गुरुवार, 7 मार्च 2019

👉 Symbolic painting for Opportunity

There was an artist who exhibited a show for his paintings. Hundreds of rich people from the city came to see those. A girl also came to see that exhibition. She saw all paintings but she noticed  one painting where the face of the person is covered with hair and feet were with wings. Below the picture was written in big letters "Opportunity". The picture was a bit crappy, so people ignored it and went forward.

The attention of the girl was there only on this painting, right from the beginning. She reached the artist and quietly asked - 'Sir, whose painting is this? Why have you covered its face, and what is the secret of wings in its feet? 'The artist replied - 'Dear, this is the picture of "Opportunity". Because the ordinary person cannot recognize it, so I have covered its face so that people get curious on looking at it. Winged feet means today’s opportunities which just flies and will not come again. So should grab it before it flies. Make use of it. The girl understood the significance and immediately got involved to build her life beautiful.

Time is life itself. No one has any control on it!

Pragya Puran Part 1

👉 खुश रहना है तो जितना है उतने में ही संतोष करो

एक बार की बात है। एक गाँव में एक महान संत रहते थे। वे अपना स्वयं का आश्रम बनाना चाहते थे जिसके लिए वे कई लोगो से मुलाकात करते थे। और उन्हें एक जगह से दूसरी जगह यात्रा के लिए जाना पड़ता था। इसी यात्रा के दौरान एक दिन उनकी मुलाकात एक साधारण सी कन्या विदुषी से हुई। विदुषी ने उनका बड़े हर्ष से स्वागत किया और संत से कुछ समय कुटिया में रुक कर विश्राम करने की याचना की। संत उसके व्यवहार से प्रसन्न हुए और उन्होंने उसका आग्रह स्वीकार किया।

विदुषी ने संत को अपने हाथो से स्वादिष्ट भोज कराया। और उनके विश्राम के लिए खटिया पर एक दरी बिछा दी। और खुद धरती पर टाट बिछा कर सो गई। विदुषी को सोते ही नींद आ गई। उसके चेहरे के भाव से पता चल रहा था कि विदुषी चैन की सुखद नींद ले रही हैं। उधर संत को खटिया पर नींद नहीं आ रही थी। उन्हें मोटे नरम गद्दे की आदत थी जो उन्हें दान में मिला था। वो रात भर चैन की नींद नहीं सो सके और विदुषी के बारे में ही सोचते रहे सोच रहे थे कि वो कैसे इस कठोर जमीन पर इतने चैन से सो सकती हैं।

दूसरे दिन सवेरा होते ही संत ने विदुषी से पूछा कि – तुम कैसे इस कठोर जमीन पर इतने चैन से सो रही थी। तब विदुषी ने बड़ी ही सरलता से उत्तर दिया – हे गुरु देव! मेरे लिए मेरी ये छोटी सी कुटिया एक महल के समान ही भव्य हैं| इसमें मेरे श्रम की महक हैं। अगर मुझे एक समय भी भोजन मिलता हैं तो मैं खुद को भाग्यशाली मानती हूँ। जब दिन भर के कार्यों के बाद मैं इस धरा पर सोती हूँ तो मुझे माँ की गोद का आत्मीय अहसास होता हैं। मैं दिन भर के अपने सत्कर्मो का विचार करते हुए चैन की नींद सो जाती हूँ। मुझे अहसास भी नहीं होता कि मैं इस कठोर धरा पर हूँ।

यह सब सुनकर संत जाने लगे। तब विदुषी ने पूछा – हे गुरुवर! क्या मैं भी आपके साथ आश्रम के लिए धन एकत्र करने चल सकती हूँ ? तब संत ने विनम्रता से उत्तर दिया – बालिका! तुमने जो मुझे आज ज्ञान दिया हैं उससे मुझे पता चला कि मन का सच्चा का सुख कहाँ हैं। अब मुझे किसी आश्रम की इच्छा नहीं रह गई।

यह कहकर संत वापस अपने गाँव लौट गये और एकत्र किया धन उन्होंने गरीबो में बाँट दिया और स्वयं एक कुटिया बनाकर रहने लगे।

जिसके मन में संतोष नहीं है सब्र नहीं हैं वह लाखों करोड़ों की दौलत होते हुए भी खुश नहीं रह सकता। बड़े बड़े महलों, बंगलों में मखमल के गद्दों पर भी उसे चैन की नींद नहीं आ सकती। उसे हमेशा और ज्यादा पाने का मोह लगा रहता है। इसके विपरीत जो अपने पास जितना है उसी में संतुष्ट है, जिसे और ज्यादा पाने का मोह नहीं है वह कम संसाधनों में भी ख़ुशी से रह सकता है।

