रविवार, 9 अप्रैल 2017

👉 आज का सद्चिंतन 10 April 2017



👉 प्रेरणादायक प्रसंग 10 April 2017


👉 आकाश में खड़ा था अदृश्य गोवर्धन?

🔴 घटना २४ दिसम्बर २०१० से २ जनवरी २०११ के बीच की है।  अहमदाबाद के सोला रोड पर पारस नगर के पास के ग्राउण्ड में गायत्री शक्तिपीठ शाहीबाग द्वारा एक विशाल पुस्तक मेले का आयोजन किया गया।

🔵 देव संस्कृति विश्वविद्यालय के कुलाधिपति श्रद्धेय डॉ. साहब ने मेले की भव्यता देख कर कहा कि उन्होंने अपने जीवन में ऐसा विशाल पुस्तक मेला दूसरा नहीं देखा।

🔴 इस मेले में परम पूज्य गुरुदेव की ३२०० पुस्तकों में से २८०० पुस्तकों की प्रदर्शनी लगी थी। इसके अतिरिक्त १३२ स्टॉलों पर सवा करोड़ रुपये मूल्य की पुस्तकें  विक्रय के लिए लगी थीं। इन स्टॉलों पर दस हजार व्यक्ति एक साथ खड़े होकर साहित्य खरीद सकते थे। पुस्तक मेला के मण्डप के विस्तार का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता था कि इसमें १५,००० व्यक्तियों के एक साथ बैठने की व्यवस्था भी की गई थी। साथ ही, विशिष्ट अतिथियों के लिए सभागार तथा वाचनालय भी बनाए गए थे। पूरा मण्डप बारीक चमकीले कपड़े से बना था, जिससे उसकी सुन्दरता अवर्णनीय हो गई थी।

🔵 प्रतिदिन सुबह नौ बजे से रात के दस बजे तक मेले में प्रतिनिधियों का ताँता लगा रहता था। एक स्टॉल पर दस कार्यकर्त्ता पुस्तक विक्रय के कार्य में संलग्न रहते थे। इस प्रकार व्यवस्था सम्बन्धी अन्य कार्यों में संलग्न व्यक्तियों को लेकर लगभग १,५०० कार्यकर्त्ता दो अलग- अलग पालियों में आते थे।

🔴 बात २८ दिसम्बर की रात की है। रोज की भाँति दूसरी पाली के १,५०० कार्यकर्त्ताओं ने रात के दस बजे अपना- अपना काम समेटा और भोजनोपरान्त घर को चले। दूर- दराज से आने वाले कार्यकर्त्ताओं के लिए वाहन की व्यवस्था की गई थी। फिर भी पंडाल की किताबों को व्यवस्थित करने के बाद घर पहुँचते- पहुँचते उन्हें रात के बारह बज जाया करते थे। उस रात भी दिन भर के थके- माँदे ये सभी कार्यकर्ता घर पहुँचते ही गहरी नींद में सो गए।

🔵 मेला आयोजकों में मैं भी शामिल था। इसलिए सभी कुछ व्यवस्थित कर अंतिम टोली के साथ मैं घर के लिए चला। दिनभर की थकावट के कारण बिस्तर पर जाते ही गहरी नींद में सो गया। अचानक रात के डेढ़ बजे मेरी नींद टूटी। बाहर जाकर देखा- आसमान में गहरे बादल छाए हुए थे। मौसम का मिजाज देख मुझे काठ मार गया। मैं जडवत खड़ा था। अचानक बारिश की कुछ बूदें मेरी हथेली पर आ गिरीं। घबराकर जैसे चेतना पूरी तरह सजग हो उठी। तेज बारिश हुई, तो झीने कपड़े की छत के नीचे रखी हुई सवा करोड़ मूल्य की अनूठी पुस्तकों का क्या होगा। मैं तेजी से घर के अन्दर आया और पुस्तक मेला के पास में रह रहे परिजन, ट्रस्टी श्री वी.पी. सिन्हा को फोन करके जगाया।   

🔴 वस्तुस्थिति जानकर सिन्हा जी काँप उठे। उन्होंने समर्पित युवा कार्यकर्त्ता श्री हेमराज त्रिवेदी को फोन मिलाया। सुबह से देर रात तक की भाग दौड़ से थक कर त्रिवेदी जी बेसुध सोए पड़े थे। बार- बार फोन मिलाने पर आखिरकार फोन की घंटी ने उन्हें जगा ही दिया। स्थिति की विकटता को समझते ही वे तेजी से हरकत में आए। आसपास के सौ से अधिक लोगों को फोन मिलाकर कहा कि वे सभी तुरंत पुस्तक मेला कम्पाउण्ड में पहुँचें।       

