सोमवार, 29 मई 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 29 May 2023

गीता एक ऐसे समाज की कल्पना करती है, जिसमें प्रत्येक मानव को स्वतंत्रता और समानता का अधिकार है। मनुष्य और मनुष्य के बीच धर्म, जाति, वर्ण, लिंग और धन की दीवारें नहीं हैं। प्रत्येक मानव अपने स्वभाव के अनुसार अनासक्त और निष्काम होकर मानव जाति की सेवा में लगा रहना अपना कर्त्तव्य समझता है तथा अकर्मण्यता, आलस्य और असुरता को त्याज्य मानता है। उसकी अपनी कामनाएँ नहीं हैं। समाज की प्रगति और संपन्नता ही उसकी प्रगति और संपन्नता है।

परिवार का संतुलन सही रखना हो तो मोह से बचते हुए कर्त्तव्य तक सीमित रहना होगा। परिवार के लोगों के प्रति असाधारण मोह ही उनका स्तर गिराने और अपने कर्त्तव्य च्युत होने का प्रधान कारण होता है। यदि परिजनों की उचित-अनुचित माँगों को, प्रसन्नता-अप्रसन्नता को महत्त्व न दिया जाय और विवेक दृष्टि रखते हुए उनके कल्याण एवं अपने कर्त्तव्य भर की बात सोची जाय तो प्रत्येक परिवार का स्तर ऊँचा रह सकता है और उसमें से नर-रत्नों के उत्पन्न होने का आधार बन सकता है।

आदर्शवादी जीवन जीने का-महानता के प्रगति पथ पर चलने का हर किसी को अवसर मिल सकता है, यदि वासना, तृष्णा पर अंकुश रखा जाय और श्रेष्ठता अभिवर्धन की साध को जीवन्त, ज्योतिर्मय बनाया जाय। यह अति सरल है व कठिन भी। सरल इन अर्थों में कि निर्वाह के साधन सरल हैं, वे महानता के मार्ग पर चलते हुए भी सहज ही उपलब्ध होते रह सकते हैं। कठिन इसलिए कि पशु प्रवृत्तियों से पिण्ड छुड़ाना अति साहस का काम है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 जिन्दगी जीनी हो तो इस तरह जिये (अन्तिम भाग)

उत्साह और उल्लास बना रहने के लिए यह आवश्यक है कि अपने सामने कोई दूरगामी लक्ष्य रहे और यहाँ तक पहुँचने के लिए सोचने और करने के लिए बहुत कुछ काम सामने रहे। जीवन का आनन्द तभी तक है जब तक उसने सामने कुछ काम है। जिस दिन व्यक्ति पूर्णतया निश्चित होता है उस दिन या तो वह परमहंस होता है या जड़ मध्यवृत्ति के व्यक्ति के लिए यह स्थिति निरानन्द है और उसमें निराशा एवं निष्क्रियता मिश्रित थकान की ही अनुभूति होगी। उसे सोचना या करना भले ही कुछ न पड़े पर साथ ही आशा एवं तत्परता की ओर प्रेरित करने वाले उल्लास भरे प्रकाश से वंचित ही रहना पड़ेगा

जिम्मेदारियाँ दूसरों पर डालने की इच्छा इसलिए होती है कि उत्तरदायित्व का वजन उठाना कायर और कमजोरों को बहुत भारी प्रतीत होता है। वे पगडंडी ढूँढ़ते हैं और ऐसे सरल रास्ते बच निकलने की बात सोचते हैं जिसमें अपने ऊपर कुछ बोझ न पड़े पर वस्तुतः इसमें भटकाव के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं। उत्थान और पतन का ही नहीं।, सुख और दुःख का उत्तरदायित्व भी हमें अपने ऊपर लेना चाहिए और सफलता असफलता की अपनी ही जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए। हम अपने भाग्य के निर्माता स्वयं है।

वर्तमान में जो परिस्थितियाँ सामने खड़ी है उनमें यत्किंचित् दूसरे भी निमित्त हो सकते हैं पर अधिकतर अपनी ही रीति-नीति और गतिविधियों की प्रतिक्रिया सामने रहती है। भविष्य में भी जो कुछ होना या बनना है उस में भी अपने ही क्रिया-कलापों के प्रतिफल सामने होगे। दूसरों का सहयोग अवरोध एक सीमा तक ही हमारा भला बुरा कर सकता है। तथ्य यह है कि अपना व्यक्तित्व ही हर दिशा में प्रतिध्वनि की तरह गूँजता है।

किन्हीं असफलताओं के लिए दूसरों को दोष देने की अपेक्षा यह अधिक लाभदायक है कि हम अपनी उन त्रुटियों को ढूँढ़े जिनके कारण सफलता से वंचित रहना पड़ा इसी तरह प्रगति की दिशा में जितने कदम बढ़ सके उनके पीछे उस सुव्यवस्थित रीति-नीति को समझे जिसे अपना कर हम स्वयं ही नहीं और भी कितने ही लोग आगे बढ़ सकने में समर्थ हुए हैं। सद्गुण ही किसी को ऊँचा उठा सकते ओर आगे बढ़ा सकते हैं। यह रहस्य जिन्हें विदित हो सका वे अपने को परिष्कृत करने में जुटते हैं ताकि एक के बाद दूसरी उत्कर्ष की परतें खुलती चलें।

.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- जनवरी 1973 पृष्ठ 35

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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...