गुरुवार, 30 मार्च 2017

👉 नवरात्रि साधना का तत्वदर्शन (भाग 1)

परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी चैत्र नवरात्रि के परिप्रेक्ष्य में। 

11 अप्रैल 1981 को शाँतिकुँज हरिद्वार में आयोजित नवरात्रि सत्र में उनका समापन व्याख्यान।

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ बोलिए-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

🔴 मित्रो! नवरात्रि अब समाप्त होने जा रही है। आइए जरा विचार करें, इन दिनों हमने क्या किया व किस लिए किया? इन दोनों प्रश्नों के उत्तर ठीक तरह से सोच लेंगे तो यह संभावना भी साकार होती चली जायेगी कि इससे हमें क्या मिलना चाहिए व क्या फायदा होना चाहिए? आपकी सारी गतिविधियों पर हमने दृष्टि डाली व उसमें से निष्कर्ष निकालते हैं कि आपको अपने स्वाभाविक ढर्रे में हेर फेर करना पड़ा है। स्वाभाविक ढर्रा यह था कि आप बहुत देर तक सोये रहते थे। दिन में जब नींद आ गई सो गए, रात्रि देर तक जागते रहे । अब? अब हमने आपको दबोच दिया है कि सबेरे साढ़े तीन बजे उठना चाहिए। उठना ही पड़ेगा। नहाने का मन नहीं है। नहाना ही पड़ेगा। ये क्या है? यह हमने आपको दबोच दिया व पुराने ढर्रे में आमूलचूल हेरफेर कर दिया है।

🔵 आप क्या खाते थे हमें क्या मालूम ? आप नीबू का अचार भी खाते थे, चटनी भी खाते थे, जाने क्या-क्या खाते थे। हमने आपको दबोच दिया कहा-यह नहीं चल सकता। यह खाना पड़ेगा व अपने पर अंकुश लगाना पड़ेगा। टाइम का आपका कोई ठिकाना नहीं था। जब चाहा तब बैठ गए मन आया तो पूजा कर ली नहीं आया तो नहीं ही करी। अब आपको व्रत संकल्प के बंधनों में बाँधकर हमने दबोच दिया कि सत्ताईस माला तो नियमित रूप से करनी ही होगी। ढाई घंटे तो बैठना ही पड़ेगा। संकल्प लेने के बाद उसे पूरा नहीं करेंगे तो गायत्री माता नाराज होंगी, आपको पाप लगेगा, आप नरक में जायेंगे, अनुष्ठान खण्डित हो जायेगा, यह डर दिखाकर आपको दबोच दिया गया। पूर्व की गतिविधियों में हेर फेर करके आपको इस बात के लिए मजबूर जब किया गया कि जो आदतें अपने स्वभाव में नहीं है, उनका पालन भी करना आना चाहिए।

🔴 क्या नौ दिन काफी मात्र नहीं हैं? नहीं- नौ दिन काफी नहीं हैं ।यह अभ्यास है सारे जीवन को कैसा जिया जाना चाहिए, उसका। आप इस शिविर में आकर और कुछ सीख पाए कि नहीं पर एक बात अवश्य नोट करके जाना। क्या? वह है अध्यात्म की परिभाषा- अध्यात्म अर्थात् “साइंस ऑफ सोल”। अपने आपको सुधारने की विधा, अपने आपको सँभालने की विधा, अपने आपको समुन्नत करने की विधा। आपने तो यह समझा है कि अध्यात्म अर्थात् देवता को जाल में फँसाने की विधा, देवता की जेब काटने की विधा। आपने यही समझ रखा है न। मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि आप जो सोचते हैं बिल्कुल गलत है।


🔵 जब तक बेवकूफी से भरी बेकार की बातें आप अपने दिमाग में जड़ जमाए बैठे रहेंगे, झख ही झख मारते रहेंगे। खाली हाथ मारे-मारे फिरेंगे। आप देवता को समझते क्या हैं? देवता को कबूतर समझ रखा है जो दाना फला दिया और चुपके-चुपके कबूतर आने लगे। बहेलिया रास्ते में छिपकर बैठ गया, झटका दिया और कबूतर रूपी देवता फँस गया। दाना फेंककर, नैवेद्य फेंककर, धूपबत्ती फेंककर बहेलिये के तरीके से फँसाना चाहते हैं, उसका कचूमर निकालना चाहते हैं? इसी का नाम भजन है? तपश्चर्या, साधना क्या इसी को कहते हैं? योगाभ्यास सिद्धान्त यही है? मैं आपसे ही पूछता हूँ, जरा बताइए तो सही।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1992/April/v1.55

