेक्षाकृत युवा ऋषि श्वेताक्ष ने देवर्षि की ओर देखा। उनके मुख पर प्रकाश का वलय था। तरूण होते हुए भी वह अपनी तप साधना, योग विभूतियों, विचारों की प्रखरता व भावप्रवण भक्ति के लिए ऋषियों-महर्षियों के बीच सुपरिचित एवं सुचर्चित थे। हिमालय उनका अपना घर था। कभी-कभी वे विनोद के स्वर में कहा करते थे कि हिमवान का आंगन मेरा ननिहाल है। आखिर यह मेरी माँ का मायका जो है। पर्वतसुता पार्वती- माता जगदम्बा के प्रति उनकी भक्ति अवर्णनीय थी। माँ का स्मरण उनकी प्रत्येक आती-जाती श्वास में रमा था। उनके रोम-रोम में भगवती की भावचेतना विराजती थी।
    
इस अनूठी भक्ति के साथ उनकी ज्ञाननिष्ठा भी अद्भुत थी। भगवती के भाव भरे आग्रह के कारण भगवान भोलेनाथ ने उन्हें शिष्य के रूप में स्वीकारा था। जिसके सद्गुरु स्वयं जगदीश्वर हों, उसके ज्ञान की प्रखरता का वर्णन भला कौन कर सकता है। उनके ज्ञान के इस अक्षयकोष में शब्द नहीं, अनुभव संचित थे। वह कहा करते थे कि कोरे विचारों के विश्लेषण एवं तर्कों के संजाल से ज्ञान को अभिव्यक्त तो किया जा सकता है पर इनके आधार पर ज्ञान का अर्जन सम्भव नहीं। ज्ञान तो समाधिजा प्रज्ञा का परिणाम है। समाधि के इन विभिन्न स्तरों पर जो प्रज्ञा विकसित होती है, उसी की प्रदीप्ति में ज्ञान का प्राकट्य होता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ११९

गुरुवार, 23 सितंबर 2021

👉 शोरगुल किसलिये

मक्खी एक हाथी के ऊपर बैठ गयी। हाथी को पता न चला मक्खी कब बैठी। मक्खी बहुत भिनभिनाई आवाज की, और कहा, ‘भाई! तुझे कोई तकलीफ हो तो बता देना। वजन मालूम पड़े तो खबर कर देना, मैं हट जाऊंगी।’ लेकिन हाथी को कुछ सुनाई न पड़ा। फिर हाथी एक पुल पर से गुजरने लगा बड़ी पहाड़ी नदी थी, भयंकर गङ्ढ था, मक्खी ने कहा कि ‘देख, दो हैं, कहीं पुल टूट न जाए! अगर ऐसा कुछ डर लगे तो मुझे बता देना। मेरे पास पंख हैं, मैं उड़ जाऊंगी।’

हाथी के कान में थोड़ी-सी कुछ भिनभिनाहट पड़ी, पर उसने कुछ ध्यान न दिया। फिर मक्खी के विदा होने का वक्त आ गया। उसने कहा, ‘यात्रा बड़ी सुखद हुई, साथी-संगी रहे, मित्रता बनी, अब मैं जाती हूं, कोई काम हो, तो मुझे कहना, तब मक्खी की आवाज थोड़ी हाथी को सुनाई पड़ी, उसने कहा, ‘तू कौन है कुछ पता नहीं, कब तू आयी, कब तू मेरे शरीर पर बैठी, कब तू उड़ गयी, इसका मुझे कोई पता नहीं है। लेकिन मक्खी तब तक जा चुकी थी सन्त कहते हैं, ‘हमारा होना भी ऐसा ही है। इस बड़ी पृथ्वी पर हमारे होने, ना होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।

हाथी और मक्खी के अनुपात से भी कहीं छोटा, हमारा और ब्रह्मांड का अनुपात है। हमारे ना रहने से क्या फर्क पड़ता है? लेकिन हम बड़ा शोरगुल मचाते हैं। वह शोरगुल किसलिये है? वह मक्खी क्या चाहती थी?

वह चाहती थी कि हाथी स्वीकार करे, तू भी है,,,,, तेरा भी अस्तित्व है, वह पूछना चाहती थी। हमारा अहंकार अकेले नहीं जी सकता,,,,,,, दूसरे उसे मानें, तो ही जी सकता है।

इसलिए हम सब उपाय करते हैं कि किसी भांति दूसरे उसे मानें, ध्यान दें, हमारी तरफ देखें और हमारी उपेक्षा न हो।

सन्त विचार- हम वस्त्र पहनते हैं तो दूसरों को दिखाने के लिये,,,,, स्नान करते हैं सजाते-संवारते हैं ताकि दूसरे हमें सुंदर समझें,,,,,,, धन इकट्ठा करते, मकान बनाते, तो दूसरों को दिखाने के लिये,,,,,,,, दूसरे देखें और स्वीकार करें कि हम कुछ विशिष्ट हैं, ना कि साधारण।

हम मिट्टी से ही बने हैं और फिर मिट्टी में मिल जाएंगे,,,,,,,,

हम अज्ञान के कारण खुद को खास दिखाना चाहते हैं,,, वरना तो हम बस एक मिट्टी के पुतले हैं और कुछ नहीं।

अहंकार सदा इस तलाश में रहता है कि वे आंखें मिल जाएं, जो मेरी छाया को वजन दे दें।

याद रखना चाहिए आत्मा के निकलते ही यह मिट्टी का पुतला फिर मिट्टी बन जाएगा इसलिए हमे झूठा अहंकार त्याग कर,,, जब तक जीवन है सदभावना पूर्वक जीना चाहिए और सब का सम्मान करना चाहिए,,,, क्योंकि जीवों में परमात्मा का अंश आत्मा  है।
 

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ६६)

एक ही सत्ता ओत-प्रोत है

ब्रह्माण्ड की शक्तियों का और पिण्ड की—मनुष्य की शक्तियों का एकीकरण कहां होता है शरीर शास्त्री इसके लिए सुषुम्ना शीर्षक, मेडुला आवलांगाटा—की ओर इशारा करते हैं। पर वस्तुतः वह वहां है नहीं। मस्तिष्क स्थित ब्रह्मरन्ध्र को ही वह केन्द्र मानना पड़ेगा, जहां ब्राह्मी और जैवी चेतना का समन्वय सम्मिलन होता है।

ऊपर के तथ्यों पर विचार करने से यह एकांगी मान्यता ही सीमित नहीं रहती कि जड़ से ही चेतन उत्पन्न होता है इन्हीं तथ्यों से यह भी प्रमाणित होता है कि चेतन भी जड़ की उत्पत्ति का कारण है। मुर्गी से अण्डा या अण्डे से मुर्गी—नर से नारी या नारी से नर—बीज से वृक्ष या वृक्ष से बीज जैसे प्रश्न अभी भी अनिर्णीत पड़े हैं। उनका हल न मिलने पर भी किसी को कोई परेशानी नहीं। दोनों को अन्योन्याश्रित मानकर भी काम चल सकता है। ठीक इसी प्रकार जड़ और चेतन में कौन प्रमुख है इस बात पर जोर न देकर यही मानना उचित है कि दोनों एक ही ब्रह्म सत्ता की दो परिस्थितियां मात्र हैं। द्वैत दीखता भर है वस्तुतः यह अद्वैत ही बिखरा पड़ा है।