🔵 अब तक मूसलाधार वर्षा होने लगी थी। वर्षा में भागे- भागे आसपास के आठ- दस युवकों को लेकर अपने वाहन से मेला स्थल पर पहुँचे। गाड़ी रोक कर हम सभी तेजी से भाग कर पंडाल में आये और भोजनालय तथा इधर- उधर से प्लास्टिक सीट उठा कर पुस्तकों को ढकने लगे। वहाँ पर उपलब्ध प्लास्टिक की चादरों से किसी तरह आधी पुस्तकें ढकी जा सकीं। शेष आधी पुस्तकों के लिए क्या किया जाय- इस चिंता में जब हमने इधर- उधर नजर दौड़ाई, देखा कि जिस पंडाल के नीचे हम खड़े हैं उस पंडाल पर पानी की एक बूँद भी नहीं पड़ी है।

🔴 सामने की सड़क के उस पार मूसलाधार वर्षा हो रही है। मुख्य ट्रस्टी बहिन दीना को भी फोन करके वस्तुस्थिति की जानकारी दी गई थी। जब उन्हें इस प्राकृतिक प्रकोप से बचने का कोई उपाय नहीं सूझा, तब वह परम पूज्य गुरुदेव का ध्यान करके इन्द्रदेव के प्रकोप से रक्षा करने की प्रार्थना करने लगीं।

🔵 गुरुसत्ता ने उनकी प्रार्थना सुनी। उनके द्वारा अनमोल पुस्तकों के भंडार को बचाया गया, ठीक वैसे ही जैसे गोवर्द्धन की आड़ में गोकुल की रक्षा हुई थी। पंडाल के पीछे की ओर इंजीनियरिंग कॉलेज के पास के पूरे क्षेत्र में बादल गरज- गरज कर बरस रहा है। उधर पुस्तक मेला के नीचे पण्डाल के नीचे सारी देव प्रतिमाएँ पूरी तरह सुरक्षित हैं। एक- एक कर सौ से अधिक युवा कार्यकर्ता एकत्र हो चुके थे। पंडाल को पूरी तरह सुरक्षित देखकर भी उन्हें अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। वे अंधों की तरह टटोल- टटोल कर काउन्टर पर सजी हुई किताबों को देख रहे थे।

🔴 सारी की सारी किताबें पूरी तरह से सूखी और सुरक्षित थीं। महाकाल के अवतार की इस अनिर्वचनीय अनुकम्पा से हम सभी अभिभूत थे। एक करोड़ से भी अधिक के निश्चित नुकसान से बच जाने की खुशी हमसे सम्हाले नहीं सम्हल रही थी। सभी की आँखों में खुशी के आँसू तैरने लगे थे।                   
  
🌹 एस. के. पाण्डेय, आरा (बिहार)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Samsarn/won/sky

👉 बंजर

🔴 चौधरी साहब की हवेली में आज बड़ी रौनक थी। ढोलक की थाप पूरे घर में गूँज रही थी। आज उनके घर उनकी छोटी बहू की मुहं दिखाई थी। सुनीता बहुत व्यस्त थी। सभी मेहमानों के आवभगत की ज़िम्मेदारी उसी पर थी। सभी सुनीता की तारीफ कर रहे थे। वाही थी जो अपनी छोटी चचेरी बहन प्रभा को अपनी देवरानी बना कर लाई थी। प्रभा के रूप और व्यवहार ने आते ही सब पर अपना जादू चला दिया था।

🔵 चाचा चाची के निधन के बाद प्रभा सुनीता के घर रह कर ही पली थी। सुनीता ने उस अनाथ लड़की को सदैव अपनी छोटी बहन सा स्नेह दिया था। यही कारण था कि उसे अपनी देवरानी बनाने की उसने पूरी कोशिश की थी। अपनी कोशिश में वह सफल भी हो गई।

🔴 दो वर्ष पूर्व सुनीता इस घर की बड़ी बहू बन कर आई थी। अपने सेवाभाव और हंसमुख स्वाभाव से वह सास ससुर पति देवर सबकी लाडली बन गई थी। पूरे घर पर उसका ही राज था। उसकी सलाह से ही सब कुछ होता था। कमी यदि थी तो बस यही कि अब तक वह माँ नहीं बन पाई थी। हालांकि उसके घरवालों ने कभी भी इस बात का ज़िक्र नहीं किया था किंतु आस पड़ोस में होने वाली कानाफूसी उसके कान में पड़ती रहती थी।

🔵 ब्याह के कुछ महीनों के बाद ही प्रभा के पांव भारी हो गए। पूरे घर में ख़ुशी की लहर दौड़ गई। सुनीता भी खुश थी। प्रभा को सुनीता के माँ ना बन पाने का दुःख था। उस अनाथ लड़की को स्नेह देने वाली सुनीता ही थी। अतः जब प्रभा ने अपने बेटे को जन्म दिया तो उसे सुनीता की गोद में ही सौंप दिया।