👉 आज का सद्चिंतन 30 March 2017


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 March 2017


👉 राष्ट्र-हित के लिए सर्वस्व का त्याग 30 Mar

🔴 स्वतंत्रता के अमर पुजारी महाराणा प्रताप मेवाड रक्षा का अंतिम प्रयास करते हुए भी निराश हो चले थे। सारा राज्य-वैभव समाप्त हो गया। अकबर की विशाल सेना का मुकाबला मुट्ठी भर राजपूत ही कर रहे थे। अपने शौर्य, पराक्रम और वीरता से उन्होंने दुश्मनों के दाँत खट्टे कर दिए थे, परंतु बेचारे करते क्या ? इधर अल्पसंख्यक राजपूत, उधर टिड्डी दल की तरह मुगलों की अपरमित सेना। जब एक सेना समाप्त हो जाती, दूसरी पुनः लडने के लिये भेज दी जाती। जब एक जगह को रसद पानी समाप्त हो जाता, दूसरे जगह से शीघ्र ही सहायतार्थ पहुँचा दिया जाता। अकबर की इस विशाल सेना और अतुल साधन का मुकाबला महाराणा अपने थोडे़ सैनिक और अल्प-साधनों से अब तक करते आ रहे थे।

🔵 अंत में समय ऐसा आ गया जब सारा धन और सारी सेना समाप्त हो गई। अब न पास में पैसा रहा और न अन्य साधन ही, जिससे पुनः सेना तैयार करते। मातृभूमि की रक्षा के लिये उपाय सोचे बिना नहीं चूके, परंतु क्या करते अब एक भी वश नहीं चल रहा था। उधर सेना बढ़ती ही चली आ रही थी। अरावली की पहाडियों में छिपकर जीवन बिता लेने की कोई सूरत न दीख रही थी। शत्रुदल वहाँ भी अपनी टोह लगाए बैठा हुआ था।

🔴 अपने जीवन की ऐसी विषम घडि़यों में एक दिन महाराणा व्यथित हृदय एकांत में विचार करने लगे- ''अब मातृभूमि की रक्षा न हो सकेगी। माँ की रक्षा न कर सकने वाले मुझ अभागे को इस समय देश का त्याग कर कम से कम अपनी रक्षा तो कर ही लेनी चाहिए, जिससे भविष्य में कभी दिन लौटे और पुनः माँ को शत्रु के हाथों से स्वतंत्र कर सकूँ।''

🔵 दूसरे दिन प्रात: अपने परिवार और बचे-खुचे साथियों सहित वे सिंध प्रदेश की तरफ चल दिए। अभी थोडी ही दूर गए ही होंगे कि पीछे से किसी ने आर्त्त भरी आवाज लगाई- 

🔴 "राणा ठहरो' हम अभी जीवित है।" राणा ने पीछे मुड़कर देखा तो राज्य के पुराने मंत्री भामाशाह दौडते-हॉफते हुए उनकी ओर चले आ रहे है। उन्होंने अभी-अभी राणा के देश त्याग का समाचार पाया था।

🔵 समीप पहुँचकर आँखें डबडबाते हुये भामा बोले- 'राजन्! आप निराश हो जायेंगे तो आशा फिर किसके सहारे जीवित रहेगी' मुख मलीन किए हुए राणा प्रताप बोले, मंत्रिवर! देश रक्षा के मेरे सारे साधन समाप्त हो चले। किसी साधन की खोज में ही कहीं चल पड़ा हूँ। यदि सुयोग हुआ तो फिर लौट सकूँगा, वर्ना सदा के लिये मातृभूमि से नाता तोड़ के जा रहा हूँ।"

🔴 स्वतंत्रता के पुजारी और मेवाड़ के सिंह की बातें बूढे भामाशाह के कलेजे में तीर जैसी जा चुभी। वे हाथ जोडकर बोले- "अपने घोड़े की बाग को मोडिये और नए सिरे से लडा़ई की तैयारी पूरी कीजिए। इसमें जो कुछ भी खर्च पड़ेगा उसे मैं दूँगा। मेरे पास आपके पूर्वजों की दी हुई पर्याप्त धनराशि पड़ी हुई है। जिस दिन मेवाड़ शत्रु के हाथों चला जायेगा, उस दिन वह अतुल सपत्ति भी तो उसी की हो जाएगी। फिर इससे अधिक सुयोग और क्या हो सकता है" जब मातृ-भूमि से उपार्जित कमाई का एक-एक पैसा उसकी रक्षा मे लगा दिया जाए।

🔵 भामाशाह के इस अपूर्व त्याग और देशभक्ति की बातें सुनकर महाराणा प्रताप का दिल भर आया। वे वापस लौटे और उस संपत्ति से एक विशाल सेना तैयार करके शत्रु से जा डटे और सफलता प्राप्त की। कहते हैं कि भामाशाह ने इतनी संपत्ति अर्पित की जिससे महाराणा की पच्चीस हजार सेना का बारह वर्ष तक खर्च चला था। भामाशाह चले गए और राणा भी अब नहीं हैं, पर उनकी कृतियाँ अब भी है और सदा रहेंगी। देश को जब भी आवश्यकता पडेगी, उनकी प्रेरणाएँ अनेक राणा तैयार करेगी और उसी प्रकार अनेक भामाशाह भी पैदा होते रहेंगे जो अपनी चिर-संचित पूँजी को मातृभूमि के रक्षार्थ अर्पण करते रहेंगे।

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...