मंगलवार, 1 जून 2021

👉 गुरु दक्षिणा

एक बार एक शिष्य ने विनम्रतापूर्वक अपने गुरु जी से पूछा- ‘गुरु जी, कुछ लोग कहते हैं कि जीवन एक संघर्ष है, कुछ अन्य कहते हैं कि जीवन एक खेल है और कुछ जीवन को एक उत्सव की संज्ञा देते हैं। इनमें कौन सही है?’

गुरु जी ने तत्काल बड़े ही धैर्यपूर्वक उत्तर दिया- ‘पुत्र,जिन्हें गुरु नहीं मिला उनके लिए जीवन एक संघर्ष है; जिन्हें गुरु मिल गया उनका जीवन एक खेल है और जो लोग गुरु द्वारा बताये गए मार्ग पर चलने लगते हैं, मात्र वे ही जीवन को एक उत्सव का नाम देने का साहस जुटा पाते हैं।’

यह उत्तर सुनने के बाद भी शिष्य पूरी तरह से संतुष्ट न था। गुरु जी को इसका आभास हो गया।वे कहने लगे- ‘लो,तुम्हें इसी सन्दर्भ में एक कहानी सुनाता हूँ। ध्यान से सुनोगे तो स्वयं ही अपने प्रश्न का उत्तर पा सकोगे।’

उन्होंने जो कहानी सुनाई, वह इस प्रकार थी-

एक बार की बात है कि किसी गुरुकुल में तीन शिष्यों नें अपना अध्ययन सम्पूर्ण करने पर अपने गुरु जी से यह बताने के लिए विनती की कि उन्हें गुरुदाक्षिणा में, उनसे क्या चाहिए।गुरु जी पहले तो मंद-मंद मुस्कराये और फिर बड़े स्नेहपूर्वक कहने लगे- ‘मुझे तुमसे गुरुदक्षिणा में एक थैला भर के सूखी पत्तियां चाहिए, ला सकोगे?’

वे तीनों मन ही मन बहुत प्रसन्न हुए क्योंकि उन्हें लगा कि वे बड़ी आसानी से अपने गुरु जी की इच्छा पूरी कर सकेंगे। सूखी पत्तियाँ तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती हैं| वे उत्साहपूर्वक एक ही स्वर में बोले- "जी गुरु जी, जैसी आपकी आज्ञा।’'
 
अब वे तीनों शिष्य चलते-चलते एक समीपस्थ जंगल में पहूंच चुके थे।लेकिन यह देखकर कि वहाँ पर तो सूखी पत्तियाँ केवल एक मुट्ठी भर ही थीं, उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वे सोच में पड़ गये कि आखिर जंगल से कौन सूखी पत्तियां उठा कर ले गया होगा? इतने में ही उन्हें दूर से आता हुआ कोई किसान दिखाई दिया।वे उसके पास पहुँच कर, उससे विनम्रतापूर्वक याचना करने लगे कि वह उन्हें केवल एक थैला भर सूखी पत्तियां दे दे। अब उस किसान ने उनसे क्षमायाचना करते हुए, उन्हें यह बताया कि वह उनकी मदद नहीं कर सकता क्योंकि उसने सूखी पत्तियों का ईंधन के रूप में पहले ही उपयोग कर लिया था। अब, वे तीनों, पास में ही बसे एक गाँव की ओर इस आशा से बढ़ने लगे थे कि हो सकता है वहाँ उस गाँव में उनकी कोई सहायता कर सके। वहाँ पहूंच कर उन्होंने जब एक व्यापारी को देखा तो बड़ी उम्मीद से उससे एक थैला भर सूखी पत्तियां देने के लिए प्रार्थना करने लगे लेकिन उन्हें फिर से एकबार निराशा ही हाथ आई क्योंकि उस व्यापारी ने तो, पहले ही, कुछ पैसे कमाने के लिए सूखी पत्तियों के दोने बनाकर बेच दिए थे लेकिन उस व्यापारी ने उदारता दिखाते हुए उन्हें एक बूढी माँ का पता बताया जो सूखी पत्तियां एकत्रित किया करती थी। पर भाग्य ने यहाँ पर भी उनका साथ नहीं दिया क्योंकि वह बूढी माँ तो उन पत्तियों को अलग-अलग करके कई प्रकार की ओषधियाँ बनाया करती थी।।अब निराश होकर वे तीनों खाली हाथ ही गुरुकुल लौट गये।

गुरु जी ने उन्हें देखते ही स्नेह पूर्वक पूछा- ‘पुत्रो, ले आये गुरुदक्षिणा?’  