न केवल चेतन समुदाय अपितु सृष्टि का प्रत्येक कण पूर्णता के लिये लालायित और गतिशील है। भौतिक-जीवन में जिसके पास स्वल्प सम्पदा है वह और अधिक की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील है, पर जो धनाढ्य हैं उन्हें भी सन्तोष नहीं। उसी के परिमाण में बह और अधिक प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील दिखाई देता है। बड़े-बड़े सम्राट तक अपनी इस अपूर्णता को पाटने के लिये आपाधापी मचाते और दूसरे साम्राज्यों की लूटपाट करते पाये जाते हैं तो लगता है सृष्टि का हर प्राणी साधनों की दृष्टि से अपूर्ण है इस दिशा में पूर्णता प्राप्त करने की हुड़क हर किसी में चढ़ी बैठी दिखाई देती है।

इतिहास का विद्यार्थी अपने आपको गणित में शून्य पाता है तो वह अपने आपको अपूर्ण अनुभव करता है, भूगोल का चप्पा छान डालने वाले को संगीत के स्वर बेचैन कर देते हैं उसे अपना ज्ञान थोथा दिखाई देने लगता है, बड़े-बड़े चतुर वकील और बैरिस्टरों को जब रोग बीमारी के कारण डाक्टरों की शरण जाना पड़ता है तो उनका अपने ज्ञान का—अभिमान चकनाचूर हो जाता है। बौद्धिक दृष्टि से हर प्राणी सीमित है और हर कोई अगाध ज्ञान का पण्डित बनने की तत्पर दिखाई देता है।

नदियां अपनी अपूर्णता को दूर करने के लिये सागर की ओर भागती हैं, वृक्ष आकाश छूने दौड़ते हैं, धरती स्वयं भी अपने आपको नचाती हुई न जाने किस गन्तव्य की ओर अधर आकाश में भागी जा रही है, अपूर्णता की इस दौड़ में समूचा सौर-मण्डल और उससे परे का अदृश्य संसार सम्मिलित है। पूर्णता प्राप्ति की बेचैनी न होती तो सम्भवतः संसार में रत्ती भर भी सक्रियता न होती सर्वत्र नीरव सुनसान पड़ा होता, न समुद्र उबलता, न मेघ बरसते, न वृक्ष उगते, न तारागण चमकते और न ही वे विराट् की प्रदक्षिणा में मारे-मारे घूमते?

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ १०४
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ६६)

ज्ञान ही है भक्ति का साधन

इन सात्त्विक दृश्यावलियों के बीच गायत्री महामन्त्र के द्रष्टा महान् ऋषि विश्वामित्र ने कहा- ‘‘हे महर्षि आश्वालायन! आपकी प्रतिभा, विद्या, ज्ञान की कथाएँ ऋषियों के समूह में सादर कही-सुनी जाती हैं। आप अपने अनुभवों में घोलकर भक्ति एवं ज्ञान के सम्बन्ध का निरूपण करें।’’ ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के इस प्रस्ताव ने आश्वलायन ऋषि को असमंजस में डाल दिया। सम्भवतः वह इसके लिए तैयार नहीं थे। इसीलिए उन्होंने थोड़ी हिचकिचाहट के साथ कहा भी, ‘‘मैं तो यहाँ आप सब महनीय जनों के संग के लिए आया हूँ, फिर इस भक्ति अमृत के मध्य मेरी वाणी कितनी उपयुक्त एवं सार्थक होगी।’’ आश्वलायन के इन स्वरों के साथ देवों एवं ऋषियों के अनुरोध के स्वर भी तीव्र हो उठे।
    
इस आग्रह को वे ठुकरा न सके और कहने लगे कि ‘‘मैं आप सभी के आदेशों को शिरोधार्य करके अपना अनुभव सत्य कहने का प्रत्यन कर रहा हूँ। परन्तु इसका निष्कर्ष तय करने की जिम्मेदारी आप सबकी है। मेरी ये अनुभूतियाँ तब की हैं, जबकि मैं युवावस्था को पारकर प्रौढ़ावस्था में प्रवेश कर रहा था। अपने अध्ययन के प्राथमिक चरण से ही मुझे सराहना मिली थी। आचार्यगण मुझे प्रतिभा एवं विद्या का पर्याय मानते थे। अनेकों किम्वदन्तियाँ मेरे बारे में प्रचारित हो रही थीं। युवावस्था आते तक मैंने सभी विद्याओं एवं कलाओं में निपुणता प्राप्त कर लीं परन्तु न जाने क्यों मन बेचैन रहता था। जब-तब एक बैचेनी मुझे घेर लेती थी। इसे हटाने के लिए मेरे सभी तर्क निष्फल थे। सारा शास्त्र ज्ञान अधूरा था।
    
आखिरकार मैं हिमालय आ गया। सोचा यही था कि हिमवान की शीतलता अवश्य मेरी आन्तरिक ऊष्णता का शमन करेगी। यहाँ आकर मैं यूँ ही सुमेरू की शृखंलाओं के बीच भ्रमण करने लगा। यहाँ भ्रमण करते हुए मुझे परम दीर्घजीवी देवों के भी पूज्य महर्षि लोमश मिले। उन्होंने मेरे सिर पर आशीष का हाथ रखा। उनका वह स्पर्श अतिअलौकिक था। इस स्पर्श ने मेरी सारी क्षुधा, तृषा, थकान व बेचैनी हर ली। एक विचित्र सी शीतल प्रफुल्लता की लहर मेरे अस्तित्त्व में प्रवाहित हो उठी और मेरे रोम-रोम पुलकित हो गये। इस एक क्षण के अनुभव में मेरे अतीत के सम्पूर्ण अनुभव धुल गए।
    
मेरी प्रतिभा व विद्या का दम्भ जाता रहा। मेरे वे नुकीले तर्क जो सदा औरों को आहत करते रहते थे, आज पिघल गए। मैं तो बस हिमशिखरों के मध्य खड़े कालजयी महर्षि लोमश को निहारता रह गया। मुझे तो यह भी सुधि नहीं रही कि मैं उनके पावन चरणों में माथा नवाऊँ पर उन करूणामय महर्षि ने मेरा हाथ थामा और मुझे एक ओर ले चले। थोड़ी दूर चलने के बाद एक गुफा आ गयी। यहाँ का वातावरण अति सुरम्य था। परम प्रशान्ति यहाँ छायी थी। इस गुफा के पास ही एक सुन्दर जल स्रोत था, जहाँ सुन्दर पक्षी जलक्रीड़ा कर रहे थे। आस-पास के स्थान में मखमली घास उगी थी। इस घास के बीच-बीच पर सुगन्ध बिखेरते पुष्पित पौधे लगे थे। इस वातावरण को मैं देर तक थकित-चकित देखता रह गया। उन क्षणों में मैं भावों से भरा था, और मेरे मुख से एक भी शब्द उच्चारित नहीं हो रहा था, पर महर्षि लोमश बड़े मधुर स्वरों से मुझे कह रहे थे- वत्स आश्वलायन! ज्ञान के दो रूप हैं- पहला है विवेक और दूसरा है बोध। जो ज्ञान इन दोनों रूपों से वंचित हो, उसे ज्ञान नहीं अज्ञान कहेंगे। कोरी बौद्धिकता से जानकारियों का बोध तो बढ़ता है, परन्तु इससे सत्य, सद्वस्तु की झलक नहीं मिलती। ज्ञान के अनुभव की प्रथम झलक विवेक के रूप में मिलती है। फिर वह अक्षरज्ञान से हो अथवा अक्षरातीत अवस्था में पहुँचकर।
    