🔴 बच्चा सबको अपनी तरफ आकर्षित करता था। अतः उसका नाम मोहन रखा गया। मोहन सुनीता को ही अपनी माँ मानता था। उसी के हांथों से खाता और उसी की गोद में सोता था।

🔵 मोहन चार वर्ष का हो गया था। यूँ तो सब सही चल रहा था। किंतु धीरे धीरे सुनीता को यह महसूस होने लगा था कि घर में अब उसका वह स्थान नहीं रहा है जो पहले था। उस स्थान को अब प्रभा ने ले लिया है। इंसानी स्वभाव बड़ा विचित्र होता है। अपनी खुशियाँ बाँट कर हम गौरवान्वित होते हैं किंतु दूसरों को ख़ुद से अधिक प्रसन्न देख हमें ईर्ष्या होती है। सुनीता के साथ भी ऐसा ही हुआ। प्रभा की ख़ुशी से अब उसे ईर्ष्या होने लगी थी।

🔴 उसकी ईर्ष्या की परिणिति क्रोध में हो रही थी। जिसका केंद्र मोहन था। उसे लगता था कि प्रभा के बढ़ते रुतबे का कारण मोहन है। जहाँ पहले उसके ह्रदय में ममता का सागर हिलोरे मारता था वहीं अब केवल विष रह गया था। वह मोहन को रास्ते से हटाने की बात सोंचने लगी थी।

🔵 जल्दी ही उसे इसका मौका भी मिल गया। उसके ससुराल में किसी करीबी रिश्तेदार की शादी थी। सभी जाने को तैयार थे किंतु तभी मोहन को ज्वर हो गया। सुनीता ने सबसे कहा कि वो लोग चले जाएँ वह मोहन की देखभाल कर लेगी। प्रभा अपने बेटे को छोड़ कर जाना नहीं चाहती थी। किंतु सुनीता ने यह कह कर उसे मना लिया की वह उस पर यकीन रखे। प्रभा भारी मन से चली गई।

🔴 आधी रात को सुनीता आँगन में टहल रही थी। उसे किसी की प्रतीक्षा थी। कुछ देर बाद किसी ने धीरे से कुंडी खटखटाई। सुनीता ने द्वार खोल दिया। एक व्यक्ति ने अपनी पोटली से निकाल कर उसे एक टोकरी दी जिस पर ढक्कन लगा था। सुनीता ने उसे पैसे दिए और दरवाज़ा बंद कर लिया।

🔵 कमरे में मोहन सोया हुआ था। सुनीता ने टोकरी का ढक्कन खोल कर उसे फर्श पर रख दिया। एक काला ज़हरीला नाग निकल कर मोहन की तरफ बढ़ा। रात के सन्नाटे को चीरती हुई एक ह्रदय विदारक चीख ने आस पड़ोस को दहला दिया " हाय मेरे लाल को सांप ने डस लिया। " देखते ही देखते लोग घर में जमा हो गए। आँगन में बैठी सुनीता अपनी छाती पीट रही थी।

🔴 मोहन के जाने से पूरा घर हिल गया था। प्रभा स्वयं को कोसती थी कि क्यों वह अपने बीमार बच्चे को छोड़ कर चली गई।

🔵 जब सुनीता के दिल में छाए ईर्ष्या के बादल छंटे और क्रोध की ज्वाला शांत हुई तब उसे एहसास हुआ कि वह क्या कर बैठी है। उसने अपने ही हांथों खुद को बाँझ बना दिया। अब वह गुमसुम रहती थी। किसी से कुछ नहीं बोलती थी। उसके भीतर के सारे भाव सूख गए थे। वो बंजर हो गई थी।

👉 समय का सदुपयोग करें (भाग 3)

🌹 समय का सदुपयोग करें
🔴 ईश्वरचन्द्र विद्यासागर समय के बड़े पाबन्द थे। जब वे कॉलेज जाते तो रास्ते के दुकानदार अपनी घड़ियां उन्हें देखकर ठीक करते थे। वे जानते थे कि विद्यासागर कभी एक मिनट भी आगे पीछे नहीं चलते।

🔵 एक विद्वान ने अपने दरवाजे पर लिख रखा था। ‘‘कृपया बेकार मत बैठिये। यहां पधारने की कृपा की है तो मेरे काम में कुछ मदद भी कीजिये।’’ साधारण मनुष्य जिस समय को बेकार की बातों में खर्च करते रहते हैं, उसे विवेकशील लोग किसी उपयोगी कार्य में लगाते हैं। यही आदत हैं जो सामान्य श्रेणी के व्यक्तियों को भी सफलता के उच्च शिखर पर पहुंचा देती हैं। माजार्ट ने हर घड़ी उपयोगी कार्य में लगे रहना अपने जीवन का आदर्श बना लिया था। वह मृत्यु शैय्या पर पड़ा-पड़ा भी कुछ करता रहा। रेक्यूम नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ उसने मौत से लड़ते-लड़ते पूरा किया।