👉 चन्दन का कोयला बनाया

एक राजा वन भ्रमण को गया। रास्ता भूल जाने पर भूख प्यास से पीड़ित वह एक वनवासी की झोपिड़ी पर पहुँचा। समय पर मिले रूखे- सूखे आतिथ्य ने उसे तृप्त कर दिया। चलते समय उसने उस वनवासी से कहा- ' हम इस राज्य के शासक हैं। तुम्हारी सज्जनता से प्रभावित होकर चन्दन का एक बाग तुम्हें देते है। तुम्हारा शेष जीवन आनन्द से बीतेगा। ''

चन्दन का वन तो उसे मिल गया पर चन्दन का क्या महत्व है और उससे किस प्रकार लाभ उठाया जा सकता है- इसकी जानकारी न होने से वनवासी चन्दन के वृक्ष काटकर उनका कोयला बनाकर नगर में बेचने लगा। इस प्रकार किसी तरह उसके गुजारे की व्यवस्था बन गयी।

धीरे- धीरे सभी वृक्ष समाप्त हो गये। एक अन्तिम पेड़ बचा। वर्षा होने के कारण कोयला न बन सका तो उसने लकड़ी बेचने का निश्चय किया। लकड़ी का गट्ठा लेकर जब बाजार में पहुँचा तो सुगन्ध से प्रभावित लोगों ने कहा उसका भारी मूल्य चुकाया। आश्चर्यचकित वनवासी ने इसका कारण पूछा तो लोगों ने कहा- ' यह चन्दन काष्ठ है, बहुत मूल्यवान है। यदि तुम्हारे पास ऐसी ही और लकड़ी हो तो उसका प्रचुर मूल्य प्राप्त कर सकते हो। ''

वनवासी अपनी नासमझी पर पश्चात्ताप करने लगा कि उसने इतना बड़ा बहुमूल्य चन्दन वन कोयले बनाकर कौड़ी मोल बेच दिया। पछताते हुए नासमझ को सान्त्वना देते हुए एक विचारशील व्यक्ति ने कहा- 'मित्र! पछताओ मत, यह सारी दुनियाँ तुम्हारी ही तरह नासमझ है। जीवन का एक- एक क्षण बहुमूल्य है पर लोग उसे वासना और तृष्णाओं के बदले कौड़ी मोल में गँवाते है। तुम्हारे पास जो एक वृक्ष बचा है, उसी का सदुपयोग कर लो तो कम नहीं। '' बहुत गँवाकर भी अन्त में यदि कोई मनुष्य सम्भल जाता है तो वह भी बुद्धिमान ही माना जाता है।

अनुपात उनका ही अधिक होता है जो सब कुछ समाप्त होने पर होश में आते हैं। मनुष्य शरीर मिलने के बाद बिरले ही ऐसे होते हैं जो उसकी अभ्यर्थना- स्तवन देवता की तरह करते हैं। लेकिन जो करते हैं वे उस अक्षय आनन्द को भी प्राप्त करते हैं जो मानव की अमोल निधि है।

📖 प्रज्ञा पुराण भाग १

👉 माँ

‘माँ’ के स्नेहिल स्मरण से हम सबके मन-प्राण अनोखी पुलक से भर जाते हैं। अनेकों अहसास, अगणित अनुभूतियाँ और असंख्य भावनाएँ अन्तःकरण के आँगन में बरबस बरस पड़ती हैं। यादों के सघन घन बार-बार अन्तर्गगन में उमड़ते हैं और माँ के प्यार का जीवन-जल मुरझाए-प्यासे प्राणों पर उड़ेल देते हैं। ऐसा लगता है कि अपनी माँ सुदूर किसी लोक में नहीं, अपने पास है, एकदम पास। उसके आँचल का छोर हमें छू रहा है। उसके आशीषों की छाँव में अपना जीवन सुरक्षित है।
  
‘माँ’ तुम्हारे सिवा हम बच्चों का और है भी कौन? जब-तब, समय-कुसमय हम सब सिर्फ तुम्हें ही पुकारते हैं। जीवन की हर चोट, हर दुःख-दर्द में हे माँ! हमें केवल तुम्हारी याद आती है। आँसू भरी आँखों और पीड़ा से विकल हमारे जीवन के लिए तुम्हारी याद ही एकमात्र औषधि है। हमें अच्छी तरह से मालूम है कि हमारी कमियों-कमजोरियों, बेवकूफियों, नादानियों को एक तुम्हीं अनदेखा करके हमको अपना सकती हो।
  
