मंगलवार, 15 जून 2021

👉 आपसी मतभेद से विनाश:-

एक बहेलिए ने एक ही तरह के पक्षियों के एक छोटे से झुंड़ को खूब मौज-मस्ती करते देखा तो उन्हें फंसाने की सोची. उसने पास के घने पेड़ के नीचे अपना जाल बिछा दिया. बहेलिया अनुभवी था, उसका अनुमान ठीक निकला. पक्षी पेड़ पर आए और फिर दाना चुगने पेड़ के नीचे उतरे. वे सब आपस में मित्र थे सो भोजन देख समूचा झुंड़ ही एक साथ उतरा. पक्षी ज्यादा तो नहीं थे पर जितने भी थे सब के सब बहेलिये के बिछाए जाल में फंस गए.

जाल में फंसे पक्षी आपस में राय बात करने लगे कि अब क्या किया जाए. क्या बचने की अभी कोई राह है?  उधर बहेलिया खुश हो गया कि पहली बार में ही कामयाबी मिल गयी. बहेलिया जाल उठाने को चला ही था कि आपस में बातचीत कर सभी पक्षी एकमत हुए. पक्षियों का झुंड़ जाल ले कर उड़ चला.
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बहेलिया हैरान खड़ा रह गया. उसके हाथ में शिकार तो आया नहीं, उलटा जाल भी निकल गया. अचरज में पड़ा बहेलिया अपने जाल को देखता हुआ उन पक्षियों का पीछा करने लगा. आसमान में जाल समेत पक्षी उड़े जा रहे थे और हाथ में लाठी लिए बहेलिया उनके पीछे भागता चला जा रहा था. रास्ते में एक ऋषि का आश्रम था. उन्होंने यह माजरा देखा तो उन्हें हंसी आ गयी. ऋषि ने आवाज देकर बहेलिये को पुकारा. बहेलिया जाना तो न चाहता था पर ऋषि के बुलावे को कैसे टालता. उसने आसमान में अपना जाल लेकर भागते पक्षियों पर टकटकी लगाए रखी और ऋषि के पास पहुंचा. 

ऋषि ने कहा- तुम्हारा दौड़ना व्यर्थ है. पक्षी तो आसमान में हैं. वे उड़ते हुए जाने कहां पहुंचेंगे, कहां रूकेंगे. तुम्हारे हाथ न आयेंगे. बुद्धि से काम लो, यह बेकार की भाग-दौड़ छोड़ दो.

बहेलिया बोला- ऋषिवर अभी इन सभी पक्षियों में एकता है. क्या पता कब किस बात पर इनमें आपस में झगड़ा हो जाए. मैं उसी समय के इंतज़ार में इनके पीछे दौड़ रहा हूं. लड़-झगड़ कर जब ये जमीन पर आ जाएंगे तो मैं इन्हें पकड़ लूंगा.
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यह कहते हुए बहेलिया ऋषि को प्रणाम कर फिर से आसमान में जाल समेत उड़ती चिड़ियों के पीछे दौड़ा. एक ही दिशा में उड़ते उड़ते कुछ पक्षी थकने लगे थे. कुछ पक्षी अभी और दूर तक उड़ सकते थे.

थके पक्षियों और मजबूत पक्षियों के बीच एक तरह की होड़ शुरू हो गई. कुछ देर पहले तक संकट में फंसे होने के कारण जो एकता थी वह संकट से आधा-अधूरा निकलते ही छिन्न-भिन्न होने लगी. थके पक्षी जाल को कहीं नजदीक ही उतारना चाहते थे तो दूसरों की राय थी कि अभी उड़ते हुए और दूर जाना चाहिए. थके पक्षियों में आपस में भी इस बात पर बहस होने लगी कि किस स्थान पर सुस्ताने के लिए उतरना चाहिए. जितने मुंह उतनी बात. सब अपनी पसंद के अनुसार आराम करने का सुरक्षित ठिकाना सुझा रहे थे. एक के बताए स्थान के लिए दूसरा राजी न होता. देखते ही देखते उनमें इसी बात पर आपस में ही तू-तू, मैं-मैं हो गई. एकता भंग हो चुकी थी. कोई किधर को उड़ने लगा कोई किधर को. थके कमजोर पक्षियों ने तो चाल ही धीमी कर दी. इन सबके चलते जाल अब और संभल न पाया. नीचे गिरने लगा. अब तो पक्षियों के पंख भी उसमें फंस गए.  दौड़ता बहेलिया यह देखकर और उत्साह से भागने लगा. जल्द ही वे जमीन पर गिरे.

