रविवार, 2 फ़रवरी 2020

👉 वासन्ती हूक, उमंग और उल्लास यदि आ जाए जीवन में (अंतिम भाग)

आज के दिन हमने अपने ब्रह्मवर्चस का उद्घाटन कराया था। ब्रह्मवर्चस एक सिद्धान्त है कि मनुष्य के भीतर अनन्त शक्तियों का जखीरा सोया हुआ है जिसे जगाना है। जगाने के लिए तप करना पड़ता है। तप करके हम अपने भीतर सोए हुए स्रोतों को जगा सकते हैं, उभार सकते हैं। तप करने का सिद्धान्त यह है, जिससे खाने-पीने से लेकर ब्रह्मवर्चस के नियम पालने तक के बहिरंग तप आते है और भीतर वाले तप में हम अपनी अन्तरात्मा और चेतना को तपा डालते हैं। तप करने से शक्तियाँ आती हैं, मनुष्य में देवत्व का उदय होता है। मनुष्य में देवत्व का उदय करने के लिए सामान्य जीवन में आस्तिकता अपनानी और बहिरंग जीवन में तपश्चर्या करनी पड़ती है। आस्तिकता का अर्थ नेक जीवन और तपश्चर्या का अर्थ लोकहित के लिए, सिद्धान्तों के लिए मुसीबतें सहने से है। तप करने की शिक्षा ब्रह्मवर्चस द्वारा सिखाते हैं। यह एक प्रतीक है, सिम्बल है, एक स्थान है। मनुष्य के भीतर देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण—यही हमारे दो सपने हैं। हमारी कुण्डलिनी और शक्तिपात इन्हीं दो प्रयोजनों में काम आती हैं, तीसरे किसी प्रयोजन में नहीं। तपपरायण और लोकोपयोगी जीवन यही मनुष्य में देवत्व का उदय है।

धरती पर स्वर्ग के वातावरण का क्या मतलब है? अच्छे वातावरण को स्वर्ग बैकुण्ठ में ही नहीं वरन् जमीन पर भी हो सकता है। जहाँ अच्छे आदमी, शरीफ आदमी, अच्छी नीयत के आदमी ठीक परम्परा को अपनाकर भले आदमियों के तरीके से रहते हैं वहीं स्वर्ग पैदा हो जाता है। हम चाहते थे कि धरती पर स्वर्ग बनाने के लिए कोई एक ऐसा मोहल्ला बना दें, एक ऐसा ग्राम बसा दें, जिसमें त्याग करने वाले, सेवा करने वाले लोग आएँ और वहाँ पर सिद्धान्तों के आधार पर जिएँ, हल्की-फुल्की, हँसती-हँसाती शान्ति की जिन्दगी जिएँ, मोहब्बत की जिन्दगी जिएँ और यह दिखा सकें कि लोकोपयोगी जिन्दगी भी जी जा सकती है क्या? धरती पर इसका एक नमूना बनाने के लिए हमने गायत्री नगर बसाया है। और आपको दावत देते हैं कि आप अपने बच्चे को संस्कारवान नहीं बना सकते तो उसको हमारे सुपुर्द कर दीजिए। आप कौन हैं? हम वाल्मीकि ऋषि हैं और वाल्मीकि ऋषि के तरीके से आपके बच्चों को लव-कुश बना सकते हैं। आपकी औरत को तपस्विनी सीता बना सकते हैं। दोनों संस्थाओं की वसन्त पंचमी के दिन इसीलिए स्थापना की गई है। आस्तिकता के लिए, ज्ञानयज्ञ के लिए, विचार-क्रान्ति के लिए यह एक नमूना है।