‘माँ’ तुम्हारी क्षमा अपार है। इसकी न तो कोई सीमा है और न ही शर्तबन्दी। क्षमा ही तुम्हारा स्वभाव है। क्षमा तुमसे ऐसे बहती है जैसे फूल से गन्ध बहती है, दीए से रोशनी बहती है। जैसे पहाड़ों से जल उतरता है, मेघों से वर्षा होती है। हे क्षमास्वरूपिणी माँ! सृष्टि के हर स्थूल-सूक्ष्म विधान में प्रत्येक छोटी-बड़ी गलती या अपराध के लिए कोई न कोई सजा निश्चित है। सृजेता के कठोर कर्मफल विधान से सभी बँधे हैं। यहाँ तक कि स्वयं सृजेता भी कर्मफल की हस्तरेखाओं को स्वीकार करता है। परन्तु हे क्षमामयी! तुम्हारी क्षमा शक्ति से जीवन के महापातक भी पल में विनष्ट होते हैं। यह सृष्टि के समस्त विधानों से अनन्त गुना समर्थ है।
  
‘माँ’ यह एकाक्षरी महामंत्र ही हमारा प्राण है। माँ! माँ!! जपते हुए ही हमारे ऊपर तुम्हारी कृपा किरणों की वृष्टि हुई है। जीवन में अलौकिक अनुभूतियों के अनेकों सुअवसर आए हैं। तुम्हारी लीला-कथा का पुण्य स्मरण भी इन्हीं में से एक है। हे माँ! अब ऐसी कृपा करो कि तुम्हारी पुण्य कथा तुम्हारे ही अमित प्रभाव से हम सब बच्चों को तुम्हारी अविरल भक्ति का वरदान देते हुए मातृ तत्त्व का बोध करा सके।

✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 7 March 2019


👉 आज का सद्चिंतन 7 March 2019


👉 आत्मचिंतन के क्षण 7 March 2019

★ अपने कार्यों में भूलें हो जाना, असफलताएँ मिलना, कठिनाइयाँ आना एक स्वाभाविक बात है। कई लोग इसके बारे में सोच-विचार में इतने खो जाते हैं कि सारा शक्ति प्रवाह उसी केन्द्र पर लग जाता है। अन्य कार्यों का ध्यान ही नहीं रहता। अपनी भूलों, गलतियों के पश्चाताप-ग्लानि में ही सारी शक्ति नष्ट हो जाती है। इससे दुहरी हानि होती है। काम की प्रगति रूक जाती है और चिन्ता सुरसा की तरह घेर लेती है।

◆ आज वक्ता और लेखक स्वयं वैसा आचरण नहीं करते जैसा कि दूसरों से कराना चाहते हैं, जबकि चारित्रिक शिक्षा के लिए यह आवश्यक है कि उपदेशक दूसरों के सामने अपना आदर्श उपस्थित करें। यदि सद्भावनाओं की संपत्ति को संसार में बढ़ाया जाना उचित है और आवश्यक है, तो उसका प्रथम प्रयोग अपने आप पर से ही प्रारंभ करना चाहिए।

◇ प्रत्येक व्यक्ति  स्वयमेव ही अपने आपका एक चलता-फिरता, बोलता विज्ञापन है। यह भी सच है कि विज्ञापन जैसा होगा, उसका प्रभाव भी वैसा ही पड़ेगा। बातचीत, वेशभूषा, रहन-सहन से मनुष्य का व्यक्तित्व प्रदर्शित होता है। जिन बुरी आदतों से अपना गलत विज्ञापन हो, अपना फूहड़पन जाहिर हो, उन्हें छोड़ने का प्रयत्न करना आवश्यक है।

■ विचारों का परिष्कार एवं प्रसार करके आप मनुष्य से महामनुष्य, दिव्य मनुष्य और यहाँ तक ईश्वरत्त्व तक प्राप्त कर सकते हैं। इस उपलब्धि में आड़े आने के लिए कोई अवरोध संसार में नहीं। यदि कोई अवरोध हो सकता है, तो वह स्वयं ेका आलस्य, प्रमाद, असंमय अथवा आत्म अवज्ञा का भाव। इस अनंत शक्ति का द्वार सबके लिए समान रूप से खुला है और यह परमार्थ का पुण्य पथ सबके लिए प्रशस्त है। अब कोई उस पर चले या न चले यह उसकी अपनी इच्छा पर निर्भर है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 परिवार रचना की दो परम्पराएँ

परिवारों का गठन दो प्रकार का होता है एक रक्त-परिवार, दूसरा विचार-परिवार। माता-पिता के खून से बनकर जो परिवार बनता है वह घर,कुटुम्ब कहलाता है। भावनाओं और आकांक्षाओं की एकता वाले लोग भी एक कुटुम्बी ही बन जाते हैं। चोर, डाकू, जुआरी, नशेबाज जब एक स्वभाव और एक कार्यक्रम के कारण अत्यन्त घनिष्ट बन जाते हैं तो आध्यात्मिक-भावनाओं,प्रेरणाओं और योजनाओं से प्रभावित व्यक्ति आपस में घनिष्ट क्यों न होंगे? रक्त के आधार पर बना हुआ संगठन वंश परिवार कहलाते हैं और भावनाओं के आधार पर बना संगठन ज्ञान-परिवार या गुरु-परिवार कहलाता है।