यह विवेक हुआ तो वासनाएँ स्वयं ही भावनाओं में रूपान्तरित हो जाती हैं और अन्तःकरण में भक्ति अंकुरित होती है। प्रभु के स्मरण, उनमें समर्पण, विसर्जन से इस भक्ति का परिपाक होता है और तब ज्ञान का दूसरा रूप बोध के रूप में प्रकट होता है। इस अवस्था में मनुष्य को परात्पर तत्त्व का साक्षात्कार होता है। वह सत्य के झरोखे से ऋत् की झांकी देखता है। यह बुद्धि की सीमा से सर्वथा पार व परे है। यहाँ न तर्क है और अनुमान। यहाँ पर तो प्रभु की शाश्वतता का साकार व सम्पूर्ण बोध है। अपने इस कथन को पूरा कहने के पूर्व आश्वलायन की भावनाएँ बरबस आँखों से छलक पड़ीं। जिस-तिस तरह से वह स्वयं को संयत करते हुए बोले- मैं तो यही कह सकता हूँ कि भक्ति ज्ञान का सार है।’’ आश्वलायन के इस वचन को आत्मसात करते हुए देवर्षि नारद ने अपने सूत्र का सत्योच्चार किया-
‘तस्या ज्ञानमेव साधनमित्येके’॥ २८॥
    
‘‘उसका (भक्ति का) साधन ज्ञान ही है, किन्हीं (आचार्यों) का यह मत है।’’ इस सूत्र को सुनने के साथ सभी के मन मौन में डूब गए। सम्भवतः इस सत्य का कोई अन्य पहलू अवतीर्ण होने की प्रतीक्षा में रत था।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ११७

सोमवार, 20 सितंबर 2021

हमारी माता जी सब जानतीं हैं।

जिला बारां राजस्थान के एक प्रतिष्ठित चिकित्सक डॉ फूलसिंह यादव के जीवन में घटी एक ऐसी घटना जिसने डॉ फूलसिंह यादव का नजरिया बदल दिया। बात उन दिनों की है जब अखिल विश्व गायत्री परिवार के जनक, संस्थापक, आराध्य वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी सूक्ष्मीकरण साधना हेतु एकांतवास में चले गए। पूज्य गुरुदेव के एकांतवास में चले जाने के उपरांत गायत्री परिवार की समस्त जिम्मेदारियां स्नेह सलिला वंदनीया माता भगवती देवी शर्मा जी पर आ गयी। माता जी ने पहले भी पूज्यवर के हिमालय प्रवास एवं अन्य समय की अनुपस्थिति में गायत्री परिवार को संचालित संगठित एवं विस्तारित किया था।

1984 से माता जी के अनेक रूप दिखाई पड़ने लगे. वात्सल्यमयी माँ का रूप, ससक्त संगठनकर्ता का रूप, प्रकाण्ड विद्वान का रूप, प्रखर वक्ता, भविष्यद्रष्टा,  अनेकों रूपों में माता जी के दर्शन लोगों को होने लगे। साधारणतः तो माता जी को परिजन यही मानते रहे कि माता जी गुरुदेव की पत्नी हैं, गुरुमाता हैं, माँ अन्नपूर्णा का आशीर्वाद माता जी को है, माता जी कभी किसी भी आगंतुक को बिना भोजन प्रसाद के जाने नहीं देतीं हैं आदि आदि। पूज्य गुरुदेव के एकांतवास में जाने के उपरांत जगत जननी माँ भगवती ने समस्त संगठन या यूँ कहें की समस्त चराचर जगत का सूत्र सञ्चालन अपने हाथों में ले लिया। उस समय वंदनीया माता जी अनायास ही अपने बच्चों पर कृपा कर अपने जगदम्बा अवतारी स्वरुप का आभास करा देती थीं।

ऐसी ही एक घटना डॉ फूलसिंह यादव के साथ घटी। डॉ फूलसिंह यादव चिकित्सा विभाग में कार्यरत थे, उनका प्रमोशन किन्हीं कारणों से रुका हुआ था। डॉ यादव जी का गुरुदेव के पास मार्गदर्शन, आशीर्वाद के लिए आना-जाना लगातार लगा रहता था। डॉ यादव ने अपने रुके हुए प्रमोशन को पाने के लिए गुरुदेव से प्रार्थना करने का सोचा और हरिद्वार की ओर प्रस्थान कर गए। डॉ यादव शांतिकुंज पहुंचे, दर्शन प्रणाम के क्रम में वंदनीया माता जी के पास पहुँच माता जी के चरणों में जैसे ही शीश झुकाया माता जी ने पुकार लगायी। कब आया फूलसिंह बेटा! तू ठीक तो है? तेरा सफ़र कैसा रहा कोई कठिनाई तो नहीं आई रास्ते में। फिर डॉ यादव की पत्नी और बच्चों का नाम लेकर माता जी ने उन सभी का समाचार पूछा। डॉ यादव अचंभित हो माता जी की ओर देखने लगे, सोचने लगे माता जी से तो कभी मैं इस प्रकार मिला नहीं, माता जी कैसे जानती हैं ये सब। दर असल डॉ फूलसिंह यादव जब भी शांतिकुंज पहुँचते गुरुदेव से ही आशीर्वाद परामर्श पाते थे। माता जी के पास तो भोजन प्रसाद और लड्डू ही पाते थे। इस दफ़ा माता जी को इस रूप में देखा, पहली ही मुलाकात में माता जी ने उनके बारे में, उनके परिवार के बारे सबकुछ नाम सहित पूछा। डॉ यादव सोचने लगे माता जी को मेरा परिचय किसने दिया? तभी माता जी की आवाज उनके कानों में टकराई जिससे उनकी विचार श्रृंखला टूटी। माता जी ने कहा बेटा माँ से उसके बच्चों की पहचान थोड़ी ही करानी पड़ती है, माँ अपने सभी बच्चों के विषय में सब कुछ जानती है। तू चिंता न कर तेरे प्रमोशन का ध्यान है मुझे, तेरा प्रमोशन हो जायेगा। तेरा प्रमोशन मैं कराऊँगी, तू इसके विषय में सोचना छोड़ दे।