बहेलिया अपने जाल और उसमें फंसे पक्षियों के पास पहुंच गया. सभी पक्षियों को सावधानी से निकाला और फिर उन्हें बेचने बाजार को चल पड़ा.
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तुलसीदासजी कहते है- जहां सुमति तहां संपत्ति नाना, जहां कुमति तहां विपत्ति निधाना. यानी जहां एक जुटता है वहां कल्याण है. जहां फूट है वहां अंत निश्चित है. महाभारत के उद्योग पर्व की यह कथा बताती है कि आपसी मतभेद में किस तरह पूरे समाज का विनाश हो जाता है.

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ३२)

सुख का केन्द्र और स्रोत आत्मा

जिस प्रकार हर प्रभात को हम जगते हैं और हर रात को गहरी नींद में सोते हैं ठीक उसी प्रकार थोड़ी अधिक विस्तृत भूमिका में जनम और मरण की प्रक्रिया चलती रहती हैं। सूर्य हर दिन डूबता, उगता है। जीवन भी नियत अवधि में उत्पन्न और समाप्त होता रहता है। जिस तरह एक के बाद दूसरे दिन का लम्बा जीवनयापन चलता रहता है उसी प्रकार एक जन्म के बाद दूसरे जन्म की श्रृंखला चलती है। इसमें न कोई दुख की बात है न शोक की, न डर की। यह तथ्य यदि सामने प्रस्तुत रहे तो फिर जीवन की लम्बी श्रृंखला की योजना इस ध्यान में रखकर ही बनाई जानी चाहिये। यदि भावी जीवन को उज्ज्वल बनाने की सम्भावना सामने हो तो इसके लिये एक दिन के कष्ट, कठिनाई से व्यतीत करने की बात किसी को अखरती नहीं। ऐसी भूल भी कोई समझदार आदमी नहीं कर सकता कि एक दिन शौक-मौज मनाने के लिये कोई ऐसा अवांछनीय कार्य कर डाला जाय, जिसके लिए जीवन के शेष समस्त दिन विपत्ति में फंसकर व्यतीत करने पड़ें। मनुष्य-जीवन की भोजन व्यवस्था बनाते समय भी यदि यही रीति-नीति अपनाई जा सके तो समझना चाहिये कि अनन्त जीवनों की जुड़ी हुई श्रृंखला का स्वरूप समझ लिया गया। ऐसी दशा में न वस्तुओं से लोभ हो सकता है और न व्यक्तियों से मोह। तब केवल वस्तुओं के सदुपयोग और व्यक्तियों के प्रति कर्तव्यपालन का भाव ही मन में उठता रह सकता है।

एक जन्म को ही पूरा जीवन मान बैठने से मनुष्य आज ही जी भरकर शौक-मौज करने के लिये आतुर होता है और भविष्य को अन्धकारमय बनाता है। यदि अनन्त जीवन में एक-एक जन्म को एक दिन की तरह नगण्य महत्व का माना जाय तो फिर विद्यार्थी के विद्याध्ययन, पहलवान और कृषक की तरह अनवरत कष्ट साधन करने के लिए उत्साह बना रहेगा और उज्ज्वल भविष्य की आस में आज की कठिनाइयों को तुच्छ माना जायेगा। पर होता ऐसा कहां है? इसका कारण वर्तमान को ही सब कुछ मान बैठने का मायावादी अज्ञान ही है। इसी में फंसकर मनुष्य दुर्बुद्धि अपनाता और पापकर्म करता है यदि माया का पर्दा हट जाय तो फिर बाल-क्रीड़ाओं को छोड़ कर वयस्कों और बुद्धिमानों जैसी गति-विधियां अपनाने की ही प्रवृत्ति बनेगी।

हम सब सराय में ठहरे हुये मुसाफिरों की तरह ही दिन व्यतीत कर रहे हैं। जल प्रवाह में बहते हुये तिनकों की तरह ही इकट्ठे हो गये हैं। जब मिल ही गये तो सराय के नियमों का सड़क पर चलने के कानूनों का क्षेत्र के नागरिक कर्तव्यों का पालन करना ही पड़ेगा, इस दृष्टि के विकसित होने पर यह अज्ञान हट जाता है कि कोई हमारा है या हम किसी के हैं। सब ईश्वर के हैं—और ईश्वर ही सबका हितू है। प्रत्येक प्राणी अपनी कर्म रज्जु में बंधा अपनी धुरी पर घूम रहा है। समय का परिपाक बहुतों को परस्पर जुड़ता और बिछुड़ता रहता है। यह सत्य यदि समझ में आ जाय तो न किसी के मोह बन्धन में बंधा जाय, न बांधा जाय। आत्मीयता के विस्तार द्वारा सम्पन्न होने वाला प्रेम हर किसी पर परिपूर्ण मात्रा में बखेरा जाय, पर उसमें विवेक का समुचित पुट रहे। परिवारी लोगों के प्रति अत्यधिक आसक्ति, पक्षपात और मोह के कारण उन्हें अनुचित लाभ देने की जो प्रवृत्ति पाई जाती है उससे हर किसी का घोर अहित होता है। मुफ्त में अनावश्यक सहायता पाकर परिवार के लोग मुफ्तखोर बनते हैं और अपने श्रम-साधनों से जो लोक-मंगल सम्भव था उससे समाज को वंचित रहना पड़ता है और व्यक्ति परमार्थ का कल्याणकारी लाभ लेने से वंचित रह जाता है। यह माया बन्धनों का परिणाम ही है जिसने मोह जाल में जकड़ कर विश्व हित को श्रेय साधना से वंचित करके पूर्णता के लक्ष्य तक पहुंचने में भारी व्यवधान प्रस्तुत किया।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ५१
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ३२)

