रविवार, 24 दिसंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 24 Dec 2023

दूसरों की निन्दा सुनना हानिकारक है। क्योंकि वह झूठी हो तो व्यर्थ ही मन में भ्रम और दुर्भाव पैदा होकर अपनी मनः स्थिति की निंदा करते हैं और यदि वह निन्दा सच्ची हो तो न विचारने लायक तुच्छ मनुष्य के संबंध में विचारने से अपनी समय-क्षति होती है।

युग निर्माण आंदोलन अगले दिनों जिस प्रचंड रूप से मूर्तिमान होगा उसकी रहस्यमय भूमिका कम ही लोगो को विदित होगी, पर यह निश्चित है की वह आंदोलन बहुत ही प्रखर और प्रचंड रूप से उठेगा और पूर्ण सफल होगा । सफलता का श्रेय किन व्यक्तियों को, किन संस्थाओं को मिलेगा इससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं । पर होना यह निश्चित रूप से है ।

सच्ची बात अच्छी नहीं लगती और अच्छी लगने वाली बात सच्ची नहीं होती। अच्छाई कभी झगड़ा नहीं करती और झगड़ा कभी अच्छा नहीं होता । बुद्धिमान कभी ज्यादा बकवाद नहीं करते और ज्यादा बकवाद करने वाले कभी बुद्धिमान नही होते।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 मनोविकारों के दुष्परिणाम

दीन, हीन, दरिद्र, अभागे, पतित, क्षुद्र, निराश प्रकृति के लोग सदा दुख और पतन की ही बात सोचते हैं, उन्हें दुर्भाग्य का ही रोना रोते और भविष्य के निराशा पूर्ण चित्र बनाते हुए ही देखा जायेगा। इन्हें संयोगवश कुछ सुख साधन मिल भी जाय तो भी उनकी वेषभूषा, मुखाकृति, भावभंगिमा निराश और दीन मनुष्यों जैसी ही मिलेगी। चोर, उठाईगीरे व्यभिचारी लम्पट, प्रकृति के लोग दूसरों के धन पर, रूप यौवन पर ही लार टपकाते रहते हैं। बेईमान, रिश्वतखोर, ठग, धोखेबाज, डाकू प्रकृति के लोग दूसरों के खीसे पर ऐसे ही घात लगाये रहते हैं जैसे बगुला मछली को ताकता रहता है। ऐसे लोगों का मलीन मन भला कहीं चैन पा सकता है? वे अभागे यह नहीं जानते कि मानसिक स्वच्छता की भी कोई स्थिति इस संसार में होती है और उसे प्राप्त करने वाला स्वर्गीय सुख शान्ति का अनुभव कर सकता है।

मनोविकार अगणित प्रकार के हैं और वे सभी अपने-अपने ढंग के रोग हैं। शरीर के रोग को दूसरे भी जान सकते हैं पर मन का रोग भीतर छिपा होने से वह केवल रोगी को ही दीखता है। इतना अन्तर तो अवश्य है बाकी कष्टों में कोई अन्तर नहीं। सच तो यह है कि शरीर के कष्ट से मन का कष्ट अधिक दुखदायी होता है। बुखार में पड़े रोगी को जितनी पीड़ा है, पुत्र शोक से संतप्त व्यक्ति को उससे कहीं अधिक है। सिर दर्द की तुलना में अपमान और असफलता का दुख गहरा है। क्रुद्ध और कामासक्त मनुष्य जितना असंतुलित दीखता है उतना जुकाम खाँसी का मरीज नहीं। लोभी और स्वार्थी जितना पाप प्रवृत्त रहता है उतना भूखा और दरिद्र नहीं। रोगी मनुष्य स्वयं जितना व्यथित रहता है, और दूसरों को जितना दुख देता है उसकी अपेक्षा मनोविकार ग्रस्त का क्षेत्र अधिक विस्तृत है। वह स्वयं भी अधिक दुख पाता है और दूसरे अधिक लोगों को अधिक मात्रा में सताता भी है। इसलिए शारीरिक आरोग्य की जितनी आवश्यकता अनुभव की जाती है, मानसिक आरोग्य पर उससे भी अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962

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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...