डॉ फूलसिंह यादव का मुंह खुला का खुला रह गया। यह क्या, वंदनीया माता जी को किसने बताया कि मैं प्रमोशन के लिए आशीर्वाद मांगने आया हूँ। इसकी चर्चा तो मैंने किसी से करा ही नहीं। डॉ यादव के आँखों से आंसू बहने लगे, माँ को प्रणाम किया अंतस में उठ रहे भावों में उलझे मन के साथ सीढ़ियों से उतरते चले गए। ह्रदय में अनेकों भावों के उठते ज्वार भाटे की उलझन में कहीं खो गए। सोचने लगे, पूज्य गुरुदेव से तो अपने लिए भौतिक उपलब्धियां मांगना पड़ता है, माँ ने बिना मांगे ही दे दिया। पूज्य गुरुदेव के सामने अपनी आवश्यकतायें बताने पर गुरुदेव कृपा करते हैं, माँ ने पुत्र के ह्रदय की बात स्वयं ही जान लिया। मैंने पहले माता जी को क्यूँ नहीं पहचाना। माता जी सबकुछ जानती हैं। माता जी कोई योगमाया जानती हैं? कोई तपस्विनी हैं? डॉ फूलसिंह यादव के अंतस ने कहा नहीं, स्नेह सलिला परम वंदनीया माता जी जगदम्बा की अवतार हैं। मेरी माता जी जगदम्बा हैं। मेरी माता जी सब जानती हैं। माँ जगदम्बा अवतारी माता जी को समस्त रोम कूपों से बारम्बार प्रणाम बारम्बार नमन।

👉 चिंतन सरिता

दु:ख भुगतना ही, कर्म का कटना है. हमारे कर्म काटने के लिए ही हमको दु:ख दिये जाते है. दु:ख का कारण तो हमारे अपने ही कर्म है, जिनको हमें भुगतना ही है। यदि दु:ख नही आयेगें तो कर्म कैसे कटेंगे?

एक छोटे बच्चे को उसकी माता साबुन से मलमल के नहलाती है जिससे बच्चा रोता है. परंतु उस माता को, उसके रोने की, कुछ भी परवाह नही है, जब तक उसके शरीर पर मैल दिखता है, तब तक उसी तरह से नहलाना जारी रखती है और जब मैल निकल जाता है तब ही मलना, रगड़ना बंद करती है।
      
वह उसका मैल निकालने  के लिए ही उसे मलती, रगड़ती है, कुछ द्वेषभाव से नहीं. माँ उसको दु:ख देने के अभिप्राय से नहीं रगड़ती,  परंतु बच्चा इस बात को समझता नहीं इसलिए इससे रोता है।
      
इसी तरह हमको दु:ख देने से परमेश्वर को कोई लाभ नहीं है. परंतु हमारे पूर्वजन्मों के कर्म काटने के लिए, हमको पापों से बचाने के लिए और जगत का मिथ्यापन बताने के लिए वह हमको दु:ख देता है।
      
अर्थात् जब तक हमारे पाप नहीं धुल जाते, तब तक हमारे रोने चिल्लाने पर भी परमेश्वर हमको नहीं छोड़ता ।
      
इसलिए दु:ख से निराश न होकर, हमें मालिक से मिलने के बारे मे विचार करना चाहिए और भजन सुमिरन का ध्यान करना चाहिए..!!

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ६५)

एक ही सत्ता ओत-प्रोत है

नोवल पुरस्कार विजेता डा. एलेक्सिस कारेल उन दिनों न्यूयार्क के राक फेलर चिकित्सा अनुसंधान केन्द्र में काम कर रहे थे। एक दिन उन्होंने एक मुर्गी के बच्चे के हृदय के जीवित तन्तु का एक रेशा लेकर उसे रक्त एवं प्लाज्मा के घोल में रख दिया। वह रेशा अपने कोष्टकों की वृद्धि करता हुआ विकास करने लगा। उसे यदि काटा-छांटा न जाता तो वह अपनी वृद्धि करते हुए वजनदार मांस पिण्ड बन जाता। उस प्रयोग से डा. कारेल ने यह निष्कर्ष निकाला कि जीवन जिन तत्वों से बनता है यदि उसे ठीक तरह जाना जा सके और टूट-फूट को सुधारना सम्भव हो सके तो अनन्तकाल तक जीवित रह सकने की सभी सम्भावनायें विद्यमान हैं।

प्रोटोप्लाज्म जीवन का मूल तत्व है। यह तत्व अमरता की विशेषता युक्त है। एक कोश वाला अमीवा प्राणी निरन्तर अपने आपको विभक्त करते हुये वंश वृद्धि करता रहता है। कोई शत्रु उसकी सत्ता ही समाप्त करदे यह दूसरी बात है अन्यथा वह अनन्त काल तक जीवित ही नहीं रहेगा वरन् वंश वृद्धि करते रहने में भी समर्थ रहेगा।

रासायनिक सम्मिश्रण से कृत्रिम जीवन उत्पन्न किये जाने की इन दिनों बहुत चर्चा है। छोटे जीवाणु बनाने में ऐसी कुछ सफलता मिली भी हैं, पर उतने से ही यह दावा करने लगना उचित नहीं कि मनुष्य ने जीवन का—सृजन करने में सफलता प्राप्त करली।

जिन रसायनों से जीवन विनिर्मित किये जाने की चर्चा है क्या उन्हें भी—उनकी प्रकृतिगत विशेषताओं को भी मनुष्य द्वारा बनाया जाना सम्भव है? इस प्रश्न पर वैज्ञानिकों को मौन ही साधे रहना पड़ रहा है। पदार्थ की जो मूल प्रकृति एवं विशेषता है यदि उसे भी मनुष्य कृत प्रयत्नों से नहीं बनाया जा सकता तो इतना ही कहना पड़ेगा कि उसने ढले हुए पुर्जे जोड़कर मशीन खड़ी कर देने जैसे बाल प्रयोजन ही पूरा किया है। ऐसा तो लकड़ी के टुकड़े जोड़कर अक्षर बनाने वाले किन्डर गार्डन कक्षाओं के छात्र भी कर लेते हैं। इतनी भर सफलता से जीव निर्माण जैसे दुस्साध्य कार्य को पूरा कर सकने का दावा करना उपहासास्पद गर्वोक्ति है।

कुछ मशीनें बिजली पैदा करती हैं—कुछ तार बिजली बहाते हैं, पर वे सब बिजली तो नहीं हैं। अमुक रासायनिक पदार्थों के सम्मिश्रण से जीवन पैदा हो सकता है सो ठीक है, पर उन पदार्थों में जो जीवन पैदा करने की शक्ति है वह अलौकिक एवं सूक्ष्म है। उस शक्ति को उत्पन्न करना जब तक सम्भव न हो तब तक जीवन का सृजेता कहला सकने का गौरव मनुष्य को नहीं नहीं मिल सकता।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ १०३
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ६५)

ज्ञान ही है भक्ति का साधन

देवर्षि नारद की अनुभव कथा सुनकर हिमवान के आंगन में भावों की बूंदें बरस पड़ीं। वहाँ उपस्थित सभी ब्रह्मर्षियों, महर्षियों, मुनिजन के साथ, सिद्धों, गन्धर्वों, विद्याधरों व देवों के अन्तःकरण भी भक्ति से सिक्त हो गए। सब ओर एक व्यापक मौन पसर गया। इस मौन में स्पन्द एवं निस्पन्द का अपूर्व संगम हो रहा था। प्रायः सभी के अन्तः में भावों के स्पन्दन से बोध की निस्पन्दता अंकुरित हो रही थी। हालांकि इस सब ओर पसरे मौन के बीच वातावरण में चहुँ ओर एक प्रश्न की अठखेलियाँ विचरण कर रही थी। प्रश्न यही था कि भक्ति व ज्ञान के बीच क्या सम्बन्ध है? भक्ति से ज्ञान प्रकट होता है या फिर ज्ञान से भक्ति? देर तक किसी ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया। सभी अपने भावों में भीग रहे थे।
    