तपश्चर्या के सिद्धान्तों को प्राणवान बनाने के लिए, ज्ञान-विज्ञान के लिए, ब्रह्मवर्चस और आस्तिकता को जीवित करने के लिए, धरती पर स्वर्ग पैदा करने के लिए, हिल-मिलकर रहने और त्याग, बलिदान, सेवा की जिन्दगी जीने के लिए गायत्री नगर बसाया गया है। लोग यहाँ हमारा प्यार पाने के लिए, संस्कार पाने के लिए, आदर्श पाने के लिए, प्रेरणा पाने के लिए, प्रकाश पाने के लिए आते हैं। नैमिषारण्य क्षेत्र में शौनक और सूत का संवाद होता था। सारे ब्राह्मण बैठते थे, ज्ञान-ध्यान की बातें करते थे और लोकोपयोगी जीवन जीते थे। मेरा भी मन था कि ‘एकदा नैमिषारण्ये’ के तरीके से स्नेहवश लोग यहाँ आएँ और हिल-मिलकर काम करें, समाज सेवा की बातें करें, दूसरों को उठाने की बातें करें। हम एक ऐसी दुनिया बसाना चाहते हैं, ऐसा नगर बसाना चाहते हैं, जिससे दुनिया को दिखा सकें कि भावी जीवन, भावी संसार अगर होगा तो स्वर्ग जैसा कैसे बनाया जा सकेगा? स्वर्ग में शान्ति का, परमार्थ का जीवन जीने के लिए क्या-क्या तकलीफें आ सकती हैं? ऐसा हम गायत्री नगर का उद्घाटन करते हैं। चूँकि हमारे गुरु ने यही दिया और उसके लिए वायदा किया कि तेरा ऊँचा उद्देश्य है, तो तेरे लिए कमी नहीं पड़ेगी। मैं भी आपको विश्वास दिलाता हूँ कि अगर आपके जीवन में उद्देश्य ऊँचे हों तो आपको कमी नहीं रहेगी, कोई अभाव नहीं रहेगा। मेरी एक ही इच्छा और एक ही कामना रही है कि वसन्त पर्व के दिन आपको बुलाऊँ और अपने भीतर जो पक्ष है, उस पिटारी को खोलकर दिखाऊँ कि मेरे अन्दर कितना दर्द है? कितनी करुणा है? जीवन को पवित्र बनाने की कितनी संवेदना है? कितना देवत्व है? यही खोलकर आपको दिखाना चाहता था। अगर आपको ये चीजें पसन्द हों तो मैं चाहता हूँ कि आप इन चीजों को देखें, इनको परखें, छुएँ और अगर हिम्मत हो तो इनको खरीद ही ले जाएँ।
ॐ शान्ति।

.....समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 कर्म फल

एक बार शंकर जी पार्वती जी भ्रमण पर निकले। रास्ते में उन्होंने देखा कि एक तालाब में कई बच्चे तैर रहे थे, लेकिन एक बच्चा उदास मुद्रा में बैठा था। पार्वती जी ने शंकर जी से पूछा, यह बच्चा उदास क्यों है? शंकर जी ने कहा, बच्चे को ध्यान से देखो। पार्वती जी ने देखा, बच्चे के दोनों हाथ नही थे, जिस कारण वो तैर नही पा रहा था। पार्वती जी ने शंकर जी से कहा कि आप शक्ति से इस बच्चे को हाथ दे दो ताकि वो भी तैर सके।

शंकर जी ने कहा, हम किसी के कर्म में हस्तक्षेप नही कर सकते हैं क्योंकि हर आत्मा अपने कर्मो के फल द्वारा ही अपना काम अदा करती है। पार्वती जी ने बार बार विनती की। आखिरकर शंकर जी ने उसे हाथ दे दिए। वह बच्चा भी पानी में तैरने लगा।

एक सप्ताह बाद शंकर जी पार्वती जी फिर वहाँ से गुज़रे। इस बार मामला उल्टा था, सिर्फ वही बच्चा तैर रहा था और बाकी सब बच्चे बाहर थे। पार्वती जी ने पूछा यह क्या है ? शंकर जी ने कहा, ध्यान से देखो। देखा तो वह बच्चा दूसरे बच्चों को पानी में डुबो रहा था इसलिए सब बच्चे भाग रहे थे। शंकर जी ने जवाब दिया : हर व्यक्ति अपने कर्मो के अनुसार फल भोगता है। भगवान किसी के कर्मो के फेर में नही पड़ते है। उसने पिछले जन्मो में हाथों द्वारा यही कार्य किया था इसलिए उसके हाथ नही थे। हाथ देने से पुनः वह दूसरों की हानि करने लगा है।

