बुधवार, 29 सितंबर 2021

👉 अपना दीपक स्वयं बनें: -

एक गांव मे अंधे पति-पत्नी रहते थे । इनके यहाँ एक सुन्दर बेटा पैदा हुआ जो अंधा नही था।

एक बार पत्नी रोटी बना रही थी उस समय बिल्ली रसोई मे घूस कर बनाई रोटियां खा गई।

बिल्ली की रसोई मे आने की रोज की आदत बन गई इस कारण दोनों को कई दिनों तक भूखा सोना पङा।

एक दिन किसी प्रकार से मालूम पङा कि रोटियां बिल्ली खा जाती है।

अब पत्नी जब रोटी बनाती उस समय पति दरवाजे के पास बांस का फटका लेकर जमीन पर पटकता।
इससे बिल्ली का आना बंद हो गया।

जब लङका बङा हुआ ओर शादी हुई।  बहु जब पहली बार रोटी बना रही थी तो उसका पति बांस का फटका लेकर बैठ गया औऱ फट फट करने लगा।

कई  दिन बीत जाने के बाद पत्नी ने उससे पुछा की तुम रोज रसोई के दरवाजे पर बैठ कर बांस का फटका क्यों पीटते हो?

पति ने जवाब दिया कि
ये हमारे घर की परम्परा है इस मैं रोज ऐसा कर रहा हुँ।

माँ बाप अंधे थे बिल्ली को देख नही पाते उनकी मजबूरी थी इसलिये फटका लगाते थे। बेटा तो आँख का अंधा नही था पर अकल का अंधा था। इसलिये वह भी ऐसा करता जैसा माँ बाप करते थे।

ऐसी ही दशा आज के समाज की है। पहले शिक्षा का अभाव था इसलिए पाखंड वादी लोग जिनका स्वयं का भला हो रहा था उनके पाखंड वादी मूल्यों को माना औऱ अपनाया। जिनके पिछे किसी प्रकार का लौजिक  नही है। लेकिन आज के पढे लिखे हम वही पाखंडता भरी परम्पराओं व रूढी वादिता के वशीभूत हो कर जीवन जी रहे हैं।

इसलिये सबसे पहले समझौ,जानो ओर तब मानो तो समाज मे परिवर्तन होगा ।

"अपना दीपक स्वयं बनें"

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ६९)

बन्धन क्या? मुक्ति कैसे?

अधिकांश क्षमता तो भव बन्धनों में ही पड़ी जकड़ी रहती है। भ्ज्ञव बन्धन क्या है? व्यामोह ही भव बन्धन है। भव बन्धनों में पड़ा हुआ प्राणी कराहता रहता है और हाथ पैर बंधे होने के कारण प्रगति पथ पर बढ़ सकने में असमर्थ रहता है। व्यामोह का माया कहते हैं।माया का अर्थ है नशे जैसी खुमारी जिसमें एक विशेष प्रकार की मस्ती होती है। साथ ही अपनी मूल स्थिति की विस्मृति भी जुड़ी रहती है। संक्षेप में विस्मृति और मस्ती के समन्वय को नशे की पिनक कहा जा सकता है, चेतना की इसी विचित्र स्थिति को माया, मूढ़ता, अविद्या, भव बन्धन आदि नामों से पुकारा जाता है।

ऐसी विडम्बना में किस कारण प्राणी बंधता, फंसता है? इस प्रश्न पर प्रकाश डालते हुए आत्म दृष्टाओं ने विषयवती वृत्ति को इसका दोषी बताया है। विषयवती वृत्ति की प्रबलता को बन्धन का मूल कारण बताते हुये महर्षि पातंजलि ने योग दर्शन के कुछ सूत्रों में वस्तुस्थिति पर प्रकाश डाला है।

विषयवती वा प्रवृत्तित्पत्रा मनसः स्थिति निबंधिनि ।
—यो. द. 1-35
सत्व पुरुषायोरत्यन्ता संकीर्णयोः प्रत्यया विशेषो भोगः । परार्धात्स्वार्थ संयतात्पुरुषा ज्ञानम् ।
—यो. द. 3-35
ततः प्रतिम श्रावण वेदनादर्शी स्वाद वार्ता जायन्ते ।
—यो. द. 3-36
उपरोक्त सूत्रीं में यह बताने का प्रयत्न किया गया है कि शारीरिक विषय विकारों में आसक्ति बढ़ जाने से जीव अपनी मूल स्थिति को भूल जाता है और उन रसास्वादनों में निमग्न होकर भव बन्धनों में बंधता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ १०७
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ६८)