🔴 ब्रिटिश कॉमनवेल्थ और प्रोटेक्टरेट के मन्त्री का अत्यधिक व्यस्त उत्तरदायित्त्व वहन करते हुए मिल्टन ने ‘पैराडाइस लास्ट’ की रचना की। राजकाज से उसे बहुत कम समय मिल पाता था, तो भी जितने कुछ मिनट वह बचा पाता उसी में उस काव्य की रचना कर लेता। ईस्ट इंडिया हाउस की क्लर्की करते हुए जान स्टुआर्ट मिल ने अपने सर्वोत्तम ग्रन्थों की रचना की। गैलेलियो दवादारू बेचने का धंधा करता था तो भी उसने थोड़ा-थोड़ा समय बचाकर विज्ञान के महत्वपूर्ण आविष्कार कर डाले।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा (भाग 32)

🌹 बड़े प्रयोजन के लिये प्रतिभावानों की आवश्यकता
🔵 इक्कीसवीं सदी में अपनी-अपनी भावना और योग्यता के अनुरूप हर किसी को कुछ न कुछ करना ही चाहिये। व्यस्तता और अभावग्रस्तता के कुहासे में कुछ करना-धरना सूझ न पड़ता हो तो फिर अपनी मन:स्थिति और परिस्थिति का उल्लेख करते हुए शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार से परामर्श कर लेना चाहिये।                      

🔴 विशेषत: इस शताब्दी में प्रखर प्रतिभाओं की बड़ी संख्या में आवश्यकता पड़ेगी। पिछली शताब्दी में प्रदूषण फैला, दुर्भाव बढ़ा और कुप्रचलन का विस्तार हुआ है। उसमें सामान्यजनों का कम और प्रतिभाशालियों द्वारा किये गये अनर्थ का दोष अधिक है। अब सुधार की वेला आई है तो कचरा बिखेरने वाले वर्ग को ही उसकी सफाई का प्रायश्चित करना चाहिये। तोड़ने वाले मजदूर सस्ते मिल जाते हैं, किन्तु कलात्मक निर्माण करने के लिये अधिक कुशल कारीगर चाहिये। नवनिर्माण में लगाई जाने वाली प्रतिभाओं की दूरदृष्टि, कुशलता और तत्परता अधिक ऊँचे स्तर की चाहिये।

🔵 उनका अंतराल भी समुज्ज्वल होना चाहिये और बाह्य दृष्टि से इतना अवकाश एवं साधन भी उनके पास होना चाहिये ताकि अनावश्यक विलंब न हो और नये युग की क्षतिपूर्ति कर नवनिर्माण वे विश्वकर्मा जैसी तत्परता के साथ कर सकें; जो एकांगी न सोचें वरन् बहुमुखी आवश्यकताओं के हर पक्ष को सँभालने में अपनी दक्षता का परिचय दे सकें। यही निर्माण आज का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है। सृजेता ही कार्य संपन्न कर दिखाता है। मूकदर्शक तो खड़े-खड़े साक्षी की तरह देखते रहते हैं। ऐसी भीड़ में असुविधा ही बढ़ती है। गंदगी और गड़बड़ी फैलाते रहना ही अनगढ़ लोगों का काम होता है।

🔴 सृजेता की सृजन-प्रेरणा किस गति से चल रही है और उज्ज्वल भविष्य की निकटता में अब कितना विलंब है, इसकी जाँच-पड़ताल एक ही उपाय से हो सकती है कि कितनों के अंत:करण में उस परीक्षा की घड़ी में असाधारण कौशल दिखाने की उमंगे उठ रही हैं तथा स्वार्थ की अपेक्षा परमार्थ अपनाना कितना अधिक सुदृढ़ होता चला जाता है? समय की सबसे बड़ी आवश्यकता-नवसृजन-के लिये सोच तो कोई कुछ भी सकता है, पर क्रियारूप में कुछ कर पड़ना उन्हीं के लिये संभव हो सकता है, जो निजी महत्त्वाकांक्षाओं में कटौती करके अधिक से अधिक समय, श्रम, मनोयोग एवं साधनों को नियोजित कर सकें। भवन खड़ा करने के लिये ईंट, चूना, सीमेंट, लकड़ी, लोहा आदि अनिवार्य रूप से चाहिये। युगसृजन भी ऐसे ही अनेक साधनों की अपेक्षा करता है। उन्हें जुटाने के लिये पहला अनुदान अपने से ही प्रस्तुत करने वालों को ही यह आशा करनी चाहिये कि अन्य लोग भी उसका अनुकरण करेंगे; ऐसा समर्थन-सहयोग देने में उत्साह का प्रदर्शन करेंगे।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...