तीनों ने सर झुका लिया।

गुरू जी द्वारा दोबारा पूछे जाने पर उनमें से एक शिष्य कहने लगा-  ‘गुरुदेव, हम आपकी इच्छा पूरी नहीं कर पाये। हमने सोचा था कि सूखी पत्तियां तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती होंगी लेकिन बड़े ही आश्चर्य की बात है कि लोग उनका भी कितनी तरह से उपयोग करते हैं।"   

गुरु जी फिर पहले ही की तरह मुस्कराते हुए प्रेमपूर्वक बोले- ‘निराश क्यों होते हो? प्रसन्न हो जाओ और यही ज्ञान कि सूखी पत्तियां भी व्यर्थ नहीं हुआ करतीं बल्कि उनके भी अनेक उपयोग हुआ करते हैं; मुझे गुरुदक्षिणा के रूप में दे दो।’

तीनों शिष्य गुरु जी को प्रणाम करके खुशी-खुशी अपने-अपने घर की ओर चले गये।
       
वह शिष्य जो गुरु जी की कहानी एकाग्रचित्त हो कर सुन रहा था, अचानक बड़े उत्साह से बोला- ‘गुरु जी,अब मुझे अच्छी तरह से ज्ञात हो गया है कि आप क्या कहना चाहते हैं।आप का संकेत, वस्तुतः इसी ओर है न कि जब सर्वत्र सुलभ सूखी पत्तियां भी निरर्थक या बेकार नहीं होती हैं तो फिर हम कैसे, किसी भी वस्तु या व्यक्ति को छोटा और महत्त्वहीन मान कर उसका तिरस्कार कर सकते हैं? चींटी से लेकर हाथी तक और सुई से लेकर तलवार तक-सभी का अपना-अपना महत्त्व होता है।’

गुरु जी भी तुरंत ही बोले- ‘हाँ, पुत्र, मेरे कहने का भी यही तात्पर्य है कि हम जब भी किसी से मिलें तो उसे यथायोग्य मान देने का भरसक प्रयास करें ताकि आपस में स्नेह, सद्भावना, सहानुभूति एवं सहिष्णुता का विस्तार होता रहे और हमारा जीवन संघर्ष के बजाय उत्सव बन सके। दूसरे, यदि जीवन को एक खेल ही माना जाए तो बेहतर यही होगा कि हम निर्विक्षेप, स्वस्थ एवं शांत प्रतियोगिता में ही भाग लें और अपने निष्पादन तथा निर्माण को ऊंचाई के शिखर पर ले जाने का अथक प्रयास करें।’

"यदि हम मन, वचन और कर्म- इन तीनों ही स्तरों पर इस कहानी का मूल्यांकन करें, तो भी यह कहानी खरी ही उतरेगी। सब के प्रति पूर्वाग्रह से मुक्त मन वाला व्यक्ति अपने वचनों से कभी भी किसी को आहत करने का दुःसाहस नहीं करता और उसकी यही ऊर्जा उसके पुरुषार्थ के मार्ग की समस्त बाधाओं को हर लेती है। वस्तुतः, हमारे जीवन का सबसे बड़ा ‘उत्सव’  पुरुषार्थ ही होता है-ऐसा विद्वानों का मत है।

अब शिष्य पूरी तरह से संतुष्ट था।

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग २६)

सुख का केन्द्र और स्रोत आत्मा

किसी की यह धारणा सर्वथा मिथ्या है कि सुख का निवास किन्हीं पदार्थों में है। यदि ऐसा रहा होता तो वे सारे पदार्थ जिन्हें सुखदायक माना जाता है, सबको समान रूप से सुखी और सन्तुष्ट रखते अथवा उन पदार्थों के मिल जाने पर मनुष्य सहज ही सुख सम्पन्न हो जाता किन्तु ऐसा देखा नहीं जाता। संसार में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जिन्हें संसार के वे सारे पदार्थ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं, जिन्हें सुख का संराधक माना जाता है। किन्तु ऐसे सम्पन्न व्यक्ति भी असन्तोष, अशान्ति, अतृप्ति अथवा शोक सन्तापों से जलते देखे जाते हैं। उनके उपलब्ध पदार्थ उनका दुःख मिटाने में जरा भी सहायक नहीं हो पाते।