भगवान को भावनाएँ अर्पित करने वाला कहलाता है भक्त

प्रतीक्षा के क्षणों में क्रमिक वृद्धि होती गयी। ऋषियों, देवों, सिद्धों, गन्धर्वों का समुदाय अपने मन, अन्तःकरण को भक्ति के भावप्रवाह में भिगोता रहा। बड़ा रसमय अनुभव हो रहा था सभी को। भक्ति, भक्त एवं भगवान की भावचर्चा जहाँ कहीं भी, जिस रूप में भी, जिस किसी के द्वारा भी होती है, वहाँ स्वयं ही भावों का अमृत प्रवाह उमगने लगता है। वहाँ अपने आप ही मन, अन्तःकरण शान्ति सुधा रस का अनुभव करने लगते हैं। तृप्ति, तुष्टि और शान्ति का जैसा अनुभव यहाँ होता है, वैसा और कहीं भी, किसी को भी नहीं होता। भावों का सरोवर ही एक ऐसा सरोवर है, जहाँ पर सभी का जी करता है कि डूबते रहें और डूबे ही रहें। हिमालय के सुपावन सान्निध्य में कुछ ऐसा ही सब अनुभव कर रहे थे। नीरवता और निःस्तब्धता अपनी परिभाषा को परिभाषित कर रही थी। काल बीत तो रहा था, परन्तु उसका ज्ञान किसी को नहीं था। सभी उसके प्रति निरपेक्ष, तटस्थ थे, परन्तु स्वयं काल भला कब किसी की ओर से निरपेक्ष रहा करता है।

उस सदा सजग, सचेष्ट एवं सक्रिय रहने वाले काल ने ब्रह्मर्षि क्रतु की भावसमाधि को भंग किया। ऋषियों में श्रेष्ठ क्रतु, बाह्य जगत् की ओर उन्मुख हुए। तभी एक हिमपक्षी ने सुरीली ध्वनि से निस्तब्धता-नीरवता में अपना स्वर घोला। इस स्वर में कुछ ऐसा था जैसे कि वह हिमपक्षी भी अगले सूत्र की जिज्ञासा को उजागर कर रहा हो। महर्षि क्रतु का ध्यान उस ओर गया। वह कुछ पलों तक मौन रहे, फिर उन्होंने देवर्षि नारद की ओर देखा। देवर्षि ने महर्षि क्रतु के नेत्रों में उनके अभिप्राय को पढ़ लिया। वह समझ गए कि वीतराग महर्षि अगले सूत्र के उच्चारण का संकेत कर रहे हैं। वैसे भी अब तक सभी के मन, भावों के अगम प्रवाह से बाहर आ चुके हैं। उन सबको अगले सूत्र के प्रकट होने की त्वरा थी।

इन शुभ क्षणों को पहचान कर देवर्षि ने अपनी संगीतमयी स्वर लहरियों के साथ उच्चारित किया-  
‘स्वयं फलरूपतेति ब्रह्मकुमाराः’॥ ३०॥

ब्रह्मकुमारों (सनत्कुमारादि) के मत से भक्ति स्वयं फलरूपा है। इस सूत्र का उच्चारण करके देवर्षि पुनः मौन हो गए। उन्हें इस तरह शान्त देखकर ब्रह्मर्षि क्रतु ने कहा- ‘‘निःसन्देह देवर्षि! ब्रह्मकुमारों का कथन सत्य है। भक्ति में साधना, साधन एवं सिद्धि तीनों ही अन्तर्लीन हैं। जो भक्ति करते हैं- उन्हें किसी अन्य तत्त्व एवं सत्य की आवश्यकता नहीं रहती। वह भक्ति में सब कुछ पा लेते हैं।’’ क्रतु के इस कथन पर सप्तर्षियों ने अपनी सहमति जतायी। अन्य ऋषियों एवं देवगणों ने भी प्रसन्नता जाहिर की। हालांकि, अब भी सबको इस सूत्र के सत्य को विस्तार से जानने का मन था। उत्सुकता थी कि ब्रह्मकुमारों के मत का और देवर्षि के कथन का रहस्यार्थ जानें। भक्ति का सत्य एवं भक्त की गाथा सुनें। सभी के इन मनोभावों को देवर्षि ने अपने मन में अनुभव किया।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १२३

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...