भक्त का जीवन निर्द्वंद्व व सहज होता है
    
देवर्षि की बात सुनकर ऋषि क्रतु ने हामी भरी। महर्षि पुलह ने भी सहमति में अपना सिर हिलाया। तभी हिमालय के आँगन में कुछ हिमपक्षियों की कलरव ध्वनि गूँजी और वातावरण थोड़ा और मुखर हुआ। गायत्री के महासिद्ध ब्रह्मर्षि विश्वामित्र इस सम्पूर्ण अवधि में प्रायः मौन रहे थे, इन क्षणों में उन्होंने भी कुछ कहने की उत्सुकता दिखाई। परमज्ञानी ब्रह्मर्षि को बोलने के लिए उत्सुक देखकर सभी शान्त हो गये। सम्भवतः सब ब्रह्मर्षि को सुनने के लिए उत्सुक हो उठे थे। सभी की इस अपूर्व उत्सुकता को भाँपकर देवर्षि ने स्वयं कहा- ‘‘आप कुछ कहें ब्रह्मर्षि! हम सभी आपको सुनना चाहते हैं।
आप महान तपस्वी एवं अनेकों गुह्य विद्याओं के ज्ञाता हैं, आपके स्वर को सुनकर सभी अनुग्रहीत होंगे।’’
    
‘‘सो तो ठीक है देवर्षि!’’ यह महान् ऋषि विश्वामित्र का स्वर था। वह कह रहे थे कि- ‘‘सभी प्रकार के तप एवं विद्या से भक्ति श्रेष्ठ है। इससे बढ़कर अन्य कुछ भी नहीं। ऐसे ही एक परम भक्त आरण्यक मुनि के भक्तिमय जीवन का मैं साक्षी रहा हूँ। यदि आप सबकी सहमति हो तो मैं उनकी मधुर भक्तिगाथा की चर्चा करूँ।’’ ब्रह्मर्षि के इस आग्रह ने सभी को विभोर कर दिया। उनके इस कथन को सुनकर देवर्षि बोले- ‘‘आपको साधुवाद है ब्रह्मर्षि! हम सभी उन परम भागवत की गाथा सुनना चाहते हैं। आप अवश्य कहें, यह कथा प्रसंग सुनकर हम सभी धन्य होंगे।’’ देवर्षि की वाणी सभी को प्रीतिकर लगी और ब्रह्मर्षि विश्वामित्र अपनी अतीत की स्मृतियों में खो गये।
    
वह अतीत की इन यादों में भीगे हुए बोले- ‘‘उन दिनों मैं मिथिला के पास सिद्धाश्रम में तपोलीन था। अनेकों आध्यात्मिक आविष्कार मैंने इन्हीं दिनों किए थे। इसी समय मेरा आरण्यक मुनि से सम्पर्क हुआ। वह सिद्धाश्रम से थोड़ी ही दूर पर एक साधारण कुटी में निवास करते थे। मायावी राक्षसों-निशाचरों-दैत्यों की संघातक माया ने सभी ऋषियों-मुनियों, मनस्वियों व तपस्वियों को आक्रान्त कर रखा था। सभी भयाक्रान्त थे कि कब क्या हो जाय, कुछ पता नहीं। उन दिनों वन में कोई एकाकी रहने का साहस नहीं कर पा रहा था। सभी तपस्वी-यती समूह में रहना ही उचित समझते थे। अधिकतर जनों ने तो सिद्धाश्रम में आश्रय ले रखा था। इन्हीं में से किसी से मुझे पता चला कि मुनि आरण्यक निशाचरी माया के बीच एकाकी रह रहे हैं। उनके पास कोई भी अस्त्र-शस्त्र नहीं है, उनका न तो कोई रक्षक है न सहायक।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ६३

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...