शनिवार, 9 मार्च 2019

Agar Chahte Ho Nijh Rakhsha | अगर चाहते हो निज रक्षा |



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Make Your Life an Offering | जीवन को यज्ञमय बनाओ | हारिये न हिम्मत | दिन 4



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👉 मेरी बहन

बाजार से घर लौटते वक्त एक लड़की का कुछ खाने का मन किया तो, वह रास्ते में खड़े ठेले वाले के पास भेलपूरी लेने के लिए रूक गयी। उसे अकेली खड़ी देख, पास ही बनी एक पान की दुकान पर खड़े कुछ मनचले भी वहाँ आ गये।

उन लड़कों की घूरती आँखे लड़की को असहज कर रही थी, पर वह ठेले वाले को पहले पैसे दे चुकी थी, इसलिए मन कड़ा करके खड़ी रही। द्विअर्थी (Double meaning) गानों के बोल के साथ साथ आँखों में लगी अदृश्य (Invisible) दूरबीन से सब लड़के उसकी शारीरीक सरंचना का निरिक्षण कर रहे थे।

उकताकर वह कभी दुपट्टे को सही करती तो कभी ठेले वाले से और जल्दी करने को कहती। उन मनचलों की जुगलबंदी अभी चल ही रही थी कि कबाब में हड्डी की तरह एक बाईक सवार युवक वहाँ आकर रूका। बाईक सवार युवक ने लड़की से कहा :- "अरे पूनम... तू यहाँ क्या कर रही है ?

हम्म..! अपने भाई से छुपकर पेट पूजा हो रही है। संभावित खतरे को भाँपकर वो सभी मनचले तुरंत इधर उधर खिसक लिये।

समस्या से मिले अनपेक्षित समाधान से लड़की ने राहत की साँस ली फिर असमंजस भरे भाव के साथ उस बाईक सवार युवक से कहा ":- माफ किजिए, मेरा नाम एकता है।

आपको शायद गलतफहमी हुई है, मैं आपकी बहन नही हूँ।" "मैं जानता हूँ...! मगर किसी की तो बहन हो.." इतना कहकर युवक ने मुस्कुराते हुए हेलमेट पहना और अपने रास्ते चल दिया।

हम में से बहुत से लोग रोज आते जाते रास्तों पर ऐसे नजारे देखते हैं, जहाँ कुछ सड़क छाप रोमियों आते जाते लड़कियों पर कमेंट करते हैं, लेकिन हम लोग अपनी आँखें ये सोच कर बंद कर लेते हैं, वो कौन सी मेरी बहन लगती हैं???

और अगर वो सच में आप की बहन हो तब?? अगर उस लड़की की जगह आप की बहन होती और बचाने वाला लड़का भी यही सब सोचता तो?

लोग लड़कियों को परेशान करने की हिम्मत तब ही कर पाते हैं, जब हम जैसे लोग अन्धे व बहरे बन जाते हैं।

मित्रों हमारा आप सभी से एक निवेदन है कि अगर आप रास्ते में किसी भी लड़की को परेशान होते हुए देखें तो उसकी मदद वैसे ही करें जैसे आप अपनी बहन की करते हैं।....

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👉 समाधि का सत्य

साधक समाधि की अभीप्सा करते हैं। लेकिन यह समाधि है क्या? इस सत्य की अनुभूति विरले ही कर पाते हैं। कुछ कहते हैं- बूंद का सागर में मिल जाना समाधि है, तो कोई सागर के बूंद में उतर जाने को समाधि कहते हैं। पर जिन्हें समाधि के सत्य की अनुभूति हुई है, वे बताते हैं- बूंद और सागर दोनों का मिट जाना समाधि है। जहाँ न बूंद है, न सागर है, वहीं समाधि है। जहाँ न एक है, न अनेक है, वहीं समाधि है। जहाँ न सीमा है, न असीम है, वहीं समाधि है।
  
प्रभु के साथ घुल-मिलकर एक हो जाना समाधि है। सत्य, चैतन्य और शान्ति इसी के नाम हैं। ‘जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं।’ महात्मा कबीर की इस अनुभूति में समाधि के इसी सत्य की अभिव्यक्ति है। ‘मैं’ समाधि में नहीं होता है, बल्कि यूँ कहें कि जब मैं नहीं होता, तब जो कुछ भी होता है, वही समाधि है और शायद यह ‘मैं’ जो कि मैं नहीं है, वास्तविक मैं है।
  