तभी वहाँ पर एक अपूर्व सुगन्धित प्रकाश का वलय छा गया। इस अनुभव में अलौकिकता थी, जिसे सभी ने महसूस किया। इस अद्भुत अहसास की सघनता में सभी ने महर्षि आश्वलायन के दर्शन किए। आश्वलायन की प्रतिभा, मेधा, तप, तितीक्षा से सभी परिचित थे। वहाँ पर उपस्थित विभूतियों में से कुछ ने उनके बारे में सुन रखा था, तो कुछ को उनके सुखद सहचर्य का अनुभव था। ब्रह्मापुत्र पुलस्त्य के वे बालसखा थे। उनकी अन्तरंगता की कई गाथाएँ महर्षियों के बीच उत्सुकतापूर्वक कही-सुनी जाती थीं। आज दीर्घकाल के बाद वे दोनों फिर से मिले थे। इन महर्षियों ने एक दूसरे को देखा, तो न केवल इनके मुख पर बल्कि इन्हें देखकर उपस्थित सभी जनों के मुखों पर सात्त्विक भावनाओं की अनगिन विद्युत् रेखाएँ चमक उठीं।
    
ब्रह्मर्षि पुलस्त्य ने उमगते हुए भावों के साथ आश्वलायन को गले लगाया। मिलन में कुछ ऐसा उछाह और आनन्द था कि भावों के अतिरेक में दोनों मित्र देर तक गले मिलते रहे। इसके बाद पुलस्त्य ने उन्हें अपने पास बैठने का आग्रह किया। परन्तु आश्वलायन ने बड़े मीठे स्वरों में कहा, आप सब सप्तर्षि मण्डल के सदस्य हैं। आप का स्थान विशिष्ट है। विधाता की इस मर्यादा का सम्मान किया जाना चाहिए। ऐसा कहते हुए वे देवर्षि नारद के समीप बैठ गए। आश्वलायन की यह विनम्रता सभी के दिलों में गहराई तक उतर गयी। अनेकों नेत्र उनकी ओर टकटकी बांधे देखते रह गए।
    
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ११६

शनिवार, 18 सितंबर 2021

👉 "धीरे चलो"

नदी के तट पर एक भिक्षु ने वहां बैठे एक वृद्ध से पूछा "यहां से नगर कितनी दूर है?
सुना है, सूरज ढलते ही नगर का द्वार बंद हो जाता है।
अब तो शाम होने ही वाली है। क्या मैं वहां पहुंच जाऊंगा?'

वृद्ध ने कहा "धीरे चलो तो पहुंच भी सकते हो।" भिक्षु यह सुनकर हैरत में पड़ गया।
वह सोचने लगा कि लोग कहते हैं कि जल्दी से जाओ, पर यह तो विपरीत बात कह रहा है।
भिक्षु तेजी से भागा। लेकिन रास्ता ऊबड़-खाबड़ और पथरीला था। थोड़ी देर बाद ही भिक्षु लड़खड़ाकर गिर पड़ा।

किसी तरह वह उठ तो गया लेकिन दर्द से परेशान था।
उसे चलने में काफी दिक्कत हो रही थी। वह किसी तरह आगे बढ़ा लेकिन तब तक अंधेरा हो गया।
उस समय वह नगर से थोड़ी ही दूर पर था। उसने देखा कि दरवाजा बंद हो रहा है। उसके ठीक पास से एक व्यक्ति गुजर रहा था। उसने भिक्षु को देखा तो हंसने लगा भिक्षु ने नाराज होकर कहा, "तुम हंस क्यों रहे हो?"

उस व्यक्ति ने कहा, 'आज आपकी जो हालत हुई है, वह कभी मेरी भी हुई थी। आप भी उस बाबा जी की बात नहीं समझ पाए जो नदी किनारे रहते हैं।'

भिक्षु की उत्सुकता बढ़ गई। उसने पूछा "साफ साफ बताओ भाई।
" उस व्यक्ति ने कहा "जब बाबाजी कहते हैं कि धीरे चलो तो लोगों को अटपटा लगता है। असल में वह बताना चाहते हैं कि रास्ता गड़बड़ है, अगर संभलकर चलोगे तो पहुंच सकते हो

कथा का तात्पर्य
जिंदगी में सिर्फ तेज भागना ही काफी नहीं है। सोच-समझकर संभलकर चलना ज्यादा काम आता है।

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ६४)

एक ही सत्ता ओत-प्रोत है

जीव-विज्ञान को दो भागों में बांटा जा सकता है। वनस्पति विज्ञान (वौटनी), प्राणि विज्ञान (जूलौजी) इन दो विभाजनों से भी इस महा समुद्र का ठीक तरह विवेचन नहीं हो सकता। इसलिए इसे अन्य भेद-उपभेदों में विभक्त करना पड़ता है।

सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों से जिन जीवधारियों को देखा समझा जाता है उसके सम्बन्ध में जानकारी सूक्ष्म जैविकी (माइक्रो बायोलॉजी) कही जाती है।

आकारिकी (मारफोलाजी) शारीरिकी (अनाटोमी) ऊतिकी (हिस्टोलाजी) कोशिकी (साइटोलोजी) भ्रूणी (एम्ब्रोलाजी) शरीर क्रिया (फिजियोलॉजी) परिस्थिति की (एकोलाजी) आनुवंशिकी (जैनेटिक्स) जैव विकास (आरगैनिक एवूलेशन) आदि।

इन सभी जीव-विज्ञान धाराओं ने यह सिद्ध किया है कि जीवन और कुछ नहीं जड़ पदार्थों का ही विकसित रूप है।

रासायनिक दृष्टि से जीवन सेल और अणु के एक ही तराजू पर तोला जा सकता है। दोनों में प्रायः समान स्तर के प्राकृतिक नियम काम करते हैं। एकाकी एटम—मालेक्यूल्स और इलेक्ट्रोन्स के बारे में अभी भी वैसी ही खोज जारी है जैसी कि पिछली तीन शताब्दियों में चलती रही है। विकरण—रेडियेशन और गुरुत्वाकर्षण ग्रेविटेशन के अभी बहुत से स्पष्टीकरण होने बाकी हैं। जो समझा जा सका है वह अपर्याप्त ही नहीं असन्तोषजनक भी है।

यों कोशिकाएं निरन्तर जन्मती-मरती रहती हैं, पर उनमें एक के बाद दूसरी में जीवन तत्व का संचार अनवरत रूप से होता रहता है। मृत होने से पूर्व कोशिकाएं अपना जीवन तत्व नवजात कोषा को दे जाती हैं, इस प्रकार मरण के साथ ही जीवन की अविच्छिन्न परम्परा निरन्तर चलती रहती है। उन्हें मरण धर्मा होने के साथ-साथ अजर-अमर भी कह सकते हैं। वस्त्र बदलने जैसी प्रक्रिया चलते रहने पर भी उनकी अविनाशी सत्ता पर कोई आंच नहीं आती।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ १०२
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ६४)