प्राचीनकाल में गोत्रों की रचना दोनों ही प्रकार से हुई है, वंश परम्परा से भी और गुरु परम्परा से भी। कश्यप, भारद्वाज, गर्ग, वशिष्ठ आदि गोत्र ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र चारों ही वर्णों में मिलते हैं। इससे यह भ्रम होता है कि उन ऋषियों के वंशज चारों वर्णों में कैसे हुए? बात यह है कि गोत्र पुत्र परम्परा से ही नहीं, शिष्य परम्परा से भी चले हैं। इसी तरह से सब वर्णों में ऋषियों के गोत्र मिलते हैं। हमें अपने वंश परिवार के विकास का नहीं, गुरु परिवार के, ज्ञान परिवार के निर्माण का भी ध्यान रखना होगा और उसके विस्तार का भी ।

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (३.५१)

👉 Two approaches to forming a family

Family are formed in two ways—1. through blood relation, in other words by children being born to parents and 2. by people interested in some particular thoughts, principles or philosophy coming together.The family consisting of parents and their children is regarded as a household or a family in a conventional sense. People who share similar feelings, thoughts and aspirations too come close together and become just like a family. When even people like thieves, dacoits,gamblers, addicts, etc. can develop a bond of comradeship between one another owing to their similar likings, nature, traits and pursuits,there should be no reason why people influenced by spirituals feelings, ideas and activities wouldn’t develop a family kind of affinity with each other. The family unit formed of blood relatives is a hereditary family while a family formed as a result of people having similar feelings is called a knowledge family or a guru family i.e. a family affiliated to a spiritual teacher.

In ancient times, gotra i.e. clans or ancestry were formed by way of both the above modes—on the basis of people being born in the same lineage as well as people getting affiliated to a particular guru traditions. The renowned rishi clans (gotra) of Kashyap, Bhardwaj,Garga, Vashishta, and so on can be found in all four castes, i.e. Brahmin, Kshatria, Vaishya, Shudra. This may make one wonder how the descendants of each rishi happen to exist in all four castes (when the original rishi would have belonged to only one of the four castes).The reason being, those clans not only have the descendants of the same lineage by birth but also have those who happened to join in as disciples (irrespective of their race or caste). That is why the clans of rishis can be found in all four castes. The bottom line is that we shouldn’t think only about developing our hereditary family but should also take care of developing and expanding our guru family and its traditions.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Yug Nirman Yojna - philosophy, format and program -66 (3.51)

👉 प्रज्ञा पुराण (भाग 1) श्लोक 31 से 33

निराकारत्वहेतोश्च प्रेरणां कर्तुमीश्वर: ।
शरीरिण्श्च गृह्णामि गतिसञ्चालने तत:॥३१॥
अपेक्ष्यन्ते वरिष्ठाश्च आत्मान: कार्यसिद्धये ।
अग्रदूतानिमान् कर्तुं पुष्याम्यन्विष्य सर्वथा॥३२॥
ततो निजप्रभावेण वर्चस्वेन च ते समम् ।
समुदायं दिशां नेतुं भिन्नां कुर्युर्वृतिं पराम्॥३३॥

टीका:- निराकार होने के कारण मैं प्रेरणा ही भर सकता हूँ। गतिविधियों के लिए शरीरधारियों का आश्रय लेना पड़ता है, इसके लिए वरिष्ठ आत्माएँ चाहिए । इन दिनों अग्रदूत बनाने के लिए उन्हीं को खोजना, उभारना और सामर्थ्यवान् बनाना है, जिससे कि अपने प्रभाव, वर्चस्व से वें समूचे समुदाय की दिशा बदल: सके, समूचे वातावरण में परिवर्तन प्रस्तुत कर सकें॥३१-३३॥

व्याख्या:- अवतार प्रकटीकरण का हमेशा यही स्वरूप रहा है । भगवान् प्रेरणा देते हैं एवं उस आदर्शवादी प्रेरणा को शरीरधारी क्रिया में परिणत करते हैं। ईश्वरीयसत्ता जब भी अवतरित होती है, उसके साथ लोक-कल्याण की भावनाओं से सम्पन्न देवात्माएँ भी धरती पर अवतरित होती हैं, वरिष्ठ अग्रगामी-अवतारों के पार्षदगपा ही इस प्रेरणा संचार को ग्रहण करते हैं ।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञा पुराण (भाग १) पृष्ठ 16

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...