दरअसल ‘मैं’ की दो सत्ताएँ हैं- अहं और ब्रह्म। अहं वह है, जो मैं नहीं हूँ, फिर भी हमेशा मैं जैसा प्रतीत होता है। ब्रह्म वह है, जो वास्तव में मैं है, लेकिन जो मैं जैसा एकदम नहीं भासता। आत्मचेतना, शुद्ध चैतन्य ब्रह्म यही अपना असली स्वरूप है। यही समाधि में अनुभव होने वाला सत्य है।
  
अपने वास्तविक स्वरूप में हम सभी शुद्ध साक्षी, चैतन्य हैं, पर विचारों के चक्रवात में उलझ जाने के कारण यह सच्चाई समझ में नहीं आती। यथार्थ में ‘विचार’ अपने आप में चेतना नहीं है, बल्कि जो विचार को जानता है, देखता है, वही चैतन्य है। विचार विषय है, चेतना विषयी है। जब चेतना अपने को भूल जाती है, अपने को विचारों में खो देती है, तो इसी को प्रसुप्त अवस्था या असमाधि कहते हैं।
  
इसके विपरीत जब चेतना अपने आप को विचारों के मकड़जाल से मुक्त कर लेती है, तब उसे समाधि का अनुभव होता है। संक्षेप में चेतना की निर्विचार अवस्था ही समाधि है। विचार शून्यता में आत्मचेतना का जागरण सत्य और सत्ता के द्वार खोल देता है। सत्ता अर्थात् विराट् भगवत् चेतना। इसमें जागरण ही तो समाधि सत्य का अनुभव है। इसी को पाने के लिए समस्त जाग्रत् आत्माएँ प्रेरित करती रहती हैं।

✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से

👉 आज का सद्चिंतन 9 March 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 9 March 2019


👉 उपासना और सेवा धर्म का प्रयोग साथ साथ

गुणों का अभ्यास क्रियाओं के द्वारा किया जाता है। तैरना सीखने के लिए तालाब में उतरना पड़ता है। पहलवानी सीखने वाले अखाड़े का आश्रय लेते हैं। संगीत सीखने वाले बाजों की सहायता लेते हैं। ईश्वर-भक्ति की भावना बढ़ाने के लिए पूजा-उपासना में संलग्न होना पड़ता है। शिक्षार्थी को कॉपी, पुस्तक, कलम, दवात का उपयोग करने की आवश्यकता होती है। वैज्ञानिकों को अपने अन्वेषण कार्य में अनेक प्रकार के यंत्रों, रसायनिक द्रव्यों और प्रयोगशालाओं की जरूरत होती है।

सद्गुणों का अभ्यास बढ़ाने के लिए सत्कर्मों में लगे रहने का कार्यक्रम बनाना पड़ता है। केवल चाहने या सोचने से सद्गुणों का अभ्यास नहीं हो सकता, उनमें गहरी आस्था उत्पन्न नहीं हो सकती। इसलिए जो सद्गुणों की उपयोगिता और महत्व को अनुभव करते हों उनको अपने भीतर जमा हुआ देखना चाहते हों, उनके लिए आवश्यक है कि अपने दैनिक जीवन में किसी न किसी रूप में सत्कार्यों का व्यवहार अवश्य करते रहें। जो विचार उपयोगी प्रतीत होते हैं उन्हें कार्यान्वित करने के लिए भी तत्पर रहें।

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६

👉 Worship and Service to Humanity Should be Done Together

Virtues can be learned and integrated in life by putting them into practice. One has to plunge into a pool to learn swimming. One has to go to a wrestling club to learn wrestling. One has to take help of musical instrument to learn music. In the same way, one must regularly perform worship and related rituals to enhance their feelings of devotion to God.

Student needs to use notepad, book, pen, ink, etc. to study.Scientists need many types of equipment, chemicals and a laboratory to carry out their scientific investigations. Similarly, one will have to set up a routine of staying occupied in doing good deeds in order to learn and ingrain good virtues in their life.