अभिमानी से दूर हैं ईश्वर
    
अन्तर्प्रज्ञा से प्रकाशित देवर्षि के अन्तस को यह सत्य समझने में देर न लगी। वे कहने लगे, ‘‘मेरे इस अनुभव को यूँ तो युगों बीत गए, परन्तु ऐसा लगता है जैसे मानो यह अभी कल की ही बात हो। हिमवान के इस आंगन में यह अनुभव मुझे मिला था। हिमालय के श्वेत-शुभ्र शिखरों की आभा तब भी ऐसी ही थी। भगवान सूर्यदेव एवं अमृतवर्षी चन्द्रदेव तब भी इसी तरह इन श्वेत शिखरों से अपनी स्वर्ण व रजत रश्मियाँ बिखरते रहते थे। यहाँ की आध्यात्मिक प्रभा का अनोखापन, अनूठापन तो आप सभी अनुभव कर ही रहे हैं। मैं उन दिनों क्षीरशायी भगवान नारायण के पास से इस ओर आ रहा था। आकाशमार्ग से जाते समय हिमवान के अतुलनीय आध्यात्मिक वैभव ने मुझे खींच लिया। यहाँ के अनोखे चुम्बकत्व के प्रभाव से मैं आकाश से धरा पर आ गया।
    
आने के बाद बहुत समय तक हिमालय के हिम शिखरों में एकाकी भ्रमण करता रहा। यहाँ के पर्वतीय पादप, पक्षी एवं पशु मेरे सहचर हो गए। इस आनन्द भ्रमण में कितना समय बीता, पता ही न चला। पर तभी मन में सात्त्विक हिलोर उठी और मैं एक हिमगुहा में बैठकर समाधिमग्न हो गया। मेरे पूरे अस्तित्त्व में भगवत् सान्निध्य की सुवास फैल गयी। मेरी इस समाधि से स्वर्गाधिपति को पता नहीं क्यों भय हो आया और उन्होंने काम कला के अधिपति पुष्पधन्वा कामदेव को अपने सम्पूर्ण सहचरों के साथ भेज दिया। उन्होंने यहाँ हिमालय के आँगन में आकर अपनी कला की अनेकों छटाएँ बिखेरीं, अप्सराओं के सौन्दर्य एवं कामदेव के अनगिन बाण मुझ पर बरसते रहे, पर मैं प्रभु स्मरण के कवच के कारण सुरक्षित रहा। बाद में जब मेरा समाधि से व्युत्थान हुआ, तो उन सबने मुझसे चरणवन्दन के साथ क्षमा मांगी। मैंने भी सहज भाव से उन्हें क्षमा कर दिया।
    
यहाँ तक का घटनाक्रम एक सात्त्विक स्वप्न की तरह गुजर गया। परन्तु बाद में पता नहीं कहाँ से राजसिक अहं मेरी चित्तभूमि में अंकुरित हो गया और जो घटनाक्रम भगवद्कृपा से घटित हुआ था, मैंने स्वयं को उसका कर्त्ता मान लिया। फिर क्या था मेरा चित्त अज्ञान के आवरण एवं कर्त्तापन के मल के कारण धुँधला हो गया। फिर तो मैंने जहाँ-तहाँ अपने कर्त्तृत्व का बखान करना शुरू कर दिया। देवलोक में मुझे प्रशंसक मिले। इस प्रशंसा से मैं फूला न समाया और फिर ब्रह्मलोक पहुँचा, वहाँ भगवान ब्रह्मा ने मुझे चेताया। परन्तु अहं को भला चेतावनी कब पसन्द आती है सो मैंने शिवलोक प्रस्थान किया, वहाँ पर जब मैंने अपनी अहंकथा सुनायी तो माता पार्वती सहित भगवान सदाशिव ने मुझे चेताया- देवर्षि! यह कथा तुमने मुझे तो कह सुनायी, परन्तु इसे भगवान श्रीहरि से न कहना।
    
परन्तु प्रशंसित अहं तो तीव्र ज्वर की तरह सम्पूर्ण चिन्तन चेतना को ग्रस लेता है। उसी के प्रभाव से मैंने भगवान विष्णु के पास पहुँचकर अपनी अभिमान गाथा को बढ़ा-चढ़ाकर कह सुनाया। उत्तर में प्रभु मुस्कराए। उनकी इस मुस्कान का रहस्य मुझे तो नहीं समझ में आया, परन्तु भगवती योगमाया प्रभु का इंगित समझ गयी। वह जान गयीं कि प्रभु मेरे अभिमान का हरण करना चाहते हैं। सो उन्होंने एक लीलामय राज्य की रचना कर दी जिसके राजा शीलनिधि एवं राजकन्या विश्वमोहिनी थी। राह में गुजरते हुए मैं उनके नगर गया और उस राजकन्या से मिला। उसकी हस्तरेखाएँ पढ़ीं तो बस मैं काम-राग से विह्वल हो गया। अपनी इसी विह्वलता में मैंने भगवान से प्रार्थना भी कर डाली, कि प्रभु मेरा उस कन्या से विवाह करा दें।
    
उस कन्या के विवाह स्वयंवर में भगवान शिव के गण भी थे। उन्होंने बहुत चेताने की कोशिश की। परन्तु अहंता से अन्धा, काम से विह्वल और राग में रंगा मन भला कब किसकी सुना करता है। उन्होंने मेरा उपहास भी किया, फिर भी मैं नहीं चेता। मेरी आँखें तो तब खुलीं जब उस राजकन्या ने भगवान विष्णु को वरमाला पहना दी। अब तो मेरा राग, रोष में बदल गया। फिर तो मैंने उन प्रभु को शाप भी दे डाला। शाप-वरदान जिन्हें कभी छू भी नहीं सकता, उन भक्तवत्सल भगवान ने मेरा शाप शिरोधार्य भी कर लिया। प्रभु के अधरों पर अभी भी मुस्कान थी। इस मुस्कान ने मेरी चेतना पर छाए अँधेरे को हटा दिया, मिटा दिया। होश आने पर मैंने प्रभुलीला का सत्य अनुभव किया। अपने अहं विनाश का वह आयोजन मुझे तब समझ में आया।
    
परन्तु अब करता भी क्या? भगवान् से ही मैंने प्रायश्चित्त विधान की याचना की। उन्होंने कृपा करके भगवान शिव के शतनाम जप का उपदेश दिया। प्रभु आदेश को शिरोधार्य करके मैंने वैसा ही किया। सदाशिव की कृपा से ज्ञान, वैराग्य और भक्ति की महासम्पदा मुझे फिर से मिल गयी। यह अनुभव मुझे आज भी भुलाए नहीं भूलता है। मेरे हृदय में हमेशा यह अनुभव सत्य सदा ही दीप्त रहता है कि भगवान् के भक्त को अहं शोभा नहीं देता। उसका कल्याण सदा ही अपने प्रभु का निमित्त बनने में है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ११४

बुधवार, 15 सितंबर 2021

👉 सेवाभाव ओर संस्कार

एक संत ने एक विश्व- विद्यालय का आरंभ किया, इस विद्यालय का प्रमुख उद्देश्य था ऐसे संस्कारी युवक-युवतियों का निर्माण करना था जो समाज के विकास में सहभागी बन सकें।

एक दिन उन्होंने अपने विद्यालय में एक वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया, जिसका विषय था - "जीवों पर दया एवं प्राणिमात्र की सेवा।"