वास्तविक बात यह है कि संसार के सारे पदार्थ जड़ होते हैं। जड़ तो जड़ ही है। उसमें अपनी कोई क्षमता नहीं होती। न तो जड़ पदार्थ किसी को स्वयं सुख दें सकते हैं और न दुःख। क्योंकि उनमें न तो सुखद तत्व होते हैं और न दुःखद तत्व और न उनमें सक्रियता ही होती है, जिससे वे किसी को अपनी विशेषता से प्रभावित कर सकें। यह मनुष्य का अपना आत्म-तत्व ही होता है, जो उससे सम्बन्ध स्थापित करके उसे सुखद या दुःखद बना लेता है। आत्म तत्व की उन्मुखता ही किसी पदार्थ को किसी के लिये सुखद और किसी के लिये दुःखद बना देती है।

जिस समय मनुष्य का आत्म-तत्व सुखोन्मुख होकर पदार्थ से सम्बन्ध स्थापित करता है, वह सुखद बन जाता है और जब आत्मतत्व दुःखोन्मुख होकर सम्बन्ध स्थापित करता है, तब वही पदार्थ उसके लिये दुःखद बन जाता है। संसार के सारे पदार्थ जड़ हैं, वे अपनी ओर से न तो किसी को सुख दें सकते हैं और दुःख। यह मनुष्य का अपना आत्म-तत्व ही होता है, जो सम्बन्धित होकर उनको दुःखदायी अथवा सुखदायी बना देता है। यह धारणा कि सुख की उपलब्धि पदार्थों द्वारा होती है, सर्वथा मिथ्या और अज्ञानपूर्ण है।

किन्तु खेद है कि मनुष्य अज्ञानवश सुख-दुःख के इस रहस्य पर विश्वास नहीं करते और सत्य की खोज संसार के जड़ पदार्थों में किया करते हैं। पदार्थों को सुख का दाता मानकर उन्हें ही संचय करने में अपना बहुमूल्य जीवन बेकार में गंवा देते हैं। केवल इतना ही नहीं कि वे सुख आत्मा में नहीं करते बल्कि पदार्थों के चक्कर में फंसकर उनका संचय करने लिये अकरणीय कार्य तक किया करते हैं। झूंठ, फरेब, मक्कारी, भ्रष्टाचार, बेईमानी आदि के अपराध और पाप तक करने में तत्पर रहते हैं। सुख का निवास पदार्थों में नहीं आत्मा में है। उसे खोजने और पाने के लिये पदार्थों की ओर नहीं आत्मा की ओर उन्मुख होना चाहिए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ४२
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग २६)

मर्यादाओं का रक्षक है भक्त

यमुना से थोड़ी ही दूर लेकिन उनकी कुटी के पास ही महर्षि शमीक का गुरुकुल था। उस युग में जबकि जाति-वंश, कुलीन-अकुलीन की विभाजक रेखाओं से समाज बँटा हुआ था, उस समय भी उनके गुरुकुल में ‘जाति वंश सब एक समान-मानव मात्र एक समान’ के अनुसार ही आचरण होता था। अध्ययन, अध्यापन, तप एवं भक्ति यही जीवन था महर्षि का। लोक मर्यादाओं एवं वेद आज्ञाओं का महर्षि निष्ठापूर्वक पालन करते थे।
    
त्रिकाल सन्ध्यावन्दन, गायत्री जप, नियमित यज्ञ, एकादशी आदि पर्वों पर व्रत करना महर्षि शमीक कभी नहीं भूलते थे। समय के साथ उनके शरीर को जरा अवस्था ने घेर लिया। महर्षि व्यास जब उनसे मिले थे, वह पर्याप्त वृद्ध हो चुके थे। उनके सिर के बाल पूरी तरह से श्वेत हो चुके थे। मुख पर यतिं्कचित झुर्रियाँ आ चुकी थीं, परन्तु उनके नेत्रों में अनोखी प्रदीप्ति थी और वाणी में मधुरता एवं ओज का अनूठा सम्मिश्रण था।