One cannot acquire any virtue or develop a deep devotion to it just by thinking about it or having a desire to acquire it (but doing nothing actively about it). Therefore, if you do experience the usefulness and importance of certain good virtues and really wish to integrate them in your life, you should start constantly applying them on daily basis in at least some sort of good deeds. You should be willing to put into action any thought or idea you may feel to be useful.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Yug Nirman Yojna - philosophy, format and program -66 (3.53)

👉 गुरू गोविन्दसिंह के पाँच प्यारे

गुरु गोविन्दसिंह ने एक ऐसा ही नरमेध यज्ञ किया। उक्त अवसर पर उन्होंने घोषणा की-"भाइयो। देश की स्वाधीनता पाने और अन्याय से मुक्ति के लिए चण्डी बलिदान चाहती है, तुम से जो अपना सिर दे सकता हो, वह आगे आये। गुरु गोविन्दसिंह की मांग का सामना करने का किसी में साहस नहीं हो रहा था, तभी दयाराम नामक एक युवक आगे बढ़ा। " गुरु उसे एक तरफ ले गये और तलवार चला दी, रक्त की धार बह निकली, लोग भयभीत हो उठे। तभी गुरु गोविन्दसिंह फिर सामने आये और पुकार लगाई अब कौन सिर कटाने आता है। एक-एक कर क्रमश: धर्मदास, मोहकमचन्द, हिम्मतराय तथा साहबचन्द आये और उनके शीश भी काट लिए गये। बस अब मैदान साफ था कोई आगे बढ़ने को तैयार न हुआ।

गुरु गोविन्दसिंह अब उन पाँचों को बाहर निकाल लाये। विस्मित लोगों को बताया यह तो निष्ठा और सामर्थ्य की परीक्षा थी, वस्तुत: सिर तो बकरों के काटे गये। तभी भीड़ में से हमारा बलिदान लो-हमारा भी बलिदान लो की आवाज आने लगी। गुरु ने हँसकर कहा-"यह पाँच ही तुम पाँच हजार के बराबर है। जिनमें निष्ठा और संघर्ष की शक्ति न हो उन हजारों से निष्ठावान् पाँच अच्छे?'' इतिहास जानता है इन्हीं पाँच प्यारो ने सिख संगठन को मजबूत बनाया।

जो अवतार प्रकटीकरण के समय सोये नहीं रहते, परिस्थिति और प्रयोजन को पहचान कर इनके काम में लग जाते है, वे ही श्रेय-सौभाग्य के अधिकारी होते हैं, अग्रगामी कहलाते है।

📖 प्रज्ञा पुराण भाग १

👉 प्रज्ञा पुराण (भाग 1) श्लोक 34 से 36

संयुक्तश्च प्रयासोSयं कर्त्तव्यो नारद शृणु ।
प्रेरयामि तु सम्पर्कं कुरु साधय पोषय॥३४॥
वरिष्ठात्मान एवं च त्यक्त्वा सर्वा: प्रसुप्तिका:।
युगमानवकार्यं च साधयिष्यन्ति पोषिता:॥३५॥
अनेनागमनं ते तु ममामन्त्रणमेव च ।
उभयपक्षगतं सिद्धं प्रयोजनमिदं तत:॥३६॥

टीका:- हे नारद! इसके लिए हम लोग संयुक्त प्रयास करें। हम प्रेरणा भरें, आप सम्पर्क साधें और उभारे। इस प्रकार वरिष्ठ आत्माओं की प्रसुप्ति जागेगी और वे युग मानवों की भूमिका निभा सकने में समर्थ हो सकेंगे। इससे आपके आगमन और हमारे आमन्त्रण का उभयपक्षीय प्रयोजन पूरा होगा॥३४-३६॥

व्याख्या:- संयुक्त प्रयास ही हमेशा फलदायी होते हैं। प्रेरणा निराकार सत्ता की तथा किसी अन्य द्वारा उसका सुनियोजित क्रियान्वयन-दोनों मिलकर प्रयोजन को समग्र-सफल बनाते हैं।

रामकृष्ण परमहंस तथा विवेकानन्द, समर्थ गुरु रामदास तथा शिवाजी, श्रीकृष्ण और अर्जुन, राम और हजुमान, स्वामी विरजानन्दजी तथा दयानन्द ऐसे संयुक्त प्रयासों के उदाहरण हैं। प्रेरणा हमेशा इसी रूप में आती है और पार्षद उसे क्रियानित करते हैं।

भगवान् की चेतना और जाग्रत आत्माओं का सहयोग इस उदाहरण से समझा जा सकता है जिसमें कम शक्ति-सामर्थ्य होते हुए भी दो व्यक्ति मिलकर परस्पर पूरक बन गये।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञा पुराण (भाग १) पृष्ठ 17

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...