निर्धारित तिथि को तयशुदा वक्त पर विद्यालय के कॉन्फ्रेंस हॉल में प्रतियोगिता आरंभ हुई।

किसी छात्र ने सेवा के लिए संसाधनों की महत्ता पर बल देते हुए कहा कि- हम दूसरों की तभी सेवा कर सकते हैं, जब हमारे पास उसके लिए पर्याप्त संसाधन हों।

वहीं कुछ छात्रों की यह भी राय थी कि सेवा के लिए संसाधन नहीं, भावना का होना जरूरी है।

इस तरह तमाम प्रतिभागियों ने सेवा के विषय में शानदार भाषण दिए।

आखिर में जब पुरस्कार देने का समय आया तो संत ने एक ऐसे विद्यार्थी को चुना, जो मंच पर बोलने के लिए ही नहीं आया था।

यह देखकर अन्य विद्यार्थियों और कुछ शैक्षिक सदस्यों में रोष के स्वर उठने लगे।

संत ने सबको शांत कराते हुए बोले:- 'प्यारे मित्रो व विद्यार्थियो, आप सबको शिकायत है कि मैंने ऐसे विद्यार्थी को क्यों चुना, जो प्रतियोगिता में सम्मिलित ही नहीं हुआ था।
दरअसल, मैं जानना चाहता था कि हमारे विद्यार्थियों में कौन सेवाभाव को सबसे बेहतर ढंग से समझता है।

इसीलिए मैंने प्रतियोगिता स्थल के द्वार पर एक घायल बिल्ली को रख दिया था।
आप सब उसी द्वार से अंदर आए, पर किसी ने भी उस बिल्ली की ओर आंख उठाकर नहीं देखा।

यह अकेला प्रतिभागी था, जिसने वहां रुक कर उसका उपचार किया और उसे सुरक्षित स्थान पर छोड़ आया।

सेवा-सहायता डिबेट का विषय नहीं, जीवन जीने की कला है।
जो अपने आचरण से शिक्षा देने का साहस न रखता हो, उसके वक्तव्य कितने भी प्रभावी क्यों न हों, वह पुरस्कार पाने के योग्य नहीं है।'

सदैव प्रसन्न रहिये।
जो प्राप्त है, पर्याप्त है।।

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ६३)

एक ही सत्ता ओत-प्रोत है

आइन्स्टाइन एक ऐसे फार्मूले की खोज में थे, जिससे जड़ और चेतन की भिन्नता को एकता में निरस्त किया जा सके। प्रकृति अपने आप में पूर्ण नहीं है, उसे पुरुष द्वारा प्रेरित प्रोत्साहित और फलवती किया जा रहा है। यह युग्म जब तक सिद्ध नहीं हो जाता, तब तक विज्ञान के कदम लंगड़ाते हुए ही चलेंगे।

जड़ और चेतन के बीच की खाई अब पटने ही वाली है। द्वैत को अद्वैत में परिणत करने का समय अब बहुत समीप आ गया है। विज्ञान क्रमशः इस दिशा में बढ़ रहा है कि वह जड़ को चेतन और चेतन को जड़ सिद्ध करके दोनों को एक ही स्थान पर संयुक्त बनाकर खड़ा करके। जीवन रासायनिक पदार्थों से—पंचतत्वों से बना है इस सिद्धान्त को सिद्ध करते-करते हम वहीं पहुंच जाते हैं जहां यह सिद्ध हो सकता है कि जीवन से पदार्थों की उत्पत्ति हुई है।

उपनिषद् का कहना है कि ईश्वर ने एक से बहुत बनने की इच्छा की, फलतः यह बहुसंख्यक प्राणी और पदार्थ बन गये। यह चेतन से जड़ की उत्पत्ति हुई। नर-नारी कामेच्छा से प्रेरित होकर रति कर्म में निरत होते हैं फलतः रज शुक्र के संयोग से भ्रूण का आरम्भ होता है। यह भी मानवी चेतना से जड़ शरीर की उत्पत्ति है। जड़ से चेतन उत्पन्न होता है, इसे पानी में काई और मिट्टी में घास उत्पन्न होते समय देखते हैं। गन्दगी में मक्खी-मच्छरों का पैदा होना, सड़े हुए फलों में कीड़े उत्पन्न होना यह जड़ से चेतन की उत्पत्ति है।

पदार्थ विज्ञानी इस बात पर बहुत जोर देते हैं कि ‘जड़’ प्रमुख है। चेतन उसी की एक स्थिति है। ग्रामोफोन का रिकार्ड और उसकी सुई का घर्षण प्रारम्भ होने पर आवाज आरम्भ हो जाती है, उसी प्रकार अमुक स्थिति में—अमुक अनुपात में इकट्ठे होने पर चेतन जीव की स्थिति में जड़ पदार्थ विकसित हो जाते हैं। जीव-विज्ञानी अपने प्रतिपादनों में इसी तथ्य को प्रमुखता देते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ १०१
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ६३)

अभिमानी से दूर हैं ईश्वर

देवर्षि के मुख से उच्चारित सूत्र को सुनकर ऋषिगण पुलकित हुए और देवगण हर्षित। सभी ने इस सच को जान लिया था कि यदि भावों में भक्ति समा जाय तो अध्यात्म के सभी तत्त्व स्वतः प्रकाशित हो जाते हैं। अन्तःकरण अनोखी उजास से भर जाता है। भगवान और भक्त के मिलन का प्रधान अवरोध अहं तो भक्ति की आहट पाते ही गिर जाता है। और यदि भक्ति न रहे तो साधन कोई भी, और कितने भी क्यों न किए जाएँ परन्तु विषय भोगों की लालसा-लपटें उठाने वाली हवाएँ, विवेक के दीप को कभी न कभी बुझा ही देती हैं। यदि चित्त चेतना में ऐसा हो गया तो फिर बचा रह जाता है बस अहं का उन्मादी खेल। साधना का सच और साधकों का सच युगों से यही रहा है। युग-युग में अध्यात्म पथ के पथिक यही अनुभव करते रहे हैं।
    
भगवान् के लीला पार्षद नारद के अन्तःसरोवर में उठ रही चिन्तन की इन उर्मियों ने उन्हें गहरे अतीत में धकेल दिया। वह बस भावमग्न हो सोचते रहे। हालांकि वहाँ उपस्थित सभी को उनके अगले सूत्र की प्रतीक्षा थी। पर उनके भावों का आवेग थम ही नहीं रहा था। वह अपनी अनुभूतियों में डूबे हुए थे। ये अनुभूतियाँ उन्हें आत्मसमीक्षा के लिए प्रेरित कर रही थीं। उनका अपना अतीत उनसे कुछ कह रहा था। यह वह गहरा अनुभव था जिसने उन्हें भक्ति का एक सत्य दिया था। जिसे वह अब तक अपने सूत्र में पिरो चुके थे। यह देवर्षि की अपनी आपबीती थी। हालांकि उन्होंने अपने अन्तर्भाव किसी से नहीं कहे परन्तु यह पार्थिव चेतना की भूमि नहीं थी, यह तो प्रज्ञा-लोक था। इस लोक में, प्रज्ञा के आलोक में सभी कुछ प्रकाशित था।
    
इस आलोक की प्रखर दीप्ति में रमे ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने मधुर स्वर में कहा- ‘‘देवर्षि हम सभी आपके भक्ति सत्य की प्रतीक्षा कर रहे हैं।’’ उत्तर में नारद ने अहं विगलित मौन के साथ उन्हें निहारा और फिर मन्द स्वर में बोले-
‘ईश्वरस्याप्यभिमानद्वेषित्वाद् दैन्यप्रियत्वाच्च’॥२७॥
ईश्वर को भी अभिमान से द्वेष है और दैन्य से प्रिय भाव है।’’
    
इस सूत्र का उच्चारण करते हुए नारद ने सभी महनीय जनों की ओर देखा, उनके मुख पर कुछ और अधिक सुनने की लालसा थी। वे जानना चाहते थे इस सूत्र में पिरोया रहस्यपूर्ण सत्य।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ११३

रविवार, 12 सितंबर 2021

👉 !! चिंता !!