प्रकृति नियम के अनुसार चलती है, किसी के साथ कोई पक्षपात नही। आत्माएँ जब ऊपर से नीचे आती हैं तो अच्छी ही होती हैं, कर्मो अनुसार कोई अपाहिज है तो कोई भिखारी, तो कोई गरीब तो कोई अमीर लेकिन सब परिवर्तन शील है। अगर महलों में रहकर या पैसे के नशे में आज कोई बुरा काम करता है तो कल उसका भुगतान तो सबको करना ही पड़ेगा।

👉 प्रत्याहार - क्या है ?

प्रत्याहार - (आष्‍टांग योग का पाँचवा अंग)  क्या है ?

ऋषिजन कहते है कि इंद्रियों के व्यर्थ स्खलन को रोकें और उसे उस दिशा में लगाएँ जिससे आपका जीवन सुख और शांतिमय व्यतीत हो।

अष्टांगयोग का पाँचवाँ अंग प्रत्याहार है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार यह पाँच योग के बाहरी अंग हैं अर्थात योग में प्रवेश करने की भूमिका मात्र।

जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है उसी प्रकार इंद्रियों को इन घातक वासनाओं से विमुख कर अपनी आंतरिकता की ओर मोड़ देने का प्रयास करना ही प्रत्याहार है।

क्या है वासनाएँ : काम, क्रोध, लोभ, मोह यह तो मोटे-मोटे नाम हैं, लेकिन व्यक्ति उन कई बाहरी बातों में रत रहता है जो आज के आधुनिक समाज की उपज हैं जैसे शराबखोरी, सिनेमाई दर्शन और चार्चाएँ, अत्यधिक शोरपूर्ण संगीत, अति भोजन जिसमें माँस भक्षण के प्रति आसक्ति, महत्वाकांक्षाओं की अंधी दौड़ और ऐसी अनेक बातें जिससे क‍ि पाँचों इंद्रियों पर अधिक भार पड़ता है और अंतत: वह समयपूर्व निढाल हो बीमारियों की चपेट में आ जाती है।

नुकसान : आँख रूप को, नाक गंध को, जीभ स्वाद को, कान शब्द को और त्वचा स्पर्श को भोगती है। भोगने की इस वृत्ति की जब अति होती है तो इस सबसे मन में विकार की वृद्धि होती है। ये भोग जैसे-जैसे बढ़ते हैं, इंद्रियाँ सक्रिय होकर मन को विक्षिप्त करती रहती हैं। मन ज्यादा व्यग्र तथा व्याकुल होने लगता है, जिससे शक्ति का क्षय होता है।

उपाय : इंद्रियों को भोगों से दूर करने तथा इंद्रियों के रुख को भीतर की ओर मोड़कर स्थिर रखने के लिए प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए। प्राणायाम के अभ्यास से इंद्रियाँ स्थिर हो जाती हैं। सभी विषय समाप्त हो जाते हैं। अतः प्राणायाम के अभ्यास से प्रत्याहार की स्थिति अपने आप बनने लगती है। दूसरा उपाय है रोज सुबह और शाम पाँच से तीस मिनट का ध्यान। इस सबके बावजूद अदि आपके भीतर संकल्प है तो आप संकल्प मात्र से ही प्रत्याहार की स्थिति में हो सकते हैं। हालाँकि प्रत्याहार को साधने के हठयोग में कई तरीके बताए गए हैं।

लाभ : यम, नियम, आसन और प्राणायम को साधने से प्रत्याहार स्वत: ही सध जाता है। इसके सधने से व्यक्ति का एनर्जी लेवल बढ़ता है। पवित्रता के कारण ओज में निखार आता है। किसी भी प्रकार के रोग शरीर और मन के पास फटकते तक नहीं हैं। आत्मविश्‍वास और विचार क्षमता बढ़ जाती है, जिससे धारणा सिद्धि में सहयोग मिलता है। खासकर यह अनंत में छलाँग लगाने के लिए स्वयं के तैयार होने की स्थिति है।

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...