प्रातःकाल जिस समय भगवान वेदव्यास महर्षि शमीक से मिले थे। वह सन्ध्या, यज्ञ आदि नित्यकर्मों को समाप्त कर गो-सेवा कर रहे थे। आश्रम में रहने वाली गायों की सेवा कार्य में महर्षि शमीक स्वयं लगते थे। हालाँकि उनके साथ आश्रम के अंतेवासी भी कार्यरत होते थे, परन्तु आचार्य शमीक का उत्साह देखते ही बनता था। आश्रम में अध्ययन करने वाले ब्रह्मचारियों एवं अन्य आचार्यगणों के मना करने पर भी उस गुरुकुल के कुलपति आचार्य शमीक अन्य सभी छोटे-बड़़े कार्यों को स्वयं करते थे।
    
प्रातःबेला में वेदव्यास जब आचार्य शमीक के गुरुकुल पहुँचे तो कुलपति शमीक अपने सेवा कार्यों में लगे हुए थे। ज्यों ही उन्होंने ऋषि व्यास को देखा, े लगभग दौड़ते हुए ऋषि को साष्टांग प्रणाम किया। महर्षि व्यास ने उन्हें झटपट उठाकर छाती से लगा लिया। वह महर्षि व्यास का हाथ थामकर उन्हें पास ही के कदम्ब वृक्ष के पास ले गये। आश्रम के ब्रह्मचारियों ने वहाँ पहले से ही दमसिन बिछा रखे थे। दोनों महर्षि वहाँ बैठकर तत्त्वचर्चा करने लग गये। कुछ ही पलों में गुरुकुल के एक आचार्य दो ब्रह्मचारियों के साथ प्रातराश लेकर आ गये।
    
प्रातराश को वहीं पास में रखकर वह आचार्य, ब्रह्मचारियों के साथ हाथ जोड़कर खड़े हो गये। उन्हें इस तरह कुछ देर खड़े हुए देख महर्षि व्यास ने उनसे प्रश्न किया- ‘‘तुम्हें कुछ कहना है वत्स?’’ ‘‘हाँ भगवन्! यदि आप अनुमति दें तो।’’ आचार्य के साथ ही वे दोनों ब्रह्मचारी बोल पड़े। ‘‘कहो! वत्स कहो-क्या कहना है?’’ भगवान व्यास के अनुमति देने के बाद वे आचार्य अपने ब्रह्मचारियों के साथ कहने लगे- ‘‘भगवन्! हमारे कुलपति आचार्य शमीक अब दीर्घायु हो चुके हैं। अब हम सबके होते हुए क्या उन्हें इस तरह से आश्रम के छोटे-छोटे कार्यों को करते हुए थकना चाहिए। आप उन्हें समझाएँ कि वे स्वयं सेवाकार्य न करके यदि हम सबको अपना मार्गदर्शन दें तो ठीक होगा।’’
    
जब ये आश्रमवासी महर्षि व्यास से अपनी बात कह रहे थे तो ऋषि शमीक मन्द-मन्द मुस्करा रहे थे। इनके कथन की समाप्ति पर व्यास ने ऋषि शमीक के मुख की ओर देखा। उनकी आँखों में प्रश्न की रेखा थी। शमीक समझ गये और कहले लगे- ‘‘भगवन! आप तो शास्त्रों के रचनाकार हैं। लोक मान्यता एवं वेद वचन के मर्मज्ञ विद्वान हैं। क्या हम भगवद्भक्तों को लोक एवं वेद की अवज्ञा करनी चाहिए?’’ आचार्य शमीक के इस प्रश्न के उत्तर में भगवान व्यास ने उनसे एक नया प्रश्न किया- ‘‘आचार्य आप तो भक्ति की परम भावदशा को पा चुके हैं। आप सभी विधि-निषेध से परे हैं। ऐसे में भला आपको ये लघु मर्यादाएँ कहाँ बाँध सकती हैं?’’ महर्षि व्यास के प्रश्न के उत्तर में गम्भीर होते हुए आचार्य शमीक कहने लगे- ‘‘जब तक शरीर है तब तक मर्यादाओं का रक्षण अनिवार्य है और फिर भक्त को ऐसा कोई आचरण नहीं करना चाहिए, जिससे भगवान की पावन महिमा को ठेस पहुँचे।’’
    
अपनी स्मृतियों में सँजोयी इस कथा को कहते हुए व्यास जी ने कहा- ‘‘भक्त शमीक की कथा सचमुच ही इस सूत्र की जीवन्त व्याख्या है।’’ इस कथा को सुनकर सभी ने भगवान व्यास को साधुवाद दिया और बोले- ‘‘सचमुच ही शास्त्र का रक्षण भक्त का कर्त्तव्य है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ५३

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...