एक राजा की पुत्री के मन में वैराग्य की भावनाएं थीं। जब राजकुमारी विवाह योग्य हुई तो राजा को उसके विवाह के लिए योग्य वर नहीं मिल पा रहा था।

राजा ने पुत्री की भावनाओं को समझते हुए बहुत सोच-विचार करके उसका विवाह एक गरीब संन्यासी से करवा दिया। राजा ने सोचा कि एक संन्यासी ही राजकुमारी की भावनाओं की कद्र कर सकता है।

विवाह के बाद राजकुमारी खुशी-खुशी संन्यासी की कुटिया में रहने आ गई। कुटिया की सफाई करते समय राजकुमारी को एक बर्तन में दो सूखी रोटियां दिखाई दीं। उसने अपने संन्यासी पति से पूछा कि रोटियां यहां क्यों रखी हैं? संन्यासी ने जवाब दिया कि ये रोटियां कल के लिए रखी हैं, अगर कल खाना नहीं मिला तो हम एक-एक रोटी खा लेंगे। संन्यासी का ये जवाब सुनकर राजकुमारी हंस पड़ी। राजकुमारी ने कहा कि मेरे पिता ने मेरा विवाह आपके साथ इसलिए किया था, क्योंकि उन्हें ये लगता है कि आप भी मेरी ही तरह वैरागी हैं, आप तो सिर्फ भक्ति करते हैं और कल की चिंता करते हैं।

सच्चा भक्त वही है जो कल की चिंता नहीं करता और भगवान पर पूरा भरोसा करता है। अगले दिन की चिंता तो जानवर भी नहीं करते हैं, हम तो इंसान हैं। अगर भगवान चाहेगा तो हमें खाना मिल जाएगा और नहीं मिलेगा तो रातभर आनंद से प्रार्थना करेंगे।

ये बातें सुनकर संन्यासी की आंखें खुल गई। उसे समझ आ गया कि उसकी पत्नी ही असली संन्यासी है। उसने राजकुमारी से कहा कि आप तो राजा की बेटी हैं, राजमहल छोड़कर मेरी छोटी सी कुटिया में आई हैं, जबकि मैं तो पहले से ही एक फकीर हूं, फिर भी मुझे कल की चिंता सता रही थी। सिर्फ कहने से ही कोई संन्यासी नहीं होता, संन्यास को जीवन में उतारना पड़ता है। आपने मुझे वैराग्य का महत्व समझा दिया।

शिक्षा:
अगर हम भगवान की भक्ति करते हैं तो विश्वास भी होना चाहिए कि भगवान हर समय हमारे साथ है। उसको (भगवान) हमारी चिंता हमसे ज्यादा रहती हैं।

कभी आप बहुत परेशान हों, कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा हो तो आप आँखें बंद करके विश्वास के साथ पुकारें, सच मानिये थोड़ी देर में आपकी समस्या का समाधान मिल जायेगा।

सदैव प्रसन्न रहिये।
जो प्राप्त है, पर्याप्त है।।

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ६२)

तत्वदर्शन से आनन्द और मोक्ष

इसी उपनिषद् में आगे क्रमशः इसे विक्षेप से आत्मा, आत्मा से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी आदि उत्पन्न हुए बताये हैं। वस्तुतः यह परतें एक ही तत्व की क्रमशः स्थूल अवस्थायें हैं, जो स्थूल होता गया वह अधिकाधिक दृश्य, स्पर्श होता गया। ऊपरी कक्षा अर्थात् ईश्वर की ओर वही तत्व अधिक चेतन और निर्विकार होता गया। वायु की लहरों के समान विभिन्न तत्व प्रतिभासिक होते हुए भी संसार के सब तत्व एक ही मूल तत्व से आविर्भूत हुए हैं उसे महाशक्ति कहा जाये, आत्मा या परमात्मा सब एक ही सत्ता के अनेक नाम हैं।

विज्ञान की आधुनिक जानकारियां भी उपरोक्त तथ्य का ही प्रतिपादन करती हैं। कैवल्योपनिषद् में पाश्चात्य वैज्ञानिक मान्यताओं और अपने पूर्वात्म दर्शन को एक स्थान पर लाकर दोनों में सामंजस्य व्यक्त किया गया है और कहा है—

यत् परं ब्रह्म सर्वात्मा विश्वस्यायतनं महत् ।
सूक्ष्मात् सूक्ष्मतरं नित्यं तत्वमेव त्वमेव तत् ।।16।।
अणोरणीयान्हमेव तद्वत्महान्
विश्वमिदं विचित्रम् ।
पुरातनोऽहं पुरुषोऽमीशो
हिरण्ययोऽहं शिवरूपमस्मि ।।20।।

अर्थात्—जिस परब्रह्म का कभी नाश नहीं होता, जिसे सूक्ष्म यन्त्रों से भी नहीं देखा जा सकता जो इस संसार के इन समस्त कार्य और कारण का आधारभूत है, जो सब भूतों की आत्मा है, वही तुम हो, तुम वही हो। और ‘‘मैं छोटे से भी छोटा और बड़े से भी बड़ा हूं, इस अद्भुत संसार को मेरा ही स्वरूप मानना चाहिये। मैं ही शिव और ब्रह्मा स्वरूप हूं, मैं ही परमात्मा और विराट् पुरुष हूं।’’

उपरोक्त कथन में और वैज्ञानिकों द्वारा जीव-कोश से सम्बंधित जो अब तक की उपलब्धियां हैं, उनमें पाव-रत्ती का भी अन्तर नहीं है। प्रत्येक जीव-कोश का नाभिक (न्यूक्लियस) अविनाशी तत्व है वह स्वयं नष्ट नहीं होता पर वैसे ही अनेक कोश (सेल्स) बना देने की क्षमता से परिपूर्ण है। इस तरह कोशिका की चेतना को ही ब्रह्म की इकाई कह सकते हैं, चूंकि वह एक आवेश, शक्ति या सत्ता है, चेतन है, इसलिये वह अनेकों अणुओं में भी व्याप्त इकाई ही है। इस स्थिति को जीव भाव कह सकते हैं पर तो भी उनमें पूर्ण ब्रह्म की सब क्षमतायें उसी प्रकार विद्यमान् हैं, जैसे समुद्र की एक बूंद में पानी के सब गुण विद्यमान् होते